19/11/2022
#खिंकारणा।
आज कल खिंकारणे का कल्चर लगभग खत्म हो चुका है। नियम यह था कि भाई चाहे बड़ा हो या छोटा वो बहन के पांव नही छुएगा शीश पर हाथ घुमाएगा। या फिर हाथ रखेगा।
पहले क्या गांव में कभी कोई सवासणी सासरे से पीहर आती थी तो सुनने को मिल ही जाता था कि"आज फलाणे री दिकरी आयी है, मथे मथे हाथ फेरे आऊं" या फिर उएना बोलाए आऊं" । सासरे से आने वाली सवासणी को भी इंतजार रहता था, फलाणे- फलाणे काकोसा अभी तक खिंकारणे के लिए नही आये है।
उस एक खिंकारणे के पीछे कितने सारे समिचारो का आदान-प्रदान होता था।
सवासणी अपने से लेकर अपने सासरे, सासु-सुसरे, जेठ-जेठाणी, निणद-नणदोई, देवर-देवराणी, भुआ सासु, काके, भाभे। सभी पूरे कुड़बे के समिचार देती थी। बदले में जो भी फलाणा काका जाते थे।अपने घर के समिचार देकर आते थे।
फिर उस सवासणी के द्वारा लाई गई संम्भाळ ढिगली के रूप में घरों घर दी जाती थी, चितुणी करके। मगत, सातु, कुछ भी हो सकता था। अधिकतर तो मगत ही आता था।
फिर उसके बाद वारिसूंई उस सवासणी की रोटी पलाई जाती थी। उस दिन घर मे स्पेशल कुछ बनाया जाता था। घर के बुढियो द्वारा पूछे जाने पर कहते थे कि "आज फलाणी सवासणी री रोटी पलाई हती "
वापिस ससुराल जाती थी तब पूरे परिवार की औरतें गांव की औरतें इकट्ठी होती थी।
सवासणी सबको देखकर बे-राजी होती थी। सबसे गले मिलती फिर किसी काकी, या फिर बडी मां द्वारा कहा जाता था,"बाई नांह कुरळो कराओ, मिठो मुंह कराओ, गुळ लाओ, ये काम सवासणी की भोजाई द्वारा किया जाता था।
उसके बाद डोरो, अरणी, कोयल जैसे गीत उगेरे जाते थे। ओर दिकरी सभी से विदा लेकर सासरे चली जाती थी।
अब तो सवासणीयां कब आती है और कब जाती है कोई पता नही लगता, ना ही कोई खिंकारणे जाता है और ना ही संम्भाळ आती है, ओर ना ही कोई रोटी पलाता है। सम्पन्नता ओर अधिक सुख सुविधाएं सब कुछ ले गयी हमारा ओर हम आबाद होने के ढोंग में किसी से मतलब नही रखने के ढोंग में अपना सब कुछ जलाते जा रहे है।इतिश्री। (धन्यवाद)
Tamal sa seju