05/02/2024
मिहिरभोज गुर्जर वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था. यह रामभद्र का पुत्र था. इसकी माता का नाम अप्पा देवी था. इसका सर्वप्रथम अभिलेख वराह अभिलेख है जिसकी तिथि 893 विक्रम संवत् है. अतः इसका शासनकाल लगभग 836 ई. से प्रारंभ हुआ होगा. इसके शासनकाल की अंतिम तिथि 885 ई. थी.इसका सर्वाधिक प्रचलित अभिलेख ग्वालियर प्रशस्ति है जिससे इस वंश के बारें में काफी जानकारी मिलती है. इसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी स्थायी राजधानी कन्नौज को बनाया गया था. कश्मीरी कवि कल्हण की “राजतरंगिणी” में मिहिरभोज की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है. अरब यात्री “सुलेमान” ने मिहिरभोज को भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बताया है जिसने अरबों को रोक दिया था.
मिहिर भोज की उपलब्धियां :-
कालिंजर मंडल : मिहिरभोज ने कालिंजर पर अपने अधिकार की स्थापना वहां के चंदेल नरेश जयशक्ति को पराजित करके की थी.
गुर्जरात्र : इस प्रदेश पर पुनः अपना अधिकार करने के लिए मिहिरभोज को मंडौर की प्रतिहार शाखा के राजा बाऊक का दमन करना पड़ा था. यह अनुमान जोधपुर अभिलेख पर आधारित है. इस समय का दक्षिणी राजपुताना का चाहमान वंश भोज का अधीन था.
कलचुरी वंश : कलचुरी अभिलेख का कथन है की कलचुरी वंश के राजा गुणामबोधि देव को भोजदेव ने भूमि प्रदान की थी. अधिकांश विद्वानों के मत के अनुसार यह भोजदेव मिहिरभोज था. इस लेख से स्पष्ट होता है की कलचुरी वंश भोज ने अधीन था.
गुहिल वंश : चाटसू अभिलेख से प्रकट होता है की हर्षराज गुहिल ने गौड़ नरेश को पराजित किया व पूर्वी भारत के राजाओं से कर वसूल किए. भोज को उपहार स्वरूप घोड़े दिए थे. इस अभिलेख से प्रकट होता है की गुहिल नरेश भी भोज के अधीन था.
हरियाणा : 882 ई. के पिहोवा अभिलेख से सिद्ध होता है की भोजदेव के शासनकाल में कुछ व्यापारियों ने वहां के बाजार में घोड़ों का क्रय-विक्रय किया था. इस कथन से सिद्ध होता है की हरियाणा पर भी भोज का अधिकार थाराष्ट्रकुटों से युद्ध : अपने पूर्वजों की भांति भोज को भी राष्ट्रकूट राजाओं से युद्ध करना पड़ा था. इस बार युद्ध का श्रीगणेश स्वयं भोज ने किया था. उसने राष्ट्रकूट शासक को पराजित कर उज्जैन पर अधिकार कर लिया था. इस समय राष्ट्रकूट वंश में कृष्ण द्वितीय का शासन था.
पालों से युद्ध : भोज को अपने समकालीन पाल वंश के शासक देवपाल से भी युद्ध किया था. देवपाल पाल वंश का एक महान शासक था व भोज की भांति भारतवर्ष में अपना एकछत्र राज्य स्थापित करना चाहता था. देवपाल के बाद उसके उत्तराधिकारी नारायणपाल को भोज ने बुरी तरह पराजित किया था.
मिहिर भोज और अरब आक्रान्ता- मिहिर भोज के शासन सभालने के एक वर्ष के भीतर ही सिंध के अरबी सूबेदार ने आस-पास के क्षेत्रो को जीतने का प्रयास किया | लेकिन 833-843 के मध्य अरबो को परास्त कर कच्छ से भगा दिया| कुछ ही वर्षो में गुर्जर प्रतीहारो ने अरबो से सिंध का एक बड़ा भाग जीत लिया| चाहमान शासक चन्द महासेन के धोलपुर अभिलेख (842 ई.) के अनुसार चर्मनवती नदी के तट पर म्लेच्छ (अरब) शासको ने उसकी आज्ञा का पालन किया| सभवतः वह मिहिरभोज का सामंत था और उसने यह विजय अपने अधिपति मिहिर भोज की सहयता से प्राप्त की थी|धौलपुर के अतिरिक्त दक्षिण राजस्थान में भी चौहान मिहिर भोज के सामंत थे| दक्षिण राजस्थान से प्राप्त प्रतिहार शासक महेंदेरपाल II के प्रतापगढ़ अभिलेख (955 ई.) के अनुसार चाहमान राजाओ का परिवार सम्राट भोजदेव के लिए बहुत प्रसन्नता का स्त्रोत रहा हैं| अतः प्रतापगढ़ का चाहमान शासक गोविन्दराज मिहिर भोज का सामंत था| शाकुम्भरी के चाहमान शासक गूवक II ने अपनी बहन कलावती का विवाह मिहिरभोज के साथ कर अपने सम्बंधो को मज़बूत बना लिया था| इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक राजस्थान में मंडोर के प्रतिहार, मेवाड़ के गुहिलोत तथा प्रतापगढ़, धौलपुर और शाकुम्भरी के चौहान मिहिरभोज के सामंत थे|
इस प्रकार मिहिरभोज ने सबसे बुन्देलखण्ड और आधुनिक राजस्थान में गुर्जर प्रतिहारो की सत्ता को पुनर्स्थापित किया|
सौराष्ट्र पर मिहिरभोज के शासन की जानकारी हमें स्कन्दपुराण से प्राप्त होती हैं| स्कन्दपुराण के प्रभासखंड में वस्त्रापथ माहात्मय के अनुसार कन्नौज के शासक भोज ने सौराष्ट्र में वनपाल को तैनात किया और एक सेना भेजी| प्रतिहार शासक महेंदरपाल के सामंत अवनिवर्मन II चालुक्य द्वारा निर्गत ऊना प्लेट अभिलेख से भी मिहिरभोज के कच्छ और कठियावाड़ पर उसके अधिकार होने की बात पता चलती हैं| अवनिवर्मन II चालुक्य द्वारा निर्गत ऊना प्लेट अभिलेख के अनुसार उसके पूर्वज बलवर्मन, जोकि सभवतः मिहिरभोज का सामंत था, द्वारा विषाढ और जज्जप आदि हूण राजाओ को पराजित करने का उल्लेख हैं| अतः कच्छ और काठियावाड़ मिहिरभोज के साम्राज्य का एक हिस्सा थे|
उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल मिहिर भोज के अधिकार में था| गोरखपुर जिले के कहला नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख (1077 ई.) से ज्ञात होता हैं कि उत्तर में मिहिर भोज आधिपत्य को हिमालय की तराई तक स्वीकार किया जाता था|