16/03/2025
भारत का जातिगत विभाजन एक सुनियोजित ब्राह्मण विरोधी विमर्श: औपनिवेशिक षड्यंत्र, सांस्कृतिक आक्रमण और भारत की अखंडता पर खतरा
भारत का जातिगत विभाजन एक सुनियोजित औपनिवेशिक षड्यंत्र का परिणाम था, जिसे अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों ने हिंदू समाज को तोड़ने के लिए गढ़ा। यही शक्तियां, जिन्होंने अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में मूल निवासियों का संहार कर उन्हें आरक्षण देने की आवश्यकता नहीं समझी, उन्होंने भारत में हिंदू समाज की 85% आबादी को "शोषित" और मात्र 4% ब्राह्मणों को "शोषक" घोषित कर दिया। यह एक वैचारिक छल था, जिसका उद्देश्य भारत की सामाजिक एकता को नष्ट करना और सनातन धर्म को समाप्त करना था ।
ब्रिटिश सरकार ने जातिगत पहचान को मजबूत करने के लिए डब्ल्यू.एच.आर. रिवर्स, हर्बर्ट रिस्ले, जेम्स मिल, थॉमस मैकाले और मिन्सेफ्ट जैसे समाजशास्त्रियों और नीतिकारों का सहारा लिया। रिस्ले की "Race Theory" ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष की झूठी अवधारणा प्रस्तुत की, जबकि मैकाले ने शिक्षा प्रणाली में बदलाव कर ब्राह्मणों को "अत्याचारी वर्ग" के रूप में चित्रित किया।
अंग्रेजों द्वारा भारत में "जातिगत भेदभाव" को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई संस्थाओं में शामिल थीं—
1. डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन (1882)
2. साइमन कमीशन (1927)
3. साउथबरो समिति (1919)
4. हंटर आयोग (1882)
इनका उद्देश्य भारत के जातिगत विभाजन को और अधिक गहरा करना था, ताकि हिंदू समाज एकजुट न हो सके।
ब्राह्मणों का दानवीकरण और भारत विभाजन की नींव
ब्राह्मणों को दानव के रूप में चित्रण करने की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन के दौरान शुरू हुई और स्वतंत्रता के बाद इसे और अधिक बल दिया गया। ब्रिटिश सरकार के अधिकारी हर्बर्ट रिस्ले ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें यह दावा किया गया कि ब्राह्मण बाहरी आक्रांता थे और उन्होंने भारतीय समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यह सिद्धांत पूरी तरह से मनगढ़ंत था, लेकिन इसे एक राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
ब्राह्मणों के विरुद्ध इस विमर्श को और अधिक वैधता प्रदान करने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने इसे व्यापक रूप से प्रचारित किया। रोमिला थापर, इरफान हबीब, डी. एन. झा और रामचंद्र गुहा जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अपने लेखन में ब्राह्मणों को समाज का शोषक वर्ग बताया और यह स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत में हजारों वर्षों से जातिगत दमन की एक कठोर व्यवस्था चली आ रही थी।
मीडिया ने इस विमर्श को और अधिक धारदार बना दिया। NDTV, द वायर, द क्विंट और अन्य वामपंथी मीडिया संस्थानों ने "ब्राह्मणवाद" शब्द को एक नकारात्मक अर्थ में स्थापित किया और इसे सामाजिक अन्याय का पर्याय बना दिया। बॉलीवुड और साहित्य ने भी इस प्रोपेगैंडा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई फिल्मों और उपन्यासों में ब्राह्मणों को दमनकारी और निर्दयी पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया।
ब्राह्मणों को "जातिवादी अत्याचारी" के रूप में चित्रित करने का परिणाम यह हुआ कि 1947 में भारत विभाजन के समय अनुसूचित जाति वर्ग के लगभग 2 करोड़ लोग पाकिस्तान चले गए, जिनका नेतृत्व जोगेंद्र नाथ मंडल कर रहे थे। यह विभाजन एक गहरे जातिगत विमर्श का परिणाम था, जिसे अंग्रेजों और इस्लामी शक्तियों ने मिलकर गढ़ा था।
हालांकि, पाकिस्तान में हिंदू अनुसूचित जातियों के प्रति भयंकर भेदभाव हुआ। जोगेंद्र नाथ मंडल, जिन्होंने मुस्लिम लीग का समर्थन किया था, को अंततः पाकिस्तान से भागकर भारत वापस आना पड़ा, क्योंकि वहां दलितों को इंसान तक नहीं समझा गया। यह घटना इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि जातिगत विमर्श का उद्देश्य केवल भारत में हिंदू समाज को कमजोर करना था, न कि किसी वर्ग को न्याय दिलाना।
भारत विभाजन के समय भी इस ब्राह्मण विरोधी विमर्श का गहरा प्रभाव देखने को मिला। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तो जोगेंद्र नाथ मंडल के नेतृत्व में अनुसूचित जाति के 2 करोड़ लोग पाकिस्तान चले गए। उन्होंने सोचा था कि वहां उन्हें एक समान समाज मिलेगा, लेकिन कुछ ही वर्षों में उन्हें भयंकर भेदभाव और अत्याचार का सामना करना पड़ा। स्वयं जोगेंद्र नाथ मंडल को 1950 में पाकिस्तान छोड़कर भारत लौटना पड़ा। इससे यह स्पष्ट होता है कि जातिगत संघर्ष और ब्राह्मण विरोधी विमर्श केवल राजनीतिक हथियार था, जिसका वास्तविक उद्देश्य हिंदू समाज को कमजोर करना था।
मंडल आयोग: जातिगत हिंसा और विभाजन का नया चरण
1970 के दशक में जब भारत ने आर्थिक और सामाजिक रूप से स्थिरता की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया, तभी मंडल आयोग के माध्यम से जातिगत विभाजन को और गहरा किया गया ।
7 अगस्त 1990 को में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किया गया, जिसके तहत यह दावा किया गया कि भारत की 85% आबादी "पिछड़ी जातियों" में आती है। यह आंकड़ा संदिग्ध था, क्योंकि 1914 की जनगणना में अस्पृश्यों की संख्या मात्र 2% थी। प्रश्न यह उठता है कि यदि 1914 में अस्पृश्य मात्र 2% थे, तो मंडल आयोग के लागू होते-होते यह संख्या 85% कैसे हो गई?
इसका उत्तर एक सुनियोजित सामाजिक षड्यंत्र में छिपा है। जातिगत हिंसा को उकसाकर, हिंदू समाज में आंतरिक विभाजन को बढ़ावा देकर और "सामाजिक न्याय" के नाम पर आरक्षण की राजनीति को आगे बढ़ाकर, इस विमर्श को गहराया गया।
मंडल आयोग के लागू होते ही भारत में जातिगत हिंसा चरम पर पहुंच गई। कई राज्यों में आंदोलन हुए, आरक्षण समर्थकों और विरोधियों के बीच संघर्ष छिड़ा और समाज में एक स्थायी विभाजन स्थापित कर दिया गया।
मंडल आयोग के लागू होने के बाद 1990 के दशक में भारत ने जातिगत हिंसा की भयानक घटनाएं देखीं। हिंदू समाज में जातिगत ध्रुवीकरण चरम पर पहुंच गया। इसी दौरान राम मंदिर आंदोलन भी अपने चरम पर था, जिससे हिंदू समाज में पुनर्जागरण की भावना जागी।
इसके तुरंत बाद, 1991 में आर्थिक उदारीकरण हुआ, जिसने सामाजिक-आर्थिक स्तर पर व्यापक बदलाव लाए। गरीबी घटी, शहरीकरण बढ़ा, और जातिगत राजनीति कमजोर होने लगी। यह वामपंथी और इस्लामी शक्तियों के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि उनका जातिगत संघर्ष का विमर्श कमजोर पड़ रहा था।
ब्रिटिशों द्वारा बोया गया जातिगत विभाजन का बीज अब एक विशाल वृक्ष बन चुका है, जिसे वामपंथियों, इस्लामी शक्तियों और कल्चरल मार्क्सवादियों ने अपने शस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया।
1990 के दशक में जो जातिगत जहर शहरी शिक्षित समाज में सीमित था, वह सोशल मीडिया के माध्यम से गांव-गांव तक पहुंच गया है।
आज "ब्राह्मणवाद" के खिलाफ नफरत को "सामाजिक न्याय" के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर वामपंथी और इस्लामी शक्तियां "जातिगत संघर्ष" को भड़काने के लिए संगठित रूप से काम कर रही हैं।
ब्राह्मण विरोधी विमर्श को आगे बढ़ाने में वामपंथी इतिहासकारों और मीडिया की भूमिका
ब्राह्मण विरोधी विमर्श को आगे बढ़ाने में वामपंथी इतिहासकारों और मीडिया की भूमिका
स्वतंत्रता के बाद, वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में कई इतिहासकारों ने ब्राह्मणों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को बल दिया। रोमिला थापर, इरफान हबीब, डी.एन. झा, रामचंद्र गुहा, और बी.एन. पांडे जैसे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को इस प्रकार लिखा कि ब्राह्मणों को एक प्रभुत्वशाली और दमनकारी वर्ग के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
इस विमर्श को मीडिया ने भी व्यापक रूप से प्रचारित किया। "द हिंदू", "द इंडियन एक्सप्रेस", "एनडीटीवी", "द वायर", "द क्विंट", "स्क्रॉल", "द प्रिंट" जैसे वामपंथी समाचार पत्रों और डिजिटल मीडिया पोर्टलों ने "ब्राह्मणवाद" को एक नकारात्मक अवधारणा के रूप में स्थापित किया।
ब्राह्मण विरोधी मीडिया रिपोर्टिंग के कुछ उदाहरण
1. एनडीटीवी (2018): "भारत में जातिगत अन्याय का सबसे बड़ा कारण ब्राह्मणवादी व्यवस्था है, जिसने दलितों और पिछड़ों को सदियों तक दबाकर रखा।"
2. द हिंदू (2017): "ब्राह्मणों ने शिक्षा और ज्ञान के माध्यम से अन्य जातियों पर प्रभुत्व स्थापित किया और यह आज भी जारी है।"
3. बीबीसी हिंदी (2021): "भारत में जातिगत भेदभाव के लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता जिम्मेदार है।"
4. द वायर (2020): "जब तक ब्राह्मणवाद समाप्त नहीं होगा, तब तक सामाजिक समानता असंभव है।
बॉलीवुड और ब्राह्मणों का नकारात्मक चित्रण
ब्राह्मण विरोधी विमर्श को बल देने में बॉलीवुड की भी बड़ी भूमिका रही। "आर्टिकल 15" (2019) जैसी फिल्मों में ब्राह्मणों को जातिवादी और अत्याचारी के रूप में दिखाया गया। "मूल्क" (2018), "जोधा अकबर" (2008), "पद्मावत" (2018) जैसी फिल्मों में हिंदू समाज, विशेषकर ब्राह्मणों, को नकारात्मक रूप में चित्रित किया गया।
ब्राह्मण विरोधी विमर्श केवल औपनिवेशिक शासन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि स्वतंत्रता के बाद वामपंथी विचारधारा ने इसे और अधिक धार दी। वामपंथियों ने "वर्ग संघर्ष" की मार्क्सवादी अवधारणा को "जातिगत संघर्ष" में परिवर्तित कर दिया और इसे हिंदू समाज के भीतर घृणा फैलाने के लिए इस्तेमाल किया। वामपंथी बौद्धिक वर्ग, जिसमें जेएनयू, टीआईएसएस, और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी संस्थाएं अग्रणी थीं, उन्होंने इस विमर्श को गहराई से स्थापित किया।
इसके बाद, वामपंथियों, इस्लामी शक्तियों और ईसाई मिशनरियों ने ब्राह्मण विरोधी विमर्श को एक नए स्तर पर ले जाने का प्रयास किया। सोशल मीडिया के माध्यम से इसे व्यापक स्तर पर फैलाया गया, जिससे गांव-गांव तक जातिगत घृणा फैलाई जाने लगी। वामपंथियों ने अपनी विचारधारा को मजबूती देने के लिए जातिगत संघर्ष को और अधिक तीव्र कर दिया, जबकि इस्लामी संगठनों ने इसे हिंदू समाज को कमजोर करने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।
ईसाई मिशनरियों ने भी इस ब्राह्मण विरोधी विमर्श को खूब बढ़ावा दिया। उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के धर्मांतरण को बढ़ाने के लिए ब्राह्मणों को अत्याचारी और हिंदू धर्म को अन्यायी के रूप में चित्रित किया। "वर्ल्ड विजन", "ऑक्सफैम" और "क्रिश्चियन मिशनरी सोसाइटी" जैसी संस्थाओं ने इसके लिए भारी मात्रा में धन मुहैया कराया।
बॉलीवुड और मुख्यधारा की मीडिया ने भी इस नैरेटिव को मजबूती से आगे बढ़ाया। फिल्मों और साहित्य के माध्यम से ब्राह्मणों को एक क्रूर, अन्यायी और शोषक वर्ग के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। "आर्टिकल 15", "जय भीम" और "मुल्क" जैसी फिल्मों ने समाज में जातिगत विभाजन को और अधिक गहरा किया। इसके अलावा, पश्चिमी फंडिंग से संचालित गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों के नाम पर हिंदू समाज को विभाजित करने का प्रयास किया।
ब्राह्मणों का सामाजिक और आर्थिक पतन
ब्राह्मण विरोधी विमर्श के परिणामस्वरूप भारत में ब्राह्मणों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति तेजी से गिरने लगी। ऐतिहासिक रूप से, ब्राह्मणों की भूमिका शिक्षा, ज्ञान और धार्मिक अनुष्ठानों में रही थी। वे राजसत्ता के भागीदार नहीं थे, बल्कि वे समाज के सभी वर्गों को शिक्षा और मार्गदर्शन प्रदान करते थे। लेकिन औपनिवेशिक नीति और स्वतंत्रता के बाद की आरक्षण व्यवस्था ने ब्राह्मणों को हाशिए पर धकेल दिया।
1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। बाद में, 1990 में ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद, ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में अवसर और अधिक सीमित हो गए। परिणामस्वरूप, ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर हो गया और उन्हें छोटे-मोटे कार्यों या पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
आज दक्षिण भारत में, विशेष रूप से तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। तमिलनाडु में, जहां "ब्राह्मण विरोधी आंदोलन" सबसे अधिक उग्र हुआ था, वहां की स्थिति यह है कि ब्राह्मणों की एक बड़ी संख्या विदेशों में पलायन कर चुकी है, जबकि जो बचे हैं, वे हाशिए पर जीवन बिता रहे हैं।
वामपंथी और इस्लाम, ईसाईयत का हिंदू समाज के साथ वैचारिक छल
वामपंथियों ने अपने "वर्ग-संघर्ष" सिद्धांत के अंतर्गत संपूर्ण विश्व में दश करोड़ से अधिक जनों की हत्या की (संदर्भ: "The Black Book of Communism"), किंतु वे भारत में "सामाजिक न्याय" का नारा देते हैं।
क्रिश्चियन समाज में जातिगत भेदभाव सतही रूप से दिखाई नहीं देता, किंतु वहाँ अत्यंत गहरे स्तर पर विभाजन व्याप्त है। यूरोप के इतिहास में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट संघर्ष लंबे समय तक चला, जिसके कारण अनेक युद्ध हुए, जिनमें तीस वर्ष का युद्ध (1618-1648) और आयरलैंड संघर्ष प्रमुख हैं। नस्लीय आधार पर भी क्रिश्चियन समाज बँटा हुआ है, जहाँ श्वेत, अश्वेत, लैटिन, एशियाई और अन्य नस्लों के बीच गहरे स्तर पर भेदभाव चलता रहा है। अमेरिका में कु क्लक्स क्लान (K*K) जैसे संगठन इसी नस्लीय वर्चस्ववाद का परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त, धार्मिक आधार पर भी विभाजन स्पष्ट है, जहाँ कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स, एवेंजेलिकल और अन्य अनेक संप्रदायों में मतभेद और प्रतिस्पर्धा सदैव बनी रहती है।
भारत में भी ईसाई समाज जातिगत आधार पर विभाजित है। यहाँ सिरियन क्रिश्चियन और रोमन कैथोलिक समुदाय सवर्ण माने जाते हैं, जबकि मतांतरित दलित ईसाइयों को निम्न स्तर पर रखा जाता है। केरल, तमिलनाडु और गोवा जैसे राज्यों में दलित ईसाइयों के साथ भेदभाव और चर्च के भीतर उनके अधिकारों के हनन के अनेक प्रमाण मिलते हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि ईसाई समाज में ही "दलित क्रिश्चियन आंदोलन" चलाया गया, ताकि चर्च के भीतर समानता स्थापित की जा सके।
मुस्लिम समाज में भी जातिगत भेदभाव की जड़ें गहरी हैं। यहाँ सैयद, पठान, मिर्जा, शेख, अंसारी, कुरैशी जैसे वर्गों के बीच स्पष्ट ऊँच-नीच देखने को मिलती है। अरब देशों से लेकर भारत तक, यह भेदभाव व्याप्त है, किंतु इसके विरुद्ध कोई संगठित सामाजिक-न्याय आंदोलन देखने को नहीं मिलता।
इसके विपरीत, हिंदू समाज में जातिगत संघर्ष को उद्दीप्त करने की सुनियोजित रणनीति अपनाई जाती है, जिससे हिंदू समाज को विभाजित किया जा सके और दुर्बल बनाया जा सके। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि हिंदू समाज को इतना विखंडित कर दिया जाए कि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण में सुविधा हो, इस्लामी शक्तियाँ "ग़ज़वा-ए-हिंद" लक्ष्य की पूर्ति कर सकें और वामपंथी विचारधारा राजनीतिक अधिपत्य स्थापित कर सके।
इतिहास यह प्रमाणित करता है कि जहाँ इस्लाम प्रभावी होता है, वहाँ वामपंथ टिक नहीं पाता, और जहाँ वामपंथ सशक्त होता है, वहाँ इस्लामी शक्तियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। किंतु भारत में सनातन धर्म और इसकी परंपराओं को ध्वस्त करने के लिए वामपंथी, इस्लामी और ईसाई मिशनरी शक्तियाँ एकजुट होकर कार्य कर रही हैं। इनका उद्देश्य केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आधार पर भारत के मूल सनातनी ताने-बाने को समाप्त करना है।
ब्राह्मण विरोधी विमर्श एक औपनिवेशिक षड्यंत्र का परिणाम था, जिसे स्वतंत्रता के बाद वामपंथियों और इस्लामी शक्तियों ने हिंदू समाज को विभाजित करने के लिए आगे बढ़ाया। इस विमर्श के माध्यम से ब्राह्मणों का दानवीकरण कर, जातिगत संघर्ष को भड़काया गया और भारत की एकता को कमजोर करने का प्रयास किया गया।
आज आवश्यकता है कि हम इस वैचारिक षड्यंत्र को समझें और समाज को इस जहर से मुक्त करने के लिए ठोस बौद्धिक प्रयास करें। यदि हिंदू समाज ने इस षड्यंत्र को समय रहते नहीं समझा, तो भारत को एक और विभाजन से बचाना कठिन हो सकता है।
✍️ Deepak Kumar Dwivedi