22/02/2025
मध्यनप्रदेश के मूल निवासी राजभरों की गोत्र प्रथा *
(लेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘’राजगुरु’’) (यह लेख राजभर मार्तण्डय मासिक के अगस्त्, सितम्ब र, अक्टूाबर 2005 अंक में तथा राजभर शोध लेख संग्रह में छप चुका है । प्राय; यह देखा जा रहा है कि कठिन परिश्रम के साथ खोजबीन कर लेख तैयार किए जाते हैं ,इस उम्र में भी कम्पो,जिंग करने के बाद इन्ट5रनेट में डाले जाते हैं किन्तुे राजभर समाज के बन्धुकओं को ऐतिहासिक लेखों में जो रुचि लेना चाहिए वह नहीं लेते ,जातीय स्वासभिमान रहित होने का यह भी एक लक्षण है । ध्याहन रखें जो कौम अपना जातीय इतिहास नहीं जानती ,उसे सुरक्षित नहीं रख सकती ,वह नया इतिहास बनाने में सक्षम नहीं हो सकती । )
मध्यनप्रदेश के मूल निवासी राजभरों के अलावा राजभर समाज के लोग कहते हैं कि उनका गोत्र भारद्वाज है । देखा-देखी मध्य्प्रदेश के मूल निवासी भी इसका अनुसरण करने लगे हैं, जबकि गोत्र विभिन्नकता उनके यहां पहले से ही विद्यमान है । सीधी-सादी बात है यदि सम्पूेर्ण समाज का गोत्र भारद्वाज है, चाहे वह ऋषि भारद्वाज के नाम पर प्रचलित हो श अवध नरेश महाराज भारद्वाज के नाम से प्रचलित हो तो सभी का सगोत्र विवाह क्योंख ।
शास्त्रों की बात छोड भी दी जाये तो भी वैज्ञानिक दृष्टि से सगोत्र विवाह जायज नहीं है ,चाहे वह किसी भी पीढी में हो । यथार्थ तो यह है कि उच्च होने की लालसा ने हमें भारद्वाज होने का ढिढोंरा तो पिटवा दिया किन्तु कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि राजभरों में सगोत्री विवाह के कारण इस गोत्र का रत्तीे भर महत्व नहीं है । चर्चा करने पर प्राय; लोग कहते हैं कि हम एक दूसरे से दो-चार पीढी की जानकारी ले लेने के बाद ही विवाह करते हैं । यह तर्क आप दूसरों को तसल्ली् देन या अपनी झेंप मिटाने के लिए देते हैं । यह तर्क एकदम बकवास है । आप अपने समय के सम्बंीध में जानकारी नहीं रख पाते फिर दो-चार पीढियों की जानकारी रखने का ढोंग करते हैं । वह इसलिए कि इस तर्क के सामने रखने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं है । मान लिया आपका गोत्र भारद्वाज है तो भी आपका पारिवारिक सम्बोेधन अथवा उपगोत्र कुछ न कुछ तो होना चाहिए ,जिसका पीढी दर पीढी आप उपयोग करते आ रहे हों । वह भी आपके पास नहीं है । इस सबके न होने पर कम से कम तीसरी पीढी में एक ही परिवार के लोगों में विवाह सम्बंीध हो जाने से बच पाना मुश्किल है । (मेरे सामने ऐसे कई उदाहरण आये है कि गोत्र विभिन्नहता न होने से एक ही परिवार के भाई बहनों में विवाह सम्बं ध हो गये ।)
यथार्थ तो यह है कि इस दिशा में राजभर समाज ने सोचने समझने का कभी प्रयास ही नहीं किया,जिसका परिणाम राजभर समाज इस रूप में भोग रहा है कि जीन्सय चेन्ज न होने के कारण इस जाति की प्रवृत्ति एवं प्रकृति जातीय स्वामभिमान से रहित सी हो गई है और अपने ही समाज को विघटित करने में अधिक रुचि लेती है ।
आपको यह जानकर आश्चजर्य होगा कि भारशिवनाग अथवा भर-राजभर जाति से टूटकर बनी तामियां जिला छिंदवाडा मध्यगप्रदेश की पातालकोट की भारिया जनजाति में 51 गोत्र पाए जाते हैं ,और ये भारिया आदिवासी सम-गोत्री विवाह नहीं करते । प्राय; हर जाति में गोत्रों का चलन है । राजभर समाज का समाजशास्त्रीशय अध्यतयन किए जाने की नितान्तृ आवश्यिकता है । मध्यमप्रदेश में मूल निवासी राजभरों में-मुख्यर रूप से जबलपुर, कटनी जिलों के हवेली पचेल, कनौजा क्षेत्र के मूल निवासी राजभरों में पारिवारिक नाम (बैंक) हैं जिनका कि गोत्र के समान उपयोग होता है । यहां भारद्वाज, कश्ययप, चान्द्रा यण, कृष्णाकत्रेय आदि गोत्र तो हैं किन्तुि इनकी आवश्य्कता नहीं है ,क्योंधकि विवाह सम्बंगध में रक्त शुद्धता बनाए रखने के उद़देश्य से पारिवारिक सम्बोधनों का उपयोग ही पर्याप्त् है । ये सम्बोंधन पीढी दर पीढी चले आ रहे हैं । हवेली, पचेल एवं कनौजा के राजभरों में चौहान-छैलमुकरा-शैलमुक्ताद, कलार, बढेला-बघेला), खरवरिया, चन्देकल, नेकवार-रैकवार, बिलियागढ, पुण्डां-पाण्डोे, जंगरिया, दुर्जेला, सिठिया, कुलभनियां-कुशभवनियां, महतेला-महत, पलहा-पलिवार, राजपटेल, मुण्ड्वरिया, सरवरिया-सरवैया, रहतिया, सुरहतिया, गुलेटा, खिलैंयां, गरवाल, बम्हनियां आदि भेद पाए जाते हैं । इन्हें यहों बेंक यानी शाखा कहा जाता है। खरवरिया-खरवार-खैरवार राजभर इसी बेंक के राजभर में शादी नहीं कर सकता । पलहा राजभर पलहा राजभर में शादी नहीं कर सकता । कहने का तात्प र्य यह है कि एक ही सम्बो धन बेंक वाले राजभर आपस में विवाह सम्बं ध नहीं कर सकते । आपको दो-चार पीढी की दास्ता न याद रखने की आवश्योकता नहीं है । केवल आपको आपका बेंक मालुम होना चाहिए । यह बेंक स्वािभाविक रूप से परिवार के लोगों को याद रहते हैं । आप यहां किसी राजभर के बच्चेय से पूछेंगे कि उसका बेंक क्या है अथवा वह कौन सा राजभर है तो वह बता देगा कि उसका बेंक क्या है अथवा वह कौन सा राजभर है । उक्तच बेंक कुछ अपभ्रन्शस रूप में हैं । खरवरिया वास्तुव में महाराजा मदन 1158-1190 ईस्वी मिर्जापुर से सम्बं धित हैं । महाराजा मदन राजभरों की उपजाति खरवारया-खैरवार से सम्बंयधित थे चन्दे ल जैजाकभुक्ति के चन्दे1लों से । इसी प्रकार अन्यु बेंको या गोत्रों का सम्बंरध किसी न किसी से जुडा है । राजभर समाज का प्रबुद्धवर्ग चाहता है कि भर या राजभर जाति की उपजातियां जो कि वर्तमान में स्वोतंत्र जातियों के रूप में हैं वे एक हो जायें और आपसी सम्बंसध बनाना प्रारम्भु कर दें । जिनका इतिहास एक है और जो भरत, भर, भारशिव या राजभर के मूल इतिहास के खण्डक हैं ,उन्हेंस एक होना ही चाहिए । यह जो हम अभी सोच रहे हैं , मध्य प्रदेश के हवेली, पचेल कनौजा क्षेत्र में सदियों पहले कार्यान्वित किया जा चुका है । खैरवार, चन्दे ल, पाण्डो , महत, पालिहा ,पटेलिया, खैरवार-खरिया, मण्डिया, पाण्डोय आदि मध्यवप्रदेश में जनजाति की सुची में हैं ,और राज्जएहर अनुसूचित जाति की सुची में । मुझे लगता है कि सदियों पहले राजभरों से बिछुडे स्व,जनों ने कोई महाधिवेशन कर राजभर जाति का महासंघ बनाया होगा । आज हम काफी प्रगतिशील हैं । अभी भी खैरवार ,रजवार ,चन्दे ल, रज्झशर जो हमारे अपने हैं इन्हेंह अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित करना चाहिए । हमें केवल इसी उद़देश्यज के लिए एक महाधिवेशन करने की नितान्तज आवश्येकता है है । गोत्रों पर भी विचार आवश्यहक है । (यहां मैं यह भी बता दूं कि मध्यकप्रदेश में राजभर समाज का रघुवंशियों से भी वैवाहिक सम्बंतध होता है , श्री हजारीलाल जी रघुवंशी जो कि मध्य प्रदेश विधान सभा के अध्याक्ष रहे हैं एवं होशंगाबाद जिले से हैं के रघुवंशी समाज में राजभर समाज कई वर्षों से वैवाहिक सम्बंहध बना चुका है जो कि अभी भी जारी है । ) मध्य्प्रदेश में राजभरों के प्रचलित पारिवारिक पहचान या गोत्रसें के विषय में मैंने 51 वर्ष पूर्व पूज्य श्री राजेन्द्र प्रसाद जी राजभर वाराणसी से पत्राचार किया था । वे इसका समाधान नहीं कर पाये थे । हां इतना अवश्यव लिखा था कि बढेला शायद विन्येमै ला का रूप हो । इसी प्रकार कुछ अन्या उपनामों (बेंकों) के बारे में बताया था । मेरे नये शोध के अनुसार- मैंने जब भारशिव नागों के विषय में मध्यपप्रदेश और महाराष्ट्रज के विदर्भ में प्राप्तब वाकाटक नरेशों के द्वारा उत्कीइर्ण ताम्रपत्रों का अध्य यन किया तो मालुम हुआ कि कि मध्यमप्रदेश के मूल निवासी राजभरों के बहुत से बेंक या गोत्र उन गांवों के नाम पर भी प्रारम्भर हुए जिन गांवों का उल्ले ख उन ताम्रपत्रों में है जैसे महत्तधर गांव से महत या महतेला ,शैलपुर ग्राम से शैलमुक्ताय या छैलमुकरा , बम्हनी से बम्ह्निया आदि । यह और भी शोध का विषय है ।
गोत्रों का उद़भव कई प्रकार से होता है । गोत्र किसी ऋषि के नाम पर होता है । प्रवर ऋषियों के नाम पर भी गोत्र चलता है । मुख्यम रूप से गोत्रों के निम्नांरकित प्रकार होते हैं - मूल वंश का गोत्र, वीर्यजन्य गोत्र, उपाधिजन्य गोत्र, स्थायनजन्यं गोत्र, शिष्ये परम्प्रागत गोत्र आदि । गोत्रों के विषय में विस्तुडत चर्चा हेतु मैंने राजभर मार्तण्डो मासिक पत्रिका के माध्योम से भी प्रयास किया । लोगों ने अपने विचार भी रखे किन्तु कोई खास परिणाम सामने नहीं आए । गोत्रों के विषय में विस्तृणत चर्चा हेतु आपके सुझाव आमंत्रित हैं ।
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