
22/07/2025
#मुंबई बम धमाके के सभी 12 आरोपी बाइज्जत बरी, तो असली आरोपी कौन, न्याय सिस्टम पर बड़ा सवाल
मुंबई की लोकल ट्रेन में वर्ष 2006 में हुए बम धमाकों के 12 आरोपियों को #बॉम्बेहाईकोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया। एक लंबा, पीड़ादायक और सवालों से भरा यह अध्याय आखिरकार समाप्त हुआ। लेकिन इसके पीछे छुपी एक ऐसी पीड़ा है जिसे सिर्फ वो बारह लोग, उनके परिवार और समाज का सजग नागरिक ही समझ सकता है। यह निर्णय सिर्फ अदालत का आदेश नहीं है, यह #भारतीय #न्याय व्यवस्था के उस कटु यथार्थ का आईना भी है जिसमें बेगुनाही साबित करने में किसी की आधी जिंदगी गुजर जाती है।
2006 में देश सदमे में था। लोकल ट्रेन पर हुए विस्फोटों में 189 #निर्दोष लोगों की जान गई थी। पूरा देश आक्रोशित था, #शासन-प्रशासन पर भारी दबाव था कि जल्द से जल्द आरोपियों को पकड़कर कड़ी सजा दी जाए। इसी आपाधापी में तत्कालीन #एटीएस और जांच एजेंसियों ने जिन 13 लोगों को गिरफ्तार किया, उनमें से एक की हिरासत में मौत हो गई और बाकी 12 ने 18 साल सलाखों के पीछे गुजारे। निचली अदालत ने उन्हें #फांसी की सजा दी, #उम्रकैद सुनाई, लेकिन अंततः बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि इन 12 लोगों के खिलाफ कोई ठोस, विश्वसनीय और निष्पक्ष सबूत पेश नहीं किया जा सका। नतीजा—18 साल बाद “बाइज्जत बरी”।
सवाल यह उठता है कि अगर #आरोपी दोषी नहीं थे तो असली गुनहगार कहां हैं? क्या हमारी जांच एजेंसियां न्याय दिलाने में नाकाम रहीं या सिर्फ दबाव में 'किसी को भी' #अपराधी साबित कर दिया गया? उन परिवारों का क्या जिन्होंने अपने प्रियजनों को विस्फोट में खोया और उन्हें अब यह भी नहीं पता कि उनके साथ न्याय कब होगा? और उस दर्द का क्या मोल जो बरी हुए इन लोगों ने भुगता? जिनकी जिंदगी का सबसे कीमती समय जेल की दीवारों में सड़ गया।
इस मामले ने न्याय व्यवस्था के उन काले पहलुओं को सामने ला दिया है जो आमतौर पर #मीडिया की सुर्खियों से दूर रहते हैं। जांच एजेंसियों की लापरवाही, #टॉर्चर के आरोप, जबरन कुबूलनामे, पुलिसिया हिंसा और राजनीतिक दबाव की कहानियां किसी भी सभ्य लोकतंत्र के माथे पर कलंक की तरह हैं। यह घटना सिर्फ एक मामले की त्रासदी नहीं है, यह पूरे न्यायिक और जांच तंत्र की गहरी विफलता का प्रमाण है।
भारत में "बाइज्जत बरी" का मतलब महज #कोर्ट से छुटकारा नहीं होता, बल्कि सालों के सामाजिक बहिष्कार, परिवार की बर्बादी और टूटे भविष्य की कीमत भी चुकानी पड़ती है। इन लोगों के लिए जिंदगी वहीं रुक गई थी जहां से उन्होंने जेल का दरवाजा देखा था। उनकी #सामाजिक #प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, परिवार की खुशियां सब कुछ रेत की तरह हाथ से फिसल गई।
यह फैसला हमें झकझोरता है कि हमें न्याय व्यवस्था में सुधार की सख्त जरूरत है। फास्ट ट्रैक अदालतें केवल नाम भर की औपचारिकता न बनें। जांच एजेंसियों को राजनीतिक दबाव और मीडिया ट्रायल के चंगुल से मुक्त करना होगा। किसी बेगुनाह को गलत केस में फंसाना अपने आप में अपराध होना चाहिए। इस देश में कानून के नाम पर वर्षों तक न्याय को टालना सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, पूरे समाज की हत्या है।
यह समय आत्ममंथन का है। हम सबको खुद से पूछना होगा—क्या हम एक न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ रहे हैं या सिर्फ कानून के कागजी दिखावे में उलझे हुए हैं? क्या हम असली अपराधियों को सजा दिला पा रहे हैं या निर्दोष लोगों को बलि का बकरा बनाकर ‘मामला बंद’ कर दे रहे हैं?
18 साल बाद न्याय के नाम पर सिर्फ एक कागज थमाया गया—'आप बेगुनाह हैं'। लेकिन खोए हुए वर्षों की भरपाई कौन करेगा? क्या अब कोई माफी या मुआवजा उस जीवन को लौटा सकता है जो बेरहमी से छीन लिया गया?
यह फैसला हमारे लोकतंत्र की अंतरात्मा को झकझोरने के लिए काफी है। अगर अब भी बदलाव नहीं हुआ, तो अगला बारी किसकी होगी, इसका जवाब कोई नहीं जानता।