
11/05/2025
सआदत हसन मंटो के जन्मदिन पर — एक कविता उनके अंदाज़ में
तारीख़ की धूल में दबे हुए लम्हें,
फिर चीख़ पड़े मेरी क़लम के संग।
जिसे सभ्यता ने नज़रंदाज़ किया,
वो हक़ीक़त मेरे अफ़सानों में जंग।
मैंने चरित्र नहीं, आइना लिखा था,
तुमने चेहरे छिपाए, मैंने सच्चाई दिखा दी।
तुमने ‘अश्लील’ कहा, मैं हँसा —
क्योंकि सच, अक्सर नग्न ही आया है।
बँटवारे की सरहद पे लहू बहे थे,
मैंने उसे कहानी बना दी।
मज़हब के नाम पर जो बँटे थे लोग,
मैंने सिर्फ़ इंसानियत देखी थी।
आज फिर वही साया मुझसे पूछता है —
“क्या तुम ज़िंदा होते तो क्या लिखते?”
मैं कहता —
“शायद वही जो आज भी नहीं लिखा जा सकता।”
— मंटो की रूह को सलाम।