14/10/2025
भीमराव अंबेडकर जी के जीवन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत है:
भीमराव रामजी अंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956)
डॉ. भीमराव अंबेडकर एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे: भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और दलित बौद्ध आंदोलन के प्रणेता। उन्हें भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी, "भारतीय गणतंत्र का जनक" और "आधुनिक भारत के निर्माता" के रूप में जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण जीवन सामाजिक न्याय, समानता और मानव गरिमा के संघर्ष की एक अनूठी गाथा है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा (1891-1913)
· जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि: भीमराव का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू नामक सैन्य छावनी में हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। वे एक महार (दलित) जाति में पैदा हुए थे, जिसे उस समय "अछूत" माना जाता था।
· बचपन में भेदभाव का सामना: उनके बचपन पर जातिगत भेदभाव और छुआछूत का गहरा प्रभाव रहा। स्कूल में उन्हें कक्षा के बाहर बैठकर पढ़ना पड़ता था, शिक्षक उनकी ओर ध्यान नहीं देते थे, और पानी पीने के लिए भी उन्हें चपरासी से मदद लेनी पड़ती थी, क्योंकि उन्हें सवर्णों के हाथ का पानी छूने की अनुमति नहीं थी। उनके नाम के आगे "अंबेडकर" उपनाम एक ब्राह्मण शिक्षक, कृष्णाजी केशव अंबेडकर ने लगाया, जिन्होंने उन्हें स्नेह दिया।
· प्रारंभिक शिक्षा: इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद, उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। 1907 में, उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, जो एक दुर्लभ उपलब्धति थी। इसके बाद, बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय, जो पिछड़े वर्गों की शिक्षा को प्रोत्साहित करते थे, ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की।
उच्च शिक्षा और विदेश में अध्ययन (1913-1923)
· पहला विदेश प्रवास (1913-1917): महाराजा की छात्रवृत्ति पर, अंबेडकर 1913 में न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय पहुंचे। यहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में MA (1915) और PhD (1917) की उपाधियाँ प्राप्त कीं। कोलंबिया में, प्रोफेसर जॉन डेवी जैसे विद्वानों से उनके विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
· लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स: इसके बाद वे अर्थशास्त्र का अध्ययन करने लंदन चले गए, लेकिन छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त होने के कारण उन्हें बीच में ही भारत लौटना पड़ा। भारत लौटकर उन्होंने कुछ समय तक बड़ौदा राज्य में सेवा की, लेकिन जातिगत उत्पीड़न के कारण उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी।
· दूसरा विदेश प्रवास (1920-1923): अपनी बचत और एक और छात्रवृत्ति के सहारे, वे 1920 में फिर लंदन गए। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से MSc (1921) और DSc (1923) की डिग्रियाँ हासिल कीं। साथ ही, उन्होंने बार-एट-लॉ की पढ़ाई की और जर्मनी व ऑस्ट्रिया में भी अध्ययन किया। इस प्रकार, वे अपने समय के सर्वाधिक शिक्षित भारतीयों में से एक बन गए।
सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का प्रारंभ (1924-1947)
· पत्रकारिता और जनजागरण: 1920 के दशक में, उन्होंने "मूकनायक", "बहिष्कृत भारत" और "समता" जैसे पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनके माध्यम से उन्होंने दलितों के अधिकारों और सामाजिक समानता का मुद्दा उठाया।
· महाड़ सत्याग्रह (1927): यह एक ऐतिहासिक घटना थी। अंबेडकर ने महाराष्ट्र के महाड़ शहर में "चवदार तालाब" को सार्वजनिक रूप से दलितों के लिए खोलने के लिए एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया, जहाँ दलितों को पानी लेने से रोका जाता था। इसी आंदोलन के दौरान, उन्होंने "मनुस्मृति" (वह हिंदू ग्रंथ जो जाति व्यवस्था को वैधता प्रदान करता है) की सार्वजनिक रूप से होली जलाई, जो एक प्रतीकात्मक विद्रोह था।
· पूना पैक्ट (1932): ब्रिटिश सरकार ने अलग दलित मतदाताओं की मांग को मानते हुए "कम्युनल अवार्ड" की घोषणा की। गांधी जी ने इसके विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया, क्योंकि वे इसे हिंदू समाज के विभाजन के रूप में देखते थे। इसके बाद, अंबेडकर और गांधीजी के बीच हुई एक समझौते के तहत पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए। इसके तहत दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल तो समाप्त कर दिया गया, लेकिन विधानसभाओं में उनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा दी गई।
· राजनीतिक दलों की स्थापना: उन्होंने दलितों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए "इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी" (1936) और "शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन" (1942) जैसे राजनीतिक दलों की स्थापना की।
· मुक्त अर्थव्यवस्था के वास्तुकार: 1947 में, उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के रूप में शामिल किया गया। 15 अगस्त 1947 को, उन्हें संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
संविधान निर्माण और उनका योगदान (1947-1950)
· संविधान के प्रमुख शिल्पी: डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान के निर्माण में एक निर्णायक भूमिका निभाई। उनकी विद्वता, संवैधानिक ज्ञान और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता ने संविधान को उसका वर्तमान स्वरूप दिया।
· मूलभूत सिद्धांतों पर जोर: उन्होंने संविधान में न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक), स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूलभूत सिद्धांतों को शामिल करवाया।
· मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व: उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी दी जाए और राज्य को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया जाए।
· अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण: उन्होंने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था को शामिल करवाया।
· महिला अधिकार: उन्होंने हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं को संपत्ति का अधिकार, तलाक का अधिकार और अन्य कानूनी अधिकार दिलाने का प्रयास किया (हालाँकि राजनीतिक विरोध के कारण यह बिल पूर्ण रूप से पारित नहीं हो सका)।
· केंद्रीय और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन: उन्होंने एक मजबूत केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्यों के अधिकारों के बीच एक संतुलन स्थापित किया।
बौद्ध धर्म अपनाना और अंतिम वर्ष (1950-1956)
· हिंदू धर्म छोड़ने का निर्णय: संविधान तैयार होने के बाद, उनका मानना था कि सामाजिक समानता केवल कानून से नहीं, बल्कि धार्मिक और सामाजिक मुक्ति से ही आ सकती है। हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था से वे गहराई से निराश थे।
· धर्मांतरण: 14 अक्टूबर 1956 को, उन्होंने नागपुर में अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। उन्होंने बुद्ध के "अप्प दीपो भव" (अपना दीपक स्वयं बनो) के सिद्धांत को अपनाया।
· निधन: 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। 1990 में, उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से सम्मानित किया गया।
विरासत और महत्व
डॉ. भीमराव अंबेडकर न केवल दलितों के, बल्कि सभी वंचित और शोषित लोगों के मसीहा बन गए। उनका जीवन और कार्य आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जो सामाजिक और आर्थिक रूप से समतामूलक हो, और उसी दिशा में उन्होंने भारतीय संविधान को अपनी सबसे बड़ी विरासत के रूप में छोड़ा। उन्हें "बाबासाहेब" के नाम से पुकारा जाता है, जो उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है।
्रीराम