08/11/2025
कस्बा फतेहपुर की तपती दोपहरी थी। जेठ का महीना अपनी पूरी गर्मी दिखा रहा था, जिससे आसमान भी पीला और उदास नज़र आता था। सड़कें सुनसान थीं, बस कभी-कभार कोई रिक्शा या साइकिल वाला तेज़ी से गुज़र जाता था, जैसे वह भी इस गर्मी से बचने की जल्दी में हो।
यही माहौल था मीना के घर का। मीना, जिसकी उम्र अट्ठाईस के आस-पास थी, अपने भरे-पूरे बदन और गदराए यौवन के बावजूद अंदर से बिलकुल अकेली थी। दो बच्चों की माँ बनने के बाद भी उसकी देह का कसाव और उसकी चाल में एक अजब सी लचक बाकी थी, जिसे गाँव के घरों की औरतें अक्सर चुपचाप देखती थीं। उसकी पति, नरेश, शहर में नौकरी करते थे। उनका आना महीने में एक बार होता था, वह भी दो-तीन दिन के लिए।
मीना की आँखें अक्सर दरवाज़े पर टिक जाती थीं। पति की दूरी ने उसके और उसके मन के बीच एक ऐसा खालीपन ला दिया था, जो घर के बड़े हॉल की तरह विशाल और ठंडा था। वह अपने देवर, राजू, में कभी-कभी नरेश की छाया देखती थी। राजू अभी बाईस का था, कॉलेज ख़त्म करके नौकरी की तलाश में था। वह सीधा-सादा था, पर उसकी आँखों में एक ऐसी चंचल शरारत थी जो अक्सर भाभी के सामने आते ही थोड़ी दब जाती थी।
मीना की देह पर जब भी नज़र पड़ती, राजू उसे हटाने में कुछ पल की देरी कर देता। मीना इस देरी को समझती थी। वह जानती थी कि उसके दुपट्टे के नीचे से झाँकती उसकी सुडौल गरदन या भीगी पीठ की लकीर, राजू के शांत मन में कैसी हलचल पैदा करती है। यह हलचल उसके लिए कोई नई बात नहीं थी, बल्कि यह उसके अकेलेपन में एक ऐसी गरमाहट देती थी, जिसे वह अनदेखा नहीं करना चाहती थी।
आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मीना दालान में बैठी अचार के मर्तबानों पर कपड़ा बांध रही थी। गर्मी से उसका चेहरा लाल हो गया था और माथे पर पसीना चमक रहा था। उसने अपनी सूती साड़ी का पल्लू ढीला करके कमर पर लपेट लिया था। उसकी चौड़ी कमर का आधा हिस्सा और नाभि का गहरा तिल हवा की तलाश में बाहर झाँक रहा था।
तभी राजू पानी का लोटा लिए अंदर आया। उसकी नज़रें ज़मीन पर थीं, पर क़दम जैसे किसी अदृश्य चुंबक की तरफ़ खिंच रहे थे। मीना ने आवाज़ दी, "अरे राजू, ज़रा ये मर्तबान उठा कर भीतर रख दे। तेरी भाभी से तो अब इतना झुकने का काम नहीं होता।"
राजू ने सिर उठाया। उसकी नज़र पहले मीना की देह पर ठहरी, जहाँ पसीने की बूँदें साड़ी के महीन कपड़े पर एक गीली लकीर बना रही थीं। फिर वह तुरंत अपनी नज़रें अचार के मर्तबानों पर ले गया। लोटा ज़मीन पर रखा, जो शायद थोड़ी तेज़ी से रखा गया था।
"जी भाभी," राजू की आवाज़ हलकी काँप गई।
जब वह मर्तबान उठाने के लिए झुका, तो मीना ठीक उसके पास बैठी थी। गर्मी और नज़दीकी ने हवा को और भी गाढ़ा कर दिया था। राजू का हाथ मर्तबान तक पहुँचाने से पहले, मीना की कोहनी से हलके से छू गया।
यह महज़ एक स्पर्श था, एक हादसा। लेकिन राजू की नस-नस में एक ठंडी लहर दौड़ गई। वह सीधा होने से पहले एक पल को वहीँ रुका, जैसे उसे लगा हो कि मीना भी उस स्पर्श को महसूस कर रही है। मीना ने भी अपनी साँस रोकी, उसकी आँखें राजू की खुली गर्दन पर टिकी थीं, जहाँ पसीने की धार बह रही थी। दोनों ही उस लम्हे में खो गए थे, बिना किसी शब्द के, बस एक अहसास में बंधे हुए।
राजू मर्तबान उठा कर अंदर चला गया। मीना वहीं बैठी रही। उसके मन में एक चोर सी मुस्कान आ गई। वह जानती थी कि यह गलती नहीं थी। यह एक अनचाहा निमंत्रण था जो मीना के अकेले शरीर ने राजू की जवान आँखों को दिया था।
शाम होते ही मौसम ने करवट ली। तेज़ हवा चली, धूल भरी आँधी आई और फिर मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। बारिश की ठंडी बूँदें सूनी देह को एक अलग तरह की राहत देती हैं, पर मीना के लिए वह राहत कुछ और माँग रही थी।
नरेश से मीना की बात हुई थी। नरेश ने कहा कि उसे काम की वजह से इस महीने आने में थोड़ी देर होगी। यह खबर मीना के मन को और भी उदास कर गई। उसने बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया और ख़ुद दालान में आ कर बैठ गई। बिजली गुल थी। लालटेन की धीमी रोशनी में, बारिश की आवाज़ और मेंढकों की टर्र-टर्र ही माहौल को ज़िंदा रखे हुए थी।
तभी, राजू दरवाज़े पर आया। उसने आवाज़ दी, "भाभी, बारिश तेज़ है। मैं छत पर पानी देखने जा रहा था कि कहीं रिसाव न हो।"
मीना ने कहा, "अरे रहने दे राजू, कहाँ अँधेरे में भीगेगा। पानी तो हर बार आता है, कल देख लेना।"
"नहीं भाभी," राजू की आवाज़ में एक अजीब सा ठहराव था। "मुझे लगा कि शायद आपको डर लग रहा हो। बच्चों को देख कर मैं आया हूँ।"
राजू की यह बात मीना के दिल को छू गई। नरेश अक्सर उसे अकेला छोड़ कर चले जाते थे, पर राजू हमेशा उसके आस-पास था।
मीना ने कहा, "आजा, यहाँ बैठ जा। बाहर ठंड है।"
राजू लालटेन के पास वाली चौकी पर बैठ गया। लालटेन की रोशनी में उसका चेहरा और भी मासूम लग रहा था। बारिश का पानी उसके बालों से टपक रहा था।
मीना ने उठकर उसे एक सूखा तौलिया दिया। जब राजू तौलिये से अपना सिर पोंछ रहा था, मीना उसके बिल्कुल पास खड़ी थी। हवा का एक झोंका आया और मीना के पल्लू को उड़ाकर उसके बदन से सटा दिया। राजू ने सिर उठाया और उसकी निगाहें सीधी मीना की आँखों में मिलीं।
मीना की साँसें तेज़ थीं। उसके होंठों पर एक हलकी थरथराहट थी। राजू ने तौलिया नीचे रखा, और जाने-अनजाने उसका हाथ मीना के गीले पल्लू पर चला गया। उसने सिर्फ़ पल्लू को छुआ था, पर मीना को लगा जैसे किसी ने उसकी देह के अंदर तक दस्तक दे दी हो।
मीना ने अपनी आँखें बंद कर लीं। वह शायद इसी पल का इंतज़ार कर रही थी, इस अनजाने स्पर्श का, जो उसके वर्षों के अकेलेपन को एक झटके में भर दे।
राजू को लगा जैसे मीना उसे कुछ कह रही हो, बिना कुछ कहे। उसने अपना हाथ पल्लू पर और कस दिया। मीना की देह का सारा दबाव उस स्पर्श पर आ गया।
मीना ने धीमी, भावुक आवाज़ में कहा, "राजू, तू बहुत भोला है।"
"नहीं भाभी," राजू की आवाज़ लगभग कानाफूसी जैसी थी। "मैं भोला नहीं हूँ। मैं सब देखता हूँ, सब समझता हूँ।"
इस स्वीकारोक्ति ने मीना के मन से सारी हिचक निकाल दी। उसे लगा कि अब वह इस बंधन को और नहीं झेल सकती। पति की गैर-मौजूदगी, उसका ठंडा व्यवहार, और राजू की आँखों में वह आग, जिसने मीना के यौवन को फिर से आवाज़ दी थी।
मीना ने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया और राजू के हाथ को अपने पल्लू पर से हटाकर अपने गाल पर रख लिया। यह एक साहसिक कदम था, एक खुली चुनौती।
राजू ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उसने मीना के गाल को हलके से सहलाया। उसकी उँगलियाँ मीना की आँखों के नीचे की नरम त्वचा को छूती रहीं। इस स्पर्श में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी, बस एक गहरा, आत्मीय भाव था।
मीना अपनी जगह पर ही बैठ गई, उसके चेहरे पर अब एक अजीब सी शांति थी। राजू भी उसके बगल में बैठ गया।
मीना ने अपनी कहानी सुनाना शुरू किया। नरेश के बदलते व्यवहार की, शहर की नौकरी के बाद उसका मीना को नज़रअंदाज़ करने की। उसने अपनी भावनाओं को, अपनी इच्छाओं को, और अपने अकेलेपन को राजू के सामने खोल कर रख दिया।
राजू बस सुनता रहा। वह जानता था कि मीना को उसकी बात से ज़्यादा उसके स्पर्श की ज़रूरत है। उसने धीरे से मीना का हाथ पकड़ा। उनका स्पर्श अब आकस्मिक नहीं था, यह एक समझौता था।
मीना की आँखें अब बारिश की आवाज़ में खोई हुई थीं। उसके हाथ की नर्मी राजू के हाथ को जकड़ रही थी।
राजू ने धीरे से कहा, "भाभी, आप चिंता न करें। मैं हमेशा आपके साथ हूँ।"
इस 'साथ' के मायने दोनों समझते थे। यह महज़ देवर-भाभी का साथ नहीं था। यह दो अकेले शरीरों और दो विवश आत्माओं का साथ था, जो समाज की परवाह किए बिना अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की ओर बढ़ रहा था।
अगले दिन सुबह हुई। बारिश थम चुकी थी, पर माहौल में एक नई ताज़गी थी। मीना ने सुबह उठकर देखा कि राजू घर के बाहर की घास पर ओस की बूँदें देख रहा था। उसके चेहरे पर अब वैसी मासूमियत नहीं थी, बल्कि एक नई समझदारी थी।
मीना उसके पास आई। उसने राजू के कंधे पर हाथ रखा। "रात भर जागे क्या?" उसने पूछा।
राजू ने पलटकर देखा। मीना ने आज एक गहरे रंग की साड़ी पहनी थी, जो उसके भरे बदन पर और भी गदराई लग रही थी।
"बस, थोड़ी देर आँख लग गई थी," राजू ने कहा।
मीना ने हलके से मुस्कराया। उसने अपने आँचल को ठीक किया। वह जानती थी कि अब उनका रिश्ता बदल गया है, पर यह रिश्ता घर की दीवारों के अंदर ही रहेगा।
मीना ने अपने मन में एक फैसला कर लिया था। वह इस नए बंधन को खोना नहीं चाहती थी, पर वह यह भी जानती थी कि नरेश को कभी पता नहीं चलना चाहिए। उसने राजू के कंधे को दबाया और उसे घर के अंदर बुलाया।
"राजू, एक बात सुन," मीना ने धीमी आवाज़ में कहा। "हमारा ये रिश्ता, ये बातें, ये सिर्फ़ इस घर की चारदीवारी तक ही रहेंगी। नरेश के आने पर, तुम फिर से वही भोले-भाले राजू बन जाओगे।"
मीना ने अपनी देह को ढीला छोड़ दिया, उसकी आँखें राजू की आँखों में थीं। "हम दोनों जानते हैं कि अब हमारे बीच क्या है, पर दुनिया को नहीं जानना चाहिए। तुम मेरे देवर हो, और मैं तुम्हारी भाभी। यह रिश्ता हमेशा बना रहेगा।"
राजू ने सिर हिलाया। उसे लगा जैसे मीना ने उसे एक गहरी समझ और एक बड़ा राज़ सौंप दिया हो। उसने मीना के हाथ को अपने हाथ में लिया और कसकर दबाया। यह चुप्पी एक गहरी शपथ थी।
मीना अब पहले से ज़्यादा शांत थी। उसके चेहरे पर जो अकेलापन और उदासी थी, वह दूर हो गई थी। वह अब भी नरेश की पत्नी थी, पर अब वह अपने शरीर और मन की मालकिन भी थी, जिसका राज़ केवल राजू जानता था।
जब नरेश एक हफ़्ते बाद शहर से आया, तो उसे घर में एक अजीब सी शांति महसूस हुई। मीना अब ज़्यादा ख़ुश और ज़्यादा सुंदर लग रही थी। उसकी हँसी में एक नई खनक थी।
नरेश ने पूछा, "क्या बात है मीना? आजकल बहुत ख़ुश लगती हो।"
मीना ने एक लंबी, आत्मीय साँस ली और मुस्कुरा कर कहा, "बस, आपके छोटे भाई का ध्यान है न घर में। बच्चों का भी और मेरा भी। आप चिंता मत किया करो।"
नरेश ने राजू की तारीफ़ की, जिसे राजू ने ज़मीन पर नज़रें झुकाकर सुना। नरेश को पता नहीं था कि जिस 'छोटे भाई' के भरोसे पर वह इतना ख़ुश हो रहा था, वही उसकी पत्नी की खोई हुई हँसी और उसका खोया हुआ यौवन लौटा चुका था।
रात के खाने के बाद, नरेश जब मीना के पास आया, तो मीना ने उसे उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। पर नरेश की आँखों से दूर, मीना के मन के किसी कोने में, राजू का शांत चेहरा और उसका गर्माहट भरा स्पर्श अब हमेशा के लिए बस चुका था। यह एक ऐसा मीठा, भावुक और चंचल राज़ था, जो मीना की रातों को अब सुकून और एक अजीब सी गर्माहट देता था। यह वह छल और कपट था, जो उनके रिश्ते को, और इस पूरे घर को, एक नया अर्थ दे गया था। कहानी का अंत यहीं होता है, जहाँ मीना और राजू का रिश्ता अब एक नया, गुप्त अध्याय बन चुका था, जो उन्हें रोज़मर्रा की जिंदगी में एक-दूसरे के नज़दीक रखता था।