Anamika Pal Journalist

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Storyteller | Journalist of facts, writer of feelings.
कुछ बातें कैमरे में नहीं आती, उन्हें जीना पड़ता है… 🌻

Bindaas Bol 🎙 | Stories with soul Truth

"नंगे पाँव चलती ज़िंदगी, फिर भी मुस्कान कम नहीं होती..."
21/07/2025

"नंगे पाँव चलती ज़िंदगी, फिर भी मुस्कान कम नहीं होती..."

क्या 20 महीने तेजस्वी यादव को मिलते हैं तो बिहार वाकई बदल सकता है?🤔विपक्ष भी इस बयान पर चुटकी ले रहा है।BJP का कहना है क...
02/07/2025

क्या 20 महीने तेजस्वी यादव को मिलते हैं तो बिहार वाकई बदल सकता है?🤔

विपक्ष भी इस बयान पर चुटकी ले रहा है।
BJP का कहना है कि 20 महीने में बिहार नहीं, तेजस्वी की राजनीति बदल जाएगी।
जेडीयू का कहना है —
"सिर्फ सत्ता में आने से बदलाव नहीं होता, सोच भी बदलनी चाहिए।"



🩺 बिहार की हेल्थ रियलिटी: एक कड़वी सच्चाईबिहार में सरकारी अस्पतालों (PHC/CHC/सिविल हॉस्पिटल्स) में लगभग 42% डॉक्टरों की ...
02/07/2025

🩺 बिहार की हेल्थ रियलिटी: एक कड़वी सच्चाई

बिहार में सरकारी अस्पतालों (PHC/CHC/सिविल हॉस्पिटल्स) में लगभग 42% डॉक्टरों की पोस्ट खाली हैं।

AIIMS पटना, IGIMS, NMCH, Darbhanga Medical College — सभी बड़े संस्थानों में भी सैकड़ों वैकेंसी सालों से पड़ी हुई हैं।

कुछ जिलों में तो ऐसा है कि पूरा ब्लॉक बिना MBBS डॉक्टर के चल रहा है।

सरकारें आती रहीं, घोषणाएं होती रहीं —
लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था एक पोस्टर से आगे नहीं बढ़ पाई।

हर साल 1 जुलाई को जब Doctors’ Day आता है,
तो सोशल मीडिया पर 'Thank You Doctor' की बाढ़ आ जाती है। कोई फूलों की तस्वीर लगाता है, कोई डॉक्टर को टैग कर देता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई बिहार के गांवों और कस्बों में लोग डॉक्टरों का "थैंक यू" बोल पा रहे हैं? क्योंकि ज़मीन पर हालात कुछ और ही बयान करते हैं।
बिहार की सच्चाई यह है कि PHC और CHC जैसे प्राथमिक अस्पतालों में 40% से ज्यादा डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं।
कई अस्पताल ऐसे हैं जहां मरीज पहुंचते तो हैं, लेकिन वहां डॉक्टर नहीं मिलते। कुछ जगह नर्स और कंपाउंडर ही इलाज करते हैं, तो कहीं एम्बुलेंस भी समय पर नहीं पहुंचती। ज़िलों का हाल ये है कि एक ब्लॉक में भी MBBS डॉक्टर मौजूद नहीं होता।
बिहार की सच्चाई यह है कि PHC और CHC जैसे प्राथमिक अस्पतालों में 40% से ज्यादा डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं।
कई अस्पताल ऐसे हैं जहां मरीज पहुंचते तो हैं, लेकिन वहां डॉक्टर नहीं मिलते। कुछ जगह नर्स और कंपाउंडर ही इलाज करते हैं, तो कहीं एम्बुलेंस भी समय पर नहीं पहुंचती। ज़िलों का हाल ये है कि एक ब्लॉक में भी MBBS डॉक्टर मौजूद नहीं होता।




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देश झुकता नहीं — ये ठीक है।पर बिहार का नौजवान तो रोज़ कमर झुकाकर रिक्शा चला रहा है, फूड डिलीवरी कर रहा है।देश आगे बढ़ रह...
28/06/2025

देश झुकता नहीं — ये ठीक है।
पर बिहार का नौजवान तो रोज़ कमर झुकाकर रिक्शा चला रहा है, फूड डिलीवरी कर रहा है।
देश आगे बढ़ रहा है — ये भी ठीक है।
पर बिहार का गांव आज भी हैंडपंप और लाठी पर टिका है।
तहलका न्यूज़ Anamika Pal Journalist Anamika Journalist

23/06/2025

“ख़बरें ब्रेक हो रही हैं, और पत्रकार भी” — भारतीय मीडिया का एक अनकहा सच

यह कोई शायरी नहीं है। यह उन हजारों पत्रकारों की ज़िंदगी की हकीकत है, जो हर दिन न्यूज़रूम की देहलीज़ पर अपनी सेहत, सपने और सुकून गिरवी रखकर ‘सिस्टम’ को सांसें दे रहे हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया, आज उसी की नींवें अंदर से चरमराने लगी हैं।

डेडलाइन नहीं, अब तो डेड-लाइफ है

कभी पत्रकारिता में स्टोरी बनाने की डेडलाइन हुआ करती थी। आज पत्रकार उसी डेडलाइन में जी रहे हैं।
हर सेकेंड “Exclusive”, “Breaking”, “Viral” की दौड़ — और उस दौड़ में फंसे रिपोर्टर, जिन्हें कभी रेस्ट रूम नसीब नहीं होता, सिर्फ़ वार रूम मिलते हैं।
टाइम फिक्स नहीं, ऑफ फिक्स नहीं, और अगर किसी ने थककर एक "ना" कह दिया, तो तुरंत सवाल उठने लगते हैं —
"इतना ही है तेरे अंदर?" "ये मीडिया है, माफिया नहीं!"

न्यूज़रूम या प्रेशर कुकर?

आज न्यूज़ रूम क्रिएटिविटी का नहीं, सर्वाइवल का मैदान बन चुका है।
चीखते हुए एंकर, घबराए हुए रिपोर्टर, चाटुकार एडिटोरियल मीटिंग्स और TRP की भूख —
इन सबने मिलकर एक ऐसा माहौल बना दिया है जहां पत्रकारिता एक प्रोफेशन नहीं, प्रेशर कुकर बन गई है।
जहां आवाज़ें तो बहुत हैं, लेकिन सुनवाई कहीं नहीं।

महिला पत्रकारों के लिए 'डबल शिफ्ट' वाला संघर्ष

जो महिलाएं इस पेशे को चुनती हैं, उनके लिए संघर्ष दोहरा होता है।
वर्कलोड, सेक्सिज़्म, लेट नाइट असाइन्मेंट्स — और इन सबके बीच उनकी निष्ठा, उनका पहनावा, यहां तक कि उनके देर रात घर लौटने का वक्त भी सवालों के घेरे में होता है।
उन्हें 'बहादुर' नहीं, 'बेपरवाह' कहा जाता है — और यही सोच सबसे ज़्यादा थकाती है।

"No Mental Health Please, We Are Media People"

मीडिया इंडस्ट्री का सबसे खतरनाक मिथ यही है — कि पत्रकार थकता नहीं, टूटता नहीं, रोता नहीं।
लेकिन सच ये है कि Burnout, Anxiety और Depression आज हर दूसरे पत्रकार की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं।
फिर भी न्यूज़ रूम में इन्हें बोलना आज भी 'कमज़ोरी' माना जाता है।

नए पत्रकार: उम्मीदें बड़ी, सपोर्ट शून्य

इंटर्नशिप पर आए युवा पत्रकारों से हर काम की उम्मीद की जाती है —
कैमरा पकड़ना हो, स्क्रिप्ट लिखनी हो, गेस्ट मैनेज करना हो — सब कुछ, और कभी-कभी चाय भी।
लेकिन उन्हें न गाइडेंस मिलती है, न सीखने का स्पेस, और सम्मान तो दूर की बात है।

अब सिर्फ़ रिफॉर्म नहीं, इंसानियत चाहिए

आज मीडिया को सिर्फ़ नीति सुधार की नहीं, सोच सुधार की ज़रूरत है।
हमें ये समझना होगा कि पत्रकार कोई मशीन नहीं है।
उनका भी एक घर है, दिल है, और सपने हैं।
उनकी आवाज़ भी मायने रखती है, वो भी सुनने लायक हैं।

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तो सवाल ये नहीं कि मीडिया में टॉक्सिक कल्चर है — सवाल ये है कि कब तक?

कब तक हम खबरों के नाम पर अपने ही लोगों को खोते रहेंगे?
कब तक 'सच दिखाने' वाली इंडस्ट्री अपने ही सच से आंखें मूंदे रहेगी?

अगर हम सच बोलने का दावा करते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने घर की सच्चाई स्वीकारनी होगी।
क्योंकि जो घर खुद शीशे का है, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंक सकता।

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लेखक: [ Anamika Pal पत्रकार]

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23/05/2025

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