20/08/2023
पेशे से डॉक्टर, भारतीय संस्कृति के दृष्टांत पुरुष, स्वाध्यायी, धर्मनिष्ठ हमारे कानपुर के परिचित ने विवाह संबंध–विच्छेद की बढ़ती घटनाओं संबंधित आपसी बातचीत में कहा– कि "पहले स्त्री "सेव्या" की भूमिका में रहती थीं, आज "भोग्या" के रूप में"। यानि विवाह बाद पतिग्रह में "सेव्या" बनकर नए कुल में अपना स्थान सुनिश्चित करती थीं। परिवार के सदस्यों की यथोचित सेवा, स्नेह, सम्मान से पत्नी, बहू, पौत्र बहू, भाभी, मामी आदि का सम्मान–स्नेह पाती थीं। विवाह संस्कार का उद्देश्य दो कुलों, दो परिवारों में संबंध स्थापित करना था। समाजशास्त्र के गूढार्थ को समझते हुए हमारे पूर्वजों ने अनेक लोकरीतियों की व्यवस्था/स्थापना की। विवाह संस्कार पद्धति की लोकरीतियों में नवदंपति की स्वस्थ, सुखी, समृद्ध जीवन की कामना तो है ही, बल्कि लगभग सभी नजदीकी रिश्तों की भूमिका रहती है। और उन सभी भूमिकाओं के अपने वैज्ञानिक निहितार्थ हैं।
अब महिला सशक्तिकरण की दिशाहीन सोच ने स्त्री को "भोग्या" तक सीमित कर लिया है। अपनी उच्च महत्वाकांक्षाओं और इगो के चलते एक कुलवधू का सम्मान–स्नेह न पाता देख मात्र पत्नी के रूप को अंगीकार कर लेती है, उसके लिए अपने पति के पारिवारिक संबंधों को सीमित अथवा विच्छेद करने में भी उसे संकोच नहीं। और परिवार हम दो – हमारे दो पर सिकुड़ जाता है। पति भी पत्नी के प्रेमाश्रित हो हर परिस्थिति से समझौता तो करता जाता, बावजूद इसके उसकी स्वाभाविक पुरुष मानसिकता नहीं बदल पाती।
स्व की महत्वाकांक्षाएं और इगो का प्रतिकूल प्रभाव पति–पत्नी संबंधों पर भी न पड़े, ऐसा कदाचित ही संभव है। रोज–व–रोज की छिटपुट चुहलबाजियां, नाराजगी, टोका–टोकी, कहासुनी कब झगड़े का रूप ले लेती हैं, ऐसी घटनाएं अब बढ़ने लगी हैं। अब कोई तीसरा तो है नहीं, जिससे अपनी मन की बात, उद्वेग किससे साझा करे, किससे सलाह ले? परिवार से तो दूरी बना ली। आखिर वहीं कहासुनी, आपसी झगड़े संबंध विच्छेद तक पहुंच जाती है। पति–पत्नी के संबंध विच्छेद को पहले के समाज में सामाजिक बुराई माना जाता था। परिवार – कुल की मर्यादा दांव पर लगी होती थी। आधुनिक समाज में ऐसा नहीं है। इसे सुखमय जीवन सुनिश्चित करने के सहारे माना जाने लगा।
दूसरी तरफ, पत्नी का संबंध अपने परिवार से बना रहता है। वह अपने मन को हल्का करने के लिए अपने परिवार विशेषकर अपनी मां से दिन–प्रतिदिन की दिनचर्या से अवगत करती रहती। जो समझ, सलाह से होते हुए संतान मोह के वशीभूत संबंध विच्छेद के निर्णय को पुष्ट करती है।
तीसरी बात, सरपट भागती दुनिया ने युवाओं के पौरुष, शक्ति को क्षीण किया है। आज के युवाओं में धैर्य, प्रतिकूल परिस्थियों से बाहर आने या समझौता करने का साहस, समन्वय, विश्वास, त्याग, समर्पण, निष्ठा आदि मौलिक गुणों का ह्रास हो गया है। ऊंची ऊंची डिग्रीधारी और कम्पनियों में उच्च पदासीन युवा भी अपने गृह प्रबंधन में असफल हो जाते हैं। इनकी शिक्षा एक निश्चित मासिक आय के प्रबंधन तक सीमित रह गईं हैं। ऊंचे पैकेज की शर्त पर अपनी पारिवारिक सुख–शांति से भी समझौता कर लेने वाला युवा आखिर रिश्ते–नाते, संबंधों को उतनी उपयोगिता नहीं देता।
और आखिर में, यदि यही जीवनचर्या हमारे जीवन आनंद की प्राप्ति का कारक या सहायक है, तो हमें–आपको क्या आपत्ति। और यदि नहीं, तो हमें जांची–परखी मान्यताओं, कुल परंपराओं को तरजीह देनी चाहिए। परिवर्तन चैतन्यता, विकास, प्रगति का अपरिहार्य अंग है, अतः हमें परंपराओं और आधुनिकता में सामंजस्य, समन्वय बनाकर अनेकों प्रत्याशित/अप्रत्याशित समस्याओं से निदान पा सकते हैं।