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प्रत्येक सनातनधर्मलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए ~...
26/09/2025

प्रत्येक सनातनधर्मलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए ~

[१ ] गोत्र ।
[२ ] प्रवर ।
[३ ] वेद ।
[४] उपवेद ।
[५] शाखा ।
[६] सूत्र ।
[७] छन्द ।
[८] शिखा ।
[९] पाद ।
[१०] देवता ।
[११] द्वार ।

[१] गोत्र -
गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इन गोत्रों के अनुसार इकाई को । इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।

[२ ] प्रवर -
प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे ।

[३ ] वेद -
वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

[४] उपवेद -
प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये ।

[५] शाखा -
वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

[६] सूत्र -
प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

[७] छन्द -
उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परासम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए ।

[८] शिखा -
अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है ।

[९] पाद -
अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

[१०] देवता -
प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले उसी शाखा के वेद का आराध्य ही किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है ।

[११] द्वार -
यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है।
श्रोत स्मार्त हमारी मूल वैदिक परंपरा हे ।
शैव , वैष्णव , शाक्त विगेरे इष्टदेव प्राधान्य दर्शाता है , मगर स्वधर्म स्वशाखा में ही हे , इष्ट पांच में से एक हो शकते है मगर परंपरा तो स्मार्त ही है जो मूल वैदिक है । पंथवादि, मतवादी , में फस कर हिंदू बिखर गये हे , स्मार्त सब को एक जुठ बनाता हे ।
स्वशाखा के ग्रंथों पर पठन मनन चिंतन आचरण और उन पर कहे सुने प्रवचन व्याख्या और वित्सार ही सत्संग हे ।
सनातन संस्कृति की चार पीठ मूल वैदिक पीठ है वो सिर्फ शांकर पीठ नही , मूल वैदिक पीठ है ये चारों पीठ ही हमारी मुख्य धारा है हम सब उनकी शाखा ।

!! नारायण नारायण !!

व्यास दर्शन काशी से आचार्य शंकर हिमालय की यात्रा पर निकले। बदरिकाश्रम जाने के लिए वे प्रयाग और हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश ...
26/09/2025

व्यास दर्शन काशी से आचार्य शंकर हिमालय की यात्रा पर निकले। बदरिकाश्रम जाने के लिए वे प्रयाग और हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश पहुँचे। वहाँ से आगे बढ़कर वे बदरिकाश्रम पहुँचे, जहाँ भगवान वेदार्थव्यासजी तपस्या करते थे। बदरिकाश्रम में व्यासगुफा, नरनारायण पर्वत, तपोवन, विष्णुप्रयाग और संपूर्ण क्षेत्र भगवान व्यासजी की तपोभूमि माने जाते हैं। इस पावन और प्रसिद्ध प्रान्तों की यात्रा और वहाँ की महान विभूतियों का दर्शन करने के बाद आचार्य शंकर आगे बढ़े। वहाँ पहुँचकर शंकर के शिष्य और अनुगामी ब्राह्मण पड़ाव डाले हुए थे। एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त की। शंकर की सहमति से ब्राह्मण ने प्रश्न करने शुरू किए। शंकर ने भी चटपट उत्तर देने शुरू किए। यह प्रश्नावली सात दिन तक चलती रही। असाधारण पाण्डित्य, स्मरणशक्ति, और विवेकानुप्रण ने शिष्यों को स्तब्ध कर दिया। पण्डितों को लगा कि यह ब्राह्मण स्वयं ब्रह्मर्षि के सदृश देवव्यास ही हैं। आचार्य को भी उनकी दिव्य आभा और अनुभव से सन्देह हुआ। उन्होंने शंकर से विनीत भाव से ब्राह्मण को परिचय पूछ लिया। ब्राह्मण देवता ने प्रसन्न होकर कहा, “तुम्हारा अनुमान सही है।” शंकर ने तब उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और व्यासदेव के चरणों में भक्तिपूर्वक विनयावेदन किया। व्यासदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “वत्स! तुम्हारे शास्त्रार्थ में कोई त्रुटि नहीं थी, लेकिन शेष जीवन का पथ मेरे आशीर्वादों से शुभ सोपान बने, यही जीवन का सार है। अब तुम भारत के प्रचण्ड अलौकिक और शास्त्रार्थ में प्रतिष्ठित होकर धर्म की पताका लहराओगे। तुम्हारा नाम अमर रहेगा और वेदांत में तुम्हारी अमूल्य सेवा सदा स्मरणीय बनी रहेगी।” इतना कहकर देवव्यास अन्तर्धान हो गए।

समस्त वेदों का उपक्रम-उपसंहारादि छः लिङ्गों पर विचार करने पर अन्तिम तात्पर्य ब्रह्म में है ।जैसे एक लोहे के ज्ञान से लोह...
26/09/2025

समस्त वेदों का उपक्रम-उपसंहारादि छः लिङ्गों पर विचार करने पर अन्तिम तात्पर्य ब्रह्म में है ।

जैसे एक लोहे के ज्ञान से लोहे की समस्त वस्तुओं का ज्ञान होता है । उसी प्रकार युक्तिसंगत वाक्यों का विचार करने पर संगदोष का परित्याग कर अहंता-ममता से रहित , शांति आदि गुणों से युक्त , ध्यान-योग के द्वारा आत्मदर्शन के अभ्यास-रूपी निदिध्यासन से सारा जगत् ब्रह्मरूप में अनुभूत होता है । अतः लौह के अस्त्र-शस्त्र लौह तत्त्व के ज्ञान के समान ब्रह्मबोध होता है ।

सञ्चित कर्मों का ज्ञानाग्नि में दग्ध होने पर चिरकाल के अभ्यास से करोड़ों जन्मों में भी करोडों मनुष्यों में से किसी एक को आत्मदर्शन होता है । एकमात्र आत्मज्ञान से मोक्षसिद्धि होती है । कर्मों से नहीं । जैसे मैल से मैल साफ नहीं होता , वैसे ही कर्मों से कर्मों का नाश नहीं होता ।

जैसे केचुली त्यागे हुए सर्प को केचुली में आत्मबुद्धि नहीं होती , वैसे ही आत्मदर्शियों की भी शरीर में आत्मबुद्धि नहीं होती ।

वैराग्य रहित वेदान्त का पण्डित केवल वैश्य है । वैराग्य सहित दृढ़ अपरोक्ष ब्रह्मबोध होने पर निश्चय ही मुक्ति में विलम्ब नहीं । "शिव-गीता" में भगवान् शंकर श्रीराम जी के प्रति कहते हैं ---

"मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव च ।
अज्ञान हृदय ग्रन्थि नाशो मोक्ष इति स्मृत : ।।"

किसी ग्राम-लोकादि में जाकर निवास करने का नाम मुक्ति नहीं है । किन्तु हृदय में चित्-जड़ ग्रन्थि का नाश ही मुक्ति है।

भाव यह कि मुक्ति न किसी अवस्था-विशेष में है । न शिवलोक-वैकुण्ठ आदि में वास करने से मुक्ति है । किन्तु मैं-मेरी की गांठ के नाश में मुक्ति है । शरीरादि में आत्मबुद्धि ही बन्धन तथा उसका नाश ही मुक्ति है।

जैसे वृक्ष के अग्रभाग से गिरा हुआ मनुष्य निश्चय ही नीचे गिरता है । वैसे ही अज्ञान ग्रन्थि का भेदन करने वाले ज्ञानी की मुक्ति भी निश्चित है ।

तीर्थादि में मृत्यु पुण्य का फल है । चाण्डालादि के घर मरना पाप का फल है । पर ये नियम भी ज्ञानी के लिए नहीं है । ज्ञानी किसी भी देश-काल या निमित्त से मरे । भूखा मरे या खाकर मरे । रोता मरे या हंसता मरे । उसकी मुक्ति निश्चित है।

संसार से परम् विरक्त महात्मा संसार में रहते हुए भी उसमें किसी प्रकार लिप्त नहीं होता । जैसे दूध से निकाला गया घी या मक्खन दूध में छोड़ने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता ।

🔅  सूर्यसाधना 🔅ॐ सूर्यदेवं नमस्तेस्तु गृहाणं करूणा करं।अर्घ्यं च फलं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतै युतम्।। ॐ सर्वतीर्थं समूदभ...
26/09/2025

🔅 सूर्यसाधना 🔅

ॐ सूर्यदेवं नमस्तेस्तु गृहाणं करूणा करं।
अर्घ्यं च फलं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतै युतम्।।

ॐ सर्वतीर्थं समूदभूतं पाद्य गन्धदिभिर्युतम्।
प्रचंण्ड ज्योति गृहाणेदं दिवाकर भक्त वत्सलां।।

दिव्यं गन्धाढ़्य सुमनोहरम्।
बिलेपनं रश्मिदाता चन्दनं प्रतिगृह यन्ताम्।।

इस साधना में रविवार का व्रत अनिवार्य है। व्रत के दिन नमक का उपयोग न करें। रविवार के दिन खुले आकाश के नीचे पूर्व की ओर मुँह करके शुद्ध ऊन के आसन या कुशासन पर बैठकर काले तिल, जौ, गूगल, कपूर और घी मिला हुआ शाकल्य तैयार करके आम की लकड़ियों से अग्नि को प्रदीप्त कर उक्त मंत्र से एक १०८आहुतियाँ दें।

मंत्र-
'ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः क्लीं ॐ।'

सुख सौभाग्य की वृद्धि के लिए, दुःख दारिद्र्‌य को दूर करने के लिए, रोग व दोष के शमन के लिए इस प्रभावकारी मंत्र की साधना रविवार के दिन करनी चाहिए।

तत्पश्चात सिद्धासन लगाकर इसी मंत्र का सौ बार जप करें। जप करते समय दोनों भौंहों के मध्य भाग में भगवान सूर्य का ध्यान करते रहें। इस तरह ११ दिन तक करने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। इस साधना में रविवार का व्रत अनिवार्य है।

व्रत के दिन नमक का उपयोग न करें। इसके बाद प्रतिदिन स्नान के बाद ताम्र-पात्र में जल भरकर इसी मंत्र से सूर्य को अर्घ्य दें। जमीन पर जल न गिरे इसलिए नीचे दूसरा ताम्रपात्र रखें। तत्पश्चात इस मंत्र का एक १०८ बार जप करें।

भगवान सूर्य को नवग्रहों का राजा कहा गया है। जो मनुष्य सूर्य को १२ नाम लेते हुए जल अर्पण करते हैं पाप मुक्त होते हुए आरोग्य प्राप्त करते हैं।

सूर्य अष्टकम

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते।।१।।

सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम्।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।२।।

लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।३।।

त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।४।।

बृंहितं तेजसां पुञ्जं वायुमाकाशमेव च।
प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।५।।

बन्धूकपुष्पसङ्काशं हारकुण्डलभूषितम्।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।६।।

तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेजःप्रदीपनम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।७।।

तं सूर्यं जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।८।।

मात्र इतना स्तोत्र, मंत्र जप करने से आयुष्य, आरोग्य, ऐश्वर्य और कीर्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।

भगवान सूर्यनारायण सब का मङ्गल करें।

सूर्य पर नई वैज्ञानिक खोज🚩  मधुमक्खी की तरह सूर्य की सतह*🚩  सनातनी वेद-शास्त्रों द्वारा हजारों वर्ष पूर्व प्रमाणितआधुनिक...
26/09/2025

सूर्य पर नई वैज्ञानिक खोज🚩 मधुमक्खी की तरह सूर्य की सतह*🚩 सनातनी वेद-शास्त्रों द्वारा हजारों वर्ष पूर्व प्रमाणित

आधुनिक वैज्ञानिको की कथाकथित नई खोज सनातन हिन्दू धर्म के पुनः वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रमाणित कर रहा है। सूर्य की असली एवं मूल सतह की खोज हो चुकी है जो हमारे सनातनी ऋषियों ने अपनी श्रेष्ठ वैज्ञानिक बूद्धि से हजारों वर्ष पूर्व ही ढूंढ़ लिया था। पहली बार आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा उसकी सतह की छवि सामने आईं हैं। इन तस्वीरों में सूर्य की मूल सतह सोने की तरह चमकीली और मधुमक्खी के छत्ते की तरह लग रही है, जो लगातार फैलती और सिकुड़ती हुई दिख रही है। ये तस्वीरें अमेरिका के हवाई द्वीप में स्थित डेनियल के इनोये सोलर टेलिस्कोप ने जारी की हैं। इस टेलिस्कोप को दुनिया का सबसे बड़ा माना जाता है।

जो आज का आधुनिक विज्ञान प्रमाणित कर रहा है वो हमारा सनातनी हिन्दू वेद शास्त्र में हमारे ऋषि मुनियों ने हजारों लाखों वर्ष पहले वैज्ञानिक शोध से अंकित करके चले गए हैं।

हम आपको इसके प्रमाण में छांदोग्य उपनिषत जो सामवेद के छांदोग्य ब्राह्मण में निहित है;

असौ वा आदित्यो देवमधु तस्य द्यौरेव। तिरश्चीनवꣳशोऽन्तरिक्षमपूपो मरीचयः पुत्राः ॥१ ॥

तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः ।

ऋच एव मधुकृत ऋग्वेद एव पुष्पं ता अमृता आपस्ता वा एता ऋचः ॥२ ॥

(छान्दोग्योपनिषद्/अध्याय - ३, खंड- १, मंत्र - १ -२)

अर्थात - यह आदित्य (सूर्य) देवों का मधु है।

उसका आधार स्तम्भ (वꣳशः) द्यौः (आकाश) है।

उसके लिए अन्तरिक्ष अन्नरूप (अपूप) है।

उसकी संतान किरणें (मरीचयः) हैं। (१)

सूर्य की जो पूर्वाभिमुख किरणें हैं, वे उसके मधु की नाड़ियाँ हैं।

ऋचाएँ ही उस मधु को उत्पन्न करती हैं। ऋग्वेद उसका पुष्प है। वे किरणें ही अमृतस्वरूप जल हैं, और वही ऋचाएँ कही गई हैं। (२)

हमारे उपनिषदों में सूर्य को "देवमधु" और उसकी किरणों को "मधुनाड्यः" कहा गया है, और आधुनिक विज्ञान ने सूर्य की सतह की छवि (फोटो) से वही मधु-छत्ता (हनीकॉम्ब) जैसा स्वरूप दिखाया है।

१) उपनिषद का वर्णन :-

हमारे छान्दोग्योपनिषद्/अध्याय - ३, खंड- १, मंत्र - १ -२ में कहा गया है :

"असौ वा आदित्यो देवमधु" सूर्य देवताओं के लिए मधु (अमृत/ज्ञान) है।

"तस्य … मरीचयः पुत्राः" उसकी किरणें उसकी संतान हैं।

"तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः" पूर्वाभिमुख (फैलती हुई) किरणें उसकी मधुनाड़ियाँ (मधु प्रवाह की नलियाँ) हैं।

"ऋच एव मधुकृतः, ऋग्वेद एव पुष्पम्" ऋग्वेद की ऋचाएँ मधु उत्पन्न करने वाली हैं, सूर्य पुष्प है।

यहाँ हमारे सनातनी ग्रंथो में सूर्य को मधुमक्खी-छत्ते जैसा मधु-भाण्डार और किरणों को मधु-नाड़ियाँ (channels of nectar) बताया गया। इसे देवताओं का मधु(रस)बताया गया है।

२) आधुनिक विज्ञान का अवलोकन :-

अमेरिका के हवाई द्वीप में स्थित डेनियल के इनोये सोलर टेलिस्कोप के द्वारा जारी तस्वीरों में सूर्य की मूल सतह सोने की तरह चमकीली और मधुमक्खी के छत्ते की तरह लग रही है,

हाल ही में नासा(NASA) और ESA (यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी) के Solar Orbiter और SDO (Solar Dynamics Observatory) जैसे मिशनों ने सूर्य की सतह (photosphere) के उच्च-रिज़ॉल्यूशन चित्र लिये।

सूर्य की सतह पर Granulation pattern देखा गया।

ये ग्रैन्यूल्स (लगभग १,००० किमी चौड़े) ऐसे दिखते हैं जैसे हनीकॉम्ब (मधुमक्खी का छत्ता)।

हर ग्रैन्यूल सूर्य के भीतर के convection cells हैं, जहाँ गर्म प्लाज़्मा ऊपर उठता और ठंडा होकर नीचे जाता है।

इस पूरे स्वरूप में nectar-like energy flow (ऊर्जा/प्रकाश का प्रवाह) स्पष्ट आस्था३)

३) तुलनात्मक अध्ययन :-

उपनिषद का दृष्टिकोण आधुनिक विज्ञान का अवलोकन साम्य (similarity)

सूर्य = "देवमधु" (देवताओं के लिए अमृत एवं जीवों के लिए कल्याणकारी)

सूर्य = ऊर्जा और जीवन का स्रोत जीवनदायी ऊर्जा का केंद्र

किरणें = "मधुनाड्यः" (रस की नाड़ियाँ)

किरणें = फोटॉन स्ट्रीम (ऊर्जा का प्रवाह) प्रकाश और ऊर्जा की धाराएँ

सूर्य सतह = मधु का पुष्प/भाण्डार सूर्य सतह = Granulation pattern, हनीकॉम्ब जैसा दृश्य रूप से भी छत्तानुमा स्वरूप

"ऋच एव मधुकृतः" = वेद मंत्रों से मधु उत्पन्न आधुनिक विज्ञान = प्रकाश/ऊर्जा तरंगों में सूचना (spectral lines से तत्वों का ज्ञान) दोनों में ज्ञान और जीवन का संचार

४) निष्कर्ष :-

हमारे सनातनी हिन्दू वेद उपनिषदों ने सहस्रों वर्ष पहले सूर्य को मधु (अमृत) का स्रोत और उसकी किरणों को मधु-नाड़ियाँ कहा। आधुनिक विज्ञान ने सूर्य की सतह का चित्र लेकर यह दिखाया कि वह सचमुच मधु-छत्ते (Honeycomb) जैसी संरचना लिए हुए है, जहाँ से ऊर्जा और प्रकाश प्रवाहित होते हैं।

यह समानता केवल रूपक नहीं, अपितु, एक वैज्ञानिक-दार्शनिक अद्भुत संगम है, जो दिखाता है कि वैदिक दृष्टि और आधुनिक विज्ञान का निष्कर्ष एक-दूसरे की पुष्टि करते हैं।

जो कथाकथित आज के कुछ वैज्ञानिक,वामपंथी इतिहासकार नव बौद्ध अंबेडकरवादी आदि अलग अलग तंत्र सनातनी हिन्दू वेद शास्त्रों की वैज्ञानिकता पर आक्षेप करते हैं उन्हें इन अपने बुद्धि विवेक का प्रयोग करके वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित सनातनी हिंदू वेद शास्त्रों पर आस्था रखनी चाहिए।

मदरसों की छापेमारी में नाबालिग लड़कियों की बरामदगी हुई है, हाल ही में कोर्ट ने मदरसों की जांच पर रोक लगाई थी। इसका क्या ...
26/09/2025

मदरसों की छापेमारी में नाबालिग लड़कियों की बरामदगी हुई है, हाल ही में कोर्ट ने मदरसों की जांच पर रोक लगाई थी। इसका क्या कारण है? बहराइच में एक अवैध मदरसे पर प्रशासन ने छापा मारा और अंदर से नाबालिग छात्राएं मिलीं। मदरसा संचालक ने पहले अधिकारियों को रोकने की कोशिश की, लेकिन उपजिलाधिकारी ने सख्ती दिखाई। तलाशी के दौरान कई छात्राएं शौचालय में बंद मिलीं। अधिकारियों का कहना है कि संचालक ने लड़कियों को छिपाने की कोशिश की। घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस टीम पहुंच गई और जांच-पड़ताल शुरू कर दी। अब सवाल यह भी उठता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मदरसों की जांच रोकने के आदेश क्यों दिए थे? कौन किसे बचाना चाह रहा है? न्याय व्यवस्था वाकई न्याय ही कर रही है?

लद्दाख में 🇨🇨 लव-जिहाद नहीं रुका तो बौद्ध समाप्त हो जाएंगेये छोटी सी पाकर कटिंग बहुत बड़ी बात को आपके सामने रख रही है......
26/09/2025

लद्दाख में 🇨🇨 लव-जिहाद नहीं रुका तो बौद्ध समाप्त हो जाएंगे

ये छोटी सी पाकर कटिंग बहुत बड़ी बात को आपके सामने रख रही है... लव जेहाद का घटिया स्वरूप तो पूरा विश्व देख रहा है लेखक। कोई ये नहीं बता रहा कि इसके प्रभाव से बौद्ध बही बुरी तरह प्रभावित हो रहे है...। ये बात इसलिए नहीं बताते क्योंकि इससे जय भीम जय मीम वाला समीकरण बिगड़ जाएगा.. लेकिन सत्य कब गम छुपा रह सकता है..!

इस कटिंग में लद्दाख की चिंता व्यक्त को गई है लेकिन वास्तविकता ये है को पूरे देश से ये जेहादी धीरे धीरे करके हिंदुओं की सभी शाखाओं को खत्म कर देंगे जिसमें दलित बंधु इनका पहला निशाना हैं और इनका शिकार बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया जाता है। दलित बंधु इस समस्या को समझें और अपनी बहन बेटियों को बचाने पर विचार करें

🔸️ क्या आपने भी दीक्षा ले रखी है, जानिए ❓️दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष...
26/09/2025

🔸️ क्या आपने भी दीक्षा ले रखी है, जानिए ❓️

दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और विद्या प्रदान के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी।

🔸 ️दीक्षा क्या है ❓️

हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति उत्तम आचरण वाला बन जाता है। दूसरा व्यक्तित्व। दीक्षा देने की यह परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं। हालांकि दूसरे पंथ में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

🔹️ दीक्षा के प्रकार........

हिन्दू धर्म में अनेक प्रकार से दीक्षा दी जाती है। जैसे, समय दीक्षा, मार्ग दीक्षा, शाम्भवी दीक्षा, चक्र जागरण दीक्षा, विद्या दीक्षा, पूर्णाभिषेक दीक्षा, उपनयन दीक्षा, मंत्र दीक्षा, जिज्ञासु दीक्षा, कर्म संन्यास दीक्षा, पूर्ण संन्यास दीक्षा आदि।

🔸️ क्यों और कब लेना चाहिए दीक्षा❓️

दीक्षा लेने का मतलब यह है कि अब आप दूसरे व्यक्ति बनना चाहते हैं। आपके मन में अब वैराग्य उत्पन्न हो चुका है इसलिए दीक्षा लेना चाहते हैं। अर्थात अब आप धर्म के मोक्ष मार्ग पर चलना चाहते हैं।
अब आप योग साधना करना चाहते हैं। अक्सर लोग वानप्रस्थ काल में दीक्षा लेते हैं। दीक्षा देना और लेना एक बहुत ही पवित्र कार्य है। इसकी गंभीरता को समझना चाहिए।

यदि आपने किसी स्वयंभू बाबा से दीक्षा ले रखी है जबकि आपका संन्यास या धर्म से कोई नाता नहीं है बल्कि आप उनके प्रवचन, भजन, भंडारे और चातुर्मास के लिए इकट्टे हो रहे हैं और उन्हीं का लाभ कर रहे हैं और उनके लाभ में ही आपका लाभ छुपा हुआ है तो आपको समझना चाहिए कि आप किस रास्ते पर हैं।

🔹 ️विद्वान, जानकर संत से ही दीक्षा लें.......

वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है। और जन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा। संत चाहे कितना भी बड़ा हो लेकिन वह भगवान या देवता नहीं हो सकता।
उसकी आरती करना और उस पर फूल चढ़ाना धर्म का अपमान ही है।

स्वयंभू संतों की संख्‍या तो हजारों हैं उनमें से कुछ तो सचमुच ही संत हैं बाकी कुछ की दुकानदारी ही है। यदि हम हिन्दू संत धारा की बात करें तो इस संत धारा को पूज्य शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ और रामानंद ने फिर से पुनर्गठित किया था। जो व्यक्ति उक्त संत धारा के नियमों अनुसार संत बनता है वहीं संत कहलाने के लायक है।

हिंदू संत बनना बहुत कठिन है ‍क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग और विद्या अध्ययन की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है।
इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधू और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालांकि इनमें से कुछ सच्चे संत भी होते हैं।

अखाड़ों में सिमटा हिंदू संत समाज पांच भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियां हैं, लेकिन पांचों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है।

▪️यह पांच सम्प्रदाय है 👉
1. वैष्णव 2. शैव, 3. सूर्य, 4. शाक्त और 5. गाणपत्य।

वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्‍गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्णव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालांकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियां प्रचलन में थी।

सदा अपने परंपरा प्राप्त आचार्य /संत जन से ही दीक्षा लेना चाहिए।

*🛕 ll 51 शक्तिपीठ ll🛕*〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए ...
26/09/2025

*🛕 ll 51 शक्तिपीठ ll🛕*
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हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।
"शक्ति" अर्थात देवी दुर्गा , जिन्हें दाक्षायनी या पार्वती रूप में भी पूजा जाता है।
"भैरव" अर्थात शिव के अवतार, जो देवी के स्वामी हैं।
"अंग या आभूषण" अर्थात, सती के शरीर का कोई अंग या आभूषण, जो श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर गिरा, आज वह स्थान पूज्य है और शक्तिपीठ कहलाता है।
1. किरीट कात्यायनी
पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं।
2 कात्यायनी कात्यायनी
वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं।
3 करवीर शक्तिपीठ
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है।
4 श्री पर्वत शक्तिपीठ
इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं।
5 विशालाक्षी शक्तिपीठ
उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।
6 गोदावरी तट शक्तिपीठ
आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं।
7 शुचीन्द्रम शक्तिपीठ
तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं।
8 पंच सागर शक्तिपीठ
इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं।
9. ज्वालामुखी शक्तिपीठ
हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं।

10. भैरव पर्वत शक्तिपीठ
इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं।
11. अट्टहास शक्तिपीठ
अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं।
12. जनस्थान शक्तिपीठ
महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जन स्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं।
13. कश्मीर शक्तिपीठ
जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं।
14. नन्दीपुर शक्तिपीठ
पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं।
15. श्री शैल शक्तिपीठ
आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं।
16. नलहरी शक्तिपीठ
पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।
17. मिथिला शक्तिपीठ
इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं।
18. रत्नावली शक्तिपीठ
इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं।

19. अम्बाजी शक्तिपीठ,
प्रभास पीठ गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अम्बिका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अeवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है।
20. जालंध्र शक्तिपीठ
पंजाब के जालंध्र में स्थित है माता का जालंध्र शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं।
21. रामागरि शक्तिपीठ
इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्रकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं।
22. वैद्यनाथ का हार्द शक्तिपीठ
झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।
23. वक्रेश्वर शक्तिपीठ
माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं।
24. कण्यकाश्रम कन्याकुमारी
तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं।
25. बहुला शक्तिपीठ
पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।
26. उज्जयिनी शक्तिपीठ
मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं।
27. मणिवेदिका शक्तिपीठ
राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं।
28. प्रयाग शक्तिपीठ
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं।
29. विरजाक्षेत्रा, उत्कल
उत्कल शक्तिपीठ उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं।
30. कांची शक्तिपीठ
तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं।
31. कालमाध्व शक्तिपीठ
इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं।
32. शोण शक्तिपीठ
मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्र गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं।
33. कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ कामगिरि असम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं।
34. जयन्ती शक्तिपीठ
जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया
पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं।
35. मगध् शक्तिपीठ
बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं।
36. त्रिस्तोता शक्तिपीठ
पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं।
37. त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं।
38. विभाष शक्तिपीठ

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं।
39. देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र (शक्तिपीठ)
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं।
40. युगाद्या (क्षीरग्राम शक्तिपीठ)
पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था।
41. विराट का अम्बिका शक्तिपीठ
राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पादांगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं।
42. काली शक्तिपीठ
पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं।
43. मानस शक्तिपीठ
तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं।
44. लंका शक्तिपीठ
श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे।
45. गण्डकी शक्तिपीठ
नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड (कपोल) गिरा था। यहां शक्ति गण्डकी´ तथा भैरव चक्रपाणि´ हैं।
46. गुह्येश्वरी शक्तिपीठ
नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति महामाया´ और भैरव कपाल´ हैं।
47. हिंगलाज शक्तिपीठ
पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था।
48. सुगंध शक्तिपीठ
बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं।
49. करतोयाघाट शक्तिपीठ
बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं।
50. चट्टल शक्तिपीठ
बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं।
51. यशोरेश्वरी शक्तिपीठ
बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं।
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राधे राधे जी..
देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52
बताई गई है। साधारत: 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं।

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‼️🚩 *क्या आप जानते हैं कि माँ भगवती को... "माँ दुर्गा" क्यों कहा जाता है ?* 🚩‼️नवरात्र चल रहा है... जिसे हमलोग दुर्गापूज...
26/09/2025

‼️🚩 *क्या आप जानते हैं कि माँ भगवती को... "माँ दुर्गा" क्यों कहा जाता है ?* 🚩‼️

नवरात्र चल रहा है... जिसे हमलोग दुर्गापूजा के नाम भी जानते हैं...

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि माँ भगवती को... "माँ दुर्गा" क्यों कहा जाता है ???

पौराणिक कथा के अनुसार...
भगवान श्री हरि ने वराह अवतार लेकर राक्षस हिरण्याक्ष का वध किया था और पृथ्वी को अपनी जगह पुनर्स्थापित किया था... जिससे सृष्टि में आया व्यवधान दूर हुआ था।

कालांतर में इसी हिरण्याक्ष के वंश में एक दैत्यराज रुरु हुआ था।

और, दैत्यराज रुरु का पुत्र हुआ ... "दुर्गम"

ये दुर्गम...ब्रह्मांड के तीनों लोगों पर शासन करना चाहता था।

लेकिन, तीनों लोकों पर शासन हेतु देवताओं को हराना उसके लिए बड़ी चुनौती थी..!

इसीलिए, दुर्गमासुर ने विचार किया कि देवताओं की शक्ति "वेद" में निहित है। (उस समय एक ही वेद थे)

तो, अगर किसी तरह वेद नष्ट हो जाये या विलुप्त हो जाये तो देवतागण खुद ही नष्ट हो जाएंगे।

इसके अतिरिक्त वेद के विलुप्त हो जाने से यज्ञ आदि भी नहीं हो पाएंगे जिससे देवताओं को भोग नहीं मिल पायेगा और वे शक्तिहीन हो जाएंगे जिसके बाद उन्हें जीतना आसान हो जाएगा।

इसीलिए, राक्षसगुरु शुक्राचार्य ने उसे सलाह दिया कि... देवताओं को हराने के लिए वेद का लुप्त होना आवश्यक है।

इसके बाद गुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दुर्गमासुर... हिमालय में जाकर कठोर तपस्या करने लगा..

अंततः... दुर्गमासुर के इस कठोर तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन देते हुए वर मांगने को कहा।

मौके का फायदा उठाते दुर्गमासुर ने ब्रह्मा जी से... वेद मांग लिया और साथ ही मांग लिया कि वेदों के समस्त ज्ञान मुझ तक ही सीमित रहे।

वेद के अतिरिक्त दुर्गमासुर ने सर्वशक्तिशाली होने तथा त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) से अ-वध (नहीं मरने) का वरदान भी हासिल कर लिया।

तदुपरांत... ब्रह्मा जी द्वारा तथास्तु कहते ही... सारे देव और मनुष्य वेद को भूल गए।

वेद का स्मरण भूलते ही... ब्रह्मांड में जप, तप, स्नान , ध्यान, यज्ञ , पूजा, सदाचार आदि धार्मिक क्रियाएं थम गई।

जिससे, हर जगह धर्म की जगह अनाचार और पाप का बोलबाला होने लगा..

ब्रह्मा जी के ऐसे वरदान से बेहद ही अजीब स्थिति पैदा हो गई..

क्योंकि , यज्ञ आदि में भाग मिलने से देवता पुष्ट होते थे लेकिन वेद के लुप्त हो जाने के कारण यज्ञ आदि बंद हो गए जिससे देवता निर्बल होने लगें।

तदुपरांत... ब्रह्मा जी के वरदान से ताकतवर हुआ दुर्गमासुर... दैत्यों और राक्षसों की भारी सेना लेकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर दिया।

लेकिन, चूँकि... यज्ञ आदि के नहीं होने के कारण देवतागण दुर्बल हो चुके थे और इस राक्षसी सेना का मुकाबला करने में असमर्थ हो चुके थे।
इसीलिए, वे स्वर्ग से दूसरी जगह पलायन कर गए और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

इधर ... धार्मिक कार्य न होने के कारण पृथ्वी पर... मनुष्य भी धर्मच्युत हो गए और राक्षसों की देखा देखी वे भी... मदिरा सेवन, लूटपाट, चोरी, व्यभिचार आदि में लिप्त हो गए।

अन्याय , अनीति और दुराचार बढ़ने के कारण ब्रह्मांड का प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ा गया।

जल, भोजन आदि के लोग तरसने लगे।

ऐसी विकट स्थिति में पृथ्वी पर जो थोड़े बहुत सज्जन लोग बचे थे... वे हिमालय की कंदराओं में जाकर बहुत ही कारुणिक रूप से माँ भगवती को पुकारना शुरू किया।

उनकी कारुणिक पुकार सुनकर माँ भगवती प्रकट हुई..
उस समय उन्होंने भूख-प्यास और बुढ़ापे को दूर करने वाले शाक-मूल को धारण किया हुआ था।

माता भगवती के प्रकट होते ही ... देवतागण भी बाहर आ गए जो दुर्बल हो जाने के कारण दुर्गमासुर के भय से इधर-उधर छुपे हुए थे।

सबने मिलकर माता भगवती को सारा वृतांत बताया।
माता भगवती ने सारा वृतांत सुनकर उन्हें भरोसा दिलाया और तत्काल में उन्हें खाने के लिए "शाक और फल" दिए।

*इसी घटना के कारण... माँ भगवती का एक नाम "शाकम्भरी" भी है।*

उधर जब दुर्गमासुर ने अपने दूत से ये सारा वृतांत सुना तो वो क्रोधित होकर एक बहुत बड़ी सेना लेकर मनुष्य और देवताओं को दंड देने के लिए निकल पड़ा।

दुर्गमासुर को सेना सहित आता देखकर मानव और देवताओ में भय व्याप्त हो गया और वे माँ भगवती से रक्षा हेतु निवेदन करने लगे।

जिसके बाद देवी भगवती ने चक्र को सारे मानव और देवताओं की रक्षा आदेश दिया... जिससे चक्र देवताओं और मनुष्यो की रक्षा करते हुए उनके चारों ओर घूमने लगा।

तत्पश्चात... देवी भगवती और राक्षसी सेना के बीच भयानक युद्ध छिड़ गया।

और, देवी भगवती के श्रीविग्रह से कालिका, तारा, भैरवी, मातंगी, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, बगला आदि 32 शक्ति प्रकट हुई।

तथा, 10 दिन के घनघोर युद्ध के बाद सारी राक्षसी सेना विनाश को प्राप्त हुई। अपनी सेना के विनाश की खबर सुनकर 11वें दिन दुर्गमासुर खुद युद्ध भूमि में आया...
लेकिन, माँ भगवती के हाथों मारा गया।

इस तरह... माँ भगवती ने दुर्गमासुर का अंत कर वेद को पुनर्स्थापित किया और इसी दुर्दांत दुर्गमासुर के वध के कारण ही माँ भगवती को *"माँ दुर्गा" भी कहा जाता है...!*

आश्विन शुक्ल पक्ष में विशेष महोत्सवों से श्रीदुर्गा जी की पूजा धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष– ये चारों फल देने वाली है।
🙏🙏🙏🕉️🙏🙏🙏🚩

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Lucknow
Kedarnath
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