12/10/2025
🕉️-बिश्नोई धर्म बिश्नोईज्म की पांच पाटवी शिष्य परम्परा :_
ऐतिहासिक प्रमाण और प्राचीन स्तोत्र_
✨ प्रस्तावना_
बिश्नोई धर्म,
जिसकी स्थापना संत श्री जाम्बोजी महाराज
ने 1485 ई.में समराथल धाम से की,
केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं बल्कि एक सामाजिक–आध्यात्मिक क्रांति थी।
जाम्बोजी ने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए
जिन प्रमुख शिष्यों को चुना,
वे इतिहास में “पांच पाटवी शिष्य”
के नाम से प्रसिद्ध हुए:_
👉खिंयों,भीयों,दुर्जनों,सैसो ने,और रणवीर।
इन शिष्यों ने बिश्नोई मत को राजस्थान,
हरियाणा,पंजाब,उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों
में फैलाया।
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📜 1.-ग्रंथीय प्रमाण:जाम्बाणी सबदवाणी और स्तोत्र_
बिश्नोई धर्म के मूल ग्रंथ जाम्बाणी सबदवाणी में “पंच प्रेषित”और “पाटवी मंडल”
जैसे शब्द कई स्थलों पर प्रयुक्त हुए हैं।
हालांकि इन पाँचों शिष्यों के नाम स्पष्ट
रूप से एक साथ नहीं आते,
परंतु उनके पद और भूमिका का संकेत
इन स्तोत्रों में है:
✍️ स्तोत्र 1—जाम्बाणी वाणी
(अध्याय: उपदेश साखी)
> “पांच पाटवी धरम धराए, रीत अडोल चलावे।
जाम्बाणी उपदेश बखाने, जग में ज्योति जगावे॥”
(अर्थ—पांच पाटवी शिष्यों के माध्यम से धर्म की रीत
स्थापित की गई,
उन्होंने उपदेशों का प्रचार कर समाज में प्रकाश फैलाया।)
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📜 2.-मौखिक वाणी और लोक परम्परा_
बिश्नोई समाज में आज भी पुराने गायणा भजन और
माँड गीतों में पंच पाटवी शिष्यों का उल्लेख मिलता है।
✍️ स्तोत्र 2—लोकगीत (गायणा परम्परा)
> “खिंयों,भीयों,दुर्जनों,सैसो ने रणधीर नाम गहाय।
गुरु जाम्बो जी री पावन बातां,
जग में फेर चलाय॥”
अर्थ—खिंयों,भीयों,दुर्जनों और सैसो ने रणधीर जी ने गुरु जाम्बोजी के उपदेशों
को जन-जन तक पहुँचाया।)
👉यह गीत आज भी नागौर और लूणकरणसर क्षेत्र
में गायणा समाज द्वारा गाया जाता है।
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📜 3.-उपदेश वाणी में “पंच प्रेषित”
का उल्लेख_
✍️ स्तोत्र 3—उपदेश वाणी (पं. 47)
> “पांच प्रेषित धरम के धुरा, जग में नीर बहाए।
जीव दया अरु रुख रक्षण, जाम्बाणी रीत निभाए॥”
अर्थ—पाँच प्रेषितों ने धर्म की धुरी संभाली,
उन्होंने जीव दया और वृक्ष संरक्षण की रीत
को जन-जन तक पहुँचाया।)
👉“पंच प्रेषित”शब्द को कई विद्वान
पांच पाटवी शिष्यों से जोड़ते हैं।
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📜 4.-ऐतिहासिक संदर्भ और सामाजिक संरचना_
16वीं शताब्दी में गुरु-शिष्य परम्परा
में शिष्य मंडल का विशेष महत्व था।
जैन धर्म में गणधर,
सिख धर्म में पंज प्यारे,
नाथ संप्रदाय में बारह सिद्ध,
और बिश्नोई धर्म में पांच पाटवी शिष्य—
ये सभी धार्मिक संगठन की रीढ़ थे।
बिश्नोई धर्म में भी यही पाँच पाटवी शिष्य
“जाम्बाणी धर्म मंडल”
के प्रमुख स्तंभ माने जाते थे।
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📜 5.-इतिहास में विकृति और उपेक्षा_
समय के साथ जब बिश्नोई समाज में गायणा समाज
और संत समाज का प्रभाव बढ़ा,
तो धार्मिक परम्पराओं के नियंत्रण
कुछ वर्गों में केंद्रित हो गया।
इस प्रक्रिया में पांच पाटवी शिष्य परम्परा
को धीरे-धीरे धार्मिक विमर्श से बाहर कर दिया गया।
लिखित इतिहास सीमित हाथों में गया
और मौखिक परम्परा हाशिये पर आ गई।
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📜 6.-आधुनिक समय में महत्व_
आज जब बिश्नोई धर्म पर्यावरण संरक्षण
और जीव दया के लिए पूरी दुनियां में सम्मान पा रहा है,
तब इन मूल परम्पराओं का पुनर्जागरण अति आवश्यक है।
पंच पाटवी शिष्य परम्परा न केवल धर्म की जड़ों
को मजबूत कर सकती है,
बल्कि इसे संरचित धार्मिक पहचान भी दे सकती है—
जैसे सिख धर्म में पंज प्यारे आज भी जीवित परम्परा हैं।
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🪔 निष्कर्ष—ऐतिहासिक गौरव की पुनर्स्थापना_
> “धर्म तभी जीवित रहता है,
जब उसकी परम्पराएँ जीवित रहती हैं।”
पांच पाटवी शिष्य परम्परा बिश्नोई धर्म का
एक ऐसा अध्याय है,जो समय की धूल में
दब गया है,लेकिन समाप्त नहीं हुआ।
जाम्बाणी सबदवाणी और लोक परम्पराओ
में मिले स्तोत्र इस बात के साक्षी हैं कि
यह परम्परा वास्तविक और प्रभावशाली थी।
इस परम्परा की पुनर्स्थापना—
✅ धर्म की प्रामाणिकता को सुदृढ़ करेगी
✅ समाज को एकजुट करने में मदद करेगी
✅ और बिश्नोई मत को सिख धर्म जैसी मज़बूत
धार्मिक पहचान दे सकती है।
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📚 संदर्भ स्रोत (References):
1.-जाम्बाणी सबदवाणी,पं. 47,62—
जाम्बाणी उपदेश माला।
2.-जाम्बाणी ग्रंथ—
नागौर संस्करण,संपादक:गायणा समाज।
3.-लोक परम्परा—नागौर,लूणकरणसर,
सिरसा क्षेत्र के मौखिक गायणा गीत।
4.-हरिदास टीका (18वीं सदी)—
पंच प्रेषित पर टिप्पणी।
5.-संत परम्परा और संगठनात्मक ढाँचा,
राजस्थान इतिहास परिषद शोध पत्रिका,खंड 7।
संकलनकर्ता:देवाराम बिश्नोई जोधपुर🙏