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15/09/2025

यह कहानी है एक बेटी की, जो अपने सपनों और इच्छाओं के लिए घर छोड़ देती है, और एक बाप की, जो हालात और मजबूरियों में उलझा हुआ है। बेटी की जिद और बाप का दर्द, दोनों का टकराव इस दास्तान को और भी मार्मिक बना देता है। यह सिर्फ घर से भागने की कहानी नहीं, बल्कि उस रिश्ते की गहराई को छूने वाली दास्तान है जहाँ सपने और जिम्मेदारियाँ आमने-सामने खड़े हो जाते हैं।

"अगर जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल अचानक सामने आ खड़े हों तो क्या आप उन्हें खोना चाहेंगे?" ये सवाल आपको भीतर तक हिला देता है...
14/09/2025

"अगर जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल अचानक सामने आ खड़े हों तो क्या आप उन्हें खोना चाहेंगे?" ये सवाल आपको भीतर तक हिला देता है। और शायद इसी सवाल का जवाब ढूंढने निकला था आरव।

आरव की उम्र 29 साल थी। दिल्ली में उसकी एक सरकारी नौकरी लगी थी। वहीं, उसी दफ्तर में काम करती थी सिया।

सिया 27 साल की थी, तेजतर्रार, आत्मविश्वासी और बेहद आकर्षक व्यक्तित्व वाली। दफ्तर में उसकी मौजूदगी सबका ध्यान खींच लेती थी। आरव और सिया को एक ही बैच में जॉब मिली थी।

शुरुआत में बस औपचारिक बातें होती थीं, लेकिन धीरे-धीरे आंखों की खामोशियां भी शब्दों से ज्यादा कुछ कहने लगीं। दो साल तक दोनों के बीच दोस्ती और हल्की-फुल्की नोकझोंक चलती रही। आरव के दिल में कब सिया की तस्वीर घर कर गई, यह उसे खुद भी पता नहीं चला।

उसे महसूस होता था कि सिया के दिल में भी कुछ न कुछ जगह जरूर है, लेकिन दोनों में से किसी ने कभी खुलकर इस बारे में बात नहीं की। दफ्तर के शोरगुल और औपचारिक रिश्तों के बीच यह रिश्ता चुपचाप सांस लेता रहा। इसी बीच त्योहारों की वजह से दफ्तर की लंबी छुट्टियां लगीं।

आरव अपने छोटे से कस्बे झाँसी लौट आया और सिया भी अपने गांव ललितपुर। आरव जैसे ही घर पहुंचा, उसके माता-पिता ने शादी की बात छेड़ दी। रिश्ते देखे जाने लगे, तस्वीरें दिखाई जाने लगीं।

हर दिन घर में यही चर्चा होती कि आरव की सगाई जल्दी से जल्दी हो जाए। आरव के मन में बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

उसने ठान लिया कि वह यह फैसला खुद नहीं करेगा, जब तक सिया से एक बार दिल की बात न कर ले। वह जानता था कि अगर अब भी चुप रहा तो सारी जिंदगी चुप रहना पड़ेगा। और फिर उसने एक दिन अचानक बिना बताए सिया के गांव पहुंचने का फैसला कर लिया।

जब वह पहुंचा तो दोपहर का समय था। गांव की कच्ची गलियों से होकर वह उसके घर तक आया।

घर बिल्कुल साधारण था, मिट्टी की दीवारें, आंगन में लगी तुलसी और पीछे भैंसों का बाड़ा। आरव ने जैसे ही आंगन में कदम रखा, सामने का दृश्य देखकर ठिठक गया। सिया पुराने से सलवार सूट में थी।

बाल खुले और बिखरे हुए। चेहरे पर कोई मेकअप नहीं। पैरों में चप्पल तक नहीं।

वह भैंसों को चारा डाल रही थी और कपड़े गीले और मैले हो चुके थे। उसके हाथों में मिट्टी और घास चिपकी हुई थी।

वह आरव को अचानक सामने देखकर बौखला गई। उसकी आंखों में झुंझलाहट साफ दिखी।

"किसी के घर बिना बताए ऐसे आते हैं?" उसने तिरछी निगाह डालते हुए कहा। आरव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "फोन उठाना चाहिए था न, सिया। दो घंटे पहले मैंने कॉल किया था।

जरूरी काम था, इसलिए सोचा खुद ही चला आऊं।" सिया कुछ देर चुप रही और फिर मुंह फेरकर भैंसों को पानी डालने लगी। आरव वहीं खड़ा उसे देखता रहा।

दफ्तर में जिस लड़की को वह हमेशा सलीकेदार कपड़ों में, हल्के मेकअप के साथ, आत्मविश्वास से भरी हुई देखता था, आज वही लड़की उसके सामने बिल्कुल साधारण रूप में थी। लेकिन अजीब बात यह थी कि उसे आज की सिया और भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी। उसने हिम्मत जुटाई और कहा, "घर वाले मेरी सगाई करना चाहते हैं।" यह सुनते ही सिया ने झटके से उसकी ओर देखा।

उसकी बड़ी-बड़ी आंखें सीधे आरव के दिल में उतर गईं।

आरव ने नजरें चुराते हुए कहा, "मुझे तुमसे एक जवाब चाहिए।" सिया ने थोड़ी देर तक उसकी आंखों में देखा, फिर धीमे स्वर में पूछा, "क्या?" आरव का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। दो साल से यही वक्त तलाश रहा था और अब जब सामने था तो शब्द गले में अटक रहे थे। उसने जल्दी-जल्दी बोल दिया, "क्या तुम मुझसे शादी करोगी?" सिया एकदम सीधी खड़ी हो गई।

उसकी आंखों में नमी थी। होंठ कांप रहे थे।

फिर उसने कहा, "अभी?

ऐसी हालत में?

मुझे देख रहे हो?

मैं कैसी लग रही हूं।" आरव ने गहरी सांस ली और कहा, "तुम आज मुझे सबसे ज्यादा सुंदर लग रही हो। मुझे यही सादगी चाहिए, यही सच्चाई।

मैं इस सादगी के साथ पूरी जिंदगी बिताना चाहता हूं।" सिया का चेहरा लाल हो गया। उसने नजरें झुका लीं।

होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी।

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने धीमे से कहा, "अपने घर वालों को लेकर आओ। मम्मी-पापा से बात करो।" और यह कहकर वह झट से घर के अंदर चली गई। आरव वहीं खड़ा रह गया, लेकिन उसके दिल में एक अजीब सी शांति थी।

आज उसे उसका जवाब मिल गया था।

आज उस दिन को दस साल बीत चुके हैं।

आरव और सिया अब पति-पत्नी हैं।

जिंदगी ने दोनों को बहुत उतार-चढ़ाव दिखाए, लेकिन उनका रिश्ता पहले से भी ज्यादा मजबूत हुआ। हर सुबह जब आरव सिया को देखता है, उसके बिखरे बाल और बिना मेकअप वाला चेहरा अब भी उसे उसी दोपहर की याद दिलाता है, जब उसने पहली बार अपने दिल की बात कही थी। सिया अब भी उतनी ही बोल्ड, आत्मविश्वासी और प्यारी है।

लेकिन उसके भीतर की मासूमियत वही है।

आरव अकसर हंसते हुए कहता है, "ये मेरी जिंदगी की सबसे प्यारी 'भूतनी' है, जिसने मेरी दुनिया को जन्नत बना दिया।" सिया उसकी ओर आंखों से देखती है और वह सब कह देती है जो शब्द कभी नहीं कह पाते।

गाँव के एक शांत किनारे पर, पुराने बरगद के पेड़ के नीचे एक टूटी-फूटी झोपड़ी खड़ी थी। उसी झोपड़ी में रहीं ममता।लोग अक्सर क...
10/09/2025

गाँव के एक शांत किनारे पर, पुराने बरगद के पेड़ के नीचे एक टूटी-फूटी झोपड़ी खड़ी थी। उसी झोपड़ी में रहीं ममता।

लोग अक्सर कहते ये औरत पढ़ी-लिखी नहीं, नाम तक लिखना नहीं जानती। लेकिन ममता के दिल में ज्ञान की सबसे बड़ी किताब लिखी हुई थी अपने बेटे के लिए माँ का प्यार। ममता का पति कई साल पहले बीमारी के कारण चल बसा।

उस समय उनका बेटा, अंशु, बस छह साल का था।

घर में न कोई आय का साधन, न कोई मदद करने वाला रिश्तेदार। लोग कहते अनपढ़ औरत क्या कर पाएगी?

बेटा बड़ा होगा तो देख लेंगे।

पर ममता ने ठान लिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, अंशु को पढ़ा-लिखा इंसान बनाएंगी। सुबह से शाम तक ममता खेतों में मेहनत करती।

कभी धान रोपती, कभी गेहूँ काटती, कभी दूसरों के घर झाड़ू-पोंछा। उसके हाथ फट जाते, पैरों में छाले पड़ जाते, मगर दिल में सिर्फ़ एक सपना था अंशु को स्कूल भेजना। अंशु छोटा था, खेलना उसे बहुत पसंद था।

कई बार वह ममता से पूछता माँ, मैं स्कूल क्यों जाऊँ?

तुम तो पढ़ी-लिखी नहीं, फिर मैं क्यों पढ़ूँ?

ममता की आँखों में आँसू भर आते, लेकिन वह धीरे से कहती बेटा, मैं नहीं पढ़ पाई इसलिए आज दूसरों के घर काम करना पड़ता है। अगर तू भी पढ़ा-लिखा इंसान नहीं बनेगा, तेरी जिंदगी भी मेरी तरह कठिन होगी। मैं चाहती हूँ तू अफ़सर बने और लोग तुझसे सलाम करें।

धीरे-धीरे अंशु समझदार होने लगा।

ममता सुबह काम पर जाती, तो उसके लिए टिफिन बनाती और कहती बेटा, भूखा मत रहना। चाहे मैं भूखी रह जाऊँ, पर तुझे खाना ज़रूर मिलेगा।

कई बार वह खुद रात को सूखी रोटी और पानी से काम चला लेती, लेकिन अंशु के लिए दूध, फल और पोषण का इंतज़ाम कर देती। गाँव के लोग ताने कसते ये औरत पागल है, अनपढ़ होकर भी बेटे को अफ़सर बनाने का सपना देखती है। पर ममता हर ताने को चुपचाप सह लेती, क्योंकि उसे विश्वास था कि एक दिन उसका बेटा ही उसकी इज़्ज़त और मेहनत का फल देगा।

समय बीतता गया।

अंशु ने गाँव के स्कूल से दसवीं पास की।

जब वह सर्टिफिकेट लेकर ममता के पास आया, तो ममता ने आँसू पोंछते हुए कहा मुझे पढ़ना नहीं आता बेटा, पर तेरी ये काग़ज़ की पर्ची मेरे लिए भगवान का आशीर्वाद है। बारहवीं के बाद अंशु शहर जाकर कॉलेज में दाख़िला लेना चाहता था। फीस बहुत ज़्यादा थी।

ममता ने अपने कानों के झुमके और गले की छोटी सी चेन, जो शादी की यादें लिए थीं, बेच दी। पड़ोसी हँसते थे इसने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दी, बेटा पढ़-लिखकर कौन सा बड़ा आदमी बनेगा? पर ममता के दिल में अटूट विश्वास था।

अंशु शहर गया।

हॉस्टल में रहता, पढ़ाई करता और कभी-कभी चिट्ठियाँ लिखता। ममता उन्हें अपने पास रखती, आँखों से लगाती, लेकिन पढ़ नहीं पाती। कई बार पड़ोस के बच्चों से पढ़वाती अंशु ने लिखा है कि वो आपकी बहुत याद करता।

ममता का चेहरा खिल उठता, और वह सोचती काश मैं भी पढ़ पाती, तो बेटे के अक्षर खुद पढ़ पाती। सालों की मेहनत और त्याग रंग लाए।

अंशु ने कठिन परिश्रम से सिविल सेवा की परीक्षा पास की। गाँव में खबर फैलते ही, वही लोग जो कभी मज़ाक उड़ाते थे, अब उसकी तारीफ़ करने लगे। सब कहते वाकई इस औरत की मेहनत रंग लाई।

अंशु की नियुक्ति शहर में हुई।

पहले ही दिन जब वह गाँव आया, बड़ी गाड़ी से उतरा, वर्दी में, सीना तानकर खड़ा। पूरा गाँव देखने आया।

ममता दूर से देख रही थी, आँखों में आँसू और दिल गर्व से भरा। अंशु ने माँ के पैर छुए और कहा माँ, आज मैं जो भी हूँ, तेरी वजह से हूँ। तूने मुझे पढ़ाया, अपना सब कुछ त्याग दिया।

ममता ने सिर पर हाथ रखकर कहा बेटा, बस तू खुश रह, यही मेरी कमाई है। कुछ दिन बाद अंशु को एक समारोह में सम्मानित किया जाना था। मंच पर मंत्री, अफ़सर, पत्रकार सब मौजूद थे।

जब उनसे पूछा गया आपकी सफलता का श्रेय किसे जाता है?

अंशु ने कहा मेरी माँ को।

और ममता को मंच पर बुलाया।

ममता झिझकते हुए आई।

उसके पैरों में पुराने चप्पलें थीं, साड़ी थोड़ी फटी हुई थी, लेकिन जब अंशु ने माइक पकड़ा और कहा ये मेरी माँ हैं, जो खुद पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर मुझे पढ़ाने के लिए अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी। आज मैं अफ़सर बना हूँ, सिर्फ़ इनके कारण, तो पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। ममता की आँखों से आँसू बह रहे थे।

उसने कहा मुझे पढ़ना नहीं आता, मेरा नाम तक मैं नहीं लिख सकती। पर मैंने सिर्फ़ एक सपना देखा था अंशु पढ़-लिखकर लोगों की सेवा करे। आज वो सपना पूरा हुआ।

उस रात जब माँ-बेटा घर लौटे, अंशु ने कहा माँ, अब तू भी पढ़ना सीखेंगी। अब मैं तुझे अक्षर सिखाऊँगा।

तू अपना नाम खुद लिख पाएगी।

ममता हँसते-रोते बोली अब बुढ़ापे में पढ़ाई कहाँ से होगी? अंशु ने कहा जब तक सांस है, सीखने की उम्र होती है।

हर रात अंशु माँ को अक्षर सिखाता।

पहले ‘अ’ लिखना, फिर ‘आ’।

ममता के हाथ काँपते, लेकिन दिल खुश होता।

कई हफ्तों की मेहनत के बाद, एक दिन उसने पहली बार अपने हाथ से अपना नाम लिखा ममता। उसने नाम को सीने से लगाया और कहा अब मुझे लगता है जैसे मैं भी ज़िंदगी में कुछ बन गई हूँ। अंशु ने माँ को गले लगाकर कहा माँ, तू मेरे लिए दुनिया की सबसे बड़ी पढ़ी-लिखी औरत है।

झोपड़ी में रोशनी फैल गई, बरगद का पेड़ गर्व से झूम रहा था, और आसमान के तारे भी कह रहे थे माँ की मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।

“माँ का त्याग और प्यार कभी खाली नहीं जाता। हर छोटा कदम, हर त्याग, जीवन में चमत्कार लाता है।”

दिल्ली के एक ठंडे सर्दियों के दिन की बात है। कड़कड़ाती हवाएँ अदालत की सीढ़ियों पर खड़े लोगों को बार-बार अपने ओवरकोट कसकर...
09/09/2025

दिल्ली के एक ठंडे सर्दियों के दिन की बात है। कड़कड़ाती हवाएँ अदालत की सीढ़ियों पर खड़े लोगों को बार-बार अपने ओवरकोट कसकर पकड़ने पर मजबूर कर रही थीं। सुबह से चला मुकदमा आखिरकार खत्म हुआ था। अर्जुन और रिया की दस साल पुरानी शादी आज कानूनी तौर पर टूट चुकी थी।

अर्जुन ने धीरे-धीरे कागज़ों को समेटा, वकील से औपचारिक बातें कीं और भारी कदमों से कोर्ट के बाहर निकल आया। बाहर खड़ा एक पुराना ऑटो उसे नज़र आया। वह धीरे से उसमें बैठ गया, मानो ज़िंदगी की सारी थकान उसी पल उसके चेहरे पर उतर आई हो।

कुछ ही पल बीते थे कि पीछे से किसी ने आवाज़ दी, “भैया, बस अड्डे तक चलोगे?”
अर्जुन ने मुड़कर देखा तो वही थी… रिया। वह भी उसी ऑटो में आकर बैठ गई। अर्जुन की आंखें एक पल को ठिठकीं। दस साल का साथ उसकी आंखों के सामने घूम गया।

रिया ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “आज आखिरी सफर है हमारे बीच। सोचा बस अड्डे तक साथ बैठ लूं।”

अर्जुन ने गहरी सांस ली, और धीमी आवाज़ में बोला, “एलिमनी की रकम दो से तीन महीने में दे दूंगा। घर बेच दूंगा, वैसे भी तेरे लिए ही बनाया था। अब जब तू ज़िंदगी में नहीं है तो घर का क्या करूँगा।”

रिया ने झटके से कहा, “घर मत बेचना अर्जुन। मुझे पैसे नहीं चाहिए। अब प्राइवेट जॉब करने लगी हूँ। मेरा और आरव का गुजारा हो जाता है।” उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास था, लेकिन आँखों में नमी भी छिपी थी।

ऑटो अचानक जोर से ब्रेक मारता है। रिया का चेहरा सामने की लोहे की रेलिंग से टकराने ही वाला था कि अर्जुन ने तुरंत उसकी बांह पकड़कर रोक लिया। पल भर को दोनों की आंखें मिलीं।

रिया की आंखें नम हो गईं। उसने धीरे से कहा, “अलग हो गए मगर तुम्हारी परवाह करने की आदत तो अब भी वही है।”

अर्जुन चुप रहा। उसकी नजरें कहीं दूर थीं, लेकिन उसके हाथ की पकड़ सब बयां कर रही थी।

रिया ने हिचकिचाते हुए कहा, “एक बात पूछूँ?”

अर्जुन ने नजर उठाई, “क्या?”

रिया की आवाज़ भर्रा गई, “दो साल हो गए हमें अलग रहते हुए… मेरी याद आती थी क्या?”

अर्जुन ने गहरी सांस लेकर कहा, “अब बताने से क्या फायदा? अब तो सब खत्म हो गया न? तलाक हो चुका है।”

रिया की आंखों से आँसू बह निकले। वह फफक पड़ी और धीमी आवाज़ में बोली, “दो सालों में एक भी रात मुझे वो नींद नहीं आई जो तुम्हारे हाथ का तकिया बना कर आती थी।”

ऑटो की खिड़की के बाहर बस अड्डा सामने आ रहा था। दोनों उतर गए। हवा और भी ठंडी हो चुकी थी। रिया ने अपना बैग कंधे पर डाला और जाने लगी, तभी अर्जुन ने उसका हाथ पकड़ लिया।

रिया ठिठक गई। कितने दिनों बाद उसका हाथ अर्जुन की पकड़ में था। उसकी कलाई जैसे पुराने एहसासों से भर उठी।

अर्जुन की आंखें गहरी थीं। उसने धीमे स्वर में कहा, “चलो अपने घर चलते हैं।”

रिया की सांस थम गई। उसने कांपती आवाज़ में कहा, “लेकिन तलाक के कागज़ों का क्या होगा?”

अर्जुन की आंखों में हल्की मुस्कान उभरी, “फाड़ देंगे।”

इतना सुनते ही रिया बेकाबू हो गई। उसने रोते हुए अर्जुन को गले से लगा लिया। उसके आँसू अर्जुन की शर्ट भिगो रहे थे और अर्जुन की हथेलियाँ उसकी पीठ को सहला रही थीं।

थोड़ी दूरी पर खड़े उनके रिश्तेदार, जो दूसरे ऑटो से आए थे, यह दृश्य देखकर चुपचाप बस में बैठकर चले गए। क्योंकि उस पल अर्जुन और रिया ने फिर से तय कर लिया था कि उनका रिश्ता किसी कागज़ का मोहताज नहीं है।

सर्द हवा में उस दिन बस अड्डे के बाहर एक टूटा हुआ रिश्ता फिर से जुड़ गया था।

क्या आपने कभी सोचा है कि ज़िंदगी में कभी-कभी रिश्ते खत्म करने के बाद ही हमें अहसास होता है कि हम असल में क्या खो चुके हैं? अदालत के बाहर हस्ताक्षर की गई एक कागज़ की फाइल कैसे सालों का साथ, हंसी, आँसू और यादों को मिटा सकती है? और क्या होगा अगर उसी दिन, वही रिश्ता हमें फिर से पुकार ले?

यह कहानी है नेहा की, जो भोपाल जैसे व्यस्त शहर में अपने परिवार के साथ रहती थी। सुबह का वक्त था, हवेली जैसे पुराने घर के आ...
09/09/2025

यह कहानी है नेहा की, जो भोपाल जैसे व्यस्त शहर में अपने परिवार के साथ रहती थी। सुबह का वक्त था, हवेली जैसे पुराने घर के आँगन में हल्की धूप उतर आई थी और कहीं-कहीं से चमेली के फूलों की खुशबू बह रही थी। घर की मुखिया ललिता देवी रोज की तरह पूजा करके तुलसी पर जल चढ़ा रही थीं। तभी उनकी नज़र अपनी बेटी नेहा पर पड़ी।

नेहा अपने हाथों में दो बड़े थैले लिए ऊपर की मंज़िल की ओर भाग रही थी। उसकी शादी कुछ महीनों बाद होने वाली थी और इस बीच वह मायके में ही थी। मायके में उसका रहना सबको अच्छा भी लगता था और उसकी आदतें कभी-कभी चुभ भी जाती थीं। वह अक्सर अपने दोनों भाभियों के लिए अलग-अलग तरह के तोहफे लेकर आती थी।

सबसे पहले वह बड़ी भाभी सोनाली के कमरे में गई। दरवाज़ा खोलते ही उसने हंसते हुए कहा, “भाभी देखिए! आपके लिए खास चुनी हुई रेशमी साड़ी और साथ में एक सुंदर गहनों का सेट लायी हूँ। आप पर ये जरूर खूब जचेगा।”

सोनाली की आंखें खुशी से चमक उठीं। उसने नेहा को गले लगाते हुए कहा, “तुम्हें हमेशा मेरी पसंद याद रहती है। तुम सच में बहुत खास हो।” दोनों देर तक हंसी-मज़ाक करती रहीं। कमरे में रौनक थी और नेहा के चेहरे पर संतोष।

फिर वह दूसरी भाभी प्रिया के कमरे की ओर गई। इस बार उसके हाथ में एक छोटा सा पैकेट था। कमरे में प्रवेश करते ही उसने बिना ज्यादा उत्साह दिखाए कहा, “ये आपके लिए है भाभी।”

प्रिया ने मुस्कुराकर पैकेट लिया। अंदर एक साधारण सूती सलवार-कमीज थी। उसने धीरे से कहा, “धन्यवाद नेहा।” उसके चेहरे पर सादगी भरी मुस्कान थी, लेकिन नेहा जल्दी से वहाँ से निकल गई। उसके चेहरे पर वह गर्मजोशी नहीं थी जो कुछ देर पहले सोनाली के कमरे में थी।

जैसे ही नेहा बाहर आई, ललिता देवी ने उसे रोक लिया।
“नेहा, ये तुमने क्या किया? दोनों तुम्हारी भाभियाँ हैं। फिर इतना फर्क क्यों?”

नेहा ने सहजता से जवाब दिया, “माँ, मैंने तो ठीक ही किया। सोनाली भाभी हमेशा मुझे महंगे उपहार देती हैं, त्योहारों पर कीमती चीजें भेजती हैं। तो मैंने भी उनके लिए अच्छा तोहफ़ा दिया। और रही प्रिया भाभी... उनसे मुझे कभी कुछ खास नहीं मिलता। हर साल बस एक सादा-सा सूट दे देती हैं। तो मैं क्यों उनके लिए महंगा तोहफ़ा लाऊँ?”

ललिता देवी ने गहरी सांस ली और शांत स्वर में बोलीं, “बेटी, उपहार की असली कीमत पैसे से नहीं मापी जाती। प्रिया का पति, यानी तुम्हारा भाई अजय, अभी छोटी नौकरी करता है। उनकी आय कम है। वो तुम्हें महंगे तोहफे नहीं दे पाते, लेकिन जो भी देते हैं, सच्चे दिल से देते हैं। और सोनाली के घर वाले सम्पन्न हैं, उनके लिए महंगे तोहफे देना आसान है। मगर इसका अर्थ यह नहीं कि तुम भी रिश्तों में भेदभाव करो।”

नेहा ने खीझते हुए कहा, “माँ, आप हमेशा मुझे ही समझाती हैं। कभी भाभियों से क्यों नहीं कहतीं? मुझे भी इंसान समझिए।”

उस शाम घर के बैठकखाने में सब लोग बैठे थे। बातें चल रही थीं। तभी नेहा जल्दी-जल्दी सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी कि उसका संतुलन बिगड़ गया और वह गिर पड़ी। उसके हाथ और माथे पर चोट आ गई।

उसकी चीख सुनकर सोनाली ने बस खिड़की से झाँका और कहा, “अरे, शायद हल्की सी चोट लगी होगी। मैं बहुत थकी हूँ, अभी आराम कर रही हूँ।”

लेकिन प्रिया तुरंत दौड़ती हुई आई। उसने नेहा को उठाया, पानी पिलाया, फिर फर्स्ट-एड बॉक्स से पट्टी की और उसके पास बैठ गई। देर रात तक उसने नेहा का सिर सहलाया ताकि उसे नींद आ सके।

अगली सुबह नेहा की आंख खुली तो उसने सबसे पहले पूछा, “सोनाली भाभी कहाँ हैं?”

प्रिया मुस्कुराई और बोली, “वो तो ऑफिस चली गईं। आप कैसा महसूस कर रही हैं? रुकिए, मैं आपके लिए चाय लेकर आती हूँ।”

नेहा की आंखें भर आईं। उसने माँ का हाथ पकड़कर कहा, “माँ, आपने सही कहा था। असली मायने तो भावनाओं के होते हैं। कल रात मैंने महसूस किया कि अपनापन किसे कहते हैं। सोनाली भाभी ने तो परवाह भी नहीं की, लेकिन प्रिया भाभी ने एक पल मेरा साथ नहीं छोड़ा।”

ललिता देवी मुस्कुराईं और बोलीं, “यही समझना जरूरी था बेटी। रिश्तों को बराबरी से निभाओ। तभी तुम सबका मन जीत पाओगी।”

तभी प्रिया चाय लेकर आई। नेहा ने उसका हाथ पकड़ लिया और अपने बैग से वही महंगी साड़ी निकालकर उसके हाथ में थमा दी।

“भाभी, ये अब आपकी है। आपने कल रात जो दिया, उसका मूल्य किसी भी तोहफ़े से नहीं लगाया जा सकता।”

प्रिया आश्चर्यचकित रह गई। उसकी आंखें नम हो गईं।

नेहा ने पहली बार सच्चे दिल से कहा, “अब मैं कभी फर्क नहीं करूँगी। आप दोनों मेरे लिए बराबर हैं, लेकिन दिल की सच्चाई तो आपने साबित की है।”

उस पल पूरे घर का वातावरण बदल गया। एक अनकहा अपनापन हर तरफ़ फैल गया। नेहा ने समझ लिया कि रिश्ते पैसों और तोहफों से नहीं, दिल और सच्चाई से बनते हैं।

क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप किसी और के लिए रिश्ता देखने गए हों और वहां पर लोगों की नज़रें आप पर ही टिक जाएं? सोचिए, आप बस ...
09/09/2025

क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप किसी और के लिए रिश्ता देखने गए हों और वहां पर लोगों की नज़रें आप पर ही टिक जाएं? सोचिए, आप बस चाय और पकौड़े परोसने गए हों, लेकिन अचानक से आपके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया जाए।

अगर ऐसी स्थिति सच में आपके साथ हो जाए तो आप क्या करेंगे? यही अनोखा और चौंकाने वाला अनुभव हुआ संध्या के साथ, जब वह महज़ बीस साल की थी और ग्रेजुएशन कर रही थी।

संध्या दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय मोहल्ले में अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रहती थी। ठीक बगल में ठाकुर परिवार रहता था। उस घर में दो बेटे और एक बेटी थी।

दोनों बेटे संध्या से बड़े थे और वह उन्हें भाई कहती थी, जबकि उनकी बहन अनामिका उम्र में संध्या से लगभग पांच साल बड़ी थी, इसलिए संध्या उसे दीदी कहकर बुलाती थी।

अनामिका भले ही पढ़ाई-लिखाई में अच्छी थी, लेकिन उसके रंग-रूप को लेकर लोग अक्सर ताने कसते थे। घर में बार-बार रिश्ते आते और हर बार रंग के बहाने ठुकरा दिए जाते।

संध्या को हमेशा लगता था कि यह बहुत बड़ी नाइंसाफी है क्योंकि इंसान की असली पहचान उसके व्यवहार और संस्कार से होती है, रंग से नहीं।

एक दिन की बात है। कार्तिक महीने में गोवर्धन पूजा का त्योहार था। मोहल्ले में हर घर में हलचल थी। उसी दिन अनामिका के लिए एक लड़के का रिश्ता देखने वाले आने वाले थे।

घर की आंटी यानी अनामिका की मां ने संध्या की मां से कहा, “भाभी, जरा संध्या को भेज दीजिए। अनामिका को तैयार करने में हाथ बंटा देगी।”

मां ने संध्या को समझाते हुए कहा, “बेटा, तू बस अनामिका दीदी की मदद करना, लेकिन ध्यान रहे मेहमानों के सामने मत जाना।”

संध्या मुस्कुराई और बोली, “ठीक है मां।”

संध्या जब ठाकुर परिवार के घर पहुँची तो अनामिका पहले से ही तैयार हो रही थी। संध्या ने फाउंडेशन, क्रीम और हल्की-सी लिपस्टिक लगाकर अनामिका का चेहरा निखार दिया। अनामिका ने साड़ी खुद पहन ली थी। सच कहें तो अनामिका बहुत गरिमामयी और शालीन लग रही थी।

कुछ ही देर में लड़के वाले आ पहुंचे। लड़का अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ आया था। अनामिका चाय की ट्रे लेकर लिविंग रूम में गई। तभी आंटी ने जल्दी से संध्या को भी समोसे वाली प्लेट पकड़ा दी और कहा, “जरा मेहमानों के पास रख आ।”

संध्या चुपचाप प्लेट लेकर गई और टेबल पर रख दी। तभी लड़के की मां ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटी, तुम भी बैठ जाओ।” संध्या बस हल्का सा मुस्कुराई और बिना कुछ बोले अंदर चली गई।

थोड़ी देर बाद आंटी ने फिर आवाज दी, “संध्या, जरा गरमागरम पकौड़े ले जाओ।” इस बार संध्या प्लेट लेकर जैसे ही मेहमानों के पास गई, लड़के की मां ने उसका हाथ पकड़ लिया और पास बिठा लिया।

अब सवाल-जवाब शुरू हुए। नाम, पढ़ाई, ग्रेजुएशन का कोर्स, हॉबीज… सबकुछ पूछा जाने लगा। संध्या सोच रही थी कि यह उसका इंटरव्यू क्यों लिया जा रहा है।

कुछ देर बाद संध्या को लगा कि मेहमान आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। तभी लड़के की मां ने अचानक कहा, “देखिए, बुरा मत मानिएगा। आपकी बड़ी बेटी बहुत अच्छी है, लेकिन हमें आपकी छोटी बेटी ज्यादा पसंद आई है।

आप पहले बड़ी की शादी कर लीजिए, हम इंतजार कर लेंगे। और हां, बड़ी बेटी के लिए अच्छा रिश्ता ढूंढने में भी हम आपकी मदद करेंगे।”

कमरे में जैसे सन्नाटा छा गया। सब लोग चुप थे। अनामिका के चेहरे पर हल्की सी उदासी और अपमान साफ झलक रहा था। उस पल संध्या का दिल भर आया।

उसने दृढ़ स्वर में कहा, “आंटी, आपकी भावनाओं की कद्र करती हूं लेकिन यह रिश्ता मुझे मंजूर नहीं है। आप चिंता न करें, हम सब मिलकर अनामिका दीदी के लिए अच्छा वर जरूर ढूंढ लेंगे।”

संध्या के इस जवाब ने सभी को चौंका दिया। उसने हाथ जोड़कर माफी भी मांगी और यह स्पष्ट कर दिया कि वह ठाकुर परिवार की बेटी नहीं बल्कि पड़ोस की लड़की है। यह कहकर वह घर लौट आई।

घर पहुंचते ही उसने मम्मी को सारी बात बताई। मम्मी गुस्से में बोलीं, “यही डर था मुझे, इसलिए तुझे मेहमानों के सामने न जाने की हिदायत दी थी।” बाद में उन्होंने ठाकुर आंटी से भी माफी मांगी।

समय बीतता गया। संध्या की शादी हुई, उसके दो बच्चे भी हो गए। लेकिन जिंदगी ने एक और मोड़ दिखाया। एक बार मामा की बेटी की शादी में वह सजी-धजी शामिल हुई थी।

वहां एक मामी की सहेली ने उसे अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया। उसने तो यहां तक कह दिया कि वह अभी सगून के तौर पर मांगटीका पहनाना चाहती है।

संध्या हंस पड़ी और बोली, “देखिए, यह मेरे दोनों बच्चे हैं। मैं पहले से शादीशुदा हूं।” उसने तब महसूस किया कि कभी-कभी सुंदरता और आत्मविश्वास इंसान को ऐसा चमकदार बना देते हैं कि लोग अनजाने में खिंचे चले आते हैं।

उस दिन के बाद संध्या ने ठान लिया कि अब वह छोटा-सा सिंदूर नहीं लगाएगी। उसने लंबा और साफ-साफ सिंदूर लगाना शुरू किया, ताकि सबको साफ दिखे कि वह एक विवाहित महिला है और अपनी पहचान पर गर्व करती है।

यह अनुभव उसे आज भी याद है। हर बार जब वह आईने में अपना लंबा सिंदूर देखती है, तो उसे लगता है कि इंसान की असली खूबसूरती उसके आत्मसम्मान और सच्चाई में होती है, न कि केवल रंग-रूप में।

क्या आपने कभी सोचा है कि जब एक बेटी अपने पिता को अंतिम समय में सहारा देने के लिए आगे बढ़े और वही पिता अपनों के बीच ठोकरे...
09/09/2025

क्या आपने कभी सोचा है कि जब एक बेटी अपने पिता को अंतिम समय में सहारा देने के लिए आगे बढ़े और वही पिता अपनों के बीच ठोकरें खाकर अकेले रह जाएं, तब बेटी का दिल किस तरह टूटता होगा? यह कहानी आपको रुकने पर मजबूर कर देगी।

लखनऊ की सुबह थी। चालीस वर्ष की आरती अपने बच्चों का टिफिन पैक करके बैठी ही थी कि मोबाइल पर घंटी बजी। स्क्रीन पर नाम चमक रहा था—"बरेली वाली मौसी"।

आरती ने कॉल रिसीव किया।
"बिटिया, अपने पापा को ले जाओ यहां से। अब बहुत कमजोर हो गए हैं। हम बूढ़े लोग कितने दिन और देखभाल कर पाएंगे। वैसे भी आखिरी समय बच्चों के बीच रहना ही अच्छा होता है।"

आरती के हाथ कांप गए। उसने गहरी सांस लेकर कहा, "ठीक है मौसी, इस रविवार को मैं और विवेक आते हैं। पापा को यहीं लखनऊ ले आएंगे।"

आरती ने फोन काटा तो मन कहीं भारी हो गया। यादों की परतें खुलने लगीं। उसके पिता तीन भाइयों में सबसे बड़े थे। पुश्तैनी मकान में ही सब रहते थे। मां के जाने के बाद पिता ने अपनी जिम्मेदारी से कभी मुंह नहीं मोड़ा। लेकिन कुछ साल पहले छोटे बेटे विवेक को फ्लैट खरीदने के लिए पैसे की जरूरत पड़ी तो पिता ने अपने हिस्से की पुश्तैनी जमीन बेच दी। जो पैसा मिला, उसमें से ज्यादातर विवेक को दे दिया और खुद के लिए बस उतना रखा जिससे रोजमर्रा का काम चल सके।

पिता ने कहा था, "मैं गांव में ही रहूंगा, जब तक सांस है, अपने लोगों के बीच रहना चाहता हूं।" आरती ने भी सोचा था कि पिता खुश रहेंगे। पर मां के बाद उनका मन और अकेला होता चला गया।

रविवार की सुबह आरती और विवेक ने कार उठाई और बरेली के लिए निकल पड़े। रास्ते में आरती देख रही थी कि उसका छोटा भाई विवेक कुछ अनमना सा है।

"इतना परेशान मत हो विवेक। उम्र हो रही है पापा की, थोड़े कमजोर हो गए हैं। यहां आकर अच्छे हो जाएंगे," आरती ने कहा।

विवेक चिढ़कर बोला, "तुझे तो सब आसान लगता है। दीदी, तीन कमरे का छोटा फ्लैट है मेरा। कहां रखूंगा उन्हें? और रेनू तो साफ कह चुकी है कि वह पापा की देखभाल नहीं करेगी। तू बड़ी बेटी है, तेरा भी तो फर्ज बनता है।"

आरती के चेहरे पर कठोरता आई। उसे याद आया कैसे पिता ने जमीन का हिस्सा बेचते समय विवेक से वादा लिया था, "बेटा, अगर कभी जरूरत पड़ी तो तू मेरा ख्याल रखेगा।" उस दिन विवेक ने बड़े गर्व से कहा था, "पापा, आप चिंता मत करिए, आपकी हर जरूरत मैं पूरी करूंगा।" और अब वही बेटा बहाने बना रहा था।

आरती ने शांत स्वर में कहा, "ठीक है, मैं ही ले जाऊंगी पापा को। मेरे घर में जगह भी है और अमित भी समझदार है।"

लेकिन जब वे बरेली पहुंचे और पापा को देखा, तो आरती की आंखें भर आईं। पापा बहुत कमजोर हो गए थे, चेहरे पर झुर्रियां गहरी हो चुकी थीं। उन्होंने बेटी को गले लगाते हुए कहा, "बिटिया, पहले बुला लेती तो अच्छा होता। पर मैंने सोचा, तुम्हारी अपनी गृहस्थी है, क्यों परेशान करूं।"

लखनऊ पहुंचकर उस रात आरती ने अपने पति अमित से बात की। अमित शहर के नामी डॉक्टर थे, महीने के लाखों कमाते थे। आरती ने कहा, "मैं पापा को यहां ले आई हूं। विवेक का घर छोटा है, वहां रखने में दिक्कत होती। सोचा, हमारे पास जगह है तो यहां रहेंगे।"

अमित ने जैसे अपने चेहरे का मुखौटा उतार दिया। सख्त आवाज में बोला, "यहां ले आई हूं का क्या मतलब? तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी हैं। मैंने बड़ा घर वृद्धाश्रम खोलने के लिए नहीं लिया। मैं दिन-रात मेहनत करता हूं, पैसा कमाता हूं। फालतू खर्च करने के लिए नहीं।"

आरती को झटका लगा। जिस पति की वह इतनी इज्जत करती थी, उसका यह रूप उसने कभी नहीं देखा था। उसने रोके बिना कहा, "पैसा ही सब कुछ नहीं होता अमित। पापा को सिर्फ छत और अपनापन चाहिए। यह इतना भी बड़ा बोझ है?"

अमित ने तीखे स्वर में कहा, "देखो आरती, मरीज इलाज के लिए पैसे देते हैं, मैं सेवा नहीं करता, काम करता हूं। यह व्यापार है। अगर पापा को रखना है तो दो-तीन दिन रख लो, फिर विवेक के घर छोड़ आना।"

आरती को लगा जैसे उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई। मन में सवाल उठने लगे। क्या सचमुच उसने गलती की कि पति पर इतना भरोसा किया? अगर नौकरी छोड़कर सिर्फ घर-परिवार को दिया, तो क्या अब वही कमजोरी बन गई?

अगले दिन जब अमित अस्पताल चला गया तो आरती नाश्ता लेकर पापा के कमरे में गई। वहां पहुंचकर देखा, पापा अपना सामान बांध चुके थे।

"बिटिया, मेरी वजह से तुम्हारे घर में कलह नहीं होनी चाहिए। मैंने पास के एक वृद्धाश्रम में बात कर ली है। मेरे पास जो थोड़े पैसे हैं, उससे वे लोग मुझे रख लेंगे। मुझे वहां छोड़ आओ," पापा ने कहा।

आरती की आंखों से आंसू झर-झर गिरने लगे। वह कुछ बोल नहीं पाई। टैक्सी बुलाकर चुपचाप उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आई। पापा ने जाते-जाते उसका हाथ दबाकर कहा, "परिस्थितियों पर किसका बस चला है। तुम चिंता मत करना, मैं वहां ठीक रहूंगा।"

तीन दिन बीते ही थे कि वृद्धाश्रम से फोन आया—पापा अब नहीं रहे।

आरती जैसे पत्थर बन गई। आंखों से आंसू बह रहे थे, पर वह समझ नहीं पा रही थी कि यह ग़म पापा के जाने का है या अपनी बेबसी का। उसने सोचा, अगर अमित ने सिर्फ तीन दिन पापा को सम्मान और आश्रय दे दिया होता, तो वह अमित को भगवान मान लेती।

जब वह वृद्धाश्रम पहुंची और औपचारिकताएं पूरी कीं, तो संचालक ने कहा, "रिकॉर्ड में इनके बेटे और दामाद का नाम भी है। क्या उन्हें सूचना नहीं दी?"

आरती ने सख्ती से कहा, "न इनका कोई बेटा है, न कोई दामाद। सिर्फ एक बेटी थी, वो भी नाम के लिए।"

आरती ने मन ही मन सोचा, शायद अब पापा की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी। आखिर उन्होंने जाते-जाते सबका मोह छोड़ दिया था।

और उसी पल आरती ने खुद से वादा किया—अब से कभी अपनी ममता के नाम पर अपने अधिकारों की बलि नहीं देगी। अपने लिए भी कुछ संजोएगी, ताकि किसी दिन हालात उसे बेबस न बना दें।

क्या आपने कभी किसी औरत को देखा है, जो दिन-रात परिवार के लिए सब कुछ लुटाती रही हो, लेकिन जब अपनी खुशी तलाशे तो उसे ही स्व...
09/09/2025

क्या आपने कभी किसी औरत को देखा है, जो दिन-रात परिवार के लिए सब कुछ लुटाती रही हो, लेकिन जब अपनी खुशी तलाशे तो उसे ही स्वार्थी कह दिया जाए? अगर हां, तो आज की यह कहानी आपको रोक देगी, छू जाएगी और सोचने पर मजबूर कर देगी।

यह कहानी है प्रिया की। उम्र चौंतीस साल। जगह—बेंगलुरु का एक पुराना मोहल्ला। पेशे से वह एक सफल फिजियोथेरेपिस्ट थी, जिसके पास कई बड़े-बड़े क्लाइंट थे। लेकिन उसकी निजी ज़िंदगी? वो तो किसी गहरे कुएं की तरह थी, जिसमें सालों से सिर्फ जिम्मेदारियां ही गिरती चली गई थीं।

रात का साढ़े दस बज रहा था। थकी-हारी प्रिया घर पहुंची तो उसकी भाभी सुषमा ने कड़वे स्वर में कहा, "दीदी, आपका खाना ढंक रखा है, चाहो तो गरम करके खा लेना।" प्रिया ने सिर हिलाते हुए "ठीक है" कहा और कपड़े बदलने अपने कमरे में चली गई।

वह खाना लेकर कमरे में आई ही थी कि सुषमा की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
"अब तो हद हो गई है। रोज़ देर से लौटना, मोहल्ले वाले तरह-तरह की बातें बनाते हैं। पता नहीं कौन-सा काम है जो इतना समय खा जाता है। भगवान जाने ये कब तक हमारी छाती पर मूंग दलती रहेंगी!"

प्रिया ने थाली को देखा, भूख जैसे कहीं गायब हो गई। भैया और भाभी की बातें अब उसकी रोज़मर्रा की आदत बन चुकी थीं। वह चुप रही, लेकिन भीतर ही भीतर सब कुछ चुभता चला गया। वह बिस्तर पर लेटी, आंखें खुली रहीं, नींद जैसे छूने भी नहीं आई।

सुबह उसे जल्दी एक पुराने मरीज, मिसेज मेहरा के घर जाना था। प्रिया पेशे से फिजियोथेरेपिस्ट थी और उसका काम उसे शहरभर में दौड़ाता रहता। किसी दिन ट्रेन पकड़नी पड़ती, किसी दिन बस। बड़े क्लाइंट्स, अच्छी कमाई—लेकिन इन सबके बीच परिवार का व्यवहार हमेशा उसके मन को तोड़ देता।

प्रिया को याद आए पुराने दिन। वह पांच बहनों में सबसे बड़ी थी। पिता की लाड़ली। जब तक पापा जिंदा थे, सब कुछ अच्छा था। लेकिन पापा का अचानक हार्ट अटैक से चले जाना और मां का बीमार हो जाना उसके जीवन को पूरी तरह बदल गया। उस वक्त प्रिया मुश्किल से दसवीं कक्षा में थी।

छोटी बहनों की देखभाल, पढ़ाई का खर्चा, घर के काम—सब उसके सिर पर आ गए। उसने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। पिता के प्रोविडेंट फंड की रकम बैंक में डलवाई और धीरे-धीरे आगे बढ़ी। उसने फिजियोथेरेपी का कोर्स किया और कॉलेज से निकलते ही नौकरी पकड़ ली।

उम्र मुश्किल से बीस साल थी जब उसने अपने पिता के पुराने दोस्त की मदद से एक प्राइवेट नर्सिंग होम में काम शुरू किया। तब से संघर्ष जैसे उसकी छाया बन गया। उसने बहनों को पढ़ाया, शादी की जिम्मेदारी उठाई। मां को संभाला। और भाई? वह बिगड़ गया। पढ़ाई छोड़कर गलत संगत में पड़ गया।

साल दर साल गुजरते गए। जब कभी उसके लिए रिश्ते आते, मां बहाने बनाकर टाल देतीं। प्रिया भी अपने जज़्बात दबा देती। घर और परिवार को संभालना ही उसका धर्म बन गया। लेकिन धीरे-धीरे, जब सब बहनें अपने घर चली गईं, भाई की शादी हो गई, तब प्रिया ने महसूस किया कि उसकी उम्र निकल रही थी। आईने में सफेद बाल झलकने लगे थे।

अब घर में उसका स्थान सिर्फ एक पैसे कमाने वाली मशीन जैसा रह गया था। भाभी सुषमा आए दिन फरमाइशें करती। कभी कहती बच्चों की फीस भर दो, कभी कहती शादी-ब्याह का खर्चा दे दो। मां भी अब प्रिया की नहीं, सुषमा की हां में हां मिलातीं।

प्रिया के भीतर सबकुछ घुट रहा था। दिनभर मरीजों के दर्द को कम करने वाली प्रिया खुद दर्द की मूर्ति बन गई थी।

ऐसे ही एक दिन, जब वह अपने एक मरीज के घर जा रही थी, विले पार्ले के पास उसे एक अनाथालय दिखा। गेट के पास एक नन्हा बच्चा खड़ा रहता। उम्र चार-पांच साल। उसकी मासूम आंखें हर दिन प्रिया को ढूंढतीं।

वह बच्चा प्रिया को देखता और प्रिया उसे।

एक दिन प्रिया कुछ टॉफियां लेकर उसके पास पहुंची। बच्चा डरकर पीछे हट गया और हल्की सी लंगड़ाहट के साथ भीतर चला गया। प्रिया का दिल जैसे कसक उठा। अगले दिन फिर वह उसे दिखा। इस बार प्रिया ने प्यार से कहा, "बेटा, नाम क्या है तुम्हारा?"

"करण" उसने धीमे स्वर में जवाब दिया।

प्रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "हमसे दोस्ती करोगे?"

करण ने मासूमियत से सिर हिला दिया।

अब प्रिया हर दिन उससे मिलने लगी। उसके भीतर मातृत्व की भावना जाग उठी। उसने तय कर लिया कि वह करण को गोद लेगी।

उसने अपने एक वकील मरीज से सलाह ली और कानूनी नियम समझे। फिर उसने फैसला किया कि अब और देर नहीं।

लेकिन उसके लिए एक नई चुनौती खड़ी थी। अपने ही घर में रहते हुए क्या वह यह सब कर पाएगी? क्या भाई और भाभी उसे ये सब करने देंगे? नहीं। बिल्कुल नहीं।

प्रिया ने चुपचाप एक अलग बैंक अकाउंट खोल रखा था। उसमें उसने सालों से बचत जमा की थी। अब उसने फैसला किया कि एक छोटा-सा फ्लैट लेगी। वह अपने बेटे के साथ वहां नया जीवन शुरू करेगी।

अगले दिन उसने बिल्डर से मिलकर एडवांस जमा किया। फ्लैट जल्दी मिलना तय हो गया। स्कूल और आया का भी इंतजाम कर लिया। अब बस कानूनी प्रक्रिया पूरी होनी थी।

लेकिन एक बात बाकी थी। घरवालों को यह सब बताना।

शाम को जब वह घर लौटी, तो सबको बुलाकर बोली, "मैं करण को गोद लेने जा रही हूं। अब मैं अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीऊंगी।"

भाभी तमतमा उठीं, "क्या तुम्हें अपने भतीजे-भतीजियां नजर नहीं आते? पराया बच्चा गोद लोगी?"

भाई ने भी डांटा, "ये सब पागलपन है!"

मां रोने लगीं, "मैंने तुझे जन्म क्यों दिया? तू हमें छोड़ जाएगी?"

इस बार प्रिया चुप नहीं रही। उसकी आवाज़ में वर्षों का गुस्सा था।

"किस रिश्ते की दुहाई दे रहे हो आप लोग? जब मैंने दिन-रात मेहनत की, तब क्या आपने मेरी खुशी देखी? मैंने बहनों को पढ़ाया, शादियां करवाईं। भाई की जिम्मेदारी उठाई। मां, आपने मेरी शादी कभी क्यों नहीं सोची? मैंने तो अपने सारे सपने दफना दिए, लेकिन अब नहीं। अब मैं सिर्फ अपने लिए जीऊंगी और अपने बेटे के लिए।"

यह कहकर वह अपने कमरे में गई, सूटकेस उठाया और बाहर निकल आई।

अगले कुछ दिन हॉस्टल में गुजारे। फिर जब नया फ्लैट मिला, तो अनाथालय की सारी औपचारिकताएं पूरी कर उसने करण को घर ले लिया।

करण नए घर में आते ही खिल उठा। बोला, "मां, ये घर तो बहुत सुंदर है।"

प्रिया की आंखें भर आईं। उसने उसे गले से लगाकर कहा, "हाँ बेटा, अब ये घर तेरा है और तू मेरी सबसे बड़ी खुशी है।"

धीरे-धीरे उसने करण का इलाज शुरू किया। खुद उसकी फिजियोथेरेपी की, अच्छे डॉक्टर से दिखाया। करण की लंगड़ाहट कम होने लगी। उसकी हंसी पूरे घर को भर देती।

अब प्रिया के पास नया जीवन था। छोटा-सा घर, लेकिन दिल में बड़ी खुशियां।

उसने पहली बार महसूस किया कि औरत अगर चाहे, तो अपने लिए दुनिया बदल सकती है।

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Lucknow
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