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वैश्विक चुनौतियों के संदर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
19/07/2025

वैश्विक चुनौतियों के संदर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

16/03/2025

भारत का जातिगत विभाजन एक सुनियोजित ब्राह्मण विरोधी विमर्श: औपनिवेशिक षड्यंत्र, सांस्कृतिक आक्रमण और भारत की अखंडता पर खतरा

भारत का जातिगत विभाजन एक सुनियोजित औपनिवेशिक षड्यंत्र का परिणाम था, जिसे अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों ने हिंदू समाज को तोड़ने के लिए गढ़ा। यही शक्तियां, जिन्होंने अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में मूल निवासियों का संहार कर उन्हें आरक्षण देने की आवश्यकता नहीं समझी, उन्होंने भारत में हिंदू समाज की 85% आबादी को "शोषित" और मात्र 4% ब्राह्मणों को "शोषक" घोषित कर दिया। यह एक वैचारिक छल था, जिसका उद्देश्य भारत की सामाजिक एकता को नष्ट करना और सनातन धर्म को समाप्त करना था ।

ब्रिटिश सरकार ने जातिगत पहचान को मजबूत करने के लिए डब्ल्यू.एच.आर. रिवर्स, हर्बर्ट रिस्ले, जेम्स मिल, थॉमस मैकाले और मिन्सेफ्ट जैसे समाजशास्त्रियों और नीतिकारों का सहारा लिया। रिस्ले की "Race Theory" ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष की झूठी अवधारणा प्रस्तुत की, जबकि मैकाले ने शिक्षा प्रणाली में बदलाव कर ब्राह्मणों को "अत्याचारी वर्ग" के रूप में चित्रित किया।

अंग्रेजों द्वारा भारत में "जातिगत भेदभाव" को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई संस्थाओं में शामिल थीं—

1. डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन (1882)

2. साइमन कमीशन (1927)

3. साउथबरो समिति (1919)

4. हंटर आयोग (1882)

इनका उद्देश्य भारत के जातिगत विभाजन को और अधिक गहरा करना था, ताकि हिंदू समाज एकजुट न हो सके।

ब्राह्मणों का दानवीकरण और भारत विभाजन की नींव

ब्राह्मणों को दानव के रूप में चित्रण करने की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन के दौरान शुरू हुई और स्वतंत्रता के बाद इसे और अधिक बल दिया गया। ब्रिटिश सरकार के अधिकारी हर्बर्ट रिस्ले ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें यह दावा किया गया कि ब्राह्मण बाहरी आक्रांता थे और उन्होंने भारतीय समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यह सिद्धांत पूरी तरह से मनगढ़ंत था, लेकिन इसे एक राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया।

ब्राह्मणों के विरुद्ध इस विमर्श को और अधिक वैधता प्रदान करने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने इसे व्यापक रूप से प्रचारित किया। रोमिला थापर, इरफान हबीब, डी. एन. झा और रामचंद्र गुहा जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अपने लेखन में ब्राह्मणों को समाज का शोषक वर्ग बताया और यह स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत में हजारों वर्षों से जातिगत दमन की एक कठोर व्यवस्था चली आ रही थी।

मीडिया ने इस विमर्श को और अधिक धारदार बना दिया। NDTV, द वायर, द क्विंट और अन्य वामपंथी मीडिया संस्थानों ने "ब्राह्मणवाद" शब्द को एक नकारात्मक अर्थ में स्थापित किया और इसे सामाजिक अन्याय का पर्याय बना दिया। बॉलीवुड और साहित्य ने भी इस प्रोपेगैंडा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई फिल्मों और उपन्यासों में ब्राह्मणों को दमनकारी और निर्दयी पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया।

ब्राह्मणों को "जातिवादी अत्याचारी" के रूप में चित्रित करने का परिणाम यह हुआ कि 1947 में भारत विभाजन के समय अनुसूचित जाति वर्ग के लगभग 2 करोड़ लोग पाकिस्तान चले गए, जिनका नेतृत्व जोगेंद्र नाथ मंडल कर रहे थे। यह विभाजन एक गहरे जातिगत विमर्श का परिणाम था, जिसे अंग्रेजों और इस्लामी शक्तियों ने मिलकर गढ़ा था।

हालांकि, पाकिस्तान में हिंदू अनुसूचित जातियों के प्रति भयंकर भेदभाव हुआ। जोगेंद्र नाथ मंडल, जिन्होंने मुस्लिम लीग का समर्थन किया था, को अंततः पाकिस्तान से भागकर भारत वापस आना पड़ा, क्योंकि वहां दलितों को इंसान तक नहीं समझा गया। यह घटना इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि जातिगत विमर्श का उद्देश्य केवल भारत में हिंदू समाज को कमजोर करना था, न कि किसी वर्ग को न्याय दिलाना।

भारत विभाजन के समय भी इस ब्राह्मण विरोधी विमर्श का गहरा प्रभाव देखने को मिला। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तो जोगेंद्र नाथ मंडल के नेतृत्व में अनुसूचित जाति के 2 करोड़ लोग पाकिस्तान चले गए। उन्होंने सोचा था कि वहां उन्हें एक समान समाज मिलेगा, लेकिन कुछ ही वर्षों में उन्हें भयंकर भेदभाव और अत्याचार का सामना करना पड़ा। स्वयं जोगेंद्र नाथ मंडल को 1950 में पाकिस्तान छोड़कर भारत लौटना पड़ा। इससे यह स्पष्ट होता है कि जातिगत संघर्ष और ब्राह्मण विरोधी विमर्श केवल राजनीतिक हथियार था, जिसका वास्तविक उद्देश्य हिंदू समाज को कमजोर करना था।

मंडल आयोग: जातिगत हिंसा और विभाजन का नया चरण

1970 के दशक में जब भारत ने आर्थिक और सामाजिक रूप से स्थिरता की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया, तभी मंडल आयोग के माध्यम से जातिगत विभाजन को और गहरा किया गया ।

7 अगस्त 1990 को में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किया गया, जिसके तहत यह दावा किया गया कि भारत की 85% आबादी "पिछड़ी जातियों" में आती है। यह आंकड़ा संदिग्ध था, क्योंकि 1914 की जनगणना में अस्पृश्यों की संख्या मात्र 2% थी। प्रश्न यह उठता है कि यदि 1914 में अस्पृश्य मात्र 2% थे, तो मंडल आयोग के लागू होते-होते यह संख्या 85% कैसे हो गई?

इसका उत्तर एक सुनियोजित सामाजिक षड्यंत्र में छिपा है। जातिगत हिंसा को उकसाकर, हिंदू समाज में आंतरिक विभाजन को बढ़ावा देकर और "सामाजिक न्याय" के नाम पर आरक्षण की राजनीति को आगे बढ़ाकर, इस विमर्श को गहराया गया।

मंडल आयोग के लागू होते ही भारत में जातिगत हिंसा चरम पर पहुंच गई। कई राज्यों में आंदोलन हुए, आरक्षण समर्थकों और विरोधियों के बीच संघर्ष छिड़ा और समाज में एक स्थायी विभाजन स्थापित कर दिया गया।

मंडल आयोग के लागू होने के बाद 1990 के दशक में भारत ने जातिगत हिंसा की भयानक घटनाएं देखीं। हिंदू समाज में जातिगत ध्रुवीकरण चरम पर पहुंच गया। इसी दौरान राम मंदिर आंदोलन भी अपने चरम पर था, जिससे हिंदू समाज में पुनर्जागरण की भावना जागी।

इसके तुरंत बाद, 1991 में आर्थिक उदारीकरण हुआ, जिसने सामाजिक-आर्थिक स्तर पर व्यापक बदलाव लाए। गरीबी घटी, शहरीकरण बढ़ा, और जातिगत राजनीति कमजोर होने लगी। यह वामपंथी और इस्लामी शक्तियों के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि उनका जातिगत संघर्ष का विमर्श कमजोर पड़ रहा था।

ब्रिटिशों द्वारा बोया गया जातिगत विभाजन का बीज अब एक विशाल वृक्ष बन चुका है, जिसे वामपंथियों, इस्लामी शक्तियों और कल्चरल मार्क्सवादियों ने अपने शस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया।

1990 के दशक में जो जातिगत जहर शहरी शिक्षित समाज में सीमित था, वह सोशल मीडिया के माध्यम से गांव-गांव तक पहुंच गया है।

आज "ब्राह्मणवाद" के खिलाफ नफरत को "सामाजिक न्याय" के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है।

सोशल मीडिया पर वामपंथी और इस्लामी शक्तियां "जातिगत संघर्ष" को भड़काने के लिए संगठित रूप से काम कर रही हैं।

ब्राह्मण विरोधी विमर्श को आगे बढ़ाने में वामपंथी इतिहासकारों और मीडिया की भूमिका

ब्राह्मण विरोधी विमर्श को आगे बढ़ाने में वामपंथी इतिहासकारों और मीडिया की भूमिका
स्वतंत्रता के बाद, वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में कई इतिहासकारों ने ब्राह्मणों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को बल दिया। रोमिला थापर, इरफान हबीब, डी.एन. झा, रामचंद्र गुहा, और बी.एन. पांडे जैसे इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को इस प्रकार लिखा कि ब्राह्मणों को एक प्रभुत्वशाली और दमनकारी वर्ग के रूप में प्रस्तुत किया जाए।

इस विमर्श को मीडिया ने भी व्यापक रूप से प्रचारित किया। "द हिंदू", "द इंडियन एक्सप्रेस", "एनडीटीवी", "द वायर", "द क्विंट", "स्क्रॉल", "द प्रिंट" जैसे वामपंथी समाचार पत्रों और डिजिटल मीडिया पोर्टलों ने "ब्राह्मणवाद" को एक नकारात्मक अवधारणा के रूप में स्थापित किया।

ब्राह्मण विरोधी मीडिया रिपोर्टिंग के कुछ उदाहरण

1. एनडीटीवी (2018): "भारत में जातिगत अन्याय का सबसे बड़ा कारण ब्राह्मणवादी व्यवस्था है, जिसने दलितों और पिछड़ों को सदियों तक दबाकर रखा।"

2. द हिंदू (2017): "ब्राह्मणों ने शिक्षा और ज्ञान के माध्यम से अन्य जातियों पर प्रभुत्व स्थापित किया और यह आज भी जारी है।"

3. बीबीसी हिंदी (2021): "भारत में जातिगत भेदभाव के लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता जिम्मेदार है।"

4. द वायर (2020): "जब तक ब्राह्मणवाद समाप्त नहीं होगा, तब तक सामाजिक समानता असंभव है।

बॉलीवुड और ब्राह्मणों का नकारात्मक चित्रण

ब्राह्मण विरोधी विमर्श को बल देने में बॉलीवुड की भी बड़ी भूमिका रही। "आर्टिकल 15" (2019) जैसी फिल्मों में ब्राह्मणों को जातिवादी और अत्याचारी के रूप में दिखाया गया। "मूल्क" (2018), "जोधा अकबर" (2008), "पद्मावत" (2018) जैसी फिल्मों में हिंदू समाज, विशेषकर ब्राह्मणों, को नकारात्मक रूप में चित्रित किया गया।

ब्राह्मण विरोधी विमर्श केवल औपनिवेशिक शासन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि स्वतंत्रता के बाद वामपंथी विचारधारा ने इसे और अधिक धार दी। वामपंथियों ने "वर्ग संघर्ष" की मार्क्सवादी अवधारणा को "जातिगत संघर्ष" में परिवर्तित कर दिया और इसे हिंदू समाज के भीतर घृणा फैलाने के लिए इस्तेमाल किया। वामपंथी बौद्धिक वर्ग, जिसमें जेएनयू, टीआईएसएस, और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी संस्थाएं अग्रणी थीं, उन्होंने इस विमर्श को गहराई से स्थापित किया।

इसके बाद, वामपंथियों, इस्लामी शक्तियों और ईसाई मिशनरियों ने ब्राह्मण विरोधी विमर्श को एक नए स्तर पर ले जाने का प्रयास किया। सोशल मीडिया के माध्यम से इसे व्यापक स्तर पर फैलाया गया, जिससे गांव-गांव तक जातिगत घृणा फैलाई जाने लगी। वामपंथियों ने अपनी विचारधारा को मजबूती देने के लिए जातिगत संघर्ष को और अधिक तीव्र कर दिया, जबकि इस्लामी संगठनों ने इसे हिंदू समाज को कमजोर करने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।

ईसाई मिशनरियों ने भी इस ब्राह्मण विरोधी विमर्श को खूब बढ़ावा दिया। उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के धर्मांतरण को बढ़ाने के लिए ब्राह्मणों को अत्याचारी और हिंदू धर्म को अन्यायी के रूप में चित्रित किया। "वर्ल्ड विजन", "ऑक्सफैम" और "क्रिश्चियन मिशनरी सोसाइटी" जैसी संस्थाओं ने इसके लिए भारी मात्रा में धन मुहैया कराया।

बॉलीवुड और मुख्यधारा की मीडिया ने भी इस नैरेटिव को मजबूती से आगे बढ़ाया। फिल्मों और साहित्य के माध्यम से ब्राह्मणों को एक क्रूर, अन्यायी और शोषक वर्ग के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। "आर्टिकल 15", "जय भीम" और "मुल्क" जैसी फिल्मों ने समाज में जातिगत विभाजन को और अधिक गहरा किया। इसके अलावा, पश्चिमी फंडिंग से संचालित गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों के नाम पर हिंदू समाज को विभाजित करने का प्रयास किया।

ब्राह्मणों का सामाजिक और आर्थिक पतन

ब्राह्मण विरोधी विमर्श के परिणामस्वरूप भारत में ब्राह्मणों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति तेजी से गिरने लगी। ऐतिहासिक रूप से, ब्राह्मणों की भूमिका शिक्षा, ज्ञान और धार्मिक अनुष्ठानों में रही थी। वे राजसत्ता के भागीदार नहीं थे, बल्कि वे समाज के सभी वर्गों को शिक्षा और मार्गदर्शन प्रदान करते थे। लेकिन औपनिवेशिक नीति और स्वतंत्रता के बाद की आरक्षण व्यवस्था ने ब्राह्मणों को हाशिए पर धकेल दिया।

1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। बाद में, 1990 में ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद, ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में अवसर और अधिक सीमित हो गए। परिणामस्वरूप, ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर हो गया और उन्हें छोटे-मोटे कार्यों या पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

आज दक्षिण भारत में, विशेष रूप से तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। तमिलनाडु में, जहां "ब्राह्मण विरोधी आंदोलन" सबसे अधिक उग्र हुआ था, वहां की स्थिति यह है कि ब्राह्मणों की एक बड़ी संख्या विदेशों में पलायन कर चुकी है, जबकि जो बचे हैं, वे हाशिए पर जीवन बिता रहे हैं।

वामपंथी और इस्लाम, ईसाईयत का हिंदू समाज के साथ वैचारिक छल

वामपंथियों ने अपने "वर्ग-संघर्ष" सिद्धांत के अंतर्गत संपूर्ण विश्व में दश करोड़ से अधिक जनों की हत्या की (संदर्भ: "The Black Book of Communism"), किंतु वे भारत में "सामाजिक न्याय" का नारा देते हैं।

क्रिश्चियन समाज में जातिगत भेदभाव सतही रूप से दिखाई नहीं देता, किंतु वहाँ अत्यंत गहरे स्तर पर विभाजन व्याप्त है। यूरोप के इतिहास में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट संघर्ष लंबे समय तक चला, जिसके कारण अनेक युद्ध हुए, जिनमें तीस वर्ष का युद्ध (1618-1648) और आयरलैंड संघर्ष प्रमुख हैं। नस्लीय आधार पर भी क्रिश्चियन समाज बँटा हुआ है, जहाँ श्वेत, अश्वेत, लैटिन, एशियाई और अन्य नस्लों के बीच गहरे स्तर पर भेदभाव चलता रहा है। अमेरिका में कु क्लक्स क्लान (K*K) जैसे संगठन इसी नस्लीय वर्चस्ववाद का परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त, धार्मिक आधार पर भी विभाजन स्पष्ट है, जहाँ कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स, एवेंजेलिकल और अन्य अनेक संप्रदायों में मतभेद और प्रतिस्पर्धा सदैव बनी रहती है।

भारत में भी ईसाई समाज जातिगत आधार पर विभाजित है। यहाँ सिरियन क्रिश्चियन और रोमन कैथोलिक समुदाय सवर्ण माने जाते हैं, जबकि मतांतरित दलित ईसाइयों को निम्न स्तर पर रखा जाता है। केरल, तमिलनाडु और गोवा जैसे राज्यों में दलित ईसाइयों के साथ भेदभाव और चर्च के भीतर उनके अधिकारों के हनन के अनेक प्रमाण मिलते हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि ईसाई समाज में ही "दलित क्रिश्चियन आंदोलन" चलाया गया, ताकि चर्च के भीतर समानता स्थापित की जा सके।

मुस्लिम समाज में भी जातिगत भेदभाव की जड़ें गहरी हैं। यहाँ सैयद, पठान, मिर्जा, शेख, अंसारी, कुरैशी जैसे वर्गों के बीच स्पष्ट ऊँच-नीच देखने को मिलती है। अरब देशों से लेकर भारत तक, यह भेदभाव व्याप्त है, किंतु इसके विरुद्ध कोई संगठित सामाजिक-न्याय आंदोलन देखने को नहीं मिलता।

इसके विपरीत, हिंदू समाज में जातिगत संघर्ष को उद्दीप्त करने की सुनियोजित रणनीति अपनाई जाती है, जिससे हिंदू समाज को विभाजित किया जा सके और दुर्बल बनाया जा सके। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि हिंदू समाज को इतना विखंडित कर दिया जाए कि ईसाई मिशनरियों को मतांतरण में सुविधा हो, इस्लामी शक्तियाँ "ग़ज़वा-ए-हिंद" लक्ष्य की पूर्ति कर सकें और वामपंथी विचारधारा राजनीतिक अधिपत्य स्थापित कर सके।

इतिहास यह प्रमाणित करता है कि जहाँ इस्लाम प्रभावी होता है, वहाँ वामपंथ टिक नहीं पाता, और जहाँ वामपंथ सशक्त होता है, वहाँ इस्लामी शक्तियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। किंतु भारत में सनातन धर्म और इसकी परंपराओं को ध्वस्त करने के लिए वामपंथी, इस्लामी और ईसाई मिशनरी शक्तियाँ एकजुट होकर कार्य कर रही हैं। इनका उद्देश्य केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आधार पर भारत के मूल सनातनी ताने-बाने को समाप्त करना है।

ब्राह्मण विरोधी विमर्श एक औपनिवेशिक षड्यंत्र का परिणाम था, जिसे स्वतंत्रता के बाद वामपंथियों और इस्लामी शक्तियों ने हिंदू समाज को विभाजित करने के लिए आगे बढ़ाया। इस विमर्श के माध्यम से ब्राह्मणों का दानवीकरण कर, जातिगत संघर्ष को भड़काया गया और भारत की एकता को कमजोर करने का प्रयास किया गया।

आज आवश्यकता है कि हम इस वैचारिक षड्यंत्र को समझें और समाज को इस जहर से मुक्त करने के लिए ठोस बौद्धिक प्रयास करें। यदि हिंदू समाज ने इस षड्यंत्र को समय रहते नहीं समझा, तो भारत को एक और विभाजन से बचाना कठिन हो सकता है।

✍️ Deepak Kumar Dwivedi

14/03/2025

वर्तमान समय में एक विषय अत्यधिक चर्चित हो रहा है – कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के आगमन के उपरांत संगणक-आधारित नौकरियों में कमी आ जाएगी। यह कथन अंशतः सत्य है। निम्न स्तर की सेवा क्षेत्रीय नौकरियों में हिंदू युवा संलग्न नहीं होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में उनके समक्ष कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। यदि यह स्थिति निरंतर बनी रहती है, तो अनेक युवा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अप्राचीन एवं विधर्मी समुदायों के अधीन कार्य करने के लिए विवश हो सकते हैं।

किन्तु इन विषयों पर चर्चा करते समय हम प्रायः इनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा निहित कारणों को भलीभांति समझ नहीं पाते। किस कारणवश यह स्थिति उत्पन्न हुई, इसके लिए हम स्वयं भी उत्तरदायी हैं। इसे हम सभी को सहज रूप में स्वीकार करना चाहिए। सातवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इस्लामिक आक्रांताओं के आक्रमणों को झेलने के उपरांत, भारत में मुगल सत्ता स्थापित हुई, तथापि अधिकांश रियासतें हमारी ही थीं। हमारे राजा स्वतंत्र थे तथा हम अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्त थे।

इस्लामिक आक्रांता झुंडों में रहते थे और जब उन्हें धन की आवश्यकता होती, तब वे लूटपाट करने हेतु आक्रमण करते थे। फिर भी हम स्वतंत्र थे, क्योंकि हमारा प्रशासनिक तंत्र सुदृढ़ था। सातवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक भारत विश्व की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 24% से अधिक का योगदान करता था। यह कैसे संभव हुआ? क्योंकि हमारी शासन-प्रणाली, समाज व्यवस्था एवं शिक्षा पद्धति सुदृढ़ थी। गुरुकुल प्रणाली व्यापक रूप से संचालित थी और अधिकांश रियासतें हमारी ही थीं।

जब अंग्रेज भारत आए, तब उन्होंने विभिन्न विचारकों और शोधकर्ताओं के माध्यम से भारतीय सामाजिक संरचना का गहन अध्ययन किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यदि इस समाज को गुलाम बनाना है, तो इसके मूल स्तंभों को ध्वस्त करना होगा। इसी कारण उन्होंने गुरुकुल प्रणाली को समाप्त कर कॉन्वेंट शिक्षा पद्धति को प्रतिपादित किया। परंपरागत व्यवसायों के स्थान पर उन्होंने नौकरी संस्कृति को स्थापित किया। उन्होंने वेतन प्रणाली लागू की, जिसमें बिना श्रम किए धन अर्जित करने की व्यवस्था की गई, यहाँ तक कि मृत्यु के उपरांत पेंशन की गारंटी भी दी गई।

इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू समाज अपने पारंपरिक व्यवसायों को त्यागकर नौकरी को उत्तम विकल्प मानने लगा। क्योंकि नौकरी करने से न केवल नियमित आय प्राप्त होने लगी, अपितु परिश्रम भी अपेक्षाकृत कम करना पड़ा। इस परिवर्तन में पहले शिक्षित तथा संपन्न वर्ग सम्मिलित हुआ, तत्पश्चात अन्य वर्ग भी इसमें प्रविष्ट हो गए। धीरे-धीरे कॉन्वेंट विद्यालयों में हिंदू छात्र पढ़ने लगे, जिससे गुरुकुलों में विद्यार्थियों की संख्या में ह्रास होने लगा।

समय के साथ हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग शासन व्यवस्था पर निर्भर हो गया और एक प्रकार की पराधीनता की ओर अग्रसर हो गया। अंग्रेजों ने 200 वर्षों में भारत से 45 ट्रिलियन डॉलर लूटकर अपने साम्राज्य को सुदृढ़ किया। उन्होंने हमारी ज्ञान-परंपरा एवं शोध-कार्य को चुराकर अपने लाभ के लिए प्रयोग किया तथा एक आधुनिक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना कर दी।

हम इस षड्यंत्र का समुचित प्रतिकार नहीं कर सके और निरंतर पिछड़ते गए। आज भी अनुसंधान एवं विकास (R&D) के क्षेत्र में हम पश्चिमी देशों से बहुत पीछे हैं। इसका वास्तविक कारण क्या है? इन विषयों पर हम कभी गंभीर विमर्श नहीं करते। हम हिंदू-मुस्लिम एवं अन्य सामाजिक विषयों पर अत्यधिक चर्चा करते हैं, गुरुकुल प्रणाली को पुनः स्थापित करने तथा हिंदू इको-सिस्टम को सुदृढ़ करने की बात करते हैं, किंतु हम स्वयं अपने स्तर पर कोई ठोस वैकल्पिक प्रणाली विकसित नहीं कर पा रहे हैं।

यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? इसका समाधान क्या हो सकता है? इस विषय चिंतन मंथन करने की आवश्यकता है।

भारत की तथाकथित स्वतंत्रता के पश्चात् 1955 से 1990 तक पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से सोवियत संघ से प्रेरित समाजवादी आर्थिक नीतियों को अपनाया गया। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें भारी उद्योगों और बुनियादी ढांचे का नियंत्रण सरकार के अधीन रखा गया। उनके बाद इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी इस नीति को आगे बढ़ाया।

1976 के आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" (secular) शब्द जोड़े गए, जिससे सरकार की नीतियों को औपचारिक रूप से समाजवादी दिशा प्रदान की गई। इस दौरान वामपंथी विचारधारा से प्रेरित इतिहास लेखन को प्रोत्साहित किया गया, और सरकारी स्तर पर निजी उद्यमिता के दमन की नीति अपनाई गई।

ब्रिटिश शासन के दौरान भी निजी व्यापार और उद्यमों का दमन हुआ था, लेकिन 1955 से 1990 के कालखंड में भारतीय सरकार ने लाइसेंस राज, कोटा प्रणाली, और नियंत्रणवादी नीतियों के माध्यम से उद्यमशीलता को अत्यंत कठिन बना दिया। सरकारी नौकरियों को सर्वोच्च प्रतिष्ठा दिलाने की नीति अपनाई गई, जिससे स्वावलंबन एवं निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर सीमित हो गए। यदि कोई व्यक्ति स्वतंत्र रूप से व्यवसाय करना चाहता था, तो कठोर नियमों, लाइसेंसिंग बाधाओं और लालफीताशाही के कारण उसे भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

1991 में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई, किंतु यह आधा-अधूरा सुधार था। कुछ क्षेत्रों में विदेशी निवेश और निजीकरण को बढ़ावा मिला, किंतु कृषि क्षेत्र एवं अन्य पारंपरिक व्यवसायिक क्षेत्रों में आवश्यक सुधार नहीं हो सके।

मोदी सरकार द्वारा 2020 में कृषि सुधार कानून लाने का प्रयास किया गया, जो कृषि बाजारों में प्रतिस्पर्धा और किसानों को सीधी बिक्री की स्वतंत्रता प्रदान करता, किंतु पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान संगठनों, जिनमें बिचौलियों की मजबूत पकड़ थी, ने व्यापक विरोध किया। अंततः सरकार को ये सुधार वापस लेने पड़े।

इस देश में यदि कोई व्यक्ति व्यवसाय करना चाहता है, यदि कोई भारतीय कंपनी उन्नति कर रही है, अथवा यदि कोई व्यक्ति अपने स्तर पर कार्य करना चाहता है, तो उसे "चोर" कहा जाएगा। समाज में उसे प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, अपितु उसे अपमानित किया जाएगा।

इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति सरकारी सेवा में कार्यरत है, तो उसे अत्यधिक सम्मान प्राप्त होगा, चाहे वह चपरासी ही क्यों न हो; उच्च प्रशासनिक पदों (आईएएस, आईपीएस, आदि) की तो बात ही छोड़ दीजिए। उसकी विवाह योग्य प्रतिष्ठा भी बढ़ जाएगी, और उसे दहेज की प्राप्ति भी होगी।

वहीं, यदि कोई व्यवसायी या उद्यमी अपना उद्योग प्रारंभ करता है, तो उसे "चोर" समझा जाएगा, अपमानित किया जाएगा, तथा समाज में बड़े मंचों पर स्थान नहीं मिलेगा। दूसरी ओर, एक सरकारी अधिकारी चाहे जितनी भी भ्रष्टाचार करे, कार्य न करे अथवा अल्प शिक्षित ही क्यों न हो, समाज में उसे सम्मान प्राप्त होता रहेगा।

इस मानसिकता के कारण, कोई भी साधारण हिंदू युवा अपना स्टार्टअप या व्यवसाय प्रारंभ करने का साहस नहीं कर पाता, क्योंकि सरकारी नौकरी में न केवल स्थायित्व प्राप्त होता है, बल्कि ऊपरी आय, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं विवाह में दहेज जैसी कुरीतियों का भी लाभ मिलता है। दूसरी ओर, यदि कोई युवा व्यवसाय या स्टार्टअप प्रारंभ करता है, तो उसे अपमानित किया जाता है और हेय दृष्टि से देखा जाता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत जितनी भी सरकारें रही हैं, वे सभी इस मानसिकता को गढ़ने में किसी न किसी रूप में उत्तरदायी रही हैं। दुर्भाग्यवश, इस सोच को परिवर्तित करने हेतु कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जा रहा है।

इसमें आग में घी डालने का कार्य जातिगत राजनीति ने किया। जो लोग वर्षों से परंपरागत कार्यों में संलग्न थे तथा सेवा क्षेत्र में कार्यरत थे, उन्हें सर्वप्रथम अंग्रेजों ने यह समझाने का प्रयास किया कि ये जातियाँ तीन सहस्र वर्षों से शोषित रही हैं तथा इनका शोषण मात्र 4% ब्राह्मणों द्वारा किया गया है। इसके साथ-साथ अंग्रेजों ने अपना विकल्प प्रस्तुत करना प्रारंभ किया।

जब शिक्षित वर्ग ने नौकरियों को प्राथमिकता देना आरंभ किया, तब उनके अनुकरण में सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए लोग भी इस प्रवृत्ति से प्रभावित होने लगे। फलस्वरूप, एक विशाल वर्ग ने अपने परंपरागत कार्यों को त्याग दिया। इस कथानक को आगे बढ़ाने हेतु अंग्रेजों ने शिक्षित वर्ग का सहारा लिया तथा सेवा क्षेत्र में कार्यरत लोगों के मन में विष घोलना प्रारंभ किया, जिससे उनमें कुंठा उत्पन्न हुई।

इसके पश्चात, सेवा क्षेत्र में कार्यरत लोगों को आरक्षण प्रदान किया गया। वर्ष 1914 की जनगणना के अनुसार, देश में 2% जनसंख्या अस्पृश्य श्रेणी में आती थी, जो धीरे-धीरे बढ़कर 20% हो गई। किंतु मंडल आयोग की संस्तुतियाँ लागू होने के पश्चात 85% जनसंख्या को अस्पृश्य घोषित कर दिया गया। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया एक सुनियोजित षड्यंत्र का भाग थी, जिसके अंतर्गत 85% जनसंख्या को आरक्षण प्रदान कर दिया गया तथा शेष 15% जनसंख्या को शोषणकर्ता के रूप में स्थापित कर दिया गया।

आरक्षण प्रणाली के विस्तार से लोगों को सरकारी नौकरियाँ सहज उपलब्ध होने लगीं। अल्पशिक्षित व्यक्ति को भी सरकारी सेवा प्राप्त होने लगी, जिसके कारण अधिकांश जनसंख्या अपने पारंपरिक कार्यों को त्यागकर नौकरियों में प्रवृत्त हो गई। उदारीकरण के पश्चात लोगों को निजी क्षेत्र में भी अनेक अवसर प्राप्त होने लगे। औद्योगीकरण एवं तकनीकी विकास के फलस्वरूप वर्ष 1991 के उपरांत लोगों को नवीन संभावनाएँ प्राप्त हुईं, जिससे हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग नौकरीपेशा बन गया।

इस स्थिति का सर्वाधिक लाभ म्लेच्छ समुदाय ने उठाया, क्योंकि उनके पूर्वजों ने अपने पारंपरिक व्यवसायों को नहीं त्यागा। परिणामस्वरूप, वे आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते चले गए।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) एवं तकनीकी परिवर्तन के कारण, आगामी समय में कंप्यूटर आधारित नौकरियों में व्यापक कटौती होने की संभावना है। किंतु सेवा क्षेत्र के कार्य कभी समाप्त नहीं होंगे, और म्लेच्छ समुदाय ने इन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।

अतः भविष्य में म्लेच्छ समुदाय आर्थिक रूप से और अधिक सशक्त होगा, जिससे हमारे संतति को उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी। सरकारी तंत्र भी उनके अनुकूल कार्य करेगा, और हमारा समाज निरंतर पतन की ओर अग्रसर होता जाएगा। इस समस्त स्थिति के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं, क्योंकि हमने इसे परिवर्तित करने का कोई प्रयास नहीं किया। अब भी यदि हम इस वास्तविकता को नहीं समझेंगे, तो आने वाली पीढ़ियों को इसका घोर दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा।

इस पक्ष का एक अन्य पहलू यह भी है कि जो संगठन हिंदुत्व, सनातन धर्म एवं हिंदू समाज का अपने को प्रहरी बताते हैं वे अंग्रेजी आर्थिक मॉडल का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सके। वे अपना स्वतंत्र आर्थिक मॉडल निर्मित नहीं कर पाए और अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त मॉडल पर ही चलते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक वर्ग ने केंद्रीकृत समाजवादी आर्थिक मॉडल को अपनाया, जबकि दूसरे ने पूंजीवादी मॉडल को स्वीकार किया।

किन्तु जिनके ऊपर इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने का दायित्व था, जो स्वयं को विश्व का सर्वाधिक विशाल संगठन कहकर गर्वित होते हैं, विविध प्रकल्पों का संचालन करते हैं तथा समाज के विविध क्षेत्रों में सक्रिय हैं—वे भी अंग्रेजों द्वारा निर्मित व्यवस्था का कोई विकल्प प्रस्तुत करने में असफल रहे। इसी कारण आज स्थिति अत्यंत जटिल हो चुकी है, जिससे हिंदू युवाओं का भविष्य संकटग्रस्त होता जा रहा है और वे दर-दर ठोकरें खाने के लिए विवश हो रहे हैं।

हमने न तो हिंदू आर्थिक मॉडल पर समुचित कार्य किया, न स्थानीयकरण (लोकलाइजेशन) को अपनाया, न तंत्र को विकेंद्रीकृत किया और न ही संपूर्ण व्यवस्था का कोई समुचित विकल्प विकसित किया। इस कारण भविष्य में गंभीर समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इसमें दोष उन लोगों का भी है, जिनके पास समस्त व्यवस्था को परिवर्तित करने का अवसर था और जो एक नवीन विकल्प दे सकते थे। जब तक हम एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत नहीं करेंगे, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।

अंग्रेजों ने अपना पूंजीवादी आर्थिक सिद्धांत विकसित किया, जो उनका स्वयं का था। मुद्रा एवं अर्थनीति पर आधारित आचार्य चाणक्य का "मुद्रा राक्षस" सिद्धांत भी था, जिसे अंग्रेजों ने अपने अनुरूप विकसित किया और एक नवीन विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे विश्व समाज ने स्वीकार कर लिया। किंतु हमने अंग्रेजों से समाजवादी सिद्धांतों का आयात किया और उनके जाल में ऐसे उलझे कि अब उससे निकलने का प्रयास भी हमारे लिए एक कठिन परिस्थिति बन चुका है।

संविधान की प्रस्तावना आज भी यही इंगित करती है कि न हम पूर्ण रूप से पूंजीवादी बन सके, न ही पूर्णतः समाजवादी। दो नावों पर सवार होने का परिणाम यह हुआ कि हम "धोबी के कुत्ते" की स्थिति में पहुँच गए—न घर के रहे, न घाट के।

हमारे संगठनों के पास यह स्वर्णिम अवसर था, जिसे हमने व्यर्थ गँवा दिया। हमारे विचारकों, जैसे श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी एवं राजीव दीक्षित जी ने हिंदू आर्थिक मॉडल पर व्यापक शोध एवं अध्ययन किया था। उनकी अवधारणाओं को व्यवहार में उतारने तथा उन्हें एक सशक्त विकल्प के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता थी। किंतु हम ऐसा करने में असफल रहे।

हमारी अपनी सरकार एवं इतना विशाल संगठन होने के बावजूद यदि यह कार्य नहीं हो सका, तो इस विकट स्थिति के लिए दोषी हम स्वयं हैं तथा वे संगठन भी, जिनके पास संपूर्ण व्यवस्था को बदलने का अवसर था, किंतु वे उसे साकार नहीं कर सके।

इन परिस्थितियों में परिवर्तन लाने का यह एक उत्तम अवसर हमारे समक्ष उपस्थित है। हमें अपनी सरकार, हिंदू संगठन तथा हिंदू समाज का सहयोग लेकर सनातनी आर्थिक मॉडल को अपनाना चाहिए। इसे हिंदू आर्थिक मॉडल या भारतीय आर्थिक मॉडल किसी भी नाम से संबोधित किया जा सकता है, किंतु इसे पूंजीवादी एवं समाजवादी मॉडलों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।

यदि सनातनी आर्थिक मॉडल को धरातल पर क्रियान्वित किया जाए, तो वृहद स्तर पर परिवर्तन संभव है। भविष्य में हिंदू समाज एवं हिंदू युवाओं को दिशाहीन होने से रोकने के लिए इस मॉडल पर संगठित रूप से कार्य करना होगा। यदि हम इस दिशा में सतत प्रयास करें, तो कुछ वर्षों में ही हिंदू समाज की स्थिति में सकारात्मक सुधार होगा और भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित हो सकेगा।

इस लक्ष्य की सिद्धि हेतु हम सभी को संगठित एवं समर्पित प्रयास करने होंगे। सामूहिक पुरुषार्थ द्वारा ही वास्तविक परिवर्तन संभव है।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी ( बाल योगी)

12/02/2025
31/01/2025

एक सशक्त हिंदू समाज ही एक शक्तिशाली भारत की नींव रख सकता है!

हिंदू समाज का उत्थान केवल धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए आर्थिक और प्रशासनिक सशक्तिकरण भी अनिवार्य है। जब तक हिंदू समाज आर्थिक रूप से संगठित और आत्मनिर्भर नहीं होगा, तब तक वह अपने अधिकारों और अस्तित्व की रक्षा करने में पूर्णतः सक्षम नहीं हो सकेगा। यह साक्षात् सत्य है कि किसी भी समाज की उन्नति का आधार उसकी आर्थिक शक्ति होती है। जब कोई समाज आर्थिक रूप से सशक्त होता है, तभी वह राजनीति, प्रशासन और समाज पर प्रभाव डाल सकता है। अतः आज प्रत्येक समर्थ हिंदू को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह कम से कम पाँच हिंदू युवाओं को रोजगार योग्य बनाएगा और साथ ही, हिंदूनिष्ठ युवाओं को शासकीय विभागों में प्रवेश दिलाने हेतु भी सक्रिय भूमिका निभाएगा।

हिंदू समाज में धर्म और अर्थ का अटूट संबंध रहा है। आचार्य चाणक्य का प्रसिद्ध कथन है—"धर्मस्य मूलं अर्थः", अर्थात् धर्म का आधार अर्थ है। जब समाज आर्थिक रूप से सशक्त होता है, तभी वह अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर पाता है। दुर्भाग्यवश, हिंदू समाज आज आर्थिक रूप से संगठित नहीं है। अन्य समुदायों ने अपने व्यापारिक और वित्तीय संसाधनों को एकजुट कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया है, किंतु हिंदू समाज व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रह गया है।

इतिहास पर दृष्टि डालें, तो पाएंगे कि प्राचीन भारत में हिंदू समाज अत्यंत समृद्ध था। वैश्विक व्यापार में भारत की भागीदारी सबसे अधिक थी। किंतु मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों और ब्रिटिश शासन ने इस आर्थिक शक्ति को कमजोर कर दिया। जब तक भारत में सामंतवादी अर्थव्यवस्था थी, तब तक भी हिंदू समाज अपनी व्यापारिक स्थिति को बनाए रखने में सक्षम था। किंतु अंग्रेजों द्वारा भारतीय उद्योगों को नष्ट करने और व्यापार पर नियंत्रण लगाने के कारण हिंदू समाज धीरे-धीरे आर्थिक रूप से पिछड़ने लगा।

स्वतंत्रता के बाद समाजवाद आधारित आर्थिक नीतियों ने उद्योग और व्यापार पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया, जिससे हिंदू व्यापारियों को अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का उतना अवसर नहीं मिला। किंतु 1991 के आर्थिक उदारीकरण के पश्चात एक नया परिवर्तन आया। पहली बार हिंदू समाज को अपनी आर्थिक क्षमता को पुनः स्थापित करने का अवसर मिला। इस उदारीकरण के परिणामस्वरूप एक मजबूत हिंदू मध्यम वर्ग का उदय हुआ। यह वह वर्ग था जिसने नई तकनीकों, व्यापार, और निजी उद्यमों में अपनी पहचान बनाई। यही कारण है कि 1991 के बाद हिंदू एकता में वृद्धि हुई, क्योंकि आर्थिक रूप से स्वतंत्र व्यक्ति ही अपने समाज और धर्म के प्रति अधिक जागरूक हो सकता है।

किन्तु आज भी हिंदू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसकी आर्थिक शक्ति संगठित नहीं है। अन्य समुदाय अपने व्यापार, रोजगार और आर्थिक संसाधनों को संगठित रूप से विकसित कर रहे हैं, जबकि हिंदू समाज अभी भी व्यक्तिगत प्रयासों तक सीमित है। हिंदू युवाओं को केवल नौकरी तक सीमित न रखकर व्यवसाय, उद्योग, स्टार्टअप और नवाचार की दिशा में भी आगे बढ़ाना होगा। पारंपरिक रूप से, हिंदू परिवारों में सरकारी नौकरियों को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती रही है, जबकि अन्य समुदायों ने व्यापार और वित्तीय संस्थानों को विकसित करने पर अधिक ध्यान दिया।

हिंदू समाज को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। यदि वह आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हुआ, तो आने वाले समय में वह अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को बनाए रखने में कठिनाई महसूस करेगा। इस समस्या का समाधान केवल सरकारी नीतियों पर निर्भर नहीं हो सकता। प्रत्येक हिंदू को व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में कार्य करना होगा। हमें हिंदू युवाओं को स्वरोजगार और उद्यमिता के लिए प्रेरित करना होगा। उन्हें केवल नौकरी की मानसिकता से बाहर निकालकर व्यापार और स्टार्टअप की ओर बढ़ाना होगा।

साथ ही, हिंदू समाज को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रशासनिक सेवाओं में हिंदूनिष्ठ युवाओं की भागीदारी बढ़े। यह अत्यंत आवश्यक है कि हिंदू समाज के प्रतिभावान युवा सिविल सेवा, न्यायपालिका, पुलिस, रक्षा, शिक्षा, और अन्य शासकीय विभागों में प्रवेश करें। जब तक प्रशासनिक तंत्र में हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व नहीं होगा, तब तक समाज की आवश्यकताओं और हितों की रक्षा करना कठिन होगा। प्रशासनिक पदों पर पहुँचने से ही नीति-निर्माण में हिंदू समाज की भागीदारी सुनिश्चित होगी, जिससे उसके आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा की जा सकेगी।

इसके अतिरिक्त, हिंदू समाज को अपने आर्थिक संसाधनों को अपने ही समाज के भीतर बनाए रखना होगा। हमें स्वदेशी उत्पादों और सेवाओं को अपनाना चाहिए और अपने व्यापारियों और उद्यमियों को आर्थिक सहयोग देना चाहिए। अन्य समुदायों की तरह हिंदू समाज को भी सहकारी बैंकों, क्रेडिट सोसायटी और सामूहिक वित्त पोषण की व्यवस्था करनी होगी, ताकि छोटे व्यापारियों और उद्यमियों को वित्तीय सहायता मिल सके।

यदि हिंदू समाज को अपने अस्तित्व को बनाए रखना है, तो उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना ही होगा। इसके लिए प्रत्येक समर्थ हिंदू को संकल्प लेना होगा कि वह पाँच हिंदू युवाओं को आत्मनिर्भर बनाएगा और अधिकाधिक हिंदू युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं में भेजने हेतु सक्रिय भूमिका निभाएगा। आर्थिक शक्ति ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक शक्ति का आधार है। अतः हिंदू समाज को संगठित होकर अपने व्यापार, उद्योग और वित्तीय व्यवस्था को मजबूत करना होगा।

Jai Sanatan Bharat

25/01/2025

#भारतीय इतिहास और #राजनीति के विषय पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर चर्चा करते समय हम अक्सर एक महत्वपूर्ण पहलू को नजरअंदाज कर देते हैं, और वह है हमारी महान #सनातन संस्कृति और #सभ्यता। हम भारतीय जनमानस की मानसिकता और आत्मगौरव को समझने के बजाय, केवल राजनीतिक और ऐतिहासिक घटनाओं पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। यह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष की संस्कृति हजारों वर्षों पुरानी है और यह सभ्यता न केवल विश्व को एकता और समरसता का पाठ पढ़ाती है, बल्कि जीवन के प्रत्येक पहलू में संतुलन की खोज करती है।

बारह सौ वर्षों के गुलामी #कालखंड के कारण हम अपनी महान् हिंदू सभ्यता और संस्कृति पर गौरवबोध करना भूल गए। इसके पीछे बारह सौ वर्षों के विदेशी आक्रमणों और शासनों ने हमारे आत्मगौरव को आघात पहुँचाया, और इस कारण हमें अपनी सनातन परंपराओं के प्रति हीनता का अनुभव हुआ। विशेष रूप से अंग्रेज़ी साम्राज्य के आगमन के बाद, हमें यह विश्वास दिलाया गया कि भारत का आधुनिक रूप अंग्रेज़ों ने दिया, जबकि उससे पूर्व भारत में केवल संघर्ष था, राजा आपस में लड़ते रहते थे, भारतीय असभ्य थे, और अंग्रेज़ों ने हमें सभ्य बनाया। इस प्रकार की धारणा स्थापित करके हमें यह मानने पर विवश कर दिया गया कि भारत का कोई प्राचीन और महान इतिहास नहीं था। इस कुंठा को कांग्रेसियों ने और भी बढ़ाया। कांग्रेस ने यह धारणा बनाने का प्रयास किया कि भारत का जन्म 1947 में हुआ, उससे पूर्व भारत अस्तित्वहीन था। इसे संवैधानिक राष्ट्रवाद और यथास्थितिवाद के नाम पर बहुत विकराल रूप दे दिया गया, विशेष रूप से हिंदू समाज को जाति, भाषा, और क्षेत्र के आधार पर इस प्रकार से लड़ाया गया कि हिंदू समाज अपने #स्व, अर्थात् सनातन #धर्म को ही भूल जाए। बहुत हद तक, संवैधानिक राष्ट्रवाद और यथास्थितिवाद को बढ़ावा देकर कांग्रेसियों ने अंग्रेज़ों द्वारा बनाई गई धारणा को और भी मजबूत किया,जिसके कारण यह मानसिकता और अधिक प्रबल हुई जो गुलामी के कालखंड के कारण में हमारे मन में विकसित हुई, आज भी हमें अपनी संस्कृति, परंपराओं और इतिहास के प्रति गौरव बोध से वंचित करती है । जब कोई व्यक्ति सनातन परंपराओं और भारतीय संस्कृति के गौरव की बात करता है, तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है और उसका मज़ाक उड़ाया जाता है। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि हम आज भी मानसिक रूप से गुलाम हैं, और हमें अपनी पुरानी परंपराओं पर गर्व महसूस नहीं होता।

हमें यह समझना होगा कि मुगलों और अंग्रेजों ने न केवल हमारे देश की राजनीतिक स्वतंत्रता को छीन लिया, बल्कि उन्होंने हमारी संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक परंपराओं को भी नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने मंदिरों को तोड़ा, शास्त्रों को नष्ट किया और हमारी ऐतिहासिक धरोहर को नष्ट करने के लिए कई उपाय किए। इन आक्रमणों ने भारतीय समाज को मानसिक रूप से कमजोर किया और उसकी गौरवशाली परंपराओं को भुलाने के प्रयास किए।

भारत की संस्कृति और सभ्यता आज की नहीं, अपितु लाखों और करोड़ों वर्षों पुरानी है। भारतीय पुराणों तथा ग्रंथों में सृष्टि के कालचक्र को कल्पों और मन्वंतर के रूप में वर्णित किया गया है। प्रत्येक कल्प में सृष्टि का निर्माण और प्रलय का समय चक्रीय रूप में होता है। भारतीय समयदृष्टि के अनुसार, एक कल्प की अवधि 4.32 अरब वर्ष मानी जाती है, और इस प्रकार सृष्टि का अस्तित्व अनंत काल से है।

हमारी प्राचीन सभ्यता की जड़ें हजारों वर्षों पुरानी हैं, जिसे वैदिक ग्रंथों, संस्कृत साहित्य और पुरातात्त्विक खोजों से प्रमाणित किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतीय विज्ञान, गणित, चिकित्सा, खगोलशास्त्र, और स्थापत्य कला में अत्यधिक उन्नति का प्रमाण प्राप्त होता है।

#भारत की #संस्कृति और सभ्यता का इतिहास केवल आज का नहीं, अपितु यह करोड़ों और लाखों वर्षों पुराना है, जिसे शब्दों में पूरी तरह व्यक्त करना कठिन है। हमारे यहाँ कल्पों और मन्वंतर की अवधारणा है, जो यह दर्शाती है कि सृष्टि की गति चक्रीय होती है। भारतीय दर्शन के अनुसार, प्रत्येक क्षण में लय और प्रलय होते हैं, जैसे हम सोते समय लय में प्रवेश करते हैं और जागने के पश्चात प्रलय से बाहर आते हैं। इस ब्रह्माण्ड में यह लय-प्रलय का क्रम निरंतर चलता रहता है।

भारत का #कालबोध भी छह हजार वर्षों से कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उल्लिखित 84 कल्पों के आधार पर सृष्टि का समयकाल अनंत और चक्रीय बताया गया है। यही कारण है कि पश्चिमी दृष्टिकोण से जो लोग पृथ्वी को केवल छह हजार वर्ष पुरानी मानते हैं, वे भारतीय सभ्यता के बारे में यह तर्क करते हैं कि इतनी प्राचीन और उन्नत सभ्यता कैसे अस्तित्व में आ सकती है। उनका यह तर्क तब खारिज हो जाता है, जब वे स्वीकार करते हैं कि सृष्टि की शुरुआत केवल छह हजार वर्ष पहले नहीं हुई, तो उनका स्थापित विचारधारा एक झटके में ध्वस्त हो जाता है।

यह एक तथ्य है कि भारतीय सभ्यता के प्रमाण प्राचीन साहित्य, पुरातात्त्विक खोजों और वैज्ञानिक सिद्धांतों में मिलते हैं, जो भारतीय संस्कृति को न केवल प्राचीन, बल्कि अत्यन्त विकसित भी सिद्ध करते हैं।

नैरेटिव अर्थात (धारणा) की बात को आगे बढ़ाते हुए यह कहा जा सकता है #वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास में जानबूझकर मिलावट की। उनका उद्देश्य था कि भारतीय समाज को अपनी गौरवमयी परंपराओं और इतिहास से विमुख किया जाए, ताकि लोग अपनी हजारों वर्षों की समृद्धि और संघर्ष की गाथाओं को भूलकर अपनी सांस्कृतिक पहचान से हीन हो जाएं। इस कार्य में उन्होंने भारतीय सभ्यता के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया, जिससे समाज में आत्मगौरव का ह्रास हुआ। यह गलत इतिहास रचनाएँ विशेष रूप से उस समय से शुरू हुईं, जब मैकाले ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए अपनी योजना को अमल में लाया।

जब अंग्रेज़ भारत आए, तो उन्हें यह सोचने में कठिनाई हुई कि एक राष्ट्र जो ज्ञान, संस्कृति, और विज्ञान में इतना समृद्ध था, वह कैसे अस्तित्व में आया। उस समय भारत में सात लाख से अधिक गुरुकुल संचालित हो रहे थे, जहाँ न केवल वेद, वेदांग, उपवेद, धर्मसूत्र, स्मृतिग्रंथ और पुराणों की शिक्षा दी जाती थी, बल्कि शास्त्रकला, संगीतकला, शिल्पकला, मूर्तिकला, चित्रकला, ज्योतिषशास्त्र, गणित, चिकित्सा, और अन्य सभी विज्ञानों का अध्ययन भी होता था। यह व्यवस्था अत्यधिक सुव्यवस्थित थी, और इसे देखकर अंग्रेज़ चकित रह गए थे।

#मैकाले ने एक सख्त आदेश जारी किया कि जो अंग्रेजी नहीं जानता, वह योग्य नहीं माना जाएगा, और उसे नौकरी नहीं मिल सकेगी। इस एक आदेश ने 99% भारतीयों को अशिक्षित बना दिया। इसके पश्चात अंग्रेज़ों ने धीरे-धीरे अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को थोपते हुए भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से बदलने का प्रयास किया। हालांकि, वे इसे पूरी तरह से नष्ट करने में सफल नहीं हो पाए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, हमारी सरकार ने भी इस खंडित शिक्षा प्रणाली को अपनाया और गुरुकुलों की प्राचीन व्यवस्था को समाप्त कर दिया।

इस प्रकार, न केवल गलत #इतिहास रचा गया, बल्कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से बदलकर उसमें विदेशी प्रभाव डाला गया। हिंदू समाज में हीनभावना का बीजारोपण किया गया और सांस्कृतिक गौरव की धारणा को कमजोर किया गया। यह प्रक्रिया आज भी जारी है, और यह हमारे लिए एक चुनौती है कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पुनः जागृत करें और उसका सम्मान करें।

इस वर्ष हम लोग 76वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं और स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव भी मना रहे हैं। इस अवसर पर हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हमने पिछले 80 से 85 वर्षों में क्या खोया है। आज़ादी के बाद हमने 24.3% आबादी को 40% भूभाग दे दिया, और उस मजहबी भीड़ ने पाकिस्तान बनाने के बाद भी भारत में ही रहकर पाकिस्तान के अस्तित्व को चुनौती दी। यह उस थाली में छेद करने जैसा है, जिसमें हम खाते हैं।

गणतंत्र दिवस पर हम अपने #संविधान को मनाते हैं, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। यह संविधान भारतीय स्वभाव, संस्कृति और परंपराओं से प्रेरित नहीं था। इसे #पश्चिमी दृष्टिकोण से लिखा गया था, जहां #बौद्ध दर्शन का प्रभाव अत्यधिक था। संविधान में सम्राट #विक्रमादित्य की शासन व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं है, न ही हमारे पारंपरिक कलेंडर की कोई स्थिति है।

हमारा सरकारी कलेंडर शक संवत के आधार पर है, जो ईसा के बाद की 78वीं शताब्दी में है, जबकि #विक्रम संवत, जो ईसा के पूर्व का है, आज 2081 में चल रहा है। यह ग्रेगोरियन कलेंडर से 57 वर्ष आगे है, जबकि सृष्टि संवत और अन्य भारतीय परंपराएं इसके मुकाबले कहीं अधिक प्रमाणित और वैज्ञानिक हैं। फिर भी, हमने सरकारी कलेंडर के रूप में शक संवत को ही अपनाया।

संविधान में भगवान #राम के आदर्शों का भी कोई उल्लेख नहीं किया गया। संविधान की मूल प्रति में प्रतीकात्मक रूप से राम दरबार दिखाई देता है, लेकिन भारतीय धर्म, संस्कृति और सनातन परंपरा का संविधान में कोई स्थान नहीं है। यह दर्शाता है कि हमारी सांस्कृतिक #धरोहर को संविधान में उचित स्थान नहीं दिया गया, जबकि हमारी सभ्यता और इतिहास अत्यंत समृद्ध और गौरवमयी रहा है।

#इंदिरा_गांधी ने #आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में संशोधन कर, समाजवाद और सेकुलरिज़्म शब्दों को सम्मिलित किया। इस संशोधन ने संविधान की मूल आत्मा को परिवर्तित करके उसे आब्रहमिकरण की दिशा में अग्रसर किया। इसके पश्चात, सेकुलरिज़्म और समाजवाद के नाम पर सामाजिक न्याय की अवधारणा ने समाज में विद्वेष के बीज बो दिए, जिसके परिणामस्वरूप समाज कभी एकजुट नहीं हो सका। भगवान राम की कृपा से #राम_मंदिर आंदोलन प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन एवं आर्थिक उदारीकरण के प्रभावों के कारण हिंदू समाज को संगठित और एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तथापि, सरकारों ने हिंदू समाज को विखंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हिंदू समाज को अपने आत्मगौरव का बोध कराने और इतिहास के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया गया, किन्तु वे यह भूल गए कि इतिहास के प्रति उत्तरदायित्व होना चाहिए। इसी कारण संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और सेकुलरिज़्म शब्द सम्मिलित किए गए। हमारे संविधान में सभी को समान अवसर और समानता की बात की जाती है, फिर भी संविधान जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर विभेद करता है। हिंदुओं के पर्सनल मामलों के लिए सामान्य विधि है, जबकि मुसलमानों के लिए आज भी 1937 का शरीयत अधिनियम लागू है।

#जाति, #भाषा और क्षेत्र के नाम पर समाज को विभाजित करने की साजिश की गई। आब्रहमिक शक्तियाँ हमेशा इस भय में रहता हैं जिस दिन हिंदू समाज अपने स्वधर्म का पालन करने लगेगा तो हिंदू समाज को रोकना असंभव होगा। इसी कारण पिछले 80-85 वर्षों में हिंदू समाज को संवैधानिक स्तर पर प्रताड़ित किया गया। उन लोगों का महिमामंडन किया गया जिन्होंने भारत को लूटा और उसके टुकड़े किए। जिन्होंने भारत की राष्ट्रधर्म, परिवार व्यवस्था और संस्कृति को ध्वस्त करने का प्रयास किया, उनका सम्मान किया गया। इससे अधिक दुखद क्या हो सकता है? हमें इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह समझना होगा कि गणतंत्र दिवस का वास्तविक महत्व उस दिन स्थापित होगा, जब भारत का स्व सनातन धर्म पुनः स्थापित होगी।

#गणतंत्र_दिवस के इस पावन अवसर पर हमें एक महत्वपूर्ण संकल्प लेना चाहिए कि हम ऐसा संविधान निर्मित करेंगे, जो न केवल भारतीय लोकतंत्र की नींव को सुदृढ़ करेगा, अपितु भारत के स्व सनातन धर्म के शाश्वत सिद्धांतों को भी आत्मसात करेगा। यह संविधान हमारी संस्कृति, हमारे मूल्य और हमारे इतिहास की रक्षा करेगा, जिससे भारत को वैश्विक पटल पर अपनी विशिष्ट पहचान प्राप्त हो सके।

हमारी राजसत्ता, न्यायपालिका और कार्यपालिका, इन तीनों प्रमुख अंगों को उसी सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करते हुए, राष्ट्र को परम वैभव और शक्ति के शिखर तक पहुंचाने का कार्य करना चाहिए। यही वह मार्ग है, जो हमें एक सशक्त, समृद्ध और एकजुट समाज की ओर अग्रसर करेगा।

गणतंत्र दिवस तभी सार्थक रूपेण मनाया जा सकेगा, जब भारत के स्व सनातन धर्म के मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा होगी। यही वह काल होगा जब हम अपने संविधान को उस आदर्श रूप में देखेंगे, जो हमारे राष्ट्र की आत्मा सनातन धर्म और संस्कृति का संरक्षण करेगा, और विश्व गगन में #भारत_माता की जयजयकार होगी।

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