21/01/2025
2023 में फिलिस्तीन का मुद्दा दफ्न करने की तैयारी थी। लोग 1947 से 1980 के दरमियान हुए इज़रायल के अनाधिकृत क़ब्ज़े को स्वीकार कर चुके थे। ज़ुल्म की दास्तान भुलाई जा चुकी थीं। लोग कहते थे इज़रायल वर्तमान का सत्य है और फिलिस्तीन अतीत। अरब इज़रायल से नार्मलाइज़ेशन डील कर रहे थे। ज़ाहिर है ये डील फिलिस्तीन की क़ब्र पर होनी थी।
2007 का मामला है। हमारे एक साथी ने एएमयू के कैनेडी हाल में एक प्रोग्राम के दौरान लॉन्ग लीव पैलेस्टीन का नारा लगा दिया। लोग ऐसे आंखे फाड़कर उन्हें देख रहे थे मानो उन्होंने ईश निंदा कर दी है। उनसे कहा गया कि यहां फिलिस्तीन से क्या लेना-देना और तुम क्यों माहौल बिगाड़ रहे हो। ये सब उस विश्वविद्यालय में हो रहा था जहां मुस्लिम और मुसलमान के नाम पर सबकुछ हो रहा है। ये इसलिए था क्योंकि लोगों के दिमाग़ पर से फिलिस्तीन में हुए ज़ुल्म की कहानियां धोकर साफ कर दी गई थीं। पहले फिलिस्तीन मुद्दे को बोझ बताया गया और फिर अगले 12-15 साल में तो अरब समेत मुस्लिम दुनिया में फिलिस्तीन नाम अछूत की बीमारी जैसा हो गया था।
इस बीच दुनिया में इज़रायल की छवि एक प्रोग्रेसीव, डेमोक्रेटिक, और इन्विंसिबल स्टेट की बनाई गई। लोग ज़ियोनी शासन की बेईमानी, लोगों के घर छीनने, स्थानीय जनता को मारकर उनके बदले दूसरे देशों के यहूदी बसाने, नागरिक अधिकार ख़त्म करने, और ग़ैर-मानवीय अपराधों पर आंखें बंद करके रहना सीख गए। फिलिस्तीनियों का संघर्ष यासिर अराफात पहले ही नोबेल पुरस्कार के बदले ओस्लो में बेच आए थे। अरबों ने अब्राहम अकाॅर्ड के ज़रिए फिलिस्तीनियों को ही बेच दिया। हमारी या हमसे पहले की पीढ़ी ने ये सब ज़ुल्म सिर्फ सुने थे, देखे नहीं थे। ज़ाहिर है आंखों देखी, कानों सुनी कहानी से ज़्यादा असर रखती है।
लोग 7 अक्टूबर 2023 की घटना और उसके बाद छिड़े युद्ध के लिए हमास और उसके साथियों को गाली दे सकते हैं लेकिन इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि फिलिस्तीनियों के साथ 1947 से लगातार जो 7 अक्टूबर जैसी कार्रवाई हो रही हैं उसका ज़िम्मेदार कौन है? फिलिस्तीनी दुनिया की सबसे बड़ी बेघर आबादी हैं। वो ऐसा मुल्क हैं जिनके हर घर में, हर पीढ़ी में दो तिहाई बच्चे या तो मार दिए जाते हैं, या घर से बेघर हो जाते हैं। इनकी बहुसंख्यक आबादी शरणार्थी शिविरों में जन्मी है और जेलों में पली है। आधी से ज़्यादा आबादी 50 साल की उम्र पार नहीं कर पाती।
यक़ीनन बम और बंदूक़ इंक़लाब नहीं लाते लेकिन जब दुनिया ऐसे मुद्दों पर आंखें बंद कर ले और कानों पर धूल की परत जमा ले तो लड़ाई ज़रूरी हो जाती है। पिछले डेढ़ साल का हासिल यही है कि फिलिस्तीन का दफ्न मुद्दा फिर से ज़िंदा हो गया। नार्मलाइज़ेशन डील दफ्न हो गईं। इज़रायल का डेमोक्रेटिक और इन्विंसिबल स्टेट का मुखौटा उतर गया। फिलिस्तीन की आज़ादी, टू स्टेट साल्यूशन और फिलिस्तीन की ऑटोनाॅमी जैसे सवाल फिर से उभर आए हैं।
फिलिस्तीन अब दुनियाभर में घर-घर का मुद्दा है। चाहे विरोध में या पक्ष में, लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। यूरोप और अमेरिका में नई पीढ़ी का इज़रायल के साथ अनकंडीशल लव ख़त्म हो गया है। यूरोप और अमेरिका में सहानुभूति की सुई इज़रायल से हटकर फिलिस्तीनियों की तरफ झुकती जा रही है। खेल के मैदान, संसद, चौक, चौराहे फिलिस्तीन का समर्थन देख रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से लेकर यूरोपीयन यूनियन तक ग़ज़ा में हुए युद्ध अपराधों पर सवाल उठ रहे हैं। इज़रायल से बाहर रह रहे यहूदी इन सवालों पर शर्मिंदा किए जा रहे हैं। अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देशों में फिलिस्तीन चुनावी मुद्दा बना है।
इसके नतीजे में कल ही फिलिस्तीन आज़ाद नहीं हो जाएगा। लेकिन इज़रायल अब पहले सी मनमानी ऐसे खुलकर नहीं चर पाएगा। लाख लोगों की लाश, जिनमें औरतें और बच्चे बहुसंख्यक हैं, लाखों घरों के मलबे, अस्पताल स्कूलों पर गिरते बम, ये सब चित्र हमारी पीढ़ी के ज़हनों में नक्श हो चुके हैं। अब कोई नहीं पूछेगा फिलिस्तीन में आख़िर इज़रायल ने किया क्या था? ये सब दुनिया ने नंगी आंखों से देख लिया। इज़रायली अब नैतिकता, मानवीयता, या बराबरी का चोला ओढ़कर किसी के सामने नहीं जा पाएंगे।
हमने बरसों बाद फिलिस्तीन की आज़ादी की मांग सुनी है। अब ये आवाज़ और बुलंद होगी। जिस तरह का समर्थन याहिया सिनवार की मौत के बाद उनके आंदोलन को मिला है वो मिटेगा नहीं। फिलिस्तीनियों से कहा जाता था तुम कैंप में रहकर लड़ते हो और तुम्हारे नेता टनल और आलीशान घरों में आराम फरमाते हैं। लोगों ने पाया कि उनके नेता भूखे प्यासे फ्रंट पर लड़ते हुए मारे गए। इस बात को कोई फिलिस्तीनी क़यामत तक भुला नहीं पाएगा।
डेढ़ साल में दुनिया ने फिलिस्तीनियों का जीवट और इज़रायल की सुपर स्टेट की लिमिटेशंस भी देख लीं।
यह भी साबित हुआ कि दुनिया का बड़े से बड़ा ज़ुल्म इंसान की आज़ाद रहने, बराबरी पाने और सम्मान के साथ ज़िंदा रहने की चाहत को मिटा नहीं सकता। इस दौरान फिलिस्तीनी न डरे और न बिके। दुनिया ने देखा मलबे के ढेर में, लाशों के दरमियान, और अपनों को खोकर भी किसी ने नहीं कहा कि हम समर्पण करने को तैयार हैं। यही फिलिस्तीन की जीत है। यक़ीनन जो लोग चले गए वो कभी आज़ादी देखने को वापस नहीं आएंगे लेकिन बच्चों को रोता बिलखता छोड़ गए हैं उनमें से बहुत होंगे जो अपने जीवन में आज़ाद फिलिस्तीन देखेंगे। लाज़िम है कि वो दिन भी जल्द आएगा।