The Urban Rishi

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हर सुबह इक नई सुबह,हर बार इक चाँद नयातुम रोज नई लगती हो मुझको,जैसे हर दफा, पहली दफाये दुनियां रोज बदलती है,कभी फूल खिलेक...
23/06/2025

हर सुबह इक नई सुबह,
हर बार इक चाँद नया
तुम रोज नई लगती हो मुझको,
जैसे हर दफा, पहली दफा
ये दुनियां रोज बदलती है,
कभी फूल खिले
कभी पतझड़ हो
कभी बरखा, बिजली, धूप-छाव
कभी ढलता सूरज
कभी पूर्णिमा,
आश्चर्यचकित हो सब जियूँ मैं,
जैसे हर दफा, पहली दफा...
#भृगुऋषि

21/06/2025

क़रीब चालीस की उम्र में
चंडीदत्त शुक्ल
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लोग कहते हैं—
उदास दिखना उदास होने से

ज़्यादा ख़राब समझा जाता है।
सो जाओ कि

रात बहुत गहरी है
और काली है।

सो जाओ कि
अब कोई उम्मीद नहीं जगाएगा

तुम्हारे मन के लिए।
सो जाओ कि

बंगाल से लेकर मद्रास तक
समुद्र का जल नाराज़ है तुमसे।

दिशाएँ पूछती हैं सनसनाकर हरदम :
क्यों हारे तुम

इतना प्रेम किया था क्यों?
सो जाओ कि

देश की किसी नायिका की आँख
तुम्हारे लिए गीली नहीं होने वाली।

सो जाओ कि
प्रेम एक घिसा-पिटा

दोहराए जाने को मजबूर शब्द भर है।
सो जाओ कि

गीली लकड़ी की तरह निरर्थक
जलावन है प्रेम।

निहायत दुख के वक़्त सिर्फ़
घुटन भरा धुआँ पैदा करेगा

प्रेम।
सो जाओ कि

एक और उदास दिन
तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

प्रतीक्षा में है एक सुबह जिसमें
मशीन की तरह काम और निष्फल इच्छाएँ

तुम्हारा रास्ता ताकती होंगी।
सो जाओ कि

किसी और को न सही
तुम्हें ख़ुद से एक झीना-सा लगाव तो है।

तुम अब भी प्रेम करते हो न उस लड़के को
जो प्रेम करते वक़्त रोता था, हँसता था, खिलखिलाता था

और नंगे पैरों चूमता था हरी-हरी घास को।
सो जाओ कि कुछ और कविताएँ लिखना

उन्हें पढ़कर कुछ लोग रोएँगे और टूटेंगे और सिर धुनेंगे
कुछ तो राहत मिलेगी तुम्हें और उन्हें।

सो जाओ कि निराशा से लबालब
इस कविता के बाद सकारात्मक जीवन के लिए

कुछ भाषण तुम्हें तैयार करने होंगे।
सो जाओ कि

अब तुम प्रेम में होते हुए भी
प्रेम में नहीं हो।

सो जाओ
क्योंकि ख़ुदकुशियों से भी

कुछ भला नहीं होता।
सो जाओ क्योंकि ज़्यादा जागने

और बहुत रोने से
दिन भर आँख रहेगी लाल।

क़रीब चालीस की उम्र में
लोग कहते हैं—उदास दिखना उदास होने से

ज़्यादा ख़राब समझा जाता है।
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उम्र के चालीसवे वसंत में / मनीष मिश्र

उम्र के चालीसवें वसंत में-
गिरती है समय की धूप और धूल
फ़र-फ़र करती झरती हैं तरुण कामनाएँ
थोड़े और घने हो जाते है मौन के प्रायः दीप
फिर, फिर खोजता है मन सताए हुए क्षणों में सुख!

उम्र के चालीसवें वसंत में-
छातों और परिभाषाओं के बगैर भी गुज़रता है दिन
सपने और नींद के बावजूद बीतती है रात
नैराश्य के अन्तिम अरण्य के पार भी होता है सवेरा
जीवन के घने पड़ोस में भी दुबकी रहती है अनुपस्थिति!

उम्र के चालीसवें वसंत में-
स्थगित हो जाता है समय
खारिज हो जाती है उम्र
बीतना हो जाता है बेमानी!
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 चालीस पार की औरत
रंजना मिश्र
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जली हुई रोटी है

दूसरी तरफ़ कच्ची
उफन गई चाय है

बच रही थोड़ी-सी
भगोने में

बची हुई मुट्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम में

बजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह

बार-बार
पलट आती है

मुखड़े पर
पता नहीं कौन

रोज़ दरवाज़े खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है

अपनी देह के बाहर
छूट जाती है कभी

और कभी
उम्र से आगे निकल जाती है

मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है
एक और नदी

पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
रात होते ही

अपने पंख तहा
रख देती है सिरहाने

और निहारती है देर तक
उन पंखों को...
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चालीस पार औरते

18/06/2025
15/06/2025

पिता जीवन है, संबल है, शक्ति है,
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति हैl
पिता उंगली पकड़े बच्चे का सहारा है,
पिता कभी कुछ खट्टा, कभी खारा है।
पिता पालन है, पोषण है, पारिवार का अनुशासन है,
पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है।
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है,
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है।
पिता अपदर्शित अनन्त प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतजार है।
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं।
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ का बिंदी और सुहाग है।
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है।
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है,
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारों की मूर्ति है।
पिता एक जीवन को जीवन का दान है,
पिता दुनिया दिखाने का अहसान है।
पिता सुरक्षा है, सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है...

~ ओम व्यास

11/01/2025
08/12/2024

मैं घर और शहर बदलता रहा,
मेरा दुख मेरे साथ साथ चलता रहा,
मैंने सोचा बदलने से आसान होगा,
मैं मकान और सामान बदलता रहा
मेरा मैं मेरे साथ साथ चलता रहा,
मैं बाहर की चीजें बदलता रहा
मेरे अंदर का शोर मुझमे पलता रहा...

#भृगुऋषि

आओ...
08/12/2024

आओ...

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