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01/09/2025
अर्जुन का अहंकार और गरीब ब्राह्मणमहाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। अर्जुन के हृदय में कभी-कभी यह भाव जागता कि भगवान श्...
01/09/2025

अर्जुन का अहंकार और गरीब ब्राह्मण

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। अर्जुन के हृदय में कभी-कभी यह भाव जागता कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उनका सारथी बनकर उनकी रक्षा की, उन्हें हर कठिनाई से पार लगाया। धीरे-धीरे यह भाव अहंकार में बदल गया—
"निश्चित ही मैं भगवान का सबसे प्रिय भक्त हूँ।"

श्रीकृष्ण भक्त के मन की गति को भला कैसे न समझते? मुस्कराए और निश्चय किया कि अर्जुन को एक छोटी-सी शिक्षा दी जाए।

यात्रा की शुरुआत

एक दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—
"पार्थ, चलो, आज तुम्हें कुछ दिखाते हैं।"

दोनों वनमार्ग से गुजर रहे थे। तभी उनकी दृष्टि एक विचित्र दृश्य पर पड़ी—
एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण, फटे वस्त्रों में, भूख से क्षीण शरीर, किन्तु सामने बैठकर सूखी घास चबा रहा था।
उसके दुर्बल शरीर से वैराग्य की गंध आती थी, पर उसकी कमर पर एक चमकती हुई तलवार बंधी थी।

अर्जुन चकित रह गए।
"ब्राह्मण देव, आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खा रहे हैं। किन्तु यह तलवार क्यों?"

ब्राह्मण का उत्तर

ब्राह्मण ने धीरे-धीरे गर्दन उठाई। उसकी आँखों में एक अनोखी चमक थी। बोला—
"मैं इस तलवार से अपने चार शत्रुओं को दंडित करना चाहता हूँ।"

अर्जुन विस्मित हुए—
"ब्राह्मण और शत्रुता? यह कौन से शत्रु हैं आपके?"

ब्राह्मण ने गहरी साँस ली और बोला—

1. "पहला शत्रु है नारद।
वह मेरे प्रभु को चैन से विश्राम भी नहीं करने देता। दिन-रात भजन-कीर्तन करके उन्हें जगाए रखता है। मेरे भगवान को भी तो शांति चाहिए।"

2. "दूसरा शत्रु है द्रौपदी।
उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वे भोजन करने बैठे थे। बेचारे भगवान को अधखाया अन्न छोड़कर पांडवों की रक्षा हेतु दौड़ना पड़ा। सोचो, उन्हें कितनी असुविधा हुई होगी!"

3. "तीसरा शत्रु है प्रह्लाद।
उस निष्ठुर बालक ने मेरे प्रभु को अग्नि, हाथी और उबलते तेल से भरे कड़ाह में उतरने पर विवश कर दिया। और अंततः खंभे को फाड़कर अवतरित होना पड़ा। कितना कष्ट सहा उन्होंने!"

4. "और चौथा शत्रु है अर्जुन।
उसने मेरे प्रभु को अपना सारथी बना डाला। हाथों में चाबुक थमा दिया। क्या उसने कभी सोचा कि भगवान को भी थकान हो सकती है?"*

इतना कहते ही ब्राह्मण की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली।

अर्जुन का हृदय परिवर्तन

अर्जुन स्तब्ध रह गए। उनका सिर झुक गया।
उन्होंने श्रीकृष्ण की ओर देखा, जो मंद मुस्कान के साथ खड़े थे।

तभी अर्जुन का सारा अहंकार पलभर में टूट गया।
वे रो पड़े और श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर बोले—
"प्रभु, क्षमा कीजिए। मैं कहाँ, और आपके अनगिन भक्त कहाँ! मेरे गर्व का नाश हो गया।"

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उठाया और स्नेहपूर्वक बोले—
"पार्थ, इस संसार में भक्तों की भावनाएँ असंख्य रूपों में होती हैं। कोई सेवा से, कोई प्रार्थना से, कोई आँसुओं से—सब मुझे प्रिय हैं। अहंकार केवल दूरी पैदा करता है, विनम्रता ही सच्ची भक्ति है।"

🌸 कहानी का सार:
भक्ति की कोई परिभाषा नहीं होती। प्रत्येक भक्त अपने भावों से भगवान को अपना मानता है। अहंकार भक्ति को कलुषित करता है, जबकि विनम्रता उसे शुद्ध और मधुर बना देती है।

🍁 भगवान् शिव से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिये❓️▪️ भगवान् भूतभावन श्रीविश्वनाथ के चरित्रों से प्राणियों को नैतिक, सामाजिक,...
01/09/2025

🍁 भगवान् शिव से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिये❓️

▪️ भगवान् भूतभावन श्रीविश्वनाथ के चरित्रों से प्राणियों को नैतिक, सामाजिक, कौटुम्बिक अनेक प्रकार की शिक्षा मिलती है। समुद्र-मन्थन में निकलने वाले कालकूट विष का भगवान् शंकर ने पान किया और अमृत देवताओं को दिया। राष्ट्र के नेता और समाज एवं कुटुम्ब के स्वामी का यही कर्तव्य है, उत्तम वस्तु राष्ट्र के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिये और अपने लिये परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरह की कठिनाइयों को ही रखना चाहिये। विष का भाग राष्ट्र या बच्चों को देने से वैमनस्य और उससे सर्वनाश हो जाएगा। शिव जी ने न विष को हृदय (पेट) में उतारा और न उसका वमन ही किया, किन्तु कण्ठ में ही रोक रखा। इसीलिये विष और कालिमा भी उनके भूषण हो गये। जो संसार के हित के लिये विषपान से भी नहीं हिचकते, वे ही राष्ट्र या जगत के ईश्वर हो सकते हैं।

▪️ समाज या राष्ट्र की कटुता को पी जाने से ही नेता राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। परन्तु, फिर भी उस कटुता का विष वमन करने से फूट और उपद्रव ही होगा। साथ ही उस विष को हृदय में रखना भी बुरा है। अमृतपान के लिये सभी उत्सुक होते हैं, परन्तु विषपान के लिये शिव ही हैं; वैसे ही फल भोग के लिये सभी तैयार रहते हैं, परन्तु त्याग तथा परिश्रम को स्वीकारने के लिये महापुरुष ही प्रस्तुत होते हैं। जैसे अमृतपान के अनुचित लोभ से देव-दानवों का विद्वेष स्थिर हो गया, वैसे ही अनुचित फल कामना से समाज में विद्वेष स्थिर हो जाता है।

▪️ शिव जी का कटुम्ब भी विचित्र ही है। अन्नपूर्णा का भंण्डार सदा भरा, पर भोले बाबा सदा के भिखारी। कार्तिकेय सदा युद्ध के लिये उद्यत, पर गणपति स्वभाव से ही शान्तिप्रिय। फिर कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणपति का मूषक, पार्वती का सिहं और स्वयं अपना नन्दी और उस पर आभूषणों सर्पों के। सभी एक दूसरे के शत्रु, पर गृहपति की छत्र छाया में सभी सुख तथा शान्ति से रहते हैं घर में प्रायः विचित्र स्वभाव और रुचि के लोग रहते हैं, जिसके कारण आपस में खटपट चलती ही रहती है। घर की शान्ति के आदर्श की शिक्षा भी शिव से ही मिलती है।

▪️ भगवान् शिव और अन्नपूर्णा अपने आप परम विरक्त रहकर संसार का सब ऐश्वर्य श्रीविष्णु और लक्ष्मी को अर्पण कर देते है। श्रीलक्ष्मी और विष्णु भी संसार के सभी कार्यों को सँभालने, सुधारने के लिये अपने आप ही अवतीर्ण होते हैं। गौरी-शंकर को कुछ भी परिश्रम न देकर आत्मानुसन्धान के लिये उन्हें निष्प्रपंच रहने देते हैं। ऐसे ही कुटुम्ब और समाज के सर्वमान्य पुरुषों को चाहिये कि योग्यतम कुटुम्बियों के हाथ समाज और कुटुम्ब को सब ऐश्वर्यं दे दें और उन योग्य अधिकारियों को चाहिये कि समाज के प्रत्येक कार्य-सम्पादन के लिये स्वयं ही अग्रसर हों, वृद्धों को निष्प्रपंच होकर आत्मानुसन्धान करने दें। महापार्थिवेश्वर हिमालय की महाशक्तिरूपा पुत्री का श्रीशिव के साथ परिणय होने से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। किसी प्रकार की भी शक्ति क्यों न हो, जब तक वह धर्म से परिणीत - संयुक्त - नहीं होती, तब तक कल्याणकारिणी नहीं होती। परन्तु आसुरी शक्ति तो तपस्या चाहती ही नहीं, फिर उसे शिव या धर्म कैसे मिलेंगे?

🔸 ️धर्मसम्बन्ध के बिना शक्ति आसुरी होकर अवश्य ही संहार का हेतु बनेगी। प्रकृति माता की यह प्रतिज्ञा है कि 👉

"यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्षं व्यपोहति ।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भाविष्यति ।।"

🔹 ️अर्थात् 👉
संघर्ष में जो मुझे जीत लेगा, जो मेरे दर्प को चूर्ण कर देगा और जो मेरे समान या अधिक बल का होगा, वही मेरा पति होगा।

▪️ यह स्पष्ट है कि रक्तबीज, शुम्भ, निशुम्भ आदि कोई भी दैत्य, दानव प्रकृति-विजेता नहीं हुए। किन्तु सब प्रकृति से पराजित, प्रकृति के अंश काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प आदि से पद-पद पर भग्न मनोरथ होते रहे है।

▪️ हाँ, गुणातीत प्रकृतिपार भगवान् शिव ही प्रकृति को जीतते हैं। तभी तो प्रकृतिमाता ने उन्हें ही अपना पति बनाया। यही क्यों, कन्दर्प-विजयी शिव की प्राप्ति के लिये तो उन्होंने घोर तपस्या भी की।

▪️ आज का संसार शुम्भ-निशुम्भ की तरह विपरीत मार्ग से प्रकृति पर विजय चाहता है। इसीलिये प्रकृति अनेक तरह से उसका संहार कर रहीं है। पार्थिव, आप्य, तैजस, विविधतत्त्वों का अन्वेषण, जल, स्थल, नभ पर शासन करना, समुद्रतल के जन्तुओं तक की शान्ति भंग करना, तरह-तरह के यन्त्रों का आविष्कार और उनसे काम लेना ही आज का प्रकृतिजय है।

▪️ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और उनके विकारों पर नियन्त्रण करने का आज कोई भी मूल्य नहीं। प्रकृति भी कोयला, लोहा तेल आदि साधारण से साधारण वस्तुओं को निमित्त बनाकर उन्हीं यन्त्रों से उनका संहार करा रही है। आज शिव ‘अनार्य’ देवता बतलाये जा रहे हैं। शिव की आराधना भूल जाने से आज राष्ट्र का भी शिव (मंगल) नहीं हो रहा है-

"जरत सकल सुरवृन्द, विषम गरल जेहि पान किय ।
तेहि न भजसि मतिमन्द, को कृपालु शंकर सरिस ।।"

रुद्राक्ष के प्रकार और उनके पहनने से लाभ...रूद्राक्ष को धारने करने वाले के जीवन से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। शिवमहापुरा...
01/09/2025

रुद्राक्ष के प्रकार और उनके पहनने से लाभ...

रूद्राक्ष को धारने करने वाले के जीवन से सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। शिवमहापुराण ग्रंथ में कुल सोलह प्रकार के रूद्राक्ष बताएं गए है औऱ सभी के देवता, ग्रह, राशि एवं कार्य भी अलग-अलग बताएं है। रुद्राक्ष के प्रकार एवं उनसे होने वाले लाभ

1- एक मुखी रुद्राक्ष- इसे पहनने से शोहरत, पैसा, सफलता प्राप्ति और ध्‍यान करने के लिए सबसे अधिक उत्तम होता है। इसके देवता भगवान शंकर, ग्रह- सूर्य और राशि सिंह है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।

2- दो मुखी रुद्राक्ष- इसे आत्‍मविश्‍वास और मन की शांति के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान अर्धनारिश्वर, ग्रह- चंद्रमा एवं राशि कर्क है। मंत्र- ।। ॐ नम: ।।

3- तीन मुखी रुद्राक्ष- इसे मन की शुद्धि और स्‍वस्‍थ जीवन के लिए पहना जाता है। इसके देवता अग्नि देव, ग्रह- मंगल एवं राशि मेष और वृश्चिक है। मंत्र- ।। ॐ क्‍लीं नम: ।।

4- चार मुखी रुद्राक्ष- इसे मानसिक क्षमता, एकाग्रता और रचनात्‍मकता के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता ब्रह्म देव, ग्रह- बुध एवं राशि मिथुन और कन्‍या है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।

5- पांच मुखी रुद्राक्ष- इसे ध्‍यान और आध्‍यात्‍मिक कार्यों के लिए पहना जाता है। इसके देवता भगवान कालाग्नि रुद्र, ग्रह- बृहस्‍पति एवं राशि धनु व मीन है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।

6- छह मुखी रुद्राक्ष- इसे ज्ञान, बुद्धि, संचार कौशल और आत्‍मविश्‍वास के लिए पहना जाता है। इसके देवता भगवान कार्तिकेय, ग्रह- शुक्र एवं राशि तुला और वृषभ है। मंत्र : ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।।

7- सात मुखी रुद्राक्ष- इसे आर्थिक और करियर में विकास के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता माता महालक्ष्‍मी, ग्रह- शनि एवं राशि मकर और कुंभ है। मंत्र- ।। ॐ हूं नम:।।

8. आठ मुखी- इसे करियर में आ रही बाधाओं और मुसीबतों को दूर करने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान गणेश, ग्रह- राहु है। मंत्र-।। ॐ हूं नम:।।

9. नौ मुखी- इसे ऊर्जा, शक्‍ति, साहस और निडरता पाने के लिए पहना जाता है।इसके देवता माँ दुर्गा,ग्रह- केतु है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।।

10- दस मुखी रुद्राक्ष- इसे नकारात्‍मक शक्‍तियों, नज़र दोष एवं वास्‍तु और कानूनी मामलों से रक्षा के लिए धारण किया है। इसके देवता भगवान विष्‍णु जी हैं। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम: ।।

11- ग्‍यारह मुखी रुद्राक्ष- इसे आत्‍मविश्‍वास में बढ़ोत्तरी, निर्णय लेने की क्षमता, क्रोध नियंत्रण और यात्रा के दौरान नकारात्‍मक ऊर्जा से सुरक्षा पाने के लिए पहना जाता है। इसके देवता हनुमान जी, ग्रह- मंगल एवं राशि मेष और वृश्चिक है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं हूं नम:।

12- बारह मुखी रुद्राक्ष- इसे नाम, शोहरत, सफलता, प्रशासनिक कौशल और नेतृत्‍व करने के गुणों का विकास करने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता सूर्य देव, ग्रह- सूर्य एवं राशि सिंह है। मंत्र- ।। ॐ रों शों नम: ऊं नम:।।

13- तेरह मुखी रुद्राक्ष- इसे आर्थिक स्थिति को मजबूत करने, आकर्षण और तेज में वृद्धि के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता इंद्र देव, ग्रह- शुक्र एवं राशि तुला और वृषभ है। मंत्र- ।। ॐ ह्रीं नम:।।

14- चौदह मुखी रुद्राक्ष- इसे छठी इंद्रीय जागृत कर सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करने के उद्देश्य से धारण किया जाता है। इसके देवता शिव जी, ग्रह- शनि एवं राशि मकर और कुंभ है। मंत्र- ।। ॐ नम:।।

15- गणेश रुद्राक्ष- इसे ज्ञान, बुद्धि और एकाग्रता में वृद्धि, सभी क्षेत्रों में से सफलता के लिए, एवं केतु के अशुभ प्रभावों से बचने के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान गणेश जी हैं। मंत्र- ।। ॐ श्री गणेशाय नम:।।

16- गौरी शंकर रुद्राक्ष- इसे परिवार में सुख-शांति, विवाह में देरी, संतान नहीं होना और मानसिक शांति के लिए धारण किया जाता है। इसके देवता भगवान शिव-पार्वती जी, ग्रह- चंद्रमा एवं राशि कर्क है। मंत्र- ।। ॐ गौरी शंकराय नम:।।

जय महाकाल

ब्यूरो चीफ/हरियाणामीना देवी शवेता दर्पण समाचार पञ !!: ठग बाबाओं से सावधान ==सात लाख रूपये दीजिये तो  राधे माँ  (जसबिंदर ...
01/09/2025

ब्यूरो चीफ/हरियाणा
मीना देवी
शवेता दर्पण समाचार पञ

!!: ठग बाबाओं से सावधान ==

सात लाख रूपये दीजिये तो राधे माँ (जसबिंदर कौर) आपको गोद में बैठाकर आशीर्वाद देंगी और पन्द्रह लाख रूपये दीजिये तो आप उस राधे माँ को किसी फाइव स्टार होटल में डिनर के साथ आशीर्वाद ले सकते हैं ! तब भी अंधविश्वासी लोग उसे देवी ही मानते हैं l
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निर्मल बाबा है जो लाल चटनी और हरी चटनी में भगवान् की कृपा दे रहा है ! रात दिन पूजा जा रहा है।
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रामपाल हैं जो कबीर को पूर्ण परब्रह्म परमात्मा मानते हैं ! और अपने नहाए हुए पानी को अपने भक्तों को पिला कर कृतार्थ करता है।
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ब्रह्मकुमारी वाले हैं जो - दादा लेखराज के वचनों को सच्ची गीता बताते हैं और परमात्मा को बिन्दुरुप बताते हैं ! इन्होंने भगवद्गीता भी फेल कर दी।
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राधास्वामी वाले अपने गुरु को ही मालिक परमेश्वर भगवान् ईश्वर मानते हैं। वो साक्षात ईश्वर का अवतार है।
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सच्चाई को जानकर भी कुछ लोग - चाँद मियाँ को भगवान् बनाने पर तुले हैं । ये चाँद मियाँ अपने आप को साई बाबा बताता है।
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आसाराम , दाती बाबा , राम रहीम के भक्त तो और भी महान है ....... सब पोल खुल जाने पर भी इनके भक्त - इन पाखंडियों को ईश्वर मानकर , रात दिन इनका गुण गाते है।
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और भी बहुत से अनाम पाखंडी समाज मे भरे पड़े हैं जो चमत्कार के नाम पर अपने शरीर में हनुमानजी को भी प्रकट कर लेते हैं ??? अच्छे अच्छे पढ़े लिखे लोग बेवकूफ बन रहे हैं !!
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कोई विदेशी इसका जिम्मेदार नहीं है

जिसने अपनी दुकान ज्यादा सजायी वो ही उतना बड़ा परमेश्वर हो गया ।

बाबा लोगों को किसी भगवान् पर विश्वास नहीं होता,, बाबा जी Z+ सिक्योरिटी में बैठकर कहते हैं कि," जीवन-मरण ऊपर वाले के हाथ में है "
अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं, पर सोचते नहीं हैं ।

बाबा जी हवाई जह़ाज में उड़ते हैं , सोने से लदे होते हैं ,
दौलत के ढेर पर बैठकर बोलते हैं कि -- " मोह-माया मिथ्या है, ये सब त्याग दो "

लेकिन उत्तराधिकारी अपने बेटे को ही बनायेंगे..
अंधभक्त श्रद्धा से सुनते हैं, पर सोचते नहीं हैं ।

भक्तों को लगता है कि उनके सारे मसले बाबा जी हल करते हैं , लेकिन जब बाबा जी मसलों में फंसते हैं, तब बाबा जी बड़े वकीलों की मदद लेते हैं ..
अंधेभक्त बाबा जी के लिये दुखी होते हैं, लेकिन सोचते नहीं हैं ।

भक्त बीमार होते हैं , डॉक्टर से दवा लेते हैं ,
ठीक हो जाते हैं तो कहते हैं, "बाबा जी ने बचा लिया "

पर जब बाबा जी बीमार होते हैं , तो बड़े डॉक्टरों से महंगे अस्पतालों में इलाज़ करवाते हैं , अंधेभक्त उनके ठीक होने की दुआ करते हैं लेकिन सोचते नहीं हैं ।

जब बाबा जी किसी अपराध में जेल जाते हैं तब उनका चमत्कार कहाँ गायब हो जाता हैं ?? फिर भी अंधेभक्त उन पाखंडियों के लिये लड़ते-मरते हैं , सोचते नहीं हैं ।

आखिर कब तक मूर्ख बनते रहोगे ???

सच्चा गुरु - भक्त को जागरूक बनाता है, तार्किक बनाता है, सद्बुद्धि प्रदान करता है , अंधीभक्ति नहीं सिखाता ।

! जय महादेव_!!:

श्री विद्यारण्य स्वामी और प्रतिबिम्बवाद   (भाग: २]'देव्यापराधक्षमापन-स्तोत्र' की रचना विद्यारण्य स्वामीजी ने की । यद्यपि...
01/09/2025

श्री विद्यारण्य स्वामी और प्रतिबिम्बवाद (भाग: २]

'देव्यापराधक्षमापन-स्तोत्र' की रचना विद्यारण्य स्वामीजी ने की । यद्यपि यह स्तोत्र आद्य शंकराचार्य जी के नाम से ही प्रसिद्ध है । फिर भी ---

"परित्यक्ता देवा: विविधविधसेवाकुलतया ।
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।।"

विविध देवताओं की विधिपूर्वक की गई सेवा से व्याकुल होकर , देवताओं की सेवा का त्याग करके मैंने इस समय पच्चासी वर्ष की आयु बिता दी ।" -- ऐसा स्तोत्र में कहा गया है ।

चूंकि आद्य शंकर ३२ वर्ष की आयु में ही ब्रह्मीभूत हो गए थे । अतः यह उनकी रचना नहीं हो सकती । विद्यारण्य स्वामी जी ने ९१ वर्ष में शरीर छोड़ा । इसलिए यह उनकी रचना है ।

श्रृंगेरी की परंपरानुसार श्री स्वामी जी का जन्म विक्रम संवत १२१७ में हुआ था तथा विक्रम संवत १२५३ में ३६ वर्ष की आयु में प्रजापति नामक संवत्सर में कार्तिक शुक्ल सप्तमी तिथि को श्रृंगेरी मठ में १२वें शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और विक्रम संवत १३०८ में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन ब्रह्मीभूत हुए । वे ५५ वर्ष तक सिंहासनारूढ़ रहे । इस प्रकार उन्होंने ९१ वर्ष की आयु में शरीर छोड़ा ।

संन्यास से पूर्व स्वामीजी ने श्री माधवाचार्य के नाम से ग्रन्थ लिखा । उनका एक ग्रन्थ "श्रीमच्छंकर दिग्विजय" है । इस ग्रन्थ पर श्री धनपति सूरी जी ने "डिम् डिम्" नाम की व्याख्या की । इस ग्रन्थ पर दूसरी टीका लक्ष्मी अधिराज की "अद्वैत राजलक्ष्मी" है । यह ग्रन्थ आनन्दाश्रम पूना से ईस्वी सन् १९३२ में प्रकाशित हुई थी । उनके जिन ग्रन्थों में विद्यारण्य स्वामी नाम आया है , वे संन्यास के बाद में लिखे गए हैं ।

उनके कई ग्रन्थों में "पंचदशी" एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है । पर कुछ विद्वान् कहते हैं कि इस ग्रन्थ में प्रारम्भ के छः प्रकरण विद्यारण्य स्वामी जी की रचना है और अंतिम के नौ प्रकरणों की रचना भारती तीर्थ जी ने की ।

इस ग्रन्थ पर रामकृष्ण अच्युत राय ने संस्कृत में सुप्रसिद्ध टीका की है । वे ग्रन्थ के आरम्भ में प्रत्येक प्रकरण की पुष्पिका में "इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री भारती तीर्थ , विद्यारण्यमुनिवर्य किंकरेण श्री रामकृष्णाख़्येन विदुषा विरचिता ।" उल्लेख मिलता है , जिससे पंचदशी दोनों की रचना सिद्ध होती है ।

प्रत्येक प्रकरण के आरम्भ में टीकाकर ने पहले प्रकरण से छठें तक के मंगलाचरण में "नत्वा श्री भारतीतीर्थविद्यारण्य मुनिश्वरौ। क्रियते" के आगे प्रकरण का नाम लिखकर व्याख्यानं इत्यादि का प्रयोग करते हैं । इन छहों प्रकरणों में टीकाकार का एक ही श्लोक में मंगल है । परन्तु सातवें में "अखण्डानन्द रूपाय" आदि दो श्लोकों के बाद "नत्वा श्री भारती तीर्थ" इत्यादि तीन श्लोकों में मंगलाचरण करते हैं । आठवें , नवें , दशवें तथा ग्यारवें प्रकरणों में एक ही श्लोक है । फिर बाहरवें से लेकर पन्द्रहवें तक टीकाकार का मंगलाचरण नहीं है । इन बातों से भी सिद्ध होता है कि पंचदशी में दोनों के नाम होने से यह दोनों की रचना है ।

हो सकता है कि विद्यारण्य स्वामी जी ने अति वृद्धावस्था में पंचदशी लिखनी आरम्भ की हो और आरम्भ के छः प्रकरण उन्होंने ही लिखी हो । बाद में इनके नेत्र तथा इन्द्रियाँ सिथिल होने पर उन्होंने अपने अनुज श्री स्वामी भारती तीर्थ जी महाराज को लिखने की आज्ञा दी हो । तथा उन्होंने सातवें प्रकरण से पन्द्रहवें तक की रचना की हो । ग्रन्थ सम्पूर्ण होने पर संशोधन विद्यारण्य स्वामी जी ने ही किया हो । इन सम्भावनाओं के आधार पर भी पंचदशी दोनों की रचना सिद्ध होती है ।

एक बार महाराज हरिहर को रेवणसिद्धि नामक योगी ने दर्शन देकर कहा --- हे राजन् ! श्री विद्यारण्य स्वामी जी की कृपा से आप राजसिंहासन पर बैठोगे । श्रृंगेरी के श्रीमठ में विद्यमान चन्द्रमौलीश्वर लिंग का दर्शन करो । अर्थात् श्रृंगेरी मठ के शिष्य हो जाओ । हरिहर से लेकर ३३ पीढ़ी तक के राजा पृथ्वी का पालन करेंगे । ३४वीं पीढ़ी में वीर वसन्त नामक राजा होगा ।

ईस्वी सन् १३३६ में 'धातृ' नाम के वर्ष में वैशाख शुक्ल सप्तमी को मघा नक्षत्र में रविवार के दिन विजयनगरी का निर्माण हुआ । महाराज हरिहर ने अपनी पूरी सम्पत्ति विद्यारण्य स्वामी जी को समर्पित की । इसीलिए विद्यारण्य जी के समय से लेकर श्रृंगेरी मठ के समस्त जगद्गुरु "कर्नाटक सिंहासन प्रतिष्ठापनाचार्य" कहे जाते हैं ।

हरिहर महाराज का अभिषेक करके तथा उपदेश देकर विद्यारण्य स्वामी जी तीर्थयात्रा करने के लिए वाराणसी , केदारनाथ आदि क्षेत्रों में चले गये । वाराणसी में विद्यारण्य स्वामी जी ने दो मठों का निर्माण किया । जो आज भी काशी में विराजमान है तथा श्रृंगेरी के आचार्यों की परम्परा से सम्बद्ध है ।

श्री भारती तीर्थ स्वामी ईस्वी सन् १३८० में भाद्रपद शुक्ल द्वादशी , अंग्रेजी तिथि अनुसार १३ अगस्त को ब्रह्मीभूत हुए । १३८० ईस्वी में ही विद्यारण्य स्वामी जी ने हरिहर महाराज का पट्टाभिषेक करवाया ।

जिस समय विद्यारण्य स्वामी जी श्रृंगेरी के सिंहासन पर विराजमान हुए , तब इन पर छत्र-चमर डुलने वाला था । हाथी पर शोभा यात्रा निकलने वाली थी । किन्तु धर्मशास्त्रानुसार इन्होंने मना कर दिया । यति के लिए याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है -- "यानारूढं यतिं दृष्ट्वा सचैल स्नानमाचरेत्।" अर्थात् यति को घोड़े या किसी जानवर की सवारी पर चढ़ा देखकर ब्रह्मचारी अथवा गृहस्थ को दर्शन करना भी निषिद्ध है । उस दोष की निवृत्ति के लिए वस्त्र सहित स्नान करे ।

तब लक्ष्मी जी या सरस्वती जी ने आकाशवाणी से कहा --- "हे यते ! आप अपने को देवी रूप की सदैव भावना करते हुए छत्र-चमर आदि राजोपचार चिन्हों को धारण करो । अन्यथा भावना न करो । तुम्हारे द्वारा धारण की गई उक्त वस्तुएं देवी के द्वारा धारण की गई हैं , ऐसी भावना करो ।" तब इन्होंने मुर्द्धाभिषेक के लिए उपर्युक्त चिन्हों को धारण किया ।

क्रमश...................

कर्म का फलभीष्म पितामह रणभूमि में शरशैया पर पड़े थे। वो अगर हल्का सा भी हिलते तो शरीर में घुसे बाण भारी वेदना के साथ रक्त...
01/09/2025

कर्म का फल

भीष्म पितामह रणभूमि में शरशैया पर पड़े थे। वो अगर हल्का सा भी हिलते तो शरीर में घुसे बाण भारी वेदना के साथ रक्त की पिचकारी सी छोड़ देते। ऐसी दशा में उनसे मिलने सभी आ जा रहे थे। श्री कृष्ण भी दर्शनार्थ आये। उनको देखकर भीष्म जोर से हँसे और कहा आइये जगन्नाथ.. आप तो सर्व ज्ञाता हैं, सब जानते हैं, बताइए मैंने ऐसा क्या पाप किया था, जिसका इतना भयावह दंड मुझे मिला ?

श्री कृष्ण : पितामह ! आपके पास तो वह शक्ति है, जिससे आप अपने पूर्व जन्म देख सकते हैं। आप स्वयं ही देख लेते।

भीष्म : हे देवकी नंदन! मैं यहाँ अकेला पड़ा और कर ही क्या रहा हूँ ? मैंने सब देख लिया.. अभी तक 100 जन्म देख चुका हूँ। मैंने उन 100 जन्मों में तो एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जिसका परिणाम ये हो कि मेरा पूरा शरीर बिंधा पड़ा है, हर आने वाला क्षण और ज्यादा पीड़ा लेकर आता है।

कृष्ण : पितामह ! आप एक जन्म और पीछे जाएँ, आपको स्वयं ही उत्तर मिल जायेगा। भीष्म ने पुनः ध्यान लगाया और देखा कि 101 जन्म पूर्व वो एक नगर के राजा थे। एक मार्ग से अपनी सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ कहीं जा रहे थे। इतने में एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला "राजन ! मार्ग में एक सर्प पड़ा है। यदि हमारी टुकड़ी उसके ऊपर से गुजरी तो वह मर जायेगा।

भीष्म ने कहा "एक काम करो । उसे किसी लकड़ी में लपेट कर झाड़ियों में फेंक दो।" सैनिक ने वैसा ही किया। उस सांप को एक लकड़ी में लपेटकर झाड़ियों में फेंक दिया। दुर्भाग्य से झाड़ियां कंटीली थी। वह सर्प उसमें ओर ज्यादा फंस गया। जितना उससे निकलने का प्रयास करता वो और अधिक फंसता जाता। कांटे उसकी देह में अंदर तक गड़ गए ओर खून रिसने लगा, धीरे धीरे वह मृत्यु के मुंह में जाने लगा। और अंत में कुछ दिन की तड़प के बाद उसके प्राण निकल पाए।

भीष्म : हे त्रिलोकी नाथ, आप तो जानते हैं कि मैंने ऐसा कुछ भी जानबूझ कर नहीं किया, अपितु मेरा उद्देश्य तो उस सर्प की रक्षा करना था तब फिर ये परिणाम क्यों ?

कृष्ण : तात श्री ! हम जान बूझ कर क्रिया करें या अनजाने में किन्तु क्रिया तो हुई न। उसके प्राण तो गए ना। ये विधि का विधान है कि जो क्रिया हम करते हैं उसका फल हमें भोगना ही पड़ता है।

क्योंकि आपका पुण्य इतना प्रबल था कि 101 जन्म उस पाप के फल को उदित होने में लग गए, किन्तु अंततः उसका फल मिल कर ही रहा।

अतः हर दैनिक क्रिया सावधानी पूर्वक करें। जीवन में कैसा भी दुख और कष्ट आये पर श्री कृष्ण का भजन मत छोड़िये।

क्या कष्ट आता है तो हम भोजन करना छोड़ देते हैं ?

क्या बीमारी आती है तो हम सांस लेना छोड़ देते हैं ?

नहीं ना ! फिर जरा सी तकलीफ़ आने पर हम भक्ति / भजन करना कैसे छोड़ सकते हैं ?

जीवन में कभी भी दो चीज नहीं छोडिए - भजन और भोजन ! भोजन छोड देंगे तो जीवित नहीं रहेंगे और भजन छोड देंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे।

सही मायने में भजन ही भोजन है ।..........

🔥मणिकर्णिका🔥– जीवन-मरण का शाश्वत सत्य⚡️यह संसार जहाँ “राम नाम सत्य है” का उद्घोष होता है, वहाँ काशी के मध्य स्थित मणिकर्...
01/09/2025

🔥मणिकर्णिका🔥– जीवन-मरण का शाश्वत सत्य⚡️

यह संसार जहाँ “राम नाम सत्य है” का उद्घोष होता है, वहाँ काशी के मध्य स्थित मणिकर्णिका घाट स्वयं जीवन और मृत्यु का अद्वितीय संगम है।

मनुष्य जीवनभर संघर्ष करता है, परन्तु काशी का यह महाश्मशान बताता है कि अन्ततः सब कुछ इसी अग्नि में भस्म होकर सम हो जाता है। यही कारण है कि असंख्य लोग अपनी अन्तिम यात्रा के लिए वाराणसी की धरती चुनते हैं।

🔸️मणिकर्णिका की पौराणिक कथा
कथानुसार जब भगवान विष्णु सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से एक कुण्ड का निर्माण किया। तपस्या के समय उनका स्वेद उसमें संचित हुआ। जब भगवान शंकर वहाँ पधारे तो भगवान विष्णु के कान की मणिकर्णिका उसमें गिर पड़ी। उसी से इस पवित्र स्थान का नाम मणिकर्णिका पड़ा।
एक अन्य कथा में यह उल्लेख है कि माता पार्वती के कान का आभूषण इसी कुण्ड में विलीन हुआ।

🔸️अविरत जलती चिताएँ
सारे जगत में निद्रा का समय हो, किन्तु मणिकर्णिका पर अग्नि निरन्तर प्रज्वलित रहती है। यहाँ दिन-रात देहों का दाहसंस्कार होता रहता है। यह अग्नि कभी बुझती नहीं, यहाँ की राख कभी शीतल नहीं होती।
मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्म, सफलता–असफलता, क्रोध–अभिमान, सब अन्ततः इसी राख में परिवर्तित हो जाते हैं। यही कारण है कि इसे मोक्षदायिनी अग्नि कहा गया है।

🔸️मणिकर्णिका का संदेश
यह घाट जीवित को स्मरण कराता है कि चाहे व्यक्ति कितना भी बड़ा, धनवान, ज्ञानी अथवा अहंकारी क्यों न हो—अन्ततः सबकी देह एक समान लकड़ियों के ढेर पर भस्म हो जाती है। यही जीवन का अपरिहार्य सत्य है।
इसीलिए प्राचीन महात्मा अपने शिष्यों को श्मशान में समय व्यतीत करने की आज्ञा देते थे, जिससे वे मोह–ममता से मुक्त होकर वैराग्य का अनुभव कर सकें।

🔸️विशेष परम्परा
यह भी परम्परा है कि जब किसी मृतक का दाह संस्कार होता है, तो उसके प्रियजन ‘कपालक्रिया’ करते हैं—मृतक की खोपड़ी पर पाँच बार प्रहार कर उसके बन्धनों का अन्त करते हैं, जिससे आत्मा को शान्ति प्राप्त हो।

🔸️अन्तिम शिक्षा
जब भी मनुष्य को अपने अहंकार पर गर्व हो, तो उसे मणिकर्णिका का दर्शन करना चाहिए। वहाँ बैठकर वह देख सकता है कि उसका अभिमान, उसकी सफलताएँ, उसकी इच्छाएँ—सब कुछ एक दिन इसी चिता की अग्नि में विलीन हो जाएँगी।

🔹️यही मणिकर्णिका की साक्षात् महिमा है—
जीवन का अन्त ही सत्य है, और सत्य ही है “राम नाम”।

हर हर महादेव! 🚩🙏

ब्यूरो चीफ/ गीतांजली वर्माशवेता दर्पण समाचार पञ *श्री राधे रानी के 28 नाम**(1)राधा**(2)रासेश्वरी**(3)रम्या**(4)कृष्णमत्र...
01/09/2025

ब्यूरो चीफ/ गीतांजली वर्मा
शवेता दर्पण समाचार पञ

*श्री राधे रानी के 28 नाम*

*(1)राधा*
*(2)रासेश्वरी*
*(3)रम्या*
*(4)कृष्णमत्राधिदेवता*
*(5)सर्वाद्या*
*(6)सर्ववन्द्या*
*(7)वृन्दावनविहारिणी*
*(8)वृन्दाराधा*
*(9)रमा*
*(10)अशेषगोपीमण्डलपूजता(11)सत्या*
*(12)सत्यपरा*
*(13)सत्यभामा*
*(14)श्रीकृष्णवल्लभा*
*(15)वृषभानुसुता*
*(16)गोपी*
*(17मूल प्रकृति*
*(18)ईश्वरी*
*(19)गान्धर्वा*
*(20)राधिका*
*(21)रम्या*
*(22)रुक्मिणी*
*(23परमेश्वरी*
*(24)परात्परतरा*
*(25)पूर्णा*
*(26)पूर्णचन्द्रविमानना*
*(27)भुक्ति-मुक्तिप्रदा*
*(28)भवव्याधि-विनाशिनी*

*स्तुति--*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*

*प्राणेश्वरी कुंजेश्वरी रासेश्वरी परमेश्वरी ब्रजेश्वरी सुरेश्वरी*

*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*

*आनन्दिनी भानुनन्दिनी सुनन्दिनी संगिनी मृदुले कोमल अंगिनी*

*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*

*हितकारिणी सुखकारिणी सुखसारिणी विस्तारिणी जगत पलनहारिणी*

*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*

*भामिनी सुवासनी कृपलानी दयालिनी कृपालिनी ममपालिनी*

*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*

*हर्षिणी रसवर्षिणी तरंगिणी कृष्णसंगिनी श्यामली नवलरंगिणी*

*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*
*श्री राधिके नमःस्तुते*


*श्री राधेकृष्ण:शरणम् मम !!*

🙏 पावन दृश्य 🙏यह चित्र हमें ज्ञान, शक्ति और धर्म की एक अद्भुत झलक दिखाता है – जहां भगवान गणेश जी, महर्षि वेदव्यास के मुख...
31/08/2025

🙏 पावन दृश्य 🙏
यह चित्र हमें ज्ञान, शक्ति और धर्म की एक अद्भुत झलक दिखाता है – जहां भगवान गणेश जी, महर्षि वेदव्यास के मुख से महाभारत की रचना लिख रहे हैं और आकाश में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं।
यह दृश्य हमें सिखाता है कि जीवन में ज्ञान और धर्म ही सबसे बड़ी शक्ति हैं। 🌸📖

🔱🌺 जय श्रीकृष्ण | जय श्रीगणेश | जय वेदव्यास 🌺🔱 #

सरसों के तेल के चमत्कारी उपाय, ग्रह दोष के अलावा अन्य तरह की समस्याओं भी दूर करते हैं। सरसों के तेल से जुड़े कई ज्योतिषी...
31/08/2025

सरसों के तेल के चमत्कारी उपाय, ग्रह दोष के अलावा अन्य तरह की समस्याओं भी दूर करते हैं।

सरसों के तेल से जुड़े कई ज्योतिषीय उपाय हैं, जैसे धन लाभ के लिए तेल में अपनी छाया देखना और शनिवार को दान करना, शनि दोष को दूर करने के लिए शनिदेव को तेल चढ़ाना या सरसों के तेल में बनी भोजन को गरीबों को दान करना, और शनि-मंगल दोष को दूर करने के लिए सरसों के तेल से मालिश करना। इन टोटकों का उद्देश्य नकारात्मक ऊर्जा, गरीबी और ग्रह दोषों को दूर करके जीवन में समृद्धि लाना माना जाता है।

ग्रह दोष निवारण और शांति के लिए।

शनि दोष:-
शनिवार को शनिदेव को सरसों के तेल में अपनी परछाई देखकर तेल दान करें, या तेल से बनी बैंगन कि, सब्जी और बड़े आकार कि, पूड़ियां बनाकर गरीबों व जरूरतमंदों को खिलाएं, इससे शनिदेव प्रसन्न होते हैं और कुंडली में शनि मजबूत होता है।

मंगल दोष:-
मंगल दोष को दूर करने के लिए शरीर पर नियमित रूप से सरसों के तेल से मालिश करें, तथा मंगलवार को बैल को कम से कम 1 किलो गुड़ खिलाएं, इससे मंगल दोष शांत होगा।

बृहस्पति की मजबूती:-
तेल के साथ हल्दी लेकर बृहस्पतिवार को दान करने से बृहस्पति ग्रह मजबूत होता है, तथा गाय को आटे की लोई में हल्दी गुड़ और चने की दाल डालकर खिलाएं।

बुरी नजर:-
अगर किसी को बुरी नजर लगी हो, तो शनिवार की शाम सरसों के तेल में अपनी परछाई देखकर उसे किसी शनि मंदिर में रखना चाहिए।

आर्थिक और व्यावसायिक उन्नति के लिए।

धन प्राप्ति:-
शनिवार रात को एक कटोरी में सरसों का तेल लेकर अपनी छाया देखें, फिर रविवार कि, सुबह उस तेल में गेहूं के आटे में पुराना गुड़ मिलाकर गुलगुला बनाकर काले कुत्ते को खिलाएं।

व्यापार में सफलता:-
सरसों के तेल में बनी सब्ज़ियां मज़दूरों को दान करने से व्यापार में सफलता मिलती है और सहकर्मियों का सहयोग मिलता है।

अन्य महत्वपूर्ण उपाय:-

शत्रु बाधा से मुक्ति:-

हनुमान जी के सामने सरसों के तेल का चौमुखी दीपक जलाकर, उसमें दो लौंग और चार मुखी बत्ती डालकर सात बार हनुमान चालीसा का पाठ करें। इससे सभी संकट दूर होते हैं।

सुरक्षा कवच:-
घर में सुरक्षा कवच बनाने के लिए, हनुमान जी के चरणों से सिन्दूर लेकर पीली सरसों पर लगाएं और उसे पीले कपड़े में बांधकर घर के मुख्य दरवाजे पर या अंदर रखें।

घर में खुशहाली:-
विवाह और व्यापार से जुड़ी बाधाओं को दूर करने के लिए, एक छोटी बोतल में सरसों का तेल भरें और प्रतिदिन 43 दिनों तक एक मिट्टी के गमले या बगीचे में पूर्व दिशा की ओर मुख करके तेल की कुछ बूंदें डालें।

तेल का चौथा उपाय।
शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए : -- शनिवार को सवा किलो आलू व बैंगन की सब्जी सरसों के तेल में बनाएं। उतनी ही पूरियां सरसों के तेल में बनाकर अंधे, लंगड़े व गरीब लोगों को यह भोजन खिलाए। ऐसा कम से कम 3 शनिवार करेंगे तो शारीरिक कष्‍ट दूर हो जाएगा।

तेल का पांचवां उपाय।

दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाने का टोटका:--- सरसों के तेल में सिके गेहूं के आटे व पुराने गुड़ से तैयार सात पूए, सात मदार (आक) के फूल, सिंदूर, आटे से तैयार सरसों के तेल का दीपक, पत्तल या अरण्डी के पत्ते पर रखकर शनिवार की रात में किसी चौराहे पर रख कर कहें -'हे मेरे दुर्भाग्य तुझे यहीं छोड़े जा रहा हूं कृपा करके मेरा पीछा ना करना।' सामान रखकर पीछे मुड़कर न देखें।

🔸️ कर्ता क्या है, जीव क्या है, क्षत्रजन क्या है, साक्षी क्या है, कुतस्थ, अंतर्यामीन क्या है❓️▪️जब शरीर में वास होता है, ...
31/08/2025

🔸️ कर्ता क्या है, जीव क्या है, क्षत्रजन क्या है, साक्षी क्या है, कुतस्थ, अंतर्यामीन क्या है❓️

▪️जब शरीर में वास होता है, सुख-पीड़ा के विचार का आसन होता है, तब वह कर्ता, एजेंट होता है।

आनंद का विचार वह है जो इच्छा-योग्य वस्तुओं से संबंधित है, और दर्द का विचार वह है जो अवांछित वस्तुओं से संबंधित है। ध्वनि, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, और गंध आनंद और दर्द का कारण है। जब आत्मा, अच्छे और बुरे कार्यों के अनुरूप, वर्तमान शरीर (अपने पिछले शरीर के साथ) का एक लिंक बना लेती है, और एक संघ, एक संबंध, जो शरीर के साथ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ, तब उसे जीव कहा जाता है, व्यक्ति आत्मा, पर उपधिओं द्वारा सीमित होने का लेखाजोखा।

पांच समूह वे हैं जो मन से शुरू करते हैं, जो प्राण से शुरू करते हैं, जो सत्त्व से शुरू करते हैं, जो इच्छा से शुरू करते हैं, और जो योग्यता से शुरू करते हैं। इन पांच समूहों के गुणों वाला अहंकार, बिना प्राप्त आत्म के ज्ञान के मर नहीं जाता। जो, स्वयं के निकट होने के कारण, अविनाशी प्रतीत होता है और आत्मन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, उसे लिंग-शरीरा (सूक्ष्म शरीर), और "हृदय की गाँठ" कहा जाता है। जो चेतना उसमें प्रकट होती है उसे क्षेत्र का जानकार क्षेत्रराजन कहा जाता है।

जो ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान की अभिव्यक्ति और लुप्त होने का जानकार है, परन्तु स्वयं ऐसी अभिव्यक्ति और लुप्त होने से रहित है, और आत्म-प्रकाशित है, उसे साक्षी, साक्षी कहा जाता है।

ब्रह्म से लेकर चींटी तक सभी प्राणियों की बुद्धि में जब अनभिज्ञ रूप से बोध हो जाता है, तो वह कुतस्थ कहलाता है।

जब, कुतस्थ और अन्य लोगों की वास्तविक प्रकृति को साकार करने के साधन के रूप में खड़ा होता है, जो सीमित सहायक होने के कारण भेदभाव करते हैं, तो आत्मन स्वयं को सभी निकायों में अंतर-बुने के रूप में प्रकट होता है, जैसे गहनों की एक तार के माध्यम से धागे, तो इसे अंतर्यामीन, आंतरिक शासक कहा जाता है।

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