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गुरुदत्त की ज़िद से गढ़ा गया "प्यासा" में जॉनी वॉकर ------------------------------------------------------------------"प...
03/08/2025

गुरुदत्त की ज़िद से गढ़ा गया "प्यासा" में जॉनी वॉकर
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"प्यासा इतनी इटेंस फिल्म है। इसकी थीम इतनी डार्क है। इसमें भला जॉनी वॉकर को कैसे एडजस्ट किया जाएगा?" लेखक अबरार अल्वी ने गुरूदत्त साहब से कहा। क्योंकि गुरूदत्त उनसे ज़िद कर रहे थे कि प्यासा में किसी भी तरह जॉनी वॉकर की शख्सियत पर आधारित कोई किरदार लिखो, ताकि जॉनी को भी प्यासा फ़िल्म में फिट किया जा सके। लेकिन अबरार अल्वी इसके लिए तैयार नहीं हो रहे थे।

तो कैसे प्यासा जैसी डार्क फिल्म में जॉनी वॉकर साहब को ये मस्तीभरा गीत मिला था? ये किस्सा आपको पसंद आएगा गारंटी है। कहानी की शुरुआत होती है इस बात से कि ना तो इस गाने की कोई प्लानिंग थी। और ना ही ये तय था कि जॉनी वॉकर प्यासा फिल्म में होंगे। वैसे, गुरूदत्त चाहते तो थे कि श्याम वाला कैरेक्टर जॉनी वॉकर से कराया जाए। लेकिन बाद में वो समझ गए कि वो किरदार जॉनी वॉकर की शख्सियत के एकदम उलट है। वो आखिर में जाकर निगेटिव हो जाएगा। और लोग उसमें जॉनी वॉकर को पसंद नहीं करेंगे।

एक दिन गुरूदत्त ने लेखक अबरार अल्वी से कहा कि तुम इस फिल्म में जॉनी वॉकर के लिए कोई कैरेक्टर डेवलप करो। अबरार अल्वी ने साफ इन्कार कर दिया। वो बोले,"प्यासा इतनी इटेंस फिल्म है। इसकी थीम इतनी डार्क है। इसमें भला जॉनी वॉकर को कैसे एडजस्ट किया जाएगा?"

मगर गुरूदत्त नहीं माने। वो कई दिनों तक अबरार अल्वी से इसी बारे में चर्चा करते रहे कि जॉनी को कैसे इस फिल्म में लाया जा सकता है। वो जब भी अबरार अल्वी से जॉनी वॉकर के बारे में बात करते, अबरार अल्वी उन्हें यही जवाब देते कि प्यासा एक सीरियस फिल्म है। इसमें मस्ती-मज़ाक का कोई स्कोप है ही नहीं। और गुरूदत्त हर दफा उनसे यही कहते थे कि कुछ ना कुछ तो हो ही सकता है।

एक दफा तो गुरूदत्त और अबरार अल्वी के बीच जॉनी वॉकर को लेकर बहस इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि गुरूदत्त जी ने साफ कह दिया कि अगर जॉनी वॉकर फिल्म में नहीं होगा तो मैं ये फिल्म बनाऊंगा ही नहीं। वहीं अबरार अल्वी ने भी कह दिया कि जॉनी वॉकर के लिए मैं ये कहानी खराब नहीं होने दूंगा। यानि मामला एकदम टेंश हो गया। एक दिन प्यासा के ही एक सीन की शूटिंग के लिए गुरूदत्त, अबरार अल्वी व जॉनी वॉकर तथा अन्य लोग कलकत्ता गए थे।

कलकत्ता भी फ्री टाइम में इसी बात का ज़िक्र चलता रहा कि जॉनी वॉकर को प्यासा में लिया जा सकता है कि नहीं। एक दिन गुरूदत्त ने अबरार अल्वी और जॉनी वॉकर को साथ लिया और होटल के सामने मौजूद विक्टोरिया गार्डन में जाकर आराम से बैठने का फैसला किया। उस दिन तय किया गया था कि आज काम के बारे में कोई बात नहीं की जाएगी। आज सिर्फ आराम किया जाएगा। चाय वगैरह पी जाएगी। और पुचके का स्वाद लिया जाएगा।

विक्टोरिया गार्डन की एक दुकान पर ये तीनों पुचके खा ही रहे थे कि तभी गुरूदत्त साहब को पीछे से आती एक आवाज़ सुनाई दी।,"मालिश। तेल चंपीईईई" गुरूदत्त ने उस आवाज़ की तरफ देखा। उन्हें एक मालिश वाला ये आवाज़ लगाते दिखा। फिर उन्होंने अबरार अल्वी से कहा,"अबरार। तुम कहते हो ना कि ये फिल्म बहुत हैवी है। ये इतनी इटेंस है कि इसमें कॉमेडी डाली ही नहीं जा सकती। तो कहीं ऐसा ना हो कि लोगों को ये फिल्म कतई बोझिल लगने लगे। इसलिए तुम फिल्म में एक चंपी वाले का रोल डालो। ये रोल जॉनी करेगा। और ये बीच-बीच में लोगों की टेंशन दूर करता रहेगा।"

यहां ये बात भी आपको बता दूं कि अभिनेता बनने से पहले जॉनी वॉकर बस कंडक्टर थे, ये तो सभी जानते हैं। लेकिन उससे भी पहले जॉनी वॉकर मुंबई के माहिम इलाके में रात में लगने वाले मेले में साइकिल पर विभिन्न प्रकार का सामान बेचा करते थे। और उस वक्त वो तरह-तरह की आवाज़ें निकाला करते थे। गुरूदत्त इस बात से वाकिफ थे। तो उन्होंने उस दिन कलकत्ता में जॉनी वॉकर से कहा कि तुम ऐसे ही आवाज़ बदलकर इस मालिश वाले की नकल करने की कोशिश करो।

फाइनली अबरार अल्वी को भी गुरूदत्त जी के इस आइडिया से कन्विंस होना पड़ा। और आखिरकार उन्होंने प्यासा के लिए अब्दुल सत्तार का किरदार लिखा। और उस किरदार के लिए एक पूरा गाना भी साहिर लुधियानवी जी से लिखवाया गया। गाने को रफी साहब ने अपनी आवाज़ दी। और एक कालजयी गाना बना,"सर जो तेरा चकराए। या दिल डूबा जाए। आजा प्यारे पास हमारे काहे घबराए। काहे घबराए।" और ये गीत जॉनी वॉकर साहब की पहचान बन गया।

एक लास्ट बात और। इस गीत का वीडियो देखने पर हमें लगता है कि ये मानो कलकत्ता के विक्टोरिया गार्डन में ही फिल्माया गया हो। लेकिन वास्तव में ये गीत बॉम्बे में ही कलकत्ता के विक्टोरिया गार्डन जैसा दिखने वाला सेट बनवाकर फिल्माया गया था। एक-एक स्ट्रीट लाइट, बेंच और फैंसिंग का ध्यान बड़ी बारीकी से रखा गया था इस सेट का निर्माण करते वक्त। ताकि कोई ये अंदाज़ा ना लगा सके कि ये गीत विक्टोरिया गार्डन में नहीं, कहीं और सूट हुआ है।

तो साथियों, ये थी जॉनी वॉकर जैसे हंसोड़ शख्सियत वाले इंसान के प्यासा जैसी मार्मिक फिल्म का हिस्सा बनने की कहानी। ये कहानी मुझे जॉनी वॉकर जी के बेटे और अभिनेता नासिर खान के यूट्यूब चैनल के माध्यम से पता चली है। कमेंट के माध्यम से ज़रूर बताइएगा कि आपको ये कहानी कैसी लगी। आप सभी का बहुत बहुत आभार।

अंतरिक्ष में गूँजता हिंदुस्तानी संगीत---------------------------------------------- प्रवीण कुमार झायह क़िस्सा उन दिनों क...
09/07/2025

अंतरिक्ष में गूँजता हिंदुस्तानी संगीत
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- प्रवीण कुमार झा

यह क़िस्सा उन दिनों का है जब मनुष्य चाँद पर पहुँच चुका था, और अब सितारों से आगे का जहान तलाश रहा था। सौरमंडल से दूर की दुनिया। 1977 में अमरीका के नासा ने वोयेजर को आकाशगंगाओं की इस यात्रा के लिए तैयार किया। अब सवाल यह था कि इसमें आखिर कौन सा संदेश भेजा जाए। पृथ्वी की वह कौन सी ध्वनि हो, जो इसका प्रतिनिधित्व करती हो। दुनिया इतनी बड़ी है कि ऐसी कोई एक आवाज़ तो मुमकिन नहीं।

अमरीका के खगोलशास्त्री कार्ल सगान ने ऐसे संगीत के छोटे-छोटे टुकड़े तलाशने शुरू किए, जो पृथ्वी का एक ऑर्केस्ट्रा बन सके। भारत से भी ऐसे संगीत के कैप्सूल की खोज हुई, जो दो-तीन मिनट में ही दूरगामी प्रभाव छोड़ जाए। ऐसी बुलंद आवाज़ जो सदियों तक अंतरिक्ष में गूँजती रहे। इसके लिए चयन किया गया केसरबाई केरकर की ‘जात कहाँ हो’ का। यह राग भैरवी में गायी बंदिश है।

जब मैंने पहली बार यह प्रस्तुति सुनी, तो केसरबाई के ‘कहाँ’ कहते ही लगा कि राग और बंदिश का रस इस एक शब्द में समाहित हो गया। स्वर ठिठक कर एक सीढ़ी झट से यूँ उतरता है, जैसे विरह वेदना में नायिका के पैर फिसल गए हों।

केसरबाई की आवाज़ कभी-कभी बैरीटोन या पौरुष स्वर की लग सकती है। ऐसा संभवतः गंगूबाई हंगल और ढोंढूताई कुलकर्णी में भी नज़र आए। लेकिन, यह उनके रेंज को ही दर्शाता है। केसरबाई उस दौर की थी जब महिला गायकों को ऊँचे मंचों पर लंबे ख़याल गायन का मौका कम मिलता था। उनका दायरा ठुमरी और उप-शास्त्रीय गायन तक सीमित था। लेकिन, केसरबाई केरकर और मोगूबाई कुर्दीकर सरीखों ने इन सीमाओं को तोड़ा। उन्होंने न सिर्फ़ मंच पर गाया, बल्कि उन्हें सुनने के लिए भीड़ भी आयी।

ऊपर बताए महिला गायकों में तीन नाम केसरबाई, मोगूबाई और ढोंढूताई काफ़ी हद तक एक घराने से जुड़े नाम हैं। यह अलादिया ख़ान का घराना है, जिसे जयपुर-अतरौली घराना भी कहा जाता है। किशोरी अमोनकर मोगूबाई कुर्दीकर की पुत्री थी। अब तो महिला गायकों की लंबी फ़ेहरिस्त है, और ऐसा कोई मंच नहीं जहाँ महिला स्वर न हो।

ज़ाहिर है केसरबाई केरकर ने अपनी यह बुलंदी संघर्ष के बाद ही पायी होगी। अलादिया ख़ान से गंडा-बंधन के लिए भी प्रचलित क़िस्से हैं कि यह इतना आसान नहीं था। जैसे एक क़िस्सा है कि सेठ विट्ठलदास द्वारकादास ने केसरबाई के कहने पर झूठा टेलीग्राम भेज कर अलादिया ख़ान को बंबई बुलवाया था। लेकिन एक बार जब वह शिष्य बन गयी तो वर्षों तक समर्पित हो गयी। जब सीख कर मंच पर लौटी तो यह आवाज़ एक मिसाल बन गयी।

केसरबाई को संगीत की रिकॉर्डिंग और उपकरणों से भी शिकायत थी। उस वक्त तो खैर माइक्रोफोन और स्पीकर आज की तरह नहीं थे। वह इनके बिना ही गाना पसंद करती। यह सोच कर भी ताज्जुब होता है कि सैकड़ों की भीड़ में भला बिना माइक के एक महिला गायक किस तरह गाती होंगी। क्या उनकी आवाज़ आखिरी पंक्ति में बैठे लोगों तक पहुँचती होगी? ढोंढूताई कुलकर्णी ने इस प्रश्न का उत्तर कुछ यूँ दिया है-

“आवाज़ तो नाभि से यूँ उछल कर आए कि आख़िरी पंक्ति में बैठा श्रोता भी हर स्वर यूँ सुने जैसे कि पहली पंक्ति का श्रोता।”

पता नहीं आज के तकनीकी दुनिया में केसरबाई का रुख़ कैसा होता, जब रिकॉर्डिंग स्टूडियो बेसुरों को भी सुरीला बनाने की जुगत लगाते हैं। उनके ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड का एक क़िस्सा है कि वह बंबई में तांगे से जा रही थी, तो फुटपाथ पर अपने रिकॉर्ड बिकते देखे। वह देख कर भड़क गयी कि उनका संगीत भला फुटपाथ पर कैसे आ गया।

उन्होंने भविष्य में अपनी रिकार्डिंग ही बंद करने का निर्णय ले लिया। अगर कोई छुप कर रिकॉर्ड कर लेता तो वह उसका रिकॉर्ड ही तोड़ देती। उन्होंने आकाशवाणी पर गाने से भी मना कर दिया कि उनकी आवाज़ किसी पान-बीड़ी की दुकान पर न बजे। पता नहीं यह सब आज के जमाने में किस तरह देखा जाए, जब हर आवाज़ यूट्यूब पर है, और मुझे भी इसी माध्यम से उन्हें सुनने का अवसर मिल रहा है। लेकिन, यह भी सच है कि आज उनकी आवाज़ उस ऊँचाई पर है, जहाँ भारत की कोई दूसरी आवाज़ नहीं।

इस पृथ्वी से दूर। तमाम ग्रहों से आगे। अंतरिक्ष में गूँज रही है- जात कहाँ हो अकेली गोरी…

(प्रवीण कुमार झा एक संगीत प्रेमी और ‘वाह उस्ताद’ नामक पुस्तक के लेखक हैं। वह सम्प्रति नॉर्वे में चिकित्सक हैं)

लिंक- https://youtu.be/Qyj8QF5-6Fs?si=MMAac7YtOx5XiWRt

हम होंगे कामयाब एक दिन ... रचने वाले अनिल दा-----------------------------------------------------------------अनिल बिस्वा...
07/07/2025

हम होंगे कामयाब एक दिन ... रचने वाले अनिल दा
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अनिल बिस्वास अपनी पत्नी के साथ
घर में मजे से कुछ पका रहे हैं और
लता मंगेशकर बगल में बैठे हुए
ध्यान से देख रही हैं,कोयले की
सिगड़ी जल रही है,डालडे का
डिब्बा रखा हुआ है।

अनिल बिस्वास का लता,तलत महमूद
और दिलीप कुमार से पारिवारिक संबंध था,
ये संगीतकार होने के साथ मजबूत कद काठी
के अत्यंत ताकतवर और पहलवान किस्म के
आदमी थे।

कलकत्ता से मुंबई आए अनिल दा का सफर
फिल्म जगत में सिर्फ 26 साल रहा।
1961 में बीस दिनों में छोटे भाई सुनील और
बड़े बेटे के निधन ने अनिल दा को भीतर से
तोड़ दिया।

वे मुंबई से दिल्ली चले गए और मृत्युपर्यंत
साउथ एक्सटेंशन में रहे।

यहाँ रहते हुए भी उन्होंने आकाशवाणी को
अपनी सेवाएँ दीं और 'हम होंगे कामयाब
एक दिन' जैसा गीत युवा पीढ़ी को दिया।

इस गीत की शब्द रचना में उन्होंने कवि
गिरिजा कुमार माथुर से सहयोग किया था।

अनिल बिस्वास की पत्र-पत्रिका और
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा 1994 में
हुई,जब म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग
ने उन्हें लता मंगेशकर अलंकरण से
सम्मानित किया।

लता मंगेशकर अपने गायन के आरंभिक
चरण में गायिका नूरजहाँ से प्रभावित थीं।

अनिल दा ने लता को इस 'प्रेत बाधा' से
मुक्ति दिलाकर शुद्ध-सात्विक
लता मंगेशकर बनाया।

अनिल दा के संगीत में लताजी के कुछ
उम्दा गीतों की बानगी देखिए-मन में किसी
की प्रीत बसा ले (आराम), बदली तेरी नजर
तो नजारे बदल गए (बड़ी बहू), रूठ के तुम
तो चल दिए (जलती निशानी)।

स्वयं लताजी ने इस बात को स्वीकार किया
है कि अनिल दा ने उन्हें समझाया कि गाते
समय आवाज में परिवर्तन लाए बगैर श्वास
कैसे लेना चाहिए।

यह आवाज तथा श्वास
प्रक्रिया की योग कला है।

अनिल दा उन्हें लतिके कहकर पुकारते थे।

इसी तरह मुकेश को सहगल की आवाज
के प्रभाव से मुक्त कराकर उसे मुकेशियाना
शैली प्रदान करने में अनिल दा का हाथ है।

तलत महमूद की मखमली आवाज पर
अनिल दा फिदा थे।

तलत की आवाज के कम्पन और मिठास
को अनिल दा ने रेशम-सी आवाज कहा था।

किशोर कुमार से फिल्म 'फरेब' (1953) में
अनिल दा ने संजीदा गाना क्या गवाया,
आगे चलकर इस शरारती तथा नटखट
गायक के संजीदा गाने देव आनंद-राजेश
खन्ना के प्लस-पाइंट हो गए।

संगीतकार नौशाद ने कहा"अनिल बिस्वास
एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार हैं,
जो पंजाबी फिल्म में पंजाबी,गुजराती
फिल्म में गुजराती,मुगल फिल्म में मुगलिया
संगीत देने में माहिर हैं।

वे कीर्तन, जत्रा और रवीन्द्र संगीत के अलावा
भी हिन्दुस्तानी संगीत को बखूबी जानते हैं"

अनिल विश्वास का जन्म बरीसाल
(पूर्वी बंगाल) में 7 जुलाई 1914
को हुआ था।

चार साल की उम्र से वे गाने लगे थे।

किशोर उम्र में देशभक्ति जागी और स्वतंत्रता
आंदोलन में शामिल हो गए।

जेल गए और यातनाएँ सही। 16 साल की
उम्र में नवंबर 1930 में कलकत्ता में महान
बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष के घर शरण ली।

अनिल दा की बहन पारुल घोष ने पन्नालालजी
से विवाह रचाया था।

युवा अनिल ने यहाँ ट्यूशनें की।

काजी नजरूल इस्लाम के कहने पर मेगा
फोन रिकॉर्ड कंपनी में काम किया।

उनका पहला रिकॉर्ड उर्दू में जारी हुआ था।

यहीं पर उनकी मुलाकात कुंदनलाल सहगल
और सचिन देव बर्मन से हुई थी।

हीरेन बोस के साथ मुंबई आए और
26 साल संगीत सृजन किया।

अभिनेत्री मीना कपूर से उन्होंने शादी की थी।

अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन की पहली
फिल्म 'धर्म की देवी' (1935) थी और अंतिम
'छोटी-छोटी बातें'(1965)।

इसे अभिनेता मोतीलाल ने बनाया था।

अनिल विश्वास संगीत को स्वतंत्र पहचान
देने वाले प्रथम संगीतकार हैं।

आज हिमालय की चोटी से फिर हमने
ललकारा है/दूर हटो, दूर हटो,दूर हटो
ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है'।

भारत की आजादी के 4 साल पहले
देशभक्ति का यह तराना गली-गली गूँजा था।

बच्चे-बच्चे की जबान पर था।

फिल्म किस्मत (1943) के इस गीत को
बड़नगर (म.प्र.) के गीतकार कवि प्रदीप
ने लिखा था और पूर्वी बंगाल के संगीतकार
अनिल बिस्वास ने जोशीले संगीत से सँवारा था।

इस गीत को सुनकर देशभक्तों की रगों
में खून की रफ्तार तेज हो जाती थी।

उनका संगीत कालजयी है

एक और महत्वपूर्ण तत्व जो उन्होंने पेश किया,
वह था पश्चिमी ऑर्केस्ट्रेशन,गीतों में और साथ
ही उनके मधुर अंतराल में स्वदेशी वाद्ययंत्रों का
उपयोग करना,एक प्रवृत्ति जिसने जल्द ही पकड़
लिया और आज भारतीय सिनेमा के संगीत के
लिए मार्ग प्रशस्त किया।

अब वे हमारे बीच नहीं हैं,
लेकिन उनकी संगीत धरोहर संगीतप्रेमियों
के लिए प्रकाश स्तंभ के समान है।
Gupta

जन्मतिथि पर उन्हें समस्त संगीत प्रेमियों का शत शत नमन🌺कोटि कोटि वंदन🙏

कौन है ये फॉरेस्ट मेन??------------------------------वर्ष 1979 में जाधव नाम का यह शख्स अपनी 10 वीं की परीक्षा देने के बा...
07/07/2025

कौन है ये फॉरेस्ट मेन??
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वर्ष 1979 में जाधव नाम का यह शख्स अपनी 10 वीं की परीक्षा देने के बाद अपने गाँव में ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़ का पानी उतरने पर इसके बरसाती भीगे रेतीले तट पर घूम रहा था। तभी इसकी नजर लगभग 100 मृत सांपों के विशाल गुच्छे पर पड़ी। इसके बाद वह आगे बढ़ता गया तो इसने देखा पूरा नदी का किनारा मरे हुए जीव जन्तुओं से अटा पड़ा है एक मरघट का सादृश्य था।
मृत जीवों के शवों के कारण पैर रखने की जगह नही थी। इस दर्दनाक सामूहिक निर्दोष मौत के दृश्य ने किशोर जाधव के मन को झकझोर दिया।

हज़ारो की संख्या में निर्जीव जीव जन्तुओ की निस्तेज फटी मुर्दा आँखों ने जाधव को कई रात सोने न दिया। गाँव के ही एक आदमी ने चर्चा के दौरान विचलित जाधव से कहा जब पेड़ पौधे ही नही उग रहे हैं, तो नदी के रेतीले तटों पर जानवरों को बाढ़ से बचने का आश्रय कहाँ मिले? जंगल के बिना इन्हें भोजन कैसे मिले? यह बात जाधव के मन को चीर गई उसने प्रण किया कि जानवरों को बचाने पेड़ पौधे लगाने होंगे।

50 बीज और 25 बांस के पेड़ लिए 16 साल का जाधव पहुंच गया नदी के रेतीले किनारे पर रोपने। ये बात आज से 35 साल पुरानी है।

वह दिन का दिन था और आज का दिन। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इन 35 सालों में जाधव ने 1360 एकड़ भूमि पर एक सघन जंगल बिना किसी सरकारी मदद के खड़ा कर डाला। क्या हमें भरोसा होगा कि एक अकेले आदमी के लगाये उस जंगल में
5 बंगाल टाइगर,100 से ज्यादा हिरण, जंगली सुअर, 150 जंगली हाथियों का झुण्ड, गेंडे और अनेक जंगली पशु शांति से घूम रहे हैं, इनमें सांप भी हैं, जिनको इस अद्भुत कर्मयौद्धा ने इस जंगल की शान बनाया।

जंगल का क्षेत्रफल बढ़ाने वह सुबह 9 बजे से पांच किलोमीटर साईकल से जाकर नदी पार करता और दूसरी तरफ वृक्षारोपण कर फिर सांझ ढले नदी पार कर साईकल से 5 किलोमीटर तय कर घर वापिस घर आता।
इनके लगाये इस जंगल में में कटहल, गुलमोहर, अन्नानाश, बांस, साल, सागौन, सीताफल, आम, बरगद, शहतूत, जामुन, आडू और कई औषधीय पौधे हैं।
आश्चर्यजनक और दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि इस असम्भव को संभव कर दिखाने वाला यह साधक पंद्रह साल पहले तक देश में अनजान था।

यह कर्मयौद्धा अपनी धुन में अकेला असम के जंगल में साइकिल पर पौधो से भरा एक थैला लिए अपने बनाए जंगल में अकेला अपनी धुन में काम कर रहा था। सबसे पहले वर्ष 2010 में देश की नजर में तब आया जब वाइल्ड फोटोग्राफर “जीतू कलिता” ने इन पर डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई “The Molai Forest”। यह फिल्म देश के नामी विश्वविद्यालयों में दिखाई गयी। दूसरी फिल्म आरती श्रीवास्तव की “Foresting Life” जिसमें जाधव की जिन्दगी के अनछुए पहलुओं और परेशानियों को दिखाया। तीसरी फिल्म “Forest Man” जो विदेशी फिल्म महोत्सव में भी काफी सराही गई।
एक अकेले व्यक्ति ने वन विभाग की मदद के बिना, किसी सरकारी आर्थिक सहायता के बगैर पर्यावरण की रक्षा हेतु इतना बड़ा कार्य किया।

जाधव इतने पिछड़े इलाके से था से कि उसके पास पहचान पत्र के रूप में “राशन कार्ड” तक नहीं था। उसने हज़ारों एकड़ में फैला पूरा जंगल खड़ा कर दिया।
जानने वालों ने उसके इस काम पर उसका सम्मान करते हुए इस जंगल का नाम उनके नाम पर रखा। आसाम के इस जंगल को “मिशिंग जंगल” कहा जाता है।

साभार

जब नीरज ने एसडी बर्मन को फैल कर दिया--------------------------------------------------------अभिनेता देवानंद ने गीतकार नी...
05/07/2025

जब नीरज ने एसडी बर्मन को फैल कर दिया
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अभिनेता देवानंद ने गीतकार नीरज जी (गोपालदास नीरज) को पहली बार बम्बई में कवि सम्मेलन में सुना था। कवि नीरज उन्हें इतने पसंद आए कि उन्होंने नीरज जी से कहा, 'मुझे आपकी हिंदी भाषा बोलने की शैली बहुत पसंद आई हम किसी दिन साथ में काम करेंगे। ''

60 के दशक के अंत में जब गीतकार नीरज जी को पता चला कि देवानंद 'प्रेम पुजारी' नाम की फिल्म बनाने जा रहे है, तो नीरज ने उन्हें खत लिख कर उनके वादे की याद दिलाई ....। देवानंद ने भी वादा निभाया। उन्हें बंबई बुलाया उन्हें 1000 रुपये दिए और संगीतकार एस.डी बर्मन के पास ले गए। सचिन देव बर्मन ने नीरज जी को कहा कि .... "वे एक गाना चाहते हैं जो 'रंगीला' शब्द से शुरू हो और उसमे हिंदी के आलावा किसी भी भाषा का कोई भी शब्द न हो।''

हिंदी सिनेमा के उस सुनहरे दौर में बिना उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल किये शायद ही कोई गीत बनता था। नीरज जी ने इसे एक चुनौती की तरह लिया। गोपाल दास 'नीरज' ने फिल्म 'प्रेम पुजारी' में ''रंगीला रे रंगीला रे ''गाना पूर्णतः हिंदी में लिख कर यह साबित किया कि गाने के लिए उर्दू के शब्दों की कोई जरूरत नहीं है। इस गाने में उर्दू का कोई भी अल्फाज़ नहीं है। इस तरह से ''रंगीला रे तेरे रंग में क्यूं रंगा है मेरा मन...'' जैसे यादगार गीत का जन्म हुआ, जिसमे वहीदा रहमान ने सफ़ेद फूलों के बार्डर वाली साड़ी में गज़ब का नृत्य किया। यह गीत आज भी मास्टर पीस है।

कवि नीरज जी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि एस.डी. बर्मन ने बाद में उन्हें खुद बताया था .... ''मैंने तुम्हें फेल करने के लिए एक कठिन धुन दी थी, लेकिन तुमने मुझे ही यह बेहतरीन गीत देकर फेल कर दिया। ''

* (गोल्डन इरा सांग्स)

25/05/2025

नईदुनिया का ढाँचा भी ढह गया
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#विजयमनोहरतिवारी
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हिंदी के पाठकों और पत्रकारों के लिए यह एक ब्रेकिंग न्यूज ही है। इंदौर के बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग पर नईदुनिया का भव्य भवन ढहा दिया गया है। हिंदी पत्रकारिता की यह शक्तिपीठ 13 साल पहले ही शक्तिहीन हो चुकी थी। एक ढाँचा भर था, जो उसके स्मारक की तरह अब तक खड़ा था। विनय छजलानी इन दिनों विदेश में हैं। अब वह भवन कांक्रीट के ढेर के रूप में सामने है। वे लौटकर आएँगे तब तक उन्हें नश्वर संपत्ति की नई इबारत लिखने के लिए मैदान साफ मिलेगा।

साल 2012 में उत्तरप्रदेश के दैनिक जागरण समूह के हाथों बिकने के बाद पुरानी नईदुनिया का यह तेरहवाँ साल है। यह संपत्ति छजलानी परिवार के पास थी, जहाँ पत्रकारिता की एक महान विरासत फली-फूली थी। मध्यप्रदेश और मालवा की उर्वर भूमि से इस विरासत का कोई उत्तराधिकारी नहीं निकला। संपत्ति के मालिकों ने अपनी निजी संपत्ति के बारे में वही निर्णय लिया, जो लाभ कमाने के लिए कोई भी समझदार कारोबारी करता है।

महीना भर पहले ही इंदौर प्रेस क्लब में मैंने नईदुनिया के दुखद अवसान पर कहा था कि वह संपत्ति भले ही सेठिया और छजलानी परिवार की रही होगी मगर वह विरासत मालवा और मध्यप्रदेश की थी। वह विरासत हिंदी पत्रकारिता की थी। वह समाज की धरोहर थी, जिसे उसकी पुरानी सुगंध के साथ सहेजा जाना चाहिए था। मगर आर्थिक संकट उस स्तर पर पहुंचा दिए गए कि बिकना ही एकमात्र विकल्प रहा गया। और एक दिन वह बिक गया। जैसे हर दिन हजारों मकान, दुकान और प्लॉट बिकते हैं, नईदुनिया भी बिक गया।

हर साल धार्मिक और सामाजिक उत्सवों पर दो-चार सौ करोड़ फूँकने वाले प्रदेश के सबसे कमाऊ इंदौर शहर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। इंदौर की पहचान का सौदा हो चुका था और देर रात सराफ की चाट खाकर सोए शहर के जागृतजन अगली सुबह बड़े आराम से उठे और अपने काम में लग गए।

मैं कोविड के ठीक पहले इसी भव्य भवन के पीछे स्थित आवास पर आदरणीय अभयजी से मिलने पहुँचा था। यह वही प्रांगण था, जहाँ मुझ जैसे अनेक युवाओं को पत्रकारिता में आगे बढ़ने के आरंभिक अवसर मिले थे। इसी आँगन में हमने अपने नन्हें कदमों से संभलकर खड़े होना और चलना सीखा था। नवंबर 1994 में जब मेरा चयन हुआ तब इंदौर के प्रिय बाबा यानी राहुल बारपुते जीवित थे। संपादकीय विभाग में उनकी मेज-कुर्सी हॉल के बिल्कुल बीचों बीच किसी मंदिर के गर्भगृह जैसी थी। वे अकेले थे, जो सिगरेट सुलगा सकते थे। उनकी सिगरेट किसी धूनी के धुएँ जैसी थी। बाबा अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में थे। दो साल बाद ही चल बसे। उनकी उपस्थिति नईदुनिया की महान संपादकीय परंपरा की अंतिम कड़ी थी।

फ्रंट पेज की डेस्क पर ठाकुर जयसिंह पुराने संपादकीय सहयोगियों में थे। मैं शाम चार से छह तक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठता था। एक दिन सेव-परमल की शाम की नियमित दावत में उन्होंने कहा कि विजय एक समय प्रभाष जोशी इसी डेस्क पर बैठते थे। यह सुनते ही मैं संभलकर बैठ गया था। इस परिसर से राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे हिंदी के शिखर संपादक निकले थे। शरद जोशी जैसे प्रसिद्ध व्यंग्यकार का गहरा नाता नईदुनिया से रहा था। वेदप्रताप वैदिक बाबा से मिलने आया करते थे। उन चमकदार दशकों में इंदौर आने वाली विविध क्षेत्रों की शिखर विभूतियाँ नईदुनिया की परिक्रमा किया करती थीं।

जून 1997 में नईदुनिया 50 साल का हुआ। इसके ठीक एक साल पहले एक सुबह सराफे की चाट खाकर सोए इंदौरवासियों ने शहर के चौराहों पर एक आकर्षक होर्डिंग देखा था। दैनिक भास्कर की ओर से लगे इस होर्डिंग पर लिखा था-"एक लाख प्रतियाँ समारंभ।' दैनिक भास्कर ने भोपाल से इंदौर जाकर बारह साल की मेहनत के बाद यह दावा किया कि अब वह एक लाख की संख्या में छपने लगा है। कई दिन चले भास्कर के उत्सव में शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय की शोभायात्रा निकली थी। सयाजी होटल में टीएन शेषन जैसी विभूतियाँ व्याख्यान देने आईं थीं।

नईदुनिया ने अपने पचास साल का जलसा लालबाग पैलेस में सजाया, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा आए थे। इस अवसर पर आदरणीय अभयजी ने एक दस्तावेज लिखा था- "प्रतिबद्धता की आधी शती।' इन पचास सालों में नईदुनिया ने प्रसार की दृष्टि से 77 गुना बढ़ोतरी दर्ज की थी। छह पैसे में चार पेज का नईदुनिया 1947 में केवल डेढ़ हजार कॉपियाँ छापता था, जो अब एक लाख 15 हजार हो गई थीं। मगर प्रसार संख्या ही नईदुनिया की ताकत नहीं थी। लोग हिंदी सीखने के लिए नईदुनिया पढ़ते थे। नईदुनिया पढ़े बगैर दिन के होने का विश्वास नहीं होता था। पाठकों का यह विश्वास नईदुनिया की ताकत थी, जिसमें अनेक ऋषियों की साधना का बल लगा था।

नईदुनिया में क्षमता थी कि वह देश में सौ संस्करणों का समाचार पत्र बनता। वह कई भारतीय भाषाओं में छपता। नईदुनिया का अपना टीवी चैनल होता। एफएम के दौर में अपने रेडियो चैनल होते। अपना फिल्म प्रोडक्शन हाऊस होता। अपनी विज्ञापन एजेंसी होती। कम्युनिकेशन का कोई माध्यम अछूता नहीं छूटना चाहिए था। नईदुनिया ऐसा ब्रांड बनने की शक्ति रखता था। मगर स्वतंत्र संपादकों का दौर समाप्त होते ही पूरी ताकत आदरणीय अभयजी के हाथों में आ गई और उनके लिए इंदौर की पूरी दुनिया थी। नईदुनिया का मतलब अभय छजलानी था। खेल प्रशाल बनाने में उन्होंने वह सारी ऊर्जा लगा दी, जो नईदुनिया को एक देशव्यापी ब्रांड बनाने में लग सकती थी।

दूसरा दुर्भाग्य यह रहा कि दैनिक भास्कर के श्रीमान् रमेशचंद्र अग्रवाल की तरह अभयजी के परिवार में परमात्मा ने एक सुधीर अग्रवाल नहीं दिया। विनय छजलानी उनके सुपुत्र थे, मगर उनकी कोई रुचि अखबार में नहीं थी। हमने उन्हें कभी अखबार में देखा तक नहीं। उनके अपने कारोबार थे। वे अपनी जगह सफल थे। एक आयु के बाद अभयजी के आगे नईदुनिया का डेड एंड था।

अभयजी से मेरी आखिरी मुलाकात के समय नईदुनिया को बिके हुए आठ साल हो चुके थे। अभयजी की स्मृतियाँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही थीं। नईदुनिया के पतन के प्रश्न पर श्रीमती पुष्पा छजलानी ने मुझसे कहा था कि इन्होंने गलत लोगों पर भरोसा किया। लोगों ने इन्हें धोखे दिए। इन्हें सही आदमी की पहचान नहीं थी। कभी इस पर अवश्य लिखना। अभयजी खामोशी से सुन रहे थे। मुझे नहीं पता कि वे उस समय क्या विचार कर रहे होंगे।

जब नईदुनिया को चलाने के लिए विनय छजलानी ने सारे सूत्र अपने हाथों में लिए तब सबने देखा कि अभयजी उपेक्षित कर दिए गए हैं। पुष्पा छजलानी ने तब अपने सुपुत्र विनय छजलानी को एक पत्र के जरिए यह पीड़ा व्यक्त की थी। नईदुनिया के महान योगदान और दुखद अंत पर प्रमाणिक दस्तावेज लिखे जाने चाहिए।

मुझे याद है कि 2008 में विनय जी ने मुझे भी बुलाया था और कहा था कि लोग नईदुनिया से इस कारण छोड़कर जाते रहे कि यहाँ आगे बढ़ने के कोई अवसर नहीं हैं। मैं अवसर दे रहा हूँ। लौटिए। वह एक अच्छा ऑफर था। मगर तब मुझे दैनिक भास्कर में आए दो ही साल हुए थे। कुछ करके दिखाया नहीं था। मैंने यही उन्हें कहा कि अगर मैं वापस आता हूँ तो लोग कहेंगे कि चार पैसे ज्यादा मिले और मैंने भास्कर छोड़ दिया। इसलिए वहाँ कुछ करने दीजिए। नईदुनिया मेरे लिए घर जैसा है। कभी भी आ जाऊंगा।

मैं उन्हें धन्यवाद देकर लौट आया था। मगर जाने का योग बना नहीं। विनयजी की परवरिश अखबार के माहौल में हुई नहीं थी। बहुत देर से वे नईदुनिया के फलक पर आए। उन्होंने एक बूस्टर डोज अवश्य देने की कोशिश की मगर बीमारी लाइलाज हो चुकी थी। कोई भी अपनी विरासत को क्यों नष्ट होने देगा। बेचने के पहले वे भी शायद बहुत मजबूर होकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचे होंगे।

नईदुनिया से मेरा भावनात्मक लगाव रहा है। 2003 में छोड़ने के बाद भी मैं वहाँ बड़े अधिकार से जाता रहा। अभयजी के साथ मेरा संबंध आखिर तक रहा। मैंने अपने पत्रकारीय जीवन के आरंभिक वर्षों की पूरी ऊर्जा गहरी निष्ठा के साथ बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग के उस पवित्र परिसर में अर्पित की थी। आज जब उस भवन के गिरने की तस्वीरें मिलीं तो लगा कि मेरे भीतर का ही एक हिस्सा ढह गया है!

राजस्थान टुडे के मार्च 2025 अंक में।
07/03/2025

राजस्थान टुडे के मार्च 2025 अंक में।

 #अमृता_के_इमरोज 97 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गये, अमृता जी की मृत्यु के लगभग 18 साल बाद। इमरोज के नाम के ...
04/03/2025

#अमृता_के_इमरोज 97 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गये, अमृता जी की मृत्यु के लगभग 18 साल बाद। इमरोज के नाम के आगे लिखी तमाम उपमाएं उनके किरदार के आगे छोटी पड़ जाती हैं। इमरोज एक निःस्वार्थ प्रेमी थे वह जानते थे कि जिस लड़की पर वह दुनिया लुटा रहे हैं उसकी जिंदगी में कोई और (साहिर) है । फिर भी इमरोज जिंदगी भर एक ऐसे प्रेमी बने रहे जो इस बात से वाकिफ थे कि उनकी प्रेमिका तो किसी और से प्रेम करती है कितना मुश्किल होता होगा यह जानते हुये भी किसी को प्रेम करते रहना शायद इसी का नाम इश्क़ है। ऐसा ही इश्क़ इमरोज ने अमृता से किया था।

एक इंटरव्यू में इमरोज बताते हैं कि अमृता की उंगलियां हमेशा कुछ न कुछ लिखा ही करती हैं फिर चाहे उनके हाथों में कलम हो या न हो, बहुत बार मैं स्कूटर चलता और अमृता पीछे बैठ कर मेरी पीठ पर कुछ लिखा करती हैं जो मुझे पता होता हैं कि साहिर का नाम लिखती, लेकिन क्या फर्क पड़ता है अमृता साहिर को चाहती हैं और मैं अमृता को। 2005 में अमृता ने जब इमरोज की बाहों में दम तोडा़ तो इमरोज ने लिखा- हम जीते हैं, ताकि हमें प्यार करना आ जाये, हम प्यार करते हैं ताकि हमें जीना आ जाये ' उसने सिर्फ जिश्म छोडा़ है मेरा साथ नहीं '।

अमृता और इमरोज लगभग 40 की उम्र में तब मिले जब अमृता को साहिर के नाम अंतिम ख़त लिखकर उसमें स्कैच बनवाना था और फिर मिले तो क्या ही मिले कि अंतिम सांस तक एक साथ रहे। दोनों ने शादी नहीं किया और एक ही घर में दो अलग कमरों में रहते थे। अमृता ने लिखा था कि ' अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते' तब साहिर का जवाब आता है कि ' तुम मेरी जिंदगी की खूबसूरत शाम ही सही लेकिन तुम ही मेरी सुबह, ही मेरी दोपहर और तुम ही मेरी शाम हो...

जब अमृता और इमरोज साथ रहने का निर्णय किये तो अमृता ने इमरोज से कहा कि एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ और फिर भी तुम अगर मुझे चुनोगे तो मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करते हुये मिलूंगी। इस पर इमरोज उठते हैं और उसी कमरे का सात चक्कर लगाते हैं और कहते हैं घूम लिया दुनिया... बस मेरी दुनिया तुम्हीं तक है। अमृता को लिखना पसंद था वह देर रात तक लिखा करती थी और इमरोज उन्हें रातों को चाय बनाकर पिलाया करते ताकि अमृता को थकान ना महसूस हो। इमरोज अमृता को एक पल भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे। जब अमृता राज्यसभा की सदस्य बनी तो सदन चलने भर उन्हें छोड़ने जाते और वहीं बाहर इंतज़ार करते, ज्यादातर लोगों ने उन्हें उनका ड्राइवर समझ लिया था लेकिन वह तो प्रेम में पागल इमरोज थे।

आज की मौजूदा पीढ़ी शायद ही इमरोज को उतना जानती हो लेकिन प्रेम में इमरोज बन पाना कितना मुश्किल रहा होगा। मैं जितना जान पाया हूं अमृता जी और इमरोज जी को उतने में मैं दावे से कह सकता हूँ कि अपने समय से काफी आगे के प्रेमी-प्रेमिका रहे हैं दोनों जबकि अमृता जी से इमरोज लगभग 7 साल छोटे थे फिर भी उन्होंने अपने रिश्ते को इतिहास में अमर कर दिया। आज मुहब्बत की दुनिया के सभी लोग इमरोज ( मूल नाम- इन्द्रजीत सिंह ) को नम आँखों से याद कर रहे।


#अमृता_इमरोज❤

रमाकांत यादव जी की प्रोफाइल से 😊🌼

साहिर लुधियानवी के वो दो सौ रुपए...एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे। ऐसे में उन्होंने साहिर से...
05/10/2024

साहिर लुधियानवी के वो दो सौ रुपए...

एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे। ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।
उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल है, उदास हो?”
जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं। उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।

जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”

फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।

वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख्स का मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब ! आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा।
साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुज़रता रहा।

और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।

वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि ''वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी. आर. चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे। मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।''

जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्द-ए-ख़ाक किया जाना था। ये वही कब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं। साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे।

काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक साहब थे।

अशफ़ाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे।
उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़े हैं क्या?
वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”,
जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, ''हां-हां, कितने रुपए देने हैं?'' उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए".................. 🌹🌹
कुदरत के इतफ़ाक़ से लेन देन ज़मीन पे ही हुआ... जावेद अख्त पर क्या असर हुआ होगा... सोच से बाहर है।

गाड़ीवान 'हीरामन' अपनी बैलगाड़ी में 'हीराबाई' को लेकर फारबिसगंज के मेले में छोड़ने जा रहा है ... तभी फिज़ा में गूंजते गीत को...
30/09/2024

गाड़ीवान 'हीरामन' अपनी बैलगाड़ी में 'हीराबाई' को लेकर फारबिसगंज के मेले में छोड़ने जा रहा है ...

तभी फिज़ा में गूंजते गीत को सुन हीराबाई कहती है ...

यहां देखती हूँ, हर कोई गीत गाता रहता है ...

गीत नहीं गायेगा तो करेगा क्या, कहते हैं ,,,,
'फटे कलेजा गाओ गीत, दुःख सहने का एहि रीत ...'

तुम्हारे यहां की भाषा में गीत और भी मीठा लगता है। लगता है, बस सुनती ही रहूँ ...

ये महुआ घटवारिन का गीत है, वो कजरी नदी का घाट था न ,,,, बस उसी का ...

अच्छा, तुम्हें आता है ये गीत ,,,, सुनाव न मीता ...

इस्स ,,,, गांव का गीत सुनने का बड़ा सौख है, आपको ... 😊

"... वो जो महुआ घटवारिन का घाट था न, उसी मुलुक की थी महुआ ,,,,
थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक ,,,,
उसका बाप दिन दिहाड़े ताड़ी पी के बेहोस पड़ा रहता था ,,,,
उसकी सौतेली माँ थी साक्षात राक्षसनी ,,,,
महुआ कुंवारी थी ,,,, भरी पूरी दुनिया में कोई न था उसका ..."

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... कैसे कहूँ, महुआ के रूप का बखान ,,,,
हिरनी जैसी कजरारी आंखें, चांद सा चमकता चेहरा, एड़ी तक लंबे रेशमी बाल ,,,,
जब वो मुस्कुराती, तो जैसे बिजली कौंध जाती ,,,, भगवान जी ही ऐसा रूप भर सकते हैं, माटी के पुतले में ..."

काहे बनाये तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले ...
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला,
काहे बनाया तूने ... दुनिया का खेला ...
जिसमें लगाया जवानी का मेला ...
गुप-चुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... जवान हो गई थी, महुआ ,,,,
फिर भी कहीं सादी ब्याह की बात नहीं चलाई किसी ने, सुबह साम वो अपनी मरी माँ को याद करके रोती ,,,,
रात दिन कलपता था, बेचारी का मन ...
मन ,,,, समझती हैं न आप ..."

तू भी तो तङपा होगा मन को बना कर,
तूफां ये प्यार का मन में छुपा कर ...
कोई छवि तो होगी आँखों में तेरी,
कोई छवि तो होगी ... आँखों में तेरी ...
आंसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी ...
बोल क्या सूझी तुझको काहे को प्रीत जगाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... एक दिन एक थका प्यासा मुसाफिर नदी किनारे पानी पीने आया।
महुआ को देखते ही उस पर रीझ गया। नादान महुआ भी उसे दिल दे बैठी ,,,,
जंगल की आग की तरह गांव में फैल गई, उनकी प्यार की बात ,,,,
सौतेली माँ भला कैसे देख सकती थी, उनका सुख ,,,,
उसने महुआ को एक सौदागर के हाथ बेच दिया। रोती छटपटाती महुआ चली गई, सौदागर के साथ ,,,
, बिछड़ गई जोड़ी ,,,, महुआ का प्रेमी आज भी जैसे रोता है ..."

प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया,
हँसना सिखाया, रोना सिखाया ...
जीवन के पथ पर मीत मिलाये,
जीवन के पथ पर ... मीत मिलाये ...
मीत मिला के तूने सपने जगाए ...
सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ..
ये फ़िल्म सेल्युलाइड पर चित्रित प्रेम की वो लंबी कविता है जिसे रचा है, शैलेन्द्र जी ने। जुबां फणीश्वरनाथ रेणु जी की है शंकर-जयकिशन ने अपने साजों से संवारा है। मुकेश जी, लता जी, आशा जी, मन्ना दा और मुबारक बेगम आदि ने सुरों से सराबोर किया और लच्छू जी महाराज के भाव और भंगिमाओं से अभिभूत इस प्रेम-लोक को निर्देशित किया बासु भट्टाचार्य ने।........ गीत लिखे हैं शैलेन्द्र जी और हसरत जयपुरी जी ने तथा पटकथा नवेन्दु घोष जी का है। हीरामन हैं राजकपूर और हीराबाई को प्राणवान किया है वहीदा रहमान जी ने। इन सभी कलाकारों और फनकारों के अदाओं और फनों का इतिहास है .....

यह "तीसरी कसम"....
# बातें बीते सुनहरे दौर की

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