06/09/2024
झाबुआ: आर एस एस की सफलता का राज़, आज हुआ फाश!
✍️अपने नबी की शान में हुई गुस्ताखी के विरोध में मुस्लिम 'समाज' तुरंत सड़कों पर उतर आता है, कांग्रेस या किसी अन्य राजनैतिक पार्टी के सहयोग की जारूरत नहीं पड़ती। ईसाई 'समाज' चर्च से जुड़ा है और बिशप के आह्वाहन पर लामबंद हो जाता है, बिना किसी राजनैतिक बैसाखी के। वहीं हिंदू भाजपा के भरोसे बैठे हैं। मोदी जी, योगी जी और मोहन जी के भरोसे! 'समाज' का अपने दम पर कोई अस्तिव्त है ही नहीं।
ऐसे में मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समाज के एकत्रीकरण और जागरण की एक मात्र संजीवनी है।
हमारे गृहस्थ जीवन के मुकाबले संघ प्रचारकों के सन्यासी जीवन की तुलना चींटी से हाथी की तुलना करने के बराबर है।
झाबुआ की ये छोटी सी कहानी मातृभूमि की सेवा में लगे संघ प्रचारकों के जीवन के तपोमय चरित्र को समझने के लिए काफी है:
✍️घर से बाजार के रास्ते में पड़ने वाले मोहल्ले में रोज एक बुजुर्ग माताजी अपने घर के बाहर कुर्सी लगाकर अकेले बैठे दिखाई देती थी। आम तौर पर इस उम्र में गोदी में खेलते तीन-चार नाती पोते, घर संवारती बहु और सेवा करते परिवार के सदस्य जीवन को स्वर्ग बनाते दिखाई देते हैं। दरअसल माता जी का एकलौता बेटा है, युवा और शिक्षित। लेकिन उसने भारत माता की सेवा के लिए ना सिर्फ ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया है बल्कि गृहस्थ जीवन का भी त्याग कर दिया है।
वो मां क्या किसी देवी से कम हो सकती है जिसने बुढ़ापे में बीमार, शुगर पेशेंट , बीपी की मरीज, अकेली और 70 वर्षीय असहाय होने के बावजूद अपने कलेजे के दो टुकड़े करके एक पर पत्थर रख लिया और दूसरे कलेजे के टुकड़े को देशसेवा के लिए अपने से दूर जाने दिया।
जिस उम्र में युवा अपने वैवाहिक जीवन का भरपूर आनंद उठाते हैं, उस सुख को छोड़ सन्यासी बन मातृभूमि की सेवा को चुनने वाले ऐसे कई सपूत आज आरएसएस याने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों के रूप में अपने जीवन को देशप्रेम की अग्नि में आहूत कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानंद ने 25 वर्ष की उम्र में घर के बड़े बेटे होने के बावजूद पिता की मृत्यु के बाद विधवा मां भुवनेश्वरी देवी को चार नाबालिग भाई बहनों की जिम्मेदारी के साथ अकेला छोड़कर सन्यास ले लिया था। ब्रह्मचर्य और गृह त्याग के व्रत ले लिए थे। तब परिवार के पास दो वक्त की रोटी के भी पैसे नहीं थे। भगवान बुद्ध ने अपनी माता माया की सेवा नहीं की, बल्कि संसार के दुखों को दूर करने के लिए ध्यान और अध्यात्म का मार्ग अपनाया और भारत माता की सेवा की। सुभाष चंद्र बोस ने अपनी माता प्रभावती देवी की सेवा नहीं की, बल्कि भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित किया। सच है, "अलौकिक चरित्र की पृष्ठभूमि हमेशा असाधारण त्याग की छवि से रंगी होती है।"
राष्ट्रसेवा के लिए आजीवन अविवाहित रहना क्याआज भी भीष्म प्रतिज्ञा की गूंज को जीवित नहीं रखे हुए है!
नौकरी, रोजगार और आर्थिक जरूरतों के चलते आज आधी आबादी या तो पलायन या संपूर्ण गृह त्याग को बाध्य है।
मजबूरी ना हो तो भी पढ़े लिखे साधन संपन्न बच्चे देश विदेश में सुविधाओं के बीच एकल परिवार में रह रहे हैं जबकि बूढ़े मां-बाप सूने घर की खामोशियों के साथ।
संघ से जुड़े ऐसे व्यक्ति जब समाज में कार्य करते हैं तो उनके ऊपर मातृरूपी देवियों के "विजय भव" के आशीर्वाद के आगे बड़ी से बड़ी चुनौतियां भी घुटने टेक देती हैं।
ये विलक्षण विभूति आज मध्यप्रदेश के सबसे दुष्कर, विपरीत, असहज और अराजकता से ओतप्रोत क्षेत्र में बतौर संघ प्रचारक अपने राष्ट्र निर्माण की तपस्या कर रहे हैं, अपने पीछे अकेली बूढ़ी मां छोड़कर..
हिमांशु त्रिवेदी, प्रधान संपादक, भील भूमि समाचार, Reg.MPHIN/2023/87093