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25/05/2025

नईदुनिया का ढाँचा भी ढह गया
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#विजयमनोहरतिवारी
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हिंदी के पाठकों और पत्रकारों के लिए यह एक ब्रेकिंग न्यूज ही है। इंदौर के बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग पर नईदुनिया का भव्य भवन ढहा दिया गया है। हिंदी पत्रकारिता की यह शक्तिपीठ 13 साल पहले ही शक्तिहीन हो चुकी थी। एक ढाँचा भर था, जो उसके स्मारक की तरह अब तक खड़ा था। विनय छजलानी इन दिनों विदेश में हैं। अब वह भवन कांक्रीट के ढेर के रूप में सामने है। वे लौटकर आएँगे तब तक उन्हें नश्वर संपत्ति की नई इबारत लिखने के लिए मैदान साफ मिलेगा।

साल 2012 में उत्तरप्रदेश के दैनिक जागरण समूह के हाथों बिकने के बाद पुरानी नईदुनिया का यह तेरहवाँ साल है। यह संपत्ति छजलानी परिवार के पास थी, जहाँ पत्रकारिता की एक महान विरासत फली-फूली थी। मध्यप्रदेश और मालवा की उर्वर भूमि से इस विरासत का कोई उत्तराधिकारी नहीं निकला। संपत्ति के मालिकों ने अपनी निजी संपत्ति के बारे में वही निर्णय लिया, जो लाभ कमाने के लिए कोई भी समझदार कारोबारी करता है।

महीना भर पहले ही इंदौर प्रेस क्लब में मैंने नईदुनिया के दुखद अवसान पर कहा था कि वह संपत्ति भले ही सेठिया और छजलानी परिवार की रही होगी मगर वह विरासत मालवा और मध्यप्रदेश की थी। वह विरासत हिंदी पत्रकारिता की थी। वह समाज की धरोहर थी, जिसे उसकी पुरानी सुगंध के साथ सहेजा जाना चाहिए था। मगर आर्थिक संकट उस स्तर पर पहुंचा दिए गए कि बिकना ही एकमात्र विकल्प रहा गया। और एक दिन वह बिक गया। जैसे हर दिन हजारों मकान, दुकान और प्लॉट बिकते हैं, नईदुनिया भी बिक गया।

हर साल धार्मिक और सामाजिक उत्सवों पर दो-चार सौ करोड़ फूँकने वाले प्रदेश के सबसे कमाऊ इंदौर शहर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। इंदौर की पहचान का सौदा हो चुका था और देर रात सराफ की चाट खाकर सोए शहर के जागृतजन अगली सुबह बड़े आराम से उठे और अपने काम में लग गए।

मैं कोविड के ठीक पहले इसी भव्य भवन के पीछे स्थित आवास पर आदरणीय अभयजी से मिलने पहुँचा था। यह वही प्रांगण था, जहाँ मुझ जैसे अनेक युवाओं को पत्रकारिता में आगे बढ़ने के आरंभिक अवसर मिले थे। इसी आँगन में हमने अपने नन्हें कदमों से संभलकर खड़े होना और चलना सीखा था। नवंबर 1994 में जब मेरा चयन हुआ तब इंदौर के प्रिय बाबा यानी राहुल बारपुते जीवित थे। संपादकीय विभाग में उनकी मेज-कुर्सी हॉल के बिल्कुल बीचों बीच किसी मंदिर के गर्भगृह जैसी थी। वे अकेले थे, जो सिगरेट सुलगा सकते थे। उनकी सिगरेट किसी धूनी के धुएँ जैसी थी। बाबा अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में थे। दो साल बाद ही चल बसे। उनकी उपस्थिति नईदुनिया की महान संपादकीय परंपरा की अंतिम कड़ी थी।

फ्रंट पेज की डेस्क पर ठाकुर जयसिंह पुराने संपादकीय सहयोगियों में थे। मैं शाम चार से छह तक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठता था। एक दिन सेव-परमल की शाम की नियमित दावत में उन्होंने कहा कि विजय एक समय प्रभाष जोशी इसी डेस्क पर बैठते थे। यह सुनते ही मैं संभलकर बैठ गया था। इस परिसर से राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे हिंदी के शिखर संपादक निकले थे। शरद जोशी जैसे प्रसिद्ध व्यंग्यकार का गहरा नाता नईदुनिया से रहा था। वेदप्रताप वैदिक बाबा से मिलने आया करते थे। उन चमकदार दशकों में इंदौर आने वाली विविध क्षेत्रों की शिखर विभूतियाँ नईदुनिया की परिक्रमा किया करती थीं।

जून 1997 में नईदुनिया 50 साल का हुआ। इसके ठीक एक साल पहले एक सुबह सराफे की चाट खाकर सोए इंदौरवासियों ने शहर के चौराहों पर एक आकर्षक होर्डिंग देखा था। दैनिक भास्कर की ओर से लगे इस होर्डिंग पर लिखा था-"एक लाख प्रतियाँ समारंभ।' दैनिक भास्कर ने भोपाल से इंदौर जाकर बारह साल की मेहनत के बाद यह दावा किया कि अब वह एक लाख की संख्या में छपने लगा है। कई दिन चले भास्कर के उत्सव में शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय की शोभायात्रा निकली थी। सयाजी होटल में टीएन शेषन जैसी विभूतियाँ व्याख्यान देने आईं थीं।

नईदुनिया ने अपने पचास साल का जलसा लालबाग पैलेस में सजाया, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा आए थे। इस अवसर पर आदरणीय अभयजी ने एक दस्तावेज लिखा था- "प्रतिबद्धता की आधी शती।' इन पचास सालों में नईदुनिया ने प्रसार की दृष्टि से 77 गुना बढ़ोतरी दर्ज की थी। छह पैसे में चार पेज का नईदुनिया 1947 में केवल डेढ़ हजार कॉपियाँ छापता था, जो अब एक लाख 15 हजार हो गई थीं। मगर प्रसार संख्या ही नईदुनिया की ताकत नहीं थी। लोग हिंदी सीखने के लिए नईदुनिया पढ़ते थे। नईदुनिया पढ़े बगैर दिन के होने का विश्वास नहीं होता था। पाठकों का यह विश्वास नईदुनिया की ताकत थी, जिसमें अनेक ऋषियों की साधना का बल लगा था।

नईदुनिया में क्षमता थी कि वह देश में सौ संस्करणों का समाचार पत्र बनता। वह कई भारतीय भाषाओं में छपता। नईदुनिया का अपना टीवी चैनल होता। एफएम के दौर में अपने रेडियो चैनल होते। अपना फिल्म प्रोडक्शन हाऊस होता। अपनी विज्ञापन एजेंसी होती। कम्युनिकेशन का कोई माध्यम अछूता नहीं छूटना चाहिए था। नईदुनिया ऐसा ब्रांड बनने की शक्ति रखता था। मगर स्वतंत्र संपादकों का दौर समाप्त होते ही पूरी ताकत आदरणीय अभयजी के हाथों में आ गई और उनके लिए इंदौर की पूरी दुनिया थी। नईदुनिया का मतलब अभय छजलानी था। खेल प्रशाल बनाने में उन्होंने वह सारी ऊर्जा लगा दी, जो नईदुनिया को एक देशव्यापी ब्रांड बनाने में लग सकती थी।

दूसरा दुर्भाग्य यह रहा कि दैनिक भास्कर के श्रीमान् रमेशचंद्र अग्रवाल की तरह अभयजी के परिवार में परमात्मा ने एक सुधीर अग्रवाल नहीं दिया। विनय छजलानी उनके सुपुत्र थे, मगर उनकी कोई रुचि अखबार में नहीं थी। हमने उन्हें कभी अखबार में देखा तक नहीं। उनके अपने कारोबार थे। वे अपनी जगह सफल थे। एक आयु के बाद अभयजी के आगे नईदुनिया का डेड एंड था।

अभयजी से मेरी आखिरी मुलाकात के समय नईदुनिया को बिके हुए आठ साल हो चुके थे। अभयजी की स्मृतियाँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही थीं। नईदुनिया के पतन के प्रश्न पर श्रीमती पुष्पा छजलानी ने मुझसे कहा था कि इन्होंने गलत लोगों पर भरोसा किया। लोगों ने इन्हें धोखे दिए। इन्हें सही आदमी की पहचान नहीं थी। कभी इस पर अवश्य लिखना। अभयजी खामोशी से सुन रहे थे। मुझे नहीं पता कि वे उस समय क्या विचार कर रहे होंगे।

जब नईदुनिया को चलाने के लिए विनय छजलानी ने सारे सूत्र अपने हाथों में लिए तब सबने देखा कि अभयजी उपेक्षित कर दिए गए हैं। पुष्पा छजलानी ने तब अपने सुपुत्र विनय छजलानी को एक पत्र के जरिए यह पीड़ा व्यक्त की थी। नईदुनिया के महान योगदान और दुखद अंत पर प्रमाणिक दस्तावेज लिखे जाने चाहिए।

मुझे याद है कि 2008 में विनय जी ने मुझे भी बुलाया था और कहा था कि लोग नईदुनिया से इस कारण छोड़कर जाते रहे कि यहाँ आगे बढ़ने के कोई अवसर नहीं हैं। मैं अवसर दे रहा हूँ। लौटिए। वह एक अच्छा ऑफर था। मगर तब मुझे दैनिक भास्कर में आए दो ही साल हुए थे। कुछ करके दिखाया नहीं था। मैंने यही उन्हें कहा कि अगर मैं वापस आता हूँ तो लोग कहेंगे कि चार पैसे ज्यादा मिले और मैंने भास्कर छोड़ दिया। इसलिए वहाँ कुछ करने दीजिए। नईदुनिया मेरे लिए घर जैसा है। कभी भी आ जाऊंगा।

मैं उन्हें धन्यवाद देकर लौट आया था। मगर जाने का योग बना नहीं। विनयजी की परवरिश अखबार के माहौल में हुई नहीं थी। बहुत देर से वे नईदुनिया के फलक पर आए। उन्होंने एक बूस्टर डोज अवश्य देने की कोशिश की मगर बीमारी लाइलाज हो चुकी थी। कोई भी अपनी विरासत को क्यों नष्ट होने देगा। बेचने के पहले वे भी शायद बहुत मजबूर होकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचे होंगे।

नईदुनिया से मेरा भावनात्मक लगाव रहा है। 2003 में छोड़ने के बाद भी मैं वहाँ बड़े अधिकार से जाता रहा। अभयजी के साथ मेरा संबंध आखिर तक रहा। मैंने अपने पत्रकारीय जीवन के आरंभिक वर्षों की पूरी ऊर्जा गहरी निष्ठा के साथ बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग के उस पवित्र परिसर में अर्पित की थी। आज जब उस भवन के गिरने की तस्वीरें मिलीं तो लगा कि मेरे भीतर का ही एक हिस्सा ढह गया है!

राजस्थान टुडे के मार्च 2025 अंक में।
07/03/2025

राजस्थान टुडे के मार्च 2025 अंक में।

 #अमृता_के_इमरोज 97 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गये, अमृता जी की मृत्यु के लगभग 18 साल बाद। इमरोज के नाम के ...
04/03/2025

#अमृता_के_इमरोज 97 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गये, अमृता जी की मृत्यु के लगभग 18 साल बाद। इमरोज के नाम के आगे लिखी तमाम उपमाएं उनके किरदार के आगे छोटी पड़ जाती हैं। इमरोज एक निःस्वार्थ प्रेमी थे वह जानते थे कि जिस लड़की पर वह दुनिया लुटा रहे हैं उसकी जिंदगी में कोई और (साहिर) है । फिर भी इमरोज जिंदगी भर एक ऐसे प्रेमी बने रहे जो इस बात से वाकिफ थे कि उनकी प्रेमिका तो किसी और से प्रेम करती है कितना मुश्किल होता होगा यह जानते हुये भी किसी को प्रेम करते रहना शायद इसी का नाम इश्क़ है। ऐसा ही इश्क़ इमरोज ने अमृता से किया था।

एक इंटरव्यू में इमरोज बताते हैं कि अमृता की उंगलियां हमेशा कुछ न कुछ लिखा ही करती हैं फिर चाहे उनके हाथों में कलम हो या न हो, बहुत बार मैं स्कूटर चलता और अमृता पीछे बैठ कर मेरी पीठ पर कुछ लिखा करती हैं जो मुझे पता होता हैं कि साहिर का नाम लिखती, लेकिन क्या फर्क पड़ता है अमृता साहिर को चाहती हैं और मैं अमृता को। 2005 में अमृता ने जब इमरोज की बाहों में दम तोडा़ तो इमरोज ने लिखा- हम जीते हैं, ताकि हमें प्यार करना आ जाये, हम प्यार करते हैं ताकि हमें जीना आ जाये ' उसने सिर्फ जिश्म छोडा़ है मेरा साथ नहीं '।

अमृता और इमरोज लगभग 40 की उम्र में तब मिले जब अमृता को साहिर के नाम अंतिम ख़त लिखकर उसमें स्कैच बनवाना था और फिर मिले तो क्या ही मिले कि अंतिम सांस तक एक साथ रहे। दोनों ने शादी नहीं किया और एक ही घर में दो अलग कमरों में रहते थे। अमृता ने लिखा था कि ' अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते' तब साहिर का जवाब आता है कि ' तुम मेरी जिंदगी की खूबसूरत शाम ही सही लेकिन तुम ही मेरी सुबह, ही मेरी दोपहर और तुम ही मेरी शाम हो...

जब अमृता और इमरोज साथ रहने का निर्णय किये तो अमृता ने इमरोज से कहा कि एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ और फिर भी तुम अगर मुझे चुनोगे तो मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करते हुये मिलूंगी। इस पर इमरोज उठते हैं और उसी कमरे का सात चक्कर लगाते हैं और कहते हैं घूम लिया दुनिया... बस मेरी दुनिया तुम्हीं तक है। अमृता को लिखना पसंद था वह देर रात तक लिखा करती थी और इमरोज उन्हें रातों को चाय बनाकर पिलाया करते ताकि अमृता को थकान ना महसूस हो। इमरोज अमृता को एक पल भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहते थे। जब अमृता राज्यसभा की सदस्य बनी तो सदन चलने भर उन्हें छोड़ने जाते और वहीं बाहर इंतज़ार करते, ज्यादातर लोगों ने उन्हें उनका ड्राइवर समझ लिया था लेकिन वह तो प्रेम में पागल इमरोज थे।

आज की मौजूदा पीढ़ी शायद ही इमरोज को उतना जानती हो लेकिन प्रेम में इमरोज बन पाना कितना मुश्किल रहा होगा। मैं जितना जान पाया हूं अमृता जी और इमरोज जी को उतने में मैं दावे से कह सकता हूँ कि अपने समय से काफी आगे के प्रेमी-प्रेमिका रहे हैं दोनों जबकि अमृता जी से इमरोज लगभग 7 साल छोटे थे फिर भी उन्होंने अपने रिश्ते को इतिहास में अमर कर दिया। आज मुहब्बत की दुनिया के सभी लोग इमरोज ( मूल नाम- इन्द्रजीत सिंह ) को नम आँखों से याद कर रहे।


#अमृता_इमरोज❤

रमाकांत यादव जी की प्रोफाइल से 😊🌼

साहिर लुधियानवी के वो दो सौ रुपए...एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे। ऐसे में उन्होंने साहिर से...
05/10/2024

साहिर लुधियानवी के वो दो सौ रुपए...

एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे। ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।
उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल है, उदास हो?”
जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं। उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।

जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”

फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।

वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख्स का मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।

साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब ! आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा।
साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुज़रता रहा।

और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।

वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि ''वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी. आर. चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे। मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।''

जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्द-ए-ख़ाक किया जाना था। ये वही कब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं। साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे।

काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक साहब थे।

अशफ़ाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे।
उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़े हैं क्या?
वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”,
जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, ''हां-हां, कितने रुपए देने हैं?'' उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए".................. 🌹🌹
कुदरत के इतफ़ाक़ से लेन देन ज़मीन पे ही हुआ... जावेद अख्त पर क्या असर हुआ होगा... सोच से बाहर है।

गाड़ीवान 'हीरामन' अपनी बैलगाड़ी में 'हीराबाई' को लेकर फारबिसगंज के मेले में छोड़ने जा रहा है ... तभी फिज़ा में गूंजते गीत को...
30/09/2024

गाड़ीवान 'हीरामन' अपनी बैलगाड़ी में 'हीराबाई' को लेकर फारबिसगंज के मेले में छोड़ने जा रहा है ...

तभी फिज़ा में गूंजते गीत को सुन हीराबाई कहती है ...

यहां देखती हूँ, हर कोई गीत गाता रहता है ...

गीत नहीं गायेगा तो करेगा क्या, कहते हैं ,,,,
'फटे कलेजा गाओ गीत, दुःख सहने का एहि रीत ...'

तुम्हारे यहां की भाषा में गीत और भी मीठा लगता है। लगता है, बस सुनती ही रहूँ ...

ये महुआ घटवारिन का गीत है, वो कजरी नदी का घाट था न ,,,, बस उसी का ...

अच्छा, तुम्हें आता है ये गीत ,,,, सुनाव न मीता ...

इस्स ,,,, गांव का गीत सुनने का बड़ा सौख है, आपको ... 😊

"... वो जो महुआ घटवारिन का घाट था न, उसी मुलुक की थी महुआ ,,,,
थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक ,,,,
उसका बाप दिन दिहाड़े ताड़ी पी के बेहोस पड़ा रहता था ,,,,
उसकी सौतेली माँ थी साक्षात राक्षसनी ,,,,
महुआ कुंवारी थी ,,,, भरी पूरी दुनिया में कोई न था उसका ..."

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... कैसे कहूँ, महुआ के रूप का बखान ,,,,
हिरनी जैसी कजरारी आंखें, चांद सा चमकता चेहरा, एड़ी तक लंबे रेशमी बाल ,,,,
जब वो मुस्कुराती, तो जैसे बिजली कौंध जाती ,,,, भगवान जी ही ऐसा रूप भर सकते हैं, माटी के पुतले में ..."

काहे बनाये तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले ...
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला,
काहे बनाया तूने ... दुनिया का खेला ...
जिसमें लगाया जवानी का मेला ...
गुप-चुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... जवान हो गई थी, महुआ ,,,,
फिर भी कहीं सादी ब्याह की बात नहीं चलाई किसी ने, सुबह साम वो अपनी मरी माँ को याद करके रोती ,,,,
रात दिन कलपता था, बेचारी का मन ...
मन ,,,, समझती हैं न आप ..."

तू भी तो तङपा होगा मन को बना कर,
तूफां ये प्यार का मन में छुपा कर ...
कोई छवि तो होगी आँखों में तेरी,
कोई छवि तो होगी ... आँखों में तेरी ...
आंसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी ...
बोल क्या सूझी तुझको काहे को प्रीत जगाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ...

"... एक दिन एक थका प्यासा मुसाफिर नदी किनारे पानी पीने आया।
महुआ को देखते ही उस पर रीझ गया। नादान महुआ भी उसे दिल दे बैठी ,,,,
जंगल की आग की तरह गांव में फैल गई, उनकी प्यार की बात ,,,,
सौतेली माँ भला कैसे देख सकती थी, उनका सुख ,,,,
उसने महुआ को एक सौदागर के हाथ बेच दिया। रोती छटपटाती महुआ चली गई, सौदागर के साथ ,,,
, बिछड़ गई जोड़ी ,,,, महुआ का प्रेमी आज भी जैसे रोता है ..."

प्रीत बनाके तूने जीना सिखाया,
हँसना सिखाया, रोना सिखाया ...
जीवन के पथ पर मीत मिलाये,
जीवन के पथ पर ... मीत मिलाये ...
मीत मिला के तूने सपने जगाए ...
सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई,
काहे को दुनिया बनायी ... तुने काहे को दुनिया बनायी ...
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनायी, तुने काहे को दुनिया बनायी ..
ये फ़िल्म सेल्युलाइड पर चित्रित प्रेम की वो लंबी कविता है जिसे रचा है, शैलेन्द्र जी ने। जुबां फणीश्वरनाथ रेणु जी की है शंकर-जयकिशन ने अपने साजों से संवारा है। मुकेश जी, लता जी, आशा जी, मन्ना दा और मुबारक बेगम आदि ने सुरों से सराबोर किया और लच्छू जी महाराज के भाव और भंगिमाओं से अभिभूत इस प्रेम-लोक को निर्देशित किया बासु भट्टाचार्य ने।........ गीत लिखे हैं शैलेन्द्र जी और हसरत जयपुरी जी ने तथा पटकथा नवेन्दु घोष जी का है। हीरामन हैं राजकपूर और हीराबाई को प्राणवान किया है वहीदा रहमान जी ने। इन सभी कलाकारों और फनकारों के अदाओं और फनों का इतिहास है .....

यह "तीसरी कसम"....
# बातें बीते सुनहरे दौर की

बिस्तर बांधो और घर चलो...मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर ज़िला के गाडरवारा में जन्मे दिग्गज अभिनेता आशुतोष राणा का पूरा नाम आशुत...
26/08/2024

बिस्तर बांधो और घर चलो...

मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर ज़िला के गाडरवारा में जन्मे दिग्गज अभिनेता आशुतोष राणा का पूरा नाम आशुतोष रामनारायण नीखरा है। आशुतोष के माता पिता प्यार से उन्हें राणा कह के बुलाते थे। आशुतोष की शुरुआती शिक्षा गाडरवारा के ही विद्यालय में हुई थी। बाद में उन्होंने डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्यप्रदेश से स्नातक किया।

आशुतोष की पढ़ाई सेे जुड़ा एक बहुत दिलचस्प क़िस्सा है जिस का ज़िक्र उन्होंने ख़ुद कई बार किया है। आशुतोष ने बताया कि उनके पिताजी ने बेहतर शिक्षा के लिए आशुतोष और उनके भाई का दाखिला गाडरवारा से जबलपुर के क्राइस्ट चर्च स्कूल में करवा दिया जहाँ आशुतोष के ऊपर अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव इतना ज़्यादा पड़ा कि एक दिन जब उनके माता-पिता उनसे मिलने उनके स्कूल पहुंचे तो आशुतोष ने उनको प्रभावित करने के लिये उनके पैर छूने की बजाय गुड ईवनिंग कह कर उनका अभिवादन किया और जिस माँ से वो हर वक़्त लिपटे रहते थे उनके पास भी नहीं गये और माँ कि मुस्कुराहट से उन्हें लगा कि सबलोग उनके इस आत्मविश्वास से बहुत प्रभावित हो गये हैं लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा थोड़ी ही देर बाद उनके पिता ने कहा कि अपना सामान पैक करो तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है आगे की पढ़ाई अब वहीं होगी।

बड़ी ही हैरानी के साथ जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो उनके पिता ने जवाब दिया कि "राणाजी मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ। तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं। कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है, हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन, परिचित,अपरिचित जो भी उसके सम्पर्क में आता है उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है लेकिन देखा कि इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को परिचित छोड़ो अपने माता पिता से ही चरण स्पर्श की जगह गुड ईवनिंग कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता की इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ। विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती। मैंने देखा तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है ना कि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है।"

उन्होंने कहा "आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे वह विद्यालय जो उसे सिर्फ साक्षर बनाए वह स्कूल, मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे सिर्फ साक्षर हो के डिग्रियोंं के बोझ से दब जाएँ मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने उसके बोझ को हल्का करने की महारत देना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो।"

आशुतोष और उनके भाई तुरंत अपने माता पिता के चरणों में गिर गए उनके पिता ने उन्हें उठा कर गले से लगा लिया और कहा कि किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो। पिता की ये बातें आशुतोष ने उनके आशीर्वाद की तरह गाँठ बाँधकर रख ली और उन बातों को यादकर वो आज भी आत्मविश्वास से भर जाते हैं।

Ashutosh Rana

अरे, ये तो बावरा लगता है बावरा..."अरे, ये तो बावरा लगता है बावरा। ये कहां फिल्मों के गीत लिख पाएगा।" ये बात गुलशन बावरा ...
09/08/2024

अरे, ये तो बावरा लगता है बावरा...

"अरे, ये तो बावरा लगता है बावरा। ये कहां फिल्मों के गीत लिख पाएगा।" ये बात गुलशन बावरा के बारे में एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ने कही थी। उस वक्त गुलशन जी को सट्टा बाज़ार नाम की एक फिल्म के लिए गीत लिखने की ज़िम्मेदारी मिली थी। विकीपीडिया पर सट्टा बाज़ार गुलशन बावरा जी की बतौर गीतकार पहली फिल्म बताई जाती है। लेकिन ये गलत है। पहली फिल्म जिसके लिए गुलशन बावरा जी ने कोई गीत लिखा था वो थी 1959 में रिलीज़ हुई चंद्रसेना। संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी वाले कल्याणजी भाई विरजी ने गुलशन बावरा जी को बतौर गीतकार पहला मौका दिया था।

जबकी मीना कुमारी व बलराज साहनी स्टारर सट्टा बाज़ार भी 1959 में ही रिलीज़ हुई थी। और ये फिल्म भी गुलशन बावरा जी को कल्याणजी-आनंदजी ने ही दिलाई थी। इसी फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर ने गुलशन जी को बावरा कहा था। दरअसल, गुलशन जी के रंग-बिरंगे कपड़ों और बेतरतीब बालों को देखकर उस डिस्ट्रीब्यूटर को यकीन नहीं हुआ था कि ये आदमी कोई गीतकार भी हो सकता है। और विधि का विधान देखिए। उस आदमी का खुद को बावरा कहना गुलशन जी को बुरा नहीं, अच्छा लगा। क्योंकि तभी से उन्होंने अपना नाम गुलशन कुमार मेहता से गुलशन बावरा कर लिया।

आज गुलशन बावरा जी की पुण्यतिथि है। 07 अगस्त 2009 को 72 साल की उम्र में गुलशन बावरा जी का निधन हुआ था। जबकी गुलशन जी जन्मे थे 13 अप्रैल 1938 को लाहौर के नज़दीक स्थित शेखुपुरा में। इंटरनेट पर अधिकतर जगह गुलशन जी के जन्म की तारीख 12 अप्रैल 1937 बताई जाती है। अभी तक तो हम भी इसी तारीख को सही मानते आए थे। लेकिन आज गुलशन जी का एक बहुत पुराना रेडियो इंटरव्यू सुनने को मिला। उस इंटरव्यू में गुलशन बावरा जी ने अपनी जन्मतिथि 13 अप्रैल 1938 बताई है। हमें खेद है कि हम अपने पेज के माध्यम से गुलशन जी की जन्मतिथि 12 अप्रैल एक दफा बता चुके हैं।

गुलशन बावरा जी फिल्म इंडस्ट्री के उन लोगों में से एक थे जिन्होंने विभाजन का दर्द सबसे ज़्यादा झेला था। विभाजन के वक्त हुए सांप्रदायिक दंगों में गुलशन बावरा जी के माता-पिता की हत्या कर दी गई थी। किसी तरह वो व उनके भाई जान बचाकर अपनी बड़ी बहन के पास जयपुर आ गए। उनकी बड़ी बहन कौशल्या देवी की अपने पति सरदारी लाल के साथ जयपुर में ही उन दिनों रहा करती थी। जयपुर में रहकर गुलशन जी ने पढा़ई-लिखाई की। शुरुआत में पढ़ाई करने में उन्हें बहुत दिक्कतें आई थी। क्योंकि विभाजन से पहले वो उर्दू माध्यम से पढ़ाई कर रहे थे। इसलिए हिंदी भाषा तब उनके लिए एकदम नई थी।

जब गुलशन की के बड़े भाई बनारसीदास मेहता को दिल्ली में नौकरी मिल गई तो गुलशन उनके पास दिल्ली आ गए। मैट्रिक उन्होंने दिल्ली से ही की थी। फिर एक वक्त आया जब गुलशन बावरा जी को रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी मिल गई। 1955 में नौकरी की खातिर वो मुंबई(तब बॉम्बे) आ गए। उस ज़माने में इनकी तनख्वाह हुआ करती थी 137 रुपए 8 आने। जिस वक्त गुलशन मुंबई आए थे तब अपने जीजा से उन्होंने साठ रुपए उधार लिए थे। इसलिए पहली तनख्वाह हाथ में आते ही उन्होंने साठ रुपए अपने जीजा को मनी ऑर्डर से भिजवाए।

गुलशन बावरा जी को लिखने का शौक उस ज़माने से था जब वो अविभाजित भारत में एक स्कूली छात्र हुआ करते थे। इनकी माता जी बहुत धार्मिक थी। वो भजन मंडलियों में खूब जाती थी। और कई दफा वो गुलशन को भी अपने साथ ले जाती थी। मां की संगत का ही असर था कि गुलशन जी को भजन बहुत पसंद आते थे। ये भी अपनी मां के साथ भजन गाते थे। और किसी-किसी भजन में अपनी तरफ से भी एक-दो लाइनें जोड़ देते थे। यानि उसी वक्त से गुलशन जी के भीतर एक गीतकार तैयार होने लगा था।इसलिए जब गुलशन जी मुंबई में रेलवे की नौकरी कर रहे थे तब ही वो गीतकार के तौर पर काम करने के लिए फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से मिलने लगे थे। उनकी मेहनत रंग लाई और कल्याणजी भाई विरजी ने उन्हें गीत लिखने का पहला मौका दिया जिसका ज़िक्र शुरू में किया जा चुका है।

गुलशन बावरा जी को ख्याति मिली थी मनोज कुमार की फिल्म उपकार के कालजयी गीत 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती।' इस शानदार गीत के लिए गुलशन बावरा जी को 15वें फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में बेस्ट लिरिसिस्ट अवॉर्ड दिया गया था। ये गीत महेंद्र कपूर जी ने गाया था। महेंद्र कपूर जी को भी इस गीत के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1973 की ज़ंजीर गुलशन बावरा जी के करियर की एक और बड़ी फिल्म थी। इस फिल्म में गुलशन जी ने सिर्फ एक गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी' लिखा था। ये गीत सुपरहिट रहा था। इस गीत के लिए भी गुलशन बावरा जी को फिल्मफेयर बेस्ट लिरिसिस्ट अवॉर्ड मिला था। इस फिल्म के एक गीत 'दीवाने हैं दीवानों को ना घर चाहिए' में गुलशन जी ने अभिनय भी किया था।

पंचम दा के साथ गुलशन बावरा जी की बहुत अच्छी दोस्ती थी। उनके लिए गुलशन जी ने कई गीत लिखे थे। और उन्हीं के ज़रिए किशोर दा संग भी गुलशन बावरा जी की दोस्ती हो गई थी। ये तीनों अक्सर साथ बैठकर गीत-संगीत पर चर्चा करते थे। सोचिए, क्या शानदार महफिल होती होगी वो जिसमें ये तीन हस्तियां साथ होती थी।
Source: kissa tv

"चंद्रकांता" से प्रेरित है "हैरी पॉटर"बच्चों से लेकर बूढ़ों तक लोकप्रिय हुई "हैरी पॉटर" सीरिज की लेखिका जेके रोलिंग ने ज...
06/08/2024

"चंद्रकांता" से प्रेरित है "हैरी पॉटर"

बच्चों से लेकर बूढ़ों तक लोकप्रिय हुई "हैरी पॉटर" सीरिज की लेखिका जेके रोलिंग ने जब यह कहा कि उसके जहन में कहीं एक इंडियन राइटर की पढ़ी हुई किताब थी तो लोग चौंके थे। वो राइटर और कोई नहीं, हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक, लोकप्रिय उपन्‍यास ‘चंद्रकांता’ के चरित्र को गढ़ने वाले हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार देवकी नन्दन खत्री थे। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में खत्री जी का महत्वपूर्ण योगदान है .. .. कहते हैं उनके द्वारा रचित तिलिस्मी दुनिया में ड़ूबने उतराने के लिए लोगों ने हिन्दी पढना लिखना सीखा। उस समय छपाई के लिये ट्रेडिल मशीनें होती थी और एक एक पन्ना छापा जाता था। प्रेस के बाहर उस दौर के लोग उस एक पन्ने को पढ़ने के लिये घंटों खड़े रहते थे l

चन्द्रकांता में उन्होंने चूर्क चुनार ..अब जिला सोनभद्र की काल्पनिक रियासतों का इतना सजीव चित्रण किया है कि लगता है सब सामने घटित हो रहा है l

हिंदी में रहस्य व रोमांच से भरपूर कालजयी उपन्यासों की रचना करने में देवकीनंदन खत्री के योगदान को सदैव स्‍मरण किया जायेगा।
- विक्रम सिंह

खूबसूरत होने का नुकसान उठाना पड़ा शशि कपूर को....शशि कपूर के बारे में कहा जाता था कि वो अपने ज़माने में भारतीय फ़िल्म जग...
05/08/2024

खूबसूरत होने का नुकसान उठाना पड़ा शशि कपूर को....

शशि कपूर के बारे में कहा जाता था कि वो अपने ज़माने में भारतीय फ़िल्म जगत के सबसे हैंडसम फ़िल्म अभिनेता थे.

शर्मिला टैगोर को अभी तक याद है जब शशि कपूर 'कश्मीर की कली' के सेट पर अपने भाई शम्मी कपूर से मिलने आए थे. वो कहती हैं, "मैं उस समय 18 साल की थी. मैंने अपने-आप से कहा था, 'ओ माई गॉड दिस इज़ शशि कपूर.' मैं उन्हें देखते ही रह गई थी. मैं काम नहीं कर पाई थी और निर्देशक शक्ति सामंत को मजबूर होकर शशि कपूर से सेट से चले जाने के लिए कहना पड़ा था."
शशि कपूर की सुंदरता पर एक बार मशहूर इटालियन अभिनेत्री जीना लोलोब्रिजीडा भी मोहित हो गई थीं.
मशहूर फ़िल्म निर्देशक इस्माइल मर्चेंट अपनी आत्मकथा 'पैसेज टू इंडिया' में लिखते हैं, "शशि कपूर की फ़िल्म 'शेक्सपियरवाला' बर्लिन फ़िल्म समारोह में दिखाई जा रही थी. शशि कपूर भी वहाँ पहुंचे हुए थे. एक शाम वो, उनकी हीरोइन मधुर जाफ़री और जीना लोलोब्रिजीडा इत्तेफ़ाक से एक ही लिफ़्ट में चढ़े और इस्माइल मर्चेंट के अनुसार जीना को शशि को देखते ही उनसे इश्क हो गया."

इस्माइल मर्चेंट लिखते हैं, "अगली सुबह उन्होंने शशि को गुलाब के फूलों का एक गुच्छा भेजा. लेकिन उन्हें ग़लतफ़हमी हो गई थी कि शशि का नाम मधुर है, इसलिए वो फूल मधुर जाफ़री के पास पहुंच गए. जीना को अपना प्रणय निवेदन ठुकराए जाने की आदत नहीं थी इसलिए समारोह के आख़िरी दिन उन्होंने शशि से पूछ ही डाला कि आपने मेरे फूलों का जवाब नहीं दिया. तब जाकर पता चला कि शशि तक जीना का बूके पहुँचा ही नहीं था. शशि कपूर को बहुत मायूसी हुई कि इस ग़लतफ़हमी की वजह से उनके हाथ से इतना अच्छा मौका निकल गया."

फ़ारुख़ इंजीनयर की वजह से चेहरा बचा

शशि कपूर और भारत के मशहूर विकेटकीपर रहे फ़ारुख़ इंजीनियर मुंबई के डॉन बॉस्को स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे. एक बार वो उनकी बग़ल में बैठकर उनसे बातें कर रहे थे कि उनके टीचर ने लकड़ी का एक डस्टर खींचकर शशि कपूर के मुँह की तरफ़ मारा.

इंजीनियर बताते हैं, "वो डस्टर शशि की आँख में लगता, इससे पहले ही मैंने उसके चेहरे से एक इंच पहले उसे कैच कर लिया. शशि का चेहरा बहुत सुंदर था. मैं उससे मज़ाक किया करता था कि उस दिन अगर मैंने उसे वो डस्टर कैच नहीं किया होता तो तुम्हें सिर्फ़ डाकू के रोल ही मिलते."
शशि कपूर की साली फ़ेलिसिटी केंडल अपनी आत्मकथा 'वाइट कार्गो' में लिखती हैं, "शशि कपूर से ज़्यादा फ़्लर्ट करने वाला शख़्स मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा. इस मामले में वो किसी को बख़्शते नहीं थे, लकड़ी के लट्ठे को भी नहीं. वो बहुत दुबले-पतले शख़्स थे लेकिन उनकी आँखें बहुत बड़ी-बड़ी थीं. उनके बड़े बाल सबको उनका दीवाना बना देते थे. उनके सफ़ेद दाँतो और डिंपल वाली मुस्कान का तो कहना ही क्या! उस पर सफलता की अकड़ तो उनमें थी ही."

शबाना आज़मी का मानना है कि शशि कपूर को उनकी अच्छी शक्ल की वजह से नुकसान हुआ.
वे कहती हैं, "दरअसल इस असाधारण आकर्षक शख़्स को देखकर लोग ये भूल जाते थे कि वो कितने बेहतरीन अभिनेता भी थे."

श्याम बेनेगल ने शशि कपूर को जुनून और कलयुग में निर्देशित किया था. वे कहते हैं, "शशि असाधारण अभिनेता थे लेकिन उन्हें अमिताभ बच्चन की तरह की फ़िल्में नहीं मिल पाईं जिनसे उन्हें स्टार और अभिनेता दोनों का तमग़ा मिल पाता. उनको हमेशा एक रोमांटिक स्टार के रूप में देखा गया. लोगों की नज़रें हमेशा उनके चेहरे की तरफ़ गईं. भारतीय फ़िल्म जगत में उन जैसा ख़ूबसूरत अभिनेता उस समय नहीं था. नतीजा ये हुआ कि उनका अभिनय बैकग्राउंड में चला गया और वो सुपर हीरो नहीं बन पाए."

मशहूर निर्देशक कुमार शाहनी ने भी कहा था, "भारतीय निर्देशकों ने शशि कपूर का पूरी तरह से फ़ायदा नहीं उठाया. शशि कपूर में भी वो 'किलर इंस्टिंक्ट' भी नहीं था जो किसी अभिनेता को चोटी पर पहुंचाता है."

जैनिफ़र से शादी

शशि कपूर ने 1953 से 1960 तक अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ पृथ्वी थियेटर में काम किया. इसी दौरान उनकी मुलाकात जैनिफ़र केंडल से हुई. वो उनसे चार साल बड़ी थीं. जैनिफ़र के पिता ज्योफ़री को ये रिश्ता पसंद नहीं था।
शशि के जैनिफ़र से विवाह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई शशि कपूर की भाभी और शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली ने।
उन दिनों जैनिफ़र हैदराबाद में थीं और शशि कपूर बंबई में. शम्मी शशि का लटका हुआ मुँह देखकर कहते, क्यों मुँह लटका रहा है? याद आ रही है क्या? ये कहकर वो 100 रुपये का नोट निकाल कर उन्हें पकड़ा देते. उन दिनों हैदराबाद का हवाई टिकट 70 रुपये का मिलता था।

शशि तुरंत उन्हीं पैसों से हैदराबाद जाने का टिकट खरीदते. शम्मी कपूर और गीता बाली ने ही शशि को प्रोत्साहित किया कि वो जैनिफ़र को बंबई लाकर अपने माता-पिता से मिलवाएं।

शशि कपूर अपनी किताब 'पृथ्वीवालाज़' में लिखते हैं, "मैं जैनिफ़र को अपने माता-पिता के पास न ले जाकर शम्मी कपूर और गीता बाली के पास ले गया. वो हमें अपनी कार और कुछ पैसे दे देतीं ताकि हम ड्राइव पर जाएं और साथ कुछ खा-पी लें. बाद में मेरे कहने पर शम्मी ने हमारे बारे में हमारे माता-पिता से बात की. उनके मनाने पर ही वो बहुत मुश्किल से हमारे रिश्ते के लिए राज़ी हुए."
जिस दिन जैनिफ़र से शशि कपूर की शादी होनी थी उनके पिता पृथ्वीराज कपूर जयपुर में 'मुग़ल-ए-आज़म' के क्लाइमेक्स की शूटिंग कर रहे थे।

फ़िल्म के निर्देशक के. आसिफ़ ने उनके लिए एक चार्टर डकोटा विमान की व्यवस्था की. जैसे ही विवाह संपन्न हुआ पृथ्वीराज उसी विमान से जयपुर लौट गए. उस समय जयपुर में नाइट लैंडिंग सुविधा नहीं थी, जैसे ही भोर हुई विमान ने जयपुर में लैंड किया और पृथ्वीराज हवाई अड्डे से सीधे शूटिंग के लिए चले गए।
जैनिफ़र और शशि कपूर साथ-साथ रखते थे करवाचौथ का व्रत
जैनिफ़र कपूर नास्तिक थीं लेकिन वो अपने सास ससुर को खुश करने के लिए सभी तरह के व्रत रखा करती थीं. उनकी ये भी कोशिश होती थी कि उनके बच्चों में भारतीय संस्कार आएँ.
मधु जैन अपनी किताब 'द फ़र्स्ट फ़ैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा, कपूर्स' में लिखती हैं, "जैनिफ़र अपनी सास की तरह करवाचौथ का व्रत रखा करती थीं. दिलचस्प बात ये है कि पृथ्वीराज कपूर और शशि कपूर भी अपनी पत्नी के साथ करवाचौथ का व्रत रखते थे. जैनिफ़र ने अपनी सास की ज़िंदगी तक ये व्रत रखना जारी रखा."

जैनिफ़र ने इस्माइल मर्चेंट की मदद की

शशि कपूर ने मशहूर फ़िल्म निर्देशक इस्माइल मर्चेंट के साथ कई फ़िल्मों में काम किया. बॉम्बे टाकीज़ की शूटिंग के दौरान मर्चेंट के पास पैसों की कमी पड़ गई. कई अभिनेताओं की फ़ीस दी जानी थी और मर्चेंट के पास उन्हें देने के लिए पैसे नहीं थे.

इस्माइल मर्चेंट अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वो इस मुसीबत से किस तरह बाहर निकले.
वे लिखते हैं, "मेरे पास शशि कपूर को देने के लिए भी पैसे नहीं थे लेकिन उनकी पत्नी जैनिफ़र का मेरे लिए सॉफ़्ट कॉर्नर था. उन्होंने मुझे कुछ पैसे उधार दिए. इस तरह मैंने शशि कपूर के खुद के पैसे उन्हें देकर अपना उधार चुकता किया. बाद में जब मेरे पास पैसे आ गए तो मैंने वो पैसे जैनिफ़र को लौटा दिए लेकिन शशि कपूर को हम दोनों ने इस बारे में कानोकान ख़बर नहीं होने दी."

इसी तरह की घटना शशि के पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ भी हुई थी. उन्होंने एक प्रोड्यूसर के साथ इसलिए काम करने से इनकार कर दिया था कि उसने पिछली फ़िल्म के पाँच हज़ार रुपये उन्हें नहीं चुकाए थे. वो प्रोड्यूसर चुपचाप उनकी पत्नी के पास गया और उनसे पाँच हज़ार रुपये उधार ले आया. उस शाम पृथ्वीराज कपूर हँसी-खुशी अपने घर लौटे और वो पाँच हज़ार रुपये अपनी पत्नी को दे दिए।
अंतिम समय में बीमारियों ने घेरा

वर्ष 1984 में जैनिफ़र कपूर के निधन के बाद बाद शशि कपूर की जीने की इच्छा ही जैसे ख़त्म हो गई. इसके बाद उनका वज़न बढ़ना शुरू हुआ तो वो रुका ही नहीं.
कुछ सालों बाद वो सूमो पहलवान जैसे दिखाई देने लगे. उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया. अधिक वज़न के कारण उनके घुटनों ने जवाब दे दिया.
उन्ही दिनों जब उनकी भाभी नीला देवी ने उन्हें फ़ोन किया तो शशि कपूर ने उनसे पूछा 'अब वो किसके लिए जिएँ?'
उनके पुराने दोस्त और निर्देशक जेम्स आइवरी ने कहा, 'मोटे होना शशि कपूर के लिए शोक मनाने का एक तरीका था.

- jalak kanani

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