01/09/2025
🍁 भगवान् शिव से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिये❓️
▪️ भगवान् भूतभावन श्रीविश्वनाथ के चरित्रों से प्राणियों को नैतिक, सामाजिक, कौटुम्बिक अनेक प्रकार की शिक्षा मिलती है। समुद्र-मन्थन में निकलने वाले कालकूट विष का भगवान् शंकर ने पान किया और अमृत देवताओं को दिया। राष्ट्र के नेता और समाज एवं कुटुम्ब के स्वामी का यही कर्तव्य है, उत्तम वस्तु राष्ट्र के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिये और अपने लिये परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरह की कठिनाइयों को ही रखना चाहिये। विष का भाग राष्ट्र या बच्चों को देने से वैमनस्य और उससे सर्वनाश हो जाएगा। शिव जी ने न विष को हृदय (पेट) में उतारा और न उसका वमन ही किया, किन्तु कण्ठ में ही रोक रखा। इसीलिये विष और कालिमा भी उनके भूषण हो गये। जो संसार के हित के लिये विषपान से भी नहीं हिचकते, वे ही राष्ट्र या जगत के ईश्वर हो सकते हैं।
▪️ समाज या राष्ट्र की कटुता को पी जाने से ही नेता राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। परन्तु, फिर भी उस कटुता का विष वमन करने से फूट और उपद्रव ही होगा। साथ ही उस विष को हृदय में रखना भी बुरा है। अमृतपान के लिये सभी उत्सुक होते हैं, परन्तु विषपान के लिये शिव ही हैं; वैसे ही फल भोग के लिये सभी तैयार रहते हैं, परन्तु त्याग तथा परिश्रम को स्वीकारने के लिये महापुरुष ही प्रस्तुत होते हैं। जैसे अमृतपान के अनुचित लोभ से देव-दानवों का विद्वेष स्थिर हो गया, वैसे ही अनुचित फल कामना से समाज में विद्वेष स्थिर हो जाता है।
▪️ शिव जी का कटुम्ब भी विचित्र ही है। अन्नपूर्णा का भंण्डार सदा भरा, पर भोले बाबा सदा के भिखारी। कार्तिकेय सदा युद्ध के लिये उद्यत, पर गणपति स्वभाव से ही शान्तिप्रिय। फिर कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणपति का मूषक, पार्वती का सिहं और स्वयं अपना नन्दी और उस पर आभूषणों सर्पों के। सभी एक दूसरे के शत्रु, पर गृहपति की छत्र छाया में सभी सुख तथा शान्ति से रहते हैं घर में प्रायः विचित्र स्वभाव और रुचि के लोग रहते हैं, जिसके कारण आपस में खटपट चलती ही रहती है। घर की शान्ति के आदर्श की शिक्षा भी शिव से ही मिलती है।
▪️ भगवान् शिव और अन्नपूर्णा अपने आप परम विरक्त रहकर संसार का सब ऐश्वर्य श्रीविष्णु और लक्ष्मी को अर्पण कर देते है। श्रीलक्ष्मी और विष्णु भी संसार के सभी कार्यों को सँभालने, सुधारने के लिये अपने आप ही अवतीर्ण होते हैं। गौरी-शंकर को कुछ भी परिश्रम न देकर आत्मानुसन्धान के लिये उन्हें निष्प्रपंच रहने देते हैं। ऐसे ही कुटुम्ब और समाज के सर्वमान्य पुरुषों को चाहिये कि योग्यतम कुटुम्बियों के हाथ समाज और कुटुम्ब को सब ऐश्वर्यं दे दें और उन योग्य अधिकारियों को चाहिये कि समाज के प्रत्येक कार्य-सम्पादन के लिये स्वयं ही अग्रसर हों, वृद्धों को निष्प्रपंच होकर आत्मानुसन्धान करने दें। महापार्थिवेश्वर हिमालय की महाशक्तिरूपा पुत्री का श्रीशिव के साथ परिणय होने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। किसी प्रकार की भी शक्ति क्यों न हो, जब तक वह धर्म से परिणीत - संयुक्त - नहीं होती, तब तक कल्याणकारिणी नहीं होती। परन्तु आसुरी शक्ति तो तपस्या चाहती ही नहीं, फिर उसे शिव या धर्म कैसे मिलेंगे?
🔸 ️धर्मसम्बन्ध के बिना शक्ति आसुरी होकर अवश्य ही संहार का हेतु बनेगी। प्रकृति माता की यह प्रतिज्ञा है कि 👉
"यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्षं व्यपोहति ।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भाविष्यति ।।"
🔹 ️अर्थात् 👉
संघर्ष में जो मुझे जीत लेगा, जो मेरे दर्प को चूर्ण कर देगा और जो मेरे समान या अधिक बल का होगा, वही मेरा पति होगा।
▪️ यह स्पष्ट है कि रक्तबीज, शुम्भ, निशुम्भ आदि कोई भी दैत्य, दानव प्रकृति-विजेता नहीं हुए। किन्तु सब प्रकृति से पराजित, प्रकृति के अंश काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प आदि से पद-पद पर भग्न मनोरथ होते रहे है।
▪️ हाँ, गुणातीत प्रकृतिपार भगवान् शिव ही प्रकृति को जीतते हैं। तभी तो प्रकृतिमाता ने उन्हें ही अपना पति बनाया। यही क्यों, कन्दर्प-विजयी शिव की प्राप्ति के लिये तो उन्होंने घोर तपस्या भी की।
▪️ आज का संसार शुम्भ-निशुम्भ की तरह विपरीत मार्ग से प्रकृति पर विजय चाहता है। इसीलिये प्रकृति अनेक तरह से उसका संहार कर रहीं है। पार्थिव, आप्य, तैजस, विविधतत्त्वों का अन्वेषण, जल, स्थल, नभ पर शासन करना, समुद्रतल के जन्तुओं तक की शान्ति भंग करना, तरह-तरह के यन्त्रों का आविष्कार और उनसे काम लेना ही आज का प्रकृतिजय है।
▪️ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और उनके विकारों पर नियन्त्रण करने का आज कोई भी मूल्य नहीं। प्रकृति भी कोयला, लोहा तेल आदि साधारण से साधारण वस्तुओं को निमित्त बनाकर उन्हीं यन्त्रों से उनका संहार करा रही है। आज शिव ‘अनार्य’ देवता बतलाये जा रहे हैं। शिव की आराधना भूल जाने से आज राष्ट्र का भी शिव (मंगल) नहीं हो रहा है-
"जरत सकल सुरवृन्द, विषम गरल जेहि पान किय ।
तेहि न भजसि मतिमन्द, को कृपालु शंकर सरिस ।।"