28/09/2023
कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जब हम स्टेशन पर पहुंचे तो रेलगाड़ी हमारी आंखों के सामने से गुजर रही थी और हम उस पर नहीं चढ़ पाए। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि खूब घने बादल छाए और फिर बरसात नहीं हुई। कितनी ही बार यात्रा की योजनाएं बनाई और फिर नहीं जा पाए। कितनी दफा ऐसा हुआ कि भीड़ में कोई जाना पहचाना चेहरा दिखा और उसके बाद खो गया। कितनी ही ऐसा लगा कि बस हम जीत गए और फिर जीतते जीतते हार गए। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि परीक्षा देकर लौटने पर हमें लगा कि इस बार सफल हो जाएंगे लेकिन हम बस एक अंकों से असफल हो गए......
कितनी बार ऐसा लगता है कि जो कुछ हम खोज रहे हैं वह बस मिलने ही वाला है लेकिन फिर सबकुछ धुंधला हो जाता है। कितनी ही बार किसी पते को ढूंढते हुए हम किसी गली में मुड़ते हैं और फिर आगे जाकर पता चलता है कि हमें पीछे वाली गली में जाना था। कितनी ही बार फोन की घंटी बजती है और हम खुश होकर फोन की ओर भागते हैं और निराश होकर लौट आते हैं। कितनी ही बार ऐसा होता है कि डाकिए को आते देख उझल पड़ते हैं लेकिन वह हमारे घर के सामने नहीं रुकता......
कितनी ही बार ऐसा लगता है कि चलो एक और बार कोशिश कर लेते हैं और फिर से हार जाते हैं। कितनी ही बार हम उम्मीद करके आगे बढ़ते हैं और फिर उम्मीद टूट जाती है। कितनी बार.... न जाने कितनी बार.......
इन सबके बाद भी हम यात्राएं करते हैं, ट्रेन पकड़ते हैं, परीक्षा देते हैं, युद्ध के लिए तैयार होते हैं, फोन की तरफ उम्मीद से देखते हैं, डाकिए को देखकर मुस्कुराते हैं..... जीवन में हमेशा सबकुछ ठीक हो जाने की एक आख़िरी ही सही पर गुंजाइश बची रहती है। हम माने या न माने, एक दिन सबकुछ ठीक हो जाता है। अगर आज नहीं हुआ तो क्या.... फिर से सुबह होगी, फिर से सूरज निकलेगा, फिर से हम चलना शुरू करेंगे......