11/07/2025
🚩🚩प्रेस विज्ञप्ति🚩🚩
गुरुपूर्णिमा पर विशेष
*आध्यात्मिक पूर्णता एवं बौद्धिक चिन्तन का महापर्व है गुरु पूर्णिमा।*
सनातन संस्कृति में अथाह सागर जैसा है हमारे यहां मनाएं जाने वाले पर्व, त्यौहार, व्रत एवं उत्सव। इसकी सीमा पाना बहुत ही कठिन है हमारे परम साधक सन्त ऋषियों ने अपने दिव्य साधना, भक्ति एवं ज्ञान बल से इस उपहार को भारतभूमि को विरासत में दिया। भगवान की कृपा से प्रत्येक जीवात्मा का जन्म मां की कोख से होता है, लेकिन उसे जीवन की आध्यात्मिक ज्ञान गुरु की चरण-शरण से प्राप्त होती है। शास्त्र गुरुभक्ति के प्रताप की महिमा बताते हुए कहते हैं कि क्षण मात्र गुरु सान्निध्य और गुरु गौरवगान से जीवात्मा को सद्गति का योग सहज बन जाता है। स्वयं भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं गुरु सम्पूर्ण जप, पूजा, उपासना, ध्यान आदि का मूल है-
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोःपदम्।
मंत्रमूलं गेरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोःकृपा।।
अर्थात् गुरुमूर्ति ध्यान का मूल है, गुरुचरण पूजा का मूल है, गुरुवाक्य कल्याणकारक मूलमंत्र है और गुरुदेव की कृपा साक्षात् मोक्ष का मूल है। अर्थात् हर शिष्य के लिए गुरु ही उसके जीवन, ज्ञान, तप, संकल्प,सेवा के मूल आधार होते हैं, उसी से मनुष्य को अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने की ऊर्जा मिलती है। इस दृष्टि से गुरु और शिष्य का सम्बन्ध चेतना के उच्च धरातल का सम्बन्ध माना गया है।आध्यात्मिक विकास और व्यक्तिगत ज्ञान के क्षेत्र में, गुरुपूर्णिमा प्रेरणा का प्रतीक और गहन चिन्तन विस्तार का पर्व है। इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व आध्यात्मिक विकास और आंतरिक यात्रा के लिए अत्यधिक महत्व रखता है।
यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारतीय परंपरा में, प्रत्येक त्यौहार खगोलीय घटनाओं से सम्बन्धित है। ये घटनाएँ सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों और तारों से जुड़ी खगोलीय घटनाओं को संदर्भित करती हैं। इन घटनाओं के समय होने वाले परिवर्तन रहस्यमय ऊर्जा प्रदान करते हैं। यह वह रहस्यमय ऊर्जा है जिसका हम अधिकतम क्षमता में उपयोग करने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि हम पृथ्वी पर त्यौहार मनाते हैं, ताकि हम इस गहन ऊर्जा का उपयोग कर सकें। गुरुपूर्णिमा में गुरु और पूर्णिमा दोनों शब्द शामिल हैं, जो दर्शाता है कि यह त्यौहार पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। वैसे तो हर महीने मास में पूर्णिमा होती है, लेकिन आषाढ़ मास में पड़ने वाली पूर्णिमा में कुछ खास बात होती है। उस दिन चंद्रमा बृहस्पति द्वारा शासित धनु राशि में होता है। इस बीच, सूर्य मिथुन राशि के विपरीत 180 डिग्री पर स्थित होता है; इसलिए उस दिन गुरु की ऊर्जा अपने चरम पर होती है। इन अनोखी ब्रह्मांडीय घटनाओं का लाभ उठाने के लिए हम गुरुपूर्णिमा मनाते हैं।
शास्त्र में इस शब्द पर बहुत ही गहनता से विचार किया गया है इसकी व्युत्पत्ति की बात करे तो 'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ अंधकार और 'रु' का अर्थ अंधकार का उन्मूलन है। एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है-
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्थिते उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
गुरु केवल एक शिक्षक नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक, एक प्रबुद्ध आत्मा है जो अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है और शिष्यों को आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ले जाता है।
गुरु पूर्णिमा की जड़ें प्राचीन काल में देखी जा सकती हैं, जब महर्षि व्यास के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्हें दिव्य बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक के रूप में देखे तो अपनी तीक्ष्ण बुद्धि एवं मेघाशक्ति के बल पर वेदों और पुराणों सहित प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों को व्यवस्थित करने, संपादित करने और वर्गीकृत करने का महत्वपूर्ण देन महर्षि वेदव्यास जी का है। उनके अलौकिक कार्य ने पीढ़ियों में ज्ञान के संरक्षण और प्रसार में क्रांति ला दी। उनके विषय में एक श्लोक प्रसिद्ध है-
नमोस्तुते व्यास विशाल बुद्धे, फुल्लरविन्दायत पत्र उत्सव।
येनत्वया भारत तैलपूर्ण: प्रज्ज्वलितो ज्ञानमय प्रदीप:।।
हे व्यास, आपकी विशाल बुद्धि को नमस्कार है, जिनकी आंखें खिले हुए कमल की पंखुड़ियों के समान हैं।
आपके द्वारा, ज्ञान के तेल से भरे दीपक से, भरत वंश को प्रकाशित किया गया है।
हमारे पारंपरिक शास्त्रों में, साधक की आध्यात्मिक यात्रा में गुरु की आवश्यक भूमिका पर ज़ोर देने वाले गहन संदर्भ हैं। उदाहरण के लिए, संस्कृत में रचित एक प्रतिष्ठित ग्रंथ भगवदगीता, गुरु-शिष्य सम्बन्ध के महत्व पर ज़ोर देती है। भगवान कृष्ण अपने शिष्य अर्जुन से कहते हैं :
"तद्विद्धि प्रणिपतेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्षयन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः। "
अर्थात आप एक आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य जानने की कोशिश करना चाहिए। उनसे विनम्र भाव से अपनी जिज्ञासा करें और उनकी सेवा भी करें। आत्म-साक्षात्कार प्राप्त आत्माएँ आपको ज्ञान दे सकती हैं क्योंकि उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है।गुरुपूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरुओं का आशीर्वाद लेकर और उन्हें कृतज्ञता के प्रतीक भेंट करके उनके प्रति अपनी कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करते हैं। ये भेंटें, अक्सर किताबों या शास्त्रों के रूप में, शिष्यों की आजीवन सीखने और ज्ञान की खोज के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं।
इस दृष्टि से प्रति वर्ष आने वाली गुरुपूर्णिमा गुरु-शिष्य की आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति का महोत्सव कह सकते हैं। ऐसे तो हमारी भारतीय परम्परा में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जन्म-जन्मांतर का है। गुरु-शिष्य का सम्बंध इसी जन्म का नहीं होता, अपितु अनेक जन्मों का, जन्म-जन्मांतर का होता है। शिष्य व गुरु के जन्म अवश्य बदल सकते हैं, पर दोनों के बीच जुड़ी प्रगाढ़ डोर अनन्तकाल तक के लिए जुड़ी रहती है ऐसी शास्त्रीय मान्यता है। गुरु-शिष्य के बीच यह तारतम्यता सभी धर्मों में समान है। गुरुपूर्णिमा प्रतिवर्ष हम सबके जीवन में गुरु को पहचानने और शिष्य भाव को परिपक्व करके गुरुधारण करने योग्य दुर्लभ दृष्टि जगाने का अवसर लेकर आती है, जो परिपक्व हो चुके हैं, उनको गुरुवरण करने और शिष्य बनने का सौभाग्य मिलता है, उन्हें गुरुपूर्णिमा पूर्णता का वरदान देती है। जिन साधकों में गुरुधारण करने की परिपक्वता जग जाती है, उन्हें सद्गुरु अपना लेते हैं। शिष्य भाव जागते ही गुरु की विद्याएं और क्षमताएं शिष्य की हो जाती हैं और शिष्य गुरु भाव से भर उठता है। इस प्रकार इस विशेष अवसर पर प्राप्त गुरुमंत्र सद्गुरु का शिष्य के लिए दिव्य आशीष बन जाता है, गुरुपर्व उस आशीष की अभिव्यक्ति भी है। कहते हैं शिष्यों को हर पूर्णिमा तिथि पर गुरुदर्शन करने से सोलह कलाओं से युक्त पूर्णचन्द्र का आशीर्वाद मिलता है। जबकि गुरुपूर्णिमा पर शिष्य द्वारा गुरु दर्शन-पादपूजन से उसके जीवन पर सूक्ष्म जगत के संतों-ऋषियों एवं भगवान सभी की कृपा बरसती है। शिष्य के सौभाग्य का उदय होता है। इस दृष्टि से इसे हम आध्यात्मिक सम्पूर्णता का महापर्व भी कह सकते है।
इसीलिए इस खास दिवस गुरुपूर्णिमा पर प्रत्येक शिष्य अपने गुरुधाम पहुंचकर गुरु के दर्शन-पादपूजन, गुरुदक्षिणा देने, गुरु-चरणों में बैठने का लाभ अवश्य लेना चाहता है, भले उसका गुरु सात समंदर पार ही क्यों न बसता हो। इससे शिष्य के जीवन में पूर्व जन्म के संस्कारों का पुण्य फलित होता है, पविार में सुख, शांति, समृद्धि की वर्षा होती है। वास्तव मेंं विविध अवसरों पर सद्गुरुओं, सच्चे संतों का आदर सम्मान, गुरु पूजा करना, गुरुदक्षिणा देना किसी व्यक्ति के आदर तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु वह साक्षात् सच्चिदानन्द परमेश्वर का आदर बन जाता है। इस पर्व पर गुरु को किया गया दान-पुण्य, गुरुकार्यों में किसी भी तरह का सहयोग अनंत फलदायी होता है। गुरु कृपा से उसकी झोली सुख-समृद्धि से आजीवन भरी रहती है। आइये हम सब अपने एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए आनन्द, शक्ति, शांति के साथ गुरुधाम पधारने, गुरु संगत-सानिध्य में रहने का अवसर खोजे, सम्भव है हमारा शिष्य भाव परिपक्व होकर हमारे भी जीवन में गुरु घटित हो पडे़ और गुरु-शिष्य के अनुपम योग का सौभाग्य मिल जाये।
गुरुपूर्णिमा का वैज्ञानिक महत्व भी है वैसे तो वर्ष भर में 12 पूर्णिमा आती हैं। जिसमें से कुछ पूर्णिमा का अत्यधिक महत्व है उसमें मुख्यरूप से शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा आते है, लेकिन आषाढ़ पूर्णिमा भक्ति व ज्ञान के पथ पर चल रहे साधकों के लिए एक विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन आकाश में अल्ट्रावॉयलेट रेडिएशन (पराबैंगनी विकिरण) फैल जाती हैं। इस कारण व्यक्ति का शरीर व मन एक विशेष स्थिति में आ जाता है। उसमें भूख, नींद व मन का बिखराव कम हो जाता है। यह स्थिति साधक के लिए बहुत लाभदायक है। आधुनिकता के नाम पर भारत को पश्चिमी सभ्यता का नकलची बना डालें। पर मेरा विश्वास है,भावी भारत ऐसा अजेय होकर उभरेगा जो दुनिया में अज्ञानता के असुर का वध करेगा। और सम्पूर्ण विश्व को करुणा, दया और शांति से तृप्त करेगा। गुरुपूर्णिमा ज्ञान की खोज की निरंतर यात्रा, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में गुरुओं के अमूल्य मार्गदर्शन का प्रतीक है। हम इस गहन परम्परा का हिस्सा बनने के लिए बहुत आभारी हैं जो जीवन भर सीखने, विनम्रता और प्रबुद्ध आत्माओं के मार्गदर्शन के माध्यम से ज्ञान की खेती के सार को रेखांकित करती है।
अंत में, गुरुपूर्णिमा एक विशिष्ट त्यौहार है जो गुरुओं द्वारा आध्यात्मिक तथा बौद्धिक उन्नति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता है। इस उत्सव के माध्यम से, भक्त अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं, आशीर्वाद मांगते हैं और कृतज्ञता दिखाते हैं। यदि हम गुरु शिष्य की गौरवशाली अनुभव की बात करें तो गुरु के शरीर में नीचे के भाग अर्थात काम से पुत्र की उत्पत्ति होती है लेकिन शिष्य तो उर्ध अर्थात ज्ञान मार्ग से उत्पन्न होता है। हमारे समाज में आज भी यह परम्परा कुछ विकृतियों की संकीर्णता में भी जीवित है। जिसका आदर्श स्वरूप आज भी गुरु पूर्णिमा के अवसर पर दृष्टिगोचर है। इसीलिए अपनी गुरु परम्परा का सम्मान करते हुए स्वयं और अपने परिवार सहित समाज को इस व्यवस्था से जोड़े रखे ताकि कोई विकृति न आ जाए।
लेखक - डॉ. अभिषेक कुमार उपाध्याय, श्री श्री 1008 श्री मौनी बाबा चैरिटेबल ट्रस्ट न्यास तथा मन्दिर एवं गुरुकुल योजना सेवा प्रमुख जम्मू कश्मीर प्रान्त।