04/09/2025
अजय की उम्र जब चालीस के पार पहुँच चुकी थी, तब जाकर उसने अपने ऑफिस में काम करने वाली सहयोगी रीना से विवाह किया। रीना एक अनाथ लड़की थी, जिसे उसके चाचा-चाची ने पाला था। अजय भी कोई रईस खानदान से नहीं था — पिता बचपन में ही गुजर गए थे, और अब घर में बस एक ही सहारा था — उसकी बीमार माँ सरोज जी।
अजय का बचपन जल्दी बड़ा होने की मजबूरी से भरा रहा। पिता के जाने के बाद घर की हर आवाज़ में कमी थी — रसोई में खनकती कटोरियों की जगह सिलाई मशीन की घर्र-घर्र, खिलखिलाहट की जगह खाँसी की दबती ध्वनि, और रातों में दूर भौंकते कुत्तों पर माँ का बेचैन होना। सरोज जी ने छोटे-छोटे टाँकों से घर को जोड़े रखा — दूसरों के कपड़े सीतीं, रजाइयाँ रफ़ू करतीं, और उसी कमाई से बेटे की फीस भरतीं। अजय देखता था कि कैसे उसकी माँ अपनी थकान छिपाकर मुस्कुराती है, जैसे वह मुस्कान ही घर का चूल्हा है। इसी मुस्कान को बचाए रखने के लिए वह पढ़ाई में डटा रहा, नौकरी तक पहुँचा, और फिर वही पुराना छोटा-सा घर अपने दम पर संभाल लिया, जहाँ दीवारों की झुर्रियों में भी उम्मीद के धागे लगे थे।
रीना की कहानी अलग होकर भी दर्द में बहुत मिलती-जुलती थी। बहुत छोटी उम्र में माता-पिता चल बसे। चाचा-चाची ने ज़िम्मेदारी उठाई, पर अपनापन किसी किस्त में नहीं आया। त्योहारों पर उनके बच्चे नए कपड़ों में खिले रहते और रीना को अलमारी से निकला पिछला साल मिलता। मेले की शामें दूसरे बच्चों के साथ झूलों पर नहीं, बल्कि घर के कोने में रखी पुरानी किताबों के पन्नों में कटतीं। उन पन्नों से ही उसने जाना कि इंसान के पास दुनिया बदल देने की ताकत हो न हो, किसी का दिन बदल देने की ताकत ज़रूर हो सकती है—एक गिलास पानी से, किसी के कंधे पर रखे हाथ से, या बेहद छोटे त्याग से।
ऑफिस में दोनों की पहचान बहुत साधारण ढंग से शुरू हुई। अजय की मेज़ के पास जब-तब फाइलें रखने आती रीना नम्र स्वर में “ये साइन कर दीजिए” कहती, और अजय सिर उठाकर “ठीक है” कह देता। पर काम के बहाने छोटी-छोटी बातों का यह धागा धीरे-धीरे लंबा होता गया। एक दिन बारिश तेज़ हो गई। ऑफिस बंद हुआ तो गेट पर भीड़ थी। रीना छतरी भूल गई थी। अजय की पुरानी छतरी के स्पोक थोड़े टेढ़े थे, फिर भी उसने छतरी रीना की ओर बढ़ा दी — “ले लीजिए, घर तक पहुँचना भी काम का हिस्सा है।” उस एक वाक्य में रीना ने वैसा सहारा सुना जो उसके बचपन में गायब था। घर लौटकर वह देर तक उस भीगी शाम की गंध याद करती रही — भीगे कागज़ों, गरम चाय और किसी अनकहे अपनापे की मिली-जुली खुशबू।
समय ने अपनी रफ़्तार से काम किया और दोनों ने एक-दूसरे की कमी का नाम रिश्ते में रख दिया। शादी सादगी से हुई — छोटे-से आँगन में हल्दी की थोड़ी-सी खुशबू, दीवार पर टंगा एक बल्ब, कुछ रिश्तेदारों की दबी-कुचली टिप्पणियाँ, और सरोज जी की आँखों में उजाला। पड़ोस की छतों पर खड़े लोग कानाफूसी करते — “चालीस के बाद शादी… और लड़की भी अनाथ…” — लेकिन आँगन के भीतर इन फुसफुसाहटों का मोल नहीं था। भीतर जो चल रहा था, वह किसी फुसफुसाहट से ज़्यादा बुलंद था — एक घर की साँस वापस लौट रही थी।
रीना ने दहलीज़ भांपी, चूल्हे की आँच देखी, खिड़की की दरार से आती धूप को हाथों से नापा और घर को धीरे-धीरे अपने सलीके में बुनने लगी। सुबह आरती से दिन शुरू होता, आँगन में तुलसी के पास पानी रखती और सरोज जी के तकिये की ऊँचाई ठीक करती कि गर्दन न दुखे। दवा समय पर, काढ़ा गरम, पानी गुनगुना—ये सब काम नहीं, किसी कविता के छंद बन गए थे। मोहल्ले की औरतें सिलाई के बहाने बैठतीं, और बातों-बातों में कह दे जातीं — “सरोज बहन, बहू तो लक्ष्मी है।” सरोज जी के चेहरे पर वैसी ही हँसी आती जो कभी कम उम्र की दुल्हन के रूप में उनके चेहरे पर रही होगी — हल्की, धीमी, पर पूरे घर को रोशन करती।
अजय को घर लौटने का मतलब अब समझ आने लगा था। पहले वह थका-हारा आता और सन्नाटा उसका इंतज़ार करता, अब दरवाज़े पर चाभी घुमाते ही रसोई से मसालों की छनक, कमरे से माँ की खाँसी पर रीना की “लीजिए पानी” कहती धीमी आवाज़, और बैठक में बिछी चादर पर फैलती गरमाहट उसका स्वागत करती। वह दरवाज़े के पास पलक-भर ठहरकर यह सब सुनता और फिर भीतर जाता — जैसे कोई श्रोता अपने पसंदीदा गाने की पहली पंक्ति के लिए ठहरता है।
कुछ सप्ताह बीते ही थे कि सरोज जी ने एक छोटा-सा बदलाव महसूस किया। पहले रीना उनके साथ ही खाना खाती—दाल में रोटी तोड़ते हुए पूछ लेती “नमक ठीक है न, माँजी?” और फिर दोनों हँसते हुए वही रोटी रसोई के कोने में रखे पुराने स्टूल पर रख देतीं। अब रीना वही सारा काम करती, सबको परोसती, पर खुद कहीं कोने में बैठे-बैठे जल्दी-जल्दी खा लेती। सरोज जी ने दो-तीन बार सोचा पूछें — “क्यों अलग?” — लेकिन सवाल उनके गले में आकर अटक जाता, जैसे कोई काँटा जो चुभ भी रहा है और निकले भी नहीं।
एक शाम की बात है। हवा में हल्की ठंडक थी। रीना ने चाय बनाकर लिविंग में रखी और साथ में बिस्कुटों की प्लेट सरकाई। सरोज जी ने कप हाथ में लिया तो लगा जैसे उँगलियों में फिर से जवानियाँ लौट आई हैं—गर्माहट से, बास से, और अपनी बहू के निहायत सलीके से कप रखने के ढंग से। रीना उस दिन पास न बैठी। वह थोड़ा दूर, खिड़की के पास बैठ गई और एक लाल डिब्बा खोलकर उसमें से कुछ खाने लगी। सरोज जी की आँखें उस डिब्बे पर टिक गईं — डिब्बा बहुत साधारण था, शायद बाजार से कोई बेकरी का टीन, जिसपर अब भी पुराने लेबल की छाया लगी थी। वही डिब्बा जैसे धीरे-धीरे बड़ा होता गया, और बातों, यादों, शंकाओं का केंद्र बन गया। मन में एक फुसफुसाहट उठी — “आख़िर उसमें ऐसा क्या है जो मुझे नहीं दे रही?”
रात घनी हुई। घर शांत। बाहर गली के खंभे पर पीली रोशनी एक गोल दायरा बनाकर खड़ी थी। भीतर घड़ी की सुइयाँ अपनी-अपनी राह पर चल रही थीं — मिनट की तेज़ क़दमों वाली चाल, घंटे की धैर्यवान यात्रा। सरोज जी करवटों के साथ संघर्ष करती रहीं। ऊपर पंखे के पंखे घूमते रहे, पर उनके मन में घूमता रहा वही लाल डिब्बा। उन्हें लगा, “यह जिज्ञासा मेरा अपमान नहीं, मेरा हक़ है। मैं पूछ सकती हूँ।” लेकिन फिर वही झिझक — “पूछूँ तो लगेगा जैसे दखल दे रही हूँ… और अगर न पूछूँ तो यह चुभन बनी रहेगी।”
आधी रात के बाद का सन्नाटा सबसे ईमानदार होता है — उसमें दिखावा शर्मा जाता है, सच अपनी कड़वाहट समेत सामने आता है। ऐसे ही समय में सरोज जी चुपचाप उठीं, पाँवों में चप्पल भी नहीं डालीं कि आवाज़ न हो। रसोई की ओर बढ़ीं। दरवाज़े की कुंडी को उँगलियों से उठाया—धातु ने हल्की-सी झनक की—और धीरे से भीतर आईं। अलमारी की तीसरी शेल्फ़ पर उन्हें वही लाल डिब्बा याद था। हाथ बढ़ाया। उँगलियाँ डिब्बे की ठंडी सतह से टकराईं। उम्र का कंपन उँगलियों तक आ गया। डिब्बा उठा—पर उतनी ही देर में उँगली की पकड़ ढीली पड़ी—और फिर…
धड़ाम!
आवाज़ इतनी तेज़ भी नहीं, पर रात के सन्नाटे में वह तूफ़ान लगती है। अजय का कमरा खुला, रीना भी भागती हुई पहुँची। सरोज जी वहीं, रसोई के बीच में, एक हाथ अलमारी पर, एक हाथ हवा में जैसे अपराध स्वीकार रहा हो। अजय घबराया, “क्या हुआ माँजी?” आवाज़ में वही घबराहट जो बच्चा होमवर्क छिपाते पकड़ा जाने पर बोलता है। सरोज जी भी वैसे ही हड़बड़ाईं — “कुछ नहीं बेटा, शक्कर ढूँढ रही थी…”
रीना झट से झुकी, डिब्बा उठाया, ढक्कन लगाया, नीचे बिखरे छोटे-छोटे कणों को हथेली में समेटा और बहुत सहज, बहुत स्नेह के साथ बोली— “कल से मिश्री आपके कमरे में ही रख दूँगी, माँजी। रात में उठने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।” उसकी आँखों में फिक्र का साफ़ पानी था—कोई बनावट नहीं, कोई शिकवा नहीं। लेकिन सरोज जी की नज़र उस खुले डिब्बे पर टिक गई थी। ढक्कन लग चुका था, फिर भी जैसे भीतर की तस्वीर दिख गई—अंदर सिर्फ टूटे हुए बिस्कुट के टुकड़े थे। बहुत ही छोटे, नन्हें, जैसे किसी ने जान-बूझकर टूटे किनारों को चुनकर रखा हो।
उस रात बाकी सब सो गए। सरोज जी भी बिस्तर पर लौट आईं। पर उनके भीतर एक धीमी-सी रोशनी जल गई—कभी बुझे नहीं ऐसी। सुबह की धूप खिड़की पर चढ़ी तो उन्होंने तय किया कि पूछना ही होगा। पर पूछना नहीं, कहना—जो ज़रूरत है, वह कहना ज़रूरी है।
नाश्ते के बाद, जब अजय ऑफिस जाने को तैयार हो रहा था और रीना रसोई में स्टोव बंद कर रही थी, सरोज जी ने धीमे स्वर में पुकारा— “रीना, ज़रा आओ बेटी।” आवाज़ में बुढ़ापे का कंपन्न था, पर साथ ही माँ होने का अधिकार भी। रीना आई, पास बैठी। सरोज जी ने उसका हाथ थामा—वही हाथ जो रोज़ काढ़े का ताप सहता, दवा की बोतलें उठाता, पराठे की सेंक में धुआँ खाता—और बोलीं, बहुत सधे, बहुत विनम्र स्वर में— “बहू… मेरे दाँत अब साबुत बिस्किट नहीं तोड़ पाते… वही टुकड़े ही दे दिया करो ना।”
समय जैसे थम गया। एक पल के लिए रसोई, स्टोव, मसालों की गंध, अजय की चाभियों की खनक—सब ठहर गए। रीना के चेहरे पर एक बहुत हल्की, बहुत उजली मुस्कान खिली। उसने आँखें उठाकर सरोज जी की आँखों में देखा—वहाँ सवाल नहीं, भरोसा था—और धीरे-से कहा— “माँजी, आप ही तो कहती थीं—बचा-कुचा किसी को नहीं देना चाहिए… फिर आपको मैं कैसे दे दूँ?”
यह वाक्य जैसे किसी ने बहुत कोमलता से सरोज जी के हृदय पर रख दिया। आँखें अपने-आप भर आईं। गला भर्रा गया। उन्होंने रीना की उँगलियों को और कसकर थाम लिया—जैसे उस पकड़ में डर भी था कि कहीं यह हाथ छूट न जाए, और आभार भी कि यह हाथ मिला कैसे। स्वर काँपता था, पर शब्द एकदम साफ़ थे— “बेटी, तू मेरी सबसे बड़ी दौलत है… तूने मुझे रिश्तों की असली मिठास चखाई है।”
अजय दरवाज़े से यह दृश्य देख रहा था—ऐसा दृश्य जो वह अपने किसी भी प्रमोशन, किसी भी बोनस, किसी भी सफलता से ऊपर रखता। उसकी आँखें भीगीं, पर वह चुप रहा—क्योंकि कुछ दृश्य इतने पवित्र होते हैं कि उन्हें शब्दों की आवाज़ से disturb नहीं करना चाहिए।
उस सुबह के बाद घर की लय थोड़ी-सी बदल गई, पर अर्थ बहुत बदल गया। अब लाल डिब्बा रसोई की तीसरी शेल्फ़ पर नहीं रहता—वह सरोज जी के कमरे की छोटी मेज़ पर रहता, पानी की ग्लास और दवा की पट्टी के बीच। दिन में एक-दो बार रीना वहीं बैठकर वही पुराने टूटे टुकड़े निकालती और सरोज जी उस मिठास को ऐसे चखतीं जैसे कोई अपना बचपन फिर से जी रहा हो। यह केवल खाने की सुविधा नहीं थी; यह आदत बनाते-बनाते एक दर्शन बन गया—कि किसी चीज़ की कीमत उसके आकार से नहीं, उसकी नीयत से तय होती है। पूरे बिस्किट की शान कम है, अगर उसमें बाँटने का भाव नहीं; और टूटा टुकड़ा भी शाही है, अगर वह सम्मान के साथ परोसा जाए।
मोहल्ले में यह कहानी धीरे-धीरे फैलने लगी, पर उसके फैलने का ढंग भी रीना की तरह सलीकेदार था—बिना शोर, बिना बड़ाई। बाज़ार जाते समय पड़ोसनें सरोज जी से पूछतीं—“कैसी हो बहन?” और सरोज जी कहतीं—“बहुत अच्छी, रीना है ना।” कोई हँसकर पूछ बैठती—“वही लाल डिब्बा?” और दोनों की आँखों में एक गुप्त-सी खुशी चमक उठती। बात फैलती गई, पर उसमें गॉसिप का नमक नहीं था—उसमें सीख की गुड़ की डली थी जो देर तक घुलती रहती है।
अजय के भीतर भी कुछ स्थिर हुआ। वह रात को देर से लौटता तो बैठक की लाइट बंद मिलती, पर सरोज जी के कमरे से आती धीमी-सी फुसफुसाहटें सुनाई देतीं—रीना पुराने किस्से सुन रही होती, सरोज जी हँसी में खाँसी मिलातीं। अजय उस दरवाज़े पर खड़ा हो जाता—दो पीढ़ियों के बीच एक पुल बना आदमी। उसे लगता कि उसने जो कुछ भी पाया, वह सब इसी एक दृश्य में समा गया है—सेवा, आदर, प्रेम, और वह अदृश्य सुरक्षा, जो किसी घर को घर बनाती है।
धीरे-धीरे मौसम बदले, त्यौहार आए। दीवाली की रात आँगन दीयों से भर गया। रीना ने सबसे पहला दीया सरोज जी के कमरे की खिड़की पर रखा— “घर की रोशनी यहीं से शुरू होनी चाहिए।” सरोज जी ने उसी वक्त लाल डिब्बा खोला, एक छोटा टुकड़ा निकाला, और रीना को खिलाया— “दीया तुमने जलाया है, मिठास मुझे लौटानी है।” होली आई तो पहला गुलाल रीना ने उनके चरणों में लगाया। राखी के दिन रीना ने कच्चा धागा सरोज जी की कलाई पर बाँधा—“मेरी रक्षा तो आप सदियों से करती आई हैं, माँजी। आज रस्म पूरी कर रही हूँ।”
कभी-कभी दूर के रिश्तेदार आते और वही पुराने सवाल हवा में तैरते—औलाद का, वंश का, नाम का। अजय का चेहरा उतरने लगता। रीना तब बहुत शान्त ढंग से कहती—“वंश नाम से नहीं, मन से चलता है। हम अगर किसी को सम्भाल लें, तो वही हमारा नाम आगे ले जाता है। माँजी का आशीर्वाद ही हमारी सबसे बड़ी विरासत है।” सरोज जी उन पलों में रीना को देखतीं तो उनके दिल के किसी कोने में बरसों पहले का खालीपन भरता जाता—जैसे एक पुरानी दरार में पहली बार पुट्टी लगी हो और दीवार ने राहत की साँस ली हो।
रीना के पास मोहल्ले के बच्चे आने लगे—किसी की अंग्रेज़ी में मदद चाहिए, किसी की कविता याद नहीं होती, कोई बस उठाकर छत तक पहुँचा दे—वह सबके लिए समय निकालती। सरोज जी खिड़की से यह सब देखतीं और सोचतीं—“अनाथ? यह शब्द रीना पर कैसे लग सकता है? यह तो जहाँ जाती है, वहाँ घर बना देती है।”
रात के शांत हिस्सों में कभी-कभी सरोज जी पुराने दिनों को याद करतीं—वो दिन जब दवा की कड़वाहट अकेली थी, और अब यह कि उसी दवा के साथ बिस्कुट का मीठा टुकड़ा है। अंतर बस इतना-सा है—किसी ने कड़वाहट के साथ मिठास बाँध दी। रीना ने यह बाँधना बिना किसी शोर के सीखा—जैसे उसने सब कुछ बिना माँगे सीखा। वह बर्तन धोते समय पानी की धार के नीचे हाथ रखती और ध्यान रखती कि शोर कम हो—क्योंकि माँजी सो रही होंगी। वह चूल्हा जलाते समय लकड़ी की जगह गैस का धीमा बटन इस्तेमाल करती—क्योंकि माँजी की खाँसी है। वह दरवाज़ा बंद करते समय कुंडी धीरे उठाती—क्योंकि घर में सन्नाटे की मर्यादा है।
अजय ने यह सब देखा और एक दिन अपने आप से कहा—“मुझे हमेशा लगा था कि मैं माँ का सहारा हूँ। पर सच में सहारा यह लड़की है। मैंने जो जिम्मेदारी समझी, उसने उसे अपनेपन में बदला। मैंने जो कर्तव्य समझा, उसने उसे प्रेम में बदला।”
लाल डिब्बा अब सिर्फ़ एक डिब्बा नहीं रहा। वह घर की स्मृति बन गया—जैसे पुरानी एल्बम में रखी किसी फोटो के पीछे एक तारीख़ और एक स्याही की हल्की-सी धुंध। कभी-कभी रीना उसे पोंछती और सोचती कि इस टीन के भीतर कितनी बातें बंद हैं—रात का वह धड़ाम, माँजी की हड़बड़ाहट, उसकी अपनी मुस्कान, वह सुबह का स्वीकार, और उसके बाद हर दिन का सहज-सा दोहराव—टूटे टुकड़े, पूरा सम्मान।
दिन फिर अपनी राह चलता रहा। कभी बरसात, कभी धूप। अजय की पेशानी पर कुछ और लकीरें आईं, सरोज जी के हाथ का काँपना थोड़ा और बढ़ा, और रीना के कदम और भी नाप-तौलकर चलने लगे। पर इस तीन सदस्यीय संसार की धुरी वही रही — वह अपनापन, जो चाय के कप से उठती भाप में दिखता, एक थाली में रखे छोटे-छोटे टुकड़ों के बीच महकता, और कमरे के कोने में रखी नेफ़्थलीन की गोलियों और देवदारू की अगरबत्ती की मिली-जुली गंध में हर शाम नया-नया हो उठता।
और जब कभी जीवन की आवाज़ें तेज़ हो जातीं—किसी दिन अस्पताल की राह पकड़नी पड़ती, किसी दिन रिश्तेदार का कोई खुरदुरा वाक्य घर की दीवार से टकराता—तो यही घर, यही तीन लोग, उसी लाल डिब्बे को मानो बीच में रखकर एक-दूसरे के हाथ पकड़े रहते। जैसे कहना चाहते हों—“टूटने से डर नहीं। बस इतना भर कि जो टूटे, उसे फेंकना नहीं। उसे सम्मान से जगह देना। वही मिठास है।” दिन गुजरते गए। घर की लय अब एक संगीत जैसी हो चुकी थी। अजय दफ़्तर जाता, शाम को लौटता तो बैठक में माँ और रीना की धीमी-धीमी बातें सुनाई देतीं। अक्सर वे दोनों किसी पुराने किस्से में खोई होतीं। सरोज जी अपने बचपन की बातें करतीं—कैसे गाँव में पनघट पर औरतें गाना गातीं, कैसे उनके पिता उन्हें मेले में ले जाते, कैसे शादी के बाद पहली बार उन्होंने शहर की रेलगाड़ी देखी थी। रीना सबकुछ बच्चों जैसी उत्सुकता से सुनती। उसकी आँखों में चमक होती, जैसे वह हर किस्सा अपनी ज़िंदगी में जोड़ रही हो।
कभी-कभी सरोज जी रुककर पूछतीं—“तुझे बोर तो नहीं करती न बेटी, मेरी पुरानी कहानियाँ?” रीना हँसते हुए जवाब देती—“माँजी, ये कहानियाँ तो मेरे लिए किसी खज़ाने जैसी हैं। मैं इन्हें अपने दिल में सहेजकर रख लूँगी।”
त्योहारों के दिन आते तो घर में और भी चहल-पहल हो जाती। दीवाली की सुबह रीना ने पूरे आँगन में रंगोली बनाई। रंगीन पाउडर से उसने फूलों और पत्तियों का सुंदर आकार बनाया। सरोज जी खिड़की से देख रही थीं। उन्होंने धीरे से कहा—“बेटी, इतने साल बाद मेरे आँगन ने रंग देखे हैं।” रीना ने मुस्कुराकर जवाब दिया—“माँजी, रंग तो आपके आशीर्वाद से आए हैं, मैं तो बस हाथ चला रही हूँ।”
शाम को जब घर में दीये जलाए गए, तो रीना ने सबसे पहला दीया सरोज जी के कमरे में रखा। बोली—“घर की रोशनी यहीं से शुरू होनी चाहिए।” सरोज जी की आँखों से आँसू निकल आए। उन्होंने वही लाल डिब्बा खोला, उसमें से एक टुकड़ा निकाला और रीना के मुँह में डाल दिया। बोलीं—“तेरे हाथों से जो दिया जला है, उसकी मिठास तुझे ही मिले।”
मोहल्ले की औरतें भी यह सब देख रही थीं। अगले दिन उन्होंने कहा—“सरोज बहन, तुम्हारी बहू तो सच में बेटी है। हमारे घरों में तो बहुएँ त्योहार आते ही ससुराल छोड़कर मायके चली जाती हैं।” सरोज जी गर्व से भर उठीं। उन्होंने कहा—“मेरे पास भले दौलत न हो, लेकिन भगवान ने मुझे ऐसी बहू दी है कि मुझे किसी दौलत की कमी महसूस नहीं होती।”
लेकिन जहाँ एक तरफ़ यह मिठास थी, वहीं दूसरी तरफ़ समाज का कटाक्ष भी पीछा नहीं छोड़ता था। एक दिन दूर के रिश्तेदार आए। खाने के समय उन्होंने बीच में ही कह दिया—“बहुत अच्छा है, बहू सेवा करती है, लेकिन अब तक कोई बच्चा नहीं। वंश कैसे चलेगा?” कमरा कुछ पल के लिए शांत हो गया। अजय का चेहरा उतर गया। सरोज जी को चोट पहुँची। लेकिन रीना ने सहजता से कहा—“वंश नाम से नहीं, कर्म से चलता है। अगर मैंने माँजी की सेवा कर ली, तो यही मेरा सबसे बड़ा वंश होगा।” उसकी यह बात कमरे की हवा को हल्की कर गई। सरोज जी ने रीना का हाथ थामा और कहा—“बेटी, तेरी सोच ही मेरी सबसे बड़ी दौलत है।”
धीरे-धीरे मोहल्ले के बच्चे भी रीना से जुड़ने लगे। कोई उसके पास पढ़ने आता, कोई खेल में मदद माँगता। रीना सबको अपनापन देती। सरोज जी खिड़की से यह सब देखतीं और सोचतीं—“जिसे लोग अनाथ कहते थे, वह तो पूरे मोहल्ले की माँ बन गई।”
कभी-कभी शाम को जब अजय दफ़्तर से लौटता, तो घर में बैठा-बैठा यह सब देखता और भावुक हो जाता। उसे लगता कि भगवान ने देर से दिया, लेकिन जब दिया तो अनमोल दिया। वह सोचता—“मेरी माँ को बेटी का सुख और मुझे घर का सुकून, सब कुछ इस एक लड़की ने दे दिया।”
सरोज जी का स्वास्थ्य अब उम्र के कारण और भी गिर रहा था। कभी घुटनों में दर्द, कभी साँस फूलने की शिकायत। डॉक्टर कहते—“अब इन्हें आराम चाहिए, इनका ख्याल रखना ज़्यादा ज़रूरी है।” रीना उनकी देखभाल में और भी सतर्क हो गई। सुबह उठते ही वह सबसे पहले माँजी को गरम पानी देती, फिर दवा समय पर खिलाती, और उनके लिए हल्का-फुल्का नाश्ता बनाती। अगर कभी उन्हें खाँसी होती, तो रीना पूरी रात उनके सिरहाने बैठी रहती।
एक रात सरोज जी ने रीना से कहा—“बेटी, तू मेरे लिए बहू नहीं, बेटी है। कभी सोचा नहीं था कि बुढ़ापे में मुझे इतना सुख मिलेगा।” रीना की आँखें भर आईं। उसने कहा—“माँजी, अगर भगवान ने मुझे अनाथ बनाया, तो शायद इसी लिए कि मैं आपकी बेटी बन सकूँ।”
यह सुनकर सरोज जी ने उसका चेहरा अपनी हथेली से ढक लिया और बोलीं—“तू मेरी अधूरी दुनिया को पूरा करने आई है।”
अजय दरवाज़े पर खड़ा यह सब सुन रहा था। उसकी आँखें नम थीं। उसने सोचा—“रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं। यही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सीख है।”
अब लाल डिब्बा घर का प्रतीक बन चुका था। जब भी रीना उसमें से टुकड़े निकालती, सरोज जी की आँखों में चमक आ जाती। वह टुकड़े अब सिर्फ खाने की चीज़ नहीं थे, बल्कि रिश्तों की मिठास का प्रतीक बन चुके थे।
रात की वह घटना और सुबह का वह छोटा-सा संवाद घर की हवा में धीमे-धीमे घुल गया, जैसे अगरबत्ती की खुशबू दीवारों में उतर जाती है। अब जब भी रीना रसोई में बिस्किट का नया पैकेट खोलती, सबसे पहले दो-तीन साबुत बिस्किट एक अलग स्टील की डिबिया में रख देती—वही जो सरोज जी के कमरे की मेज़ पर रहती थी—और फिर बचे हुए में से किनारे-किनारे के क्रम्ब्स सावधानी से अपनी लाल टीन में। सरोज जी के सामने वह बिस्किट का एक टुकड़ा तोड़ती, पर यह तोड़ना बचा-कुचा नहीं होता था—यह उनके लिए अलग से, साफ़ प्लेट में, सम्मान के साथ किया गया तोड़ना था। रीना को लगता था जैसे वह हर टुकड़े में एक प्रण रख रही है—कि माँजी के हिस्से में कभी “बाक़ी” नहीं जाएगा, उनके लिए सब “पहले” ही होगा।
बरसात का मौसम आ गया। गली के किनारे उग आई काई हर कदम पर फिसलन करती। छत से टपकती पानी की पतली धार को रीना ने एक साफ़ कटोरी रखकर पकड़ना शुरू कर दिया था ताकि फर्श गीला न रहे। शाम होते-होते आसमान में बिजली की लकीरें तैरतीं और दूर कहीं बादलों की गरज बूढ़े रेडियो की खरखराहट जैसी लगती। ऐसे दिनों में अजय थोड़ा जल्दी लौटने का बहाना ढूँढता—उसे पता था कि तूफ़ान में सरोज जी के घुटने और दुखेंगे, और रीना अकेले सब सँभालेगी। वह घर आता तो दरवाज़े पर वही नम हवा, भीतर रसोई से आती दाल की धीमी-सी खुशबू, और कमरे में सरोज जी की खाँसी के साथ रीना की “गुनगुना पानी ले लीजिए” जैसी फिक्र मिली-जुली मिलती।
एक शाम बिजली चली गई। पूरा मकान एकदम अँधेरे में डूब गया—ऐसा अँधेरा जिसमें आवाज़ें पहले आती हैं, आकृतियाँ बाद में। अजय ने मोबाइल की टॉर्च जलाई, रीना ने दीये ढूँढकर सुलगा दिए। सरोज जी का माथा हल्का-सा गरम था। रीना ने पलंग के सिरहाने दीया रखा, कमरे में हवा के लिए खिड़की का पल्ला आधा खोला और धीमी आवाज़ में बोली—“घबराइए नहीं, बरसात की रातें कहानियों के लिए सबसे अच्छी होती हैं।” फिर वह बैठ गई और सरोज जी से कहने लगी कि कैसे गाँव में उनके दादा एक लकड़ी की पेटी रखते थे जिसमें ताश, एक जंग लगा कैलिडोस्कोप, और दो-तीन छोटे खिलौने रहते—बिजली जाते ही वह पेटी खुलती और घर भर में हँसी फैल जाती। सरोज जी मुस्कुराईं—“हमारे यहाँ भी लाल रंग की एक पेटी थी… देख कितने साल बाद लाल डिब्बे का सुख लौट आया।” दीये की लौ उनके गाल पर थरथराती परछाईं बना रही थी; उस लौ में अजय को अपने घर की आत्मा दिखाई देती रही—टूटे समयों में भी एक छोटी-सी रोशनी जो सबको जोड़ती रहती है।
कुछ ही दिनों में एक और छोटा उतार-चढ़ाव आया। अजय के ऑफिस में प्रोजेक्ट की डेडलाइन आगे खिसकाकर अचानक पहले कर दी गई। टीम पर दबाव बढ़ा। अजय देर रात तक बना रहता—एक्सेल की शीटें, मेल की खनक, मीटिंग की एक-सी बातें। वह घर लौटकर थका-सा दिखता तो रीना उसके लिए अदरक वाली चाय बनाती, फिर बहुत कम बोलकर उसकी थकान को जगह देती। उसने सीख लिया था कि कभी-कभी चुप्पी ही सबसे बड़ा सहारा होती है। एक रात अजय ने चाय का कप हाथ में लेकर कहा—“तुम जानती हो, मेरी सबसे बड़ी राहत क्या है?” रीना ने देखा। अजय मुस्कुराया—“कि मैं देर से आऊँ या जल्दी, इस घर की धड़कन एक-सी रहती है—माँ का तकिया सही ऊँचाई पर, तुम्हारे हाथ का खिचड़ी का स्वाद, और बगल में रखा वही छोटा डिबिया। मुझे लगता है, इस स्थिरता ने ही मुझे टूटने नहीं दिया।” रीना ने कुछ नहीं कहा, बस कप की धार पर उभरती भाप को एक उँगली से हटाकर बोली—“भाप आँखों में जाए तो चुभती है, पर उसी से चाय का स्वाद बनता है। थकान भी वैसी ही है।”
कभी-कभी रीना की अपनी थकान भी उभर आती। वह रसोई में खड़ी-खड़ी दूर कहीं खो जाती। उसे अपने बचपन की किसी धुँधली दोपहर की गंध याद आती—रसोई की ज़मीन पर बिछी दरी, चाचा-चाची के कदमों की हल्की धमक, और अलमारी के ऊपरी खाने में रखा एक टिन जिसमें कभी मिठाई की उम्मीद होती, पर अक्सर खाली मिलता। वह उन खाली टिन्नों से बड़ी हुई थी—जिसमें अपनी बारी का इंतज़ार था। शायद इसी से उसने सीख लिया था कि अब किसी को इंतज़ार न कराना—ख़ासकर माँजी को तो कभी नहीं। रीना ऐसे पलों में लाल डिब्बा उठाती, उसके ढक्कन को दो उँगलियों से टिक-टिक बजाती और फिर हल्के से हँस देती—“अब यह डिब्बा खाली नहीं रहेगा, चाहे इसमें सिर्फ़ मेरे लिए टूटे टुकड़े ही क्यों न हों।”
पड़ोस में रहने वाली माला काकी रोज़ शाम नीचे बैठकर स्वेटर बुनतीं। उनकी बोली में नमक कम, गुड़ ज़्यादा होता। उन्होंने एक दिन रीना से कहा—“बिटिया, तेरे घर की घड़ी को मैंने देखा है—उसमें सेकंड की सुई तेज़ है, पर घंटे की सुई बड़ी धैर्य वाली। तेरे घर का समय भी वैसा ही है—छोटी-छोटी घबराहटें आती हैं, पर बड़े-बड़े दिन बहुत धीरज से कटते हैं।” रीना हँस दी—“काकी, घबराहट आए तो लाल डिब्बा खोल देती हूँ, टुकड़ा मुँह में रखते ही लगता है कसम क़ायम है।”
एक रविवार अजय ने सोचा कि सरोज जी को पुराने बगीचे तक ले जाया जाए—जहाँ वे कभी जवान दिनों में जाया करती थीं। वह व्हीलचेयर का इंतज़ाम करके आया। रीना ने माँजी को गरम शॉल ओढ़ाई, बालों में कंघी की, माथे पर हल्का-सा अंजना लगाया और कहा—“आज हवा से पुराने गीत सुनेंगे।” बगीचे में गुलमोहर फिर खिला था। पत्तियों के बीच से टपकती धूप व्हीलचेयर की बाँहों पर डिज़ाइन बना रही थी। सरोज जी ने धीमे से पूछा—“रीना, कभी लगा कि तू अपने मायके से दूर है?” रीना ने उनकी ओर देखा—“माँजी, जहाँ किसी की परवाह सच्ची हो, वहीं मायका है।” अजय थोड़ी दूर बेंच पर बैठकर दोनों को देखता रहा—उस दृश्य में उसे किसी भी पुरस्कार से बड़ी उपलब्धि दिखती थी।
रिश्तेदारों का आना-जाना लगा रहता। कोई बीमार तबीयत का हाल पूछने, कोई शादी-ब्याह का कार्ड लेकर। हर मुलाक़ात में एक-दो वाक्य ऐसे होते जो हवा को खुरदुरा कर दें—“अजय, अब उम्र निकलती जा रही है…”, “रीना, कभी अपना बच्चा भी—”। ऐसे वाक्यों के बाद कमरे में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा उतरता, फिर रीना किसी हल्की-सी बात से उसे पिघला देती—“माँजी, आज इमली की चटनी बनाऊँ? आपकी बचपन वाली।” और सचमुच वह इमली भिगोकर, गुड़ घोलकर, भूना जीरा कूटकर ऐसी चटनी बनाती कि पूरा घर बचपन की ओर लौट जाता। तब सबको याद आता कि हर कमी को भरने का एक स्वाद होता है, बस उसे ढूँढने की नीयत चाहिए।
एक शाम सरोज जी ने रीना को बुलाया—“बेटी, अगर मैं तुझे कहूँ कि कभी-कभी मुझे भी वही छोटे टुकड़े अच्छे लगते हैं, जो तेरे लाल डिब्बे में हैं, तो?” रीना ने मुस्कुराकर कहा—“तो मैं अभी आपके सामने साबुत बिस्किट तोड़कर टुकड़े कर दूँगी—आपके लिए। मेरे डिब्बे के टुकड़े मेरे हैं; आपकी थाली में जो आएगा, वह ‘पहला’ होगा, ‘बाक़ी’ नहीं।” सरोज जी ने ताली-सी बजाई—“तूने ‘पहला’ और ‘बाक़ी’ के बीच का धर्म समझ लिया है, बेटी।”
शहर में सर्दी बढ़ी। रात को खिड़की के फ्रेम से आती हवा हाथों पर ठंडी लगती। रीना ने सरोज जी के बिस्तर पर एक और कंबल जोड़ा और बगल में गरम पानी की बॉटल रख दी। अजय आधी रात को उठकर पानी पीने आया तो देखा, रीना माँजी के कमरे में ही सो गई थी—कुर्सी पर, सिर पीठ के सहारे टिका हुआ, एक हाथ में दुपट्टा, दूसरे हाथ में खुला लाल डिब्बा, जिसके ढक्कन पर थोड़ी रोशनी पड़ रही थी। वह दृश्य अजय के मन में जैसे किसी फ़्रेम में जड़ गया—वह जानता था कि यह वही दृश्य है जो थकान के सबसे अँधेरे पहर में उसे रोशनी देगा।
दिनों की रेलगाड़ी चलती रही। किसी स्टेशन पर खुशी, किसी पर चिंता, कहीं चाय की प्याली, कहीं बारिश का इंतज़ार। एक दिन मोहल्ले के मंदिर में भजन था। रीना ने सोचा, सरोज जी को थोड़ी देर के लिए ले जाया जाए, हवा बदल जाएगी। वहाँ पहुँची तो महिलाएँ दरी पर बैठी थीं, ढोलक पर धीमी थाप, और एक बुज़ुर्ग स्वर—“भरोसा रखो, सब ठीक होगा।” भजन के बाद प्रसाद में छोटे-छोटे बूँदी के लड्डू मिले। सरोज जी ने एक लड्डू आधा तोड़ा और आधा रीना को खिलाया—“ये टुकड़ा बचा-कुचा नहीं, यह साझा है।” रीना ने हँसकर कहा—“और साझा बचा-कुचा नहीं होता, वह नया जन्म होता है।”
इस बीच अजय के ऑफिस में वही प्रोजेक्ट एक बड़ी सफलता में बदल गया। टीम को सराहना मिली, और अजय को प्रमोशन। वह घर आया तो उसकी आँखों में चमक थी, पर वह भीतर प्रवेश करते ही उसी लय में घुल गया—पहले माँ का माथा छुआ, फिर रीना से आँखें मिलीं। उसने कहा—“यह प्रमोशन हमारा है। जो मैं हूँ, वह इस घर की वजह से हूँ।” सरोज जी ने तंज़ का स्वाद लिए बिना बस आशीर्वाद दिया—“तेरी कामयाबी में रीना का हाथ है, और तेरी रीना में मेरे भगवान का।”
एक दोपहर, जब धूप कुर्सी के बाँहों पर आयतें बना रही थी, रीना ने लाल डिब्बा खोला और ढक्कन की अंदरूनी सतह पर उँगली से हल्का-सा नाम लिखा—स-र-ो-ज—फिर मुस्कुरा कर उसे अपने पल्लू से मिटा दिया। उसे लगा, नाम लिखने से ज़्यादा ज़रूरी है उन नामों को निभाना। उसने ढक्कन बंद किया और धीरे से मन ही मन कहा—“यह डिब्बा सिर्फ़ मेरी आदत नहीं, मेरी याद है—उस दिन की, जब आपने मुझे ‘दौलत’ कहा था।”
कभी-कभी रीना का मन भी किसी उदास खिड़की पर जाकर टिक जाता—बचपन की एक सर्द सुबह, जब चाचा-चाची बाज़ार से लौटे थे और टेबल पर रखा मीठा किसी और ने खा लिया था। तब उसने ठान लिया था कि उसके हिस्से की मिठास वह खुद बनाएगी—लोगों के दिन में रंग भरकर, किसी के माथे की शिकन उतारकर। आज उसे महसूस हुआ कि वह ठानना कहीं खोया नहीं—यह घर उसी ठान की परिणति है। उसने पानी का गिलास उठाया, एक छोटा घूँट लिया और खुद से कहा—“कभी-कभी पानी भी मीठा लगता है, जब दिल हल्का हो।”
शहर में ठंडी हवा के बाद अचानक गर्मी ने दस्तक दी। पंखे फिर से तेज़ हुए, नीम की छाँह में फिर से गिलहरियाँ दौड़ीं। सरोज जी के घुटनों ने थोड़ी राहत ली, पर साँस कभी-कभी उखड़ जाती। रीना ने घर में तुलसी के पास रात को कपूर जलाना शुरू किया—हवा थोड़ी साफ़ रहती। अजय ने नेट पर पढ़ लिया था, पर रीना की आस्था किताबें नहीं, अनुभव थे। वह कहती—“अगर यह हमें सुकून देता है, तो यही हमारा विज्ञान है।”
एक शाम कोने की माला काकी ने बताया कि सामने वाले घर में झगड़ा हुआ—बहू ने सास के लिए कहा सुना। सरोज जी चुप रहीं, फिर धीरे से बोलीं—“रीना, लोग कहते हैं सास-बहू का रिश्ता कठिन होता है। तूने इसे आसान बना दिया।” रीना ने तुरंत जवाब दिया—“रिश्ता कठिन नहीं होता, हमारी अपेक्षाएँ कठिन होती हैं। आपने मुझे बेटी कहा, मैंने आपको माँ माना—इसके बाद रास्ते खुद आसान हो गए।”
उसी रात अजय ने माँ से कहा—“माँ, अगर एक दिन मैं इस घर की कहानी लिखूँ तो उसका नाम क्या रखूँ?” सरोज जी ने मुस्कुराते हुए कहा—“नाम की क्या ज़रूरत? जो पढ़ेगा, उसे अपना नाम मिल जाएगा।” रीना ने हँसते हुए बीच में कहा—“और अगर नाम रखना ही हुआ, तो ‘लाल डिब्बा’ रख दीजिए—लोग जानेंगे कि छोटी-सी चीज़ में कितनी बड़ी मिठास समा सकती है।”
कुछ समय बाद अस्पताल का एक छोटा-सा चक्कर फिर लगा—रूटीन जाँच। रिपोर्ट में कुछ चेतावनियाँ थीं, पर डर नहीं। डॉक्टर ने दवाएँ बदलीं, कुछ परहेज़ जोड़ दिए। लौटते वक्त ऑटो में हवा बालों से खेल रही थी। सरोज जी ने बाहर देखा—पेड़ों के बीच छिटके आसमान में शाम का रंग बदल रहा था। उन्होंने रीना का हाथ दबाया—“मैंने भगवान से दुआ नहीं माँगी किसी लंबी उम्र की; सिर्फ़ यह माँगा है कि जब तक साँस है, तेरे हाथ की छाया साथ रहे।”
घर लौटा तो दरवाज़े पर हल्दी का छो