23/06/2025
“ख़बरें ब्रेक हो रही हैं, और पत्रकार भी” — भारतीय मीडिया का एक अनकहा सच
यह कोई शायरी नहीं है। यह उन हजारों पत्रकारों की ज़िंदगी की हकीकत है, जो हर दिन न्यूज़रूम की देहलीज़ पर अपनी सेहत, सपने और सुकून गिरवी रखकर ‘सिस्टम’ को सांसें दे रहे हैं। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया, आज उसी की नींवें अंदर से चरमराने लगी हैं।
डेडलाइन नहीं, अब तो डेड-लाइफ है
कभी पत्रकारिता में स्टोरी बनाने की डेडलाइन हुआ करती थी। आज पत्रकार उसी डेडलाइन में जी रहे हैं।
हर सेकेंड “Exclusive”, “Breaking”, “Viral” की दौड़ — और उस दौड़ में फंसे रिपोर्टर, जिन्हें कभी रेस्ट रूम नसीब नहीं होता, सिर्फ़ वार रूम मिलते हैं।
टाइम फिक्स नहीं, ऑफ फिक्स नहीं, और अगर किसी ने थककर एक "ना" कह दिया, तो तुरंत सवाल उठने लगते हैं —
"इतना ही है तेरे अंदर?" "ये मीडिया है, माफिया नहीं!"
न्यूज़रूम या प्रेशर कुकर?
आज न्यूज़ रूम क्रिएटिविटी का नहीं, सर्वाइवल का मैदान बन चुका है।
चीखते हुए एंकर, घबराए हुए रिपोर्टर, चाटुकार एडिटोरियल मीटिंग्स और TRP की भूख —
इन सबने मिलकर एक ऐसा माहौल बना दिया है जहां पत्रकारिता एक प्रोफेशन नहीं, प्रेशर कुकर बन गई है।
जहां आवाज़ें तो बहुत हैं, लेकिन सुनवाई कहीं नहीं।
महिला पत्रकारों के लिए 'डबल शिफ्ट' वाला संघर्ष
जो महिलाएं इस पेशे को चुनती हैं, उनके लिए संघर्ष दोहरा होता है।
वर्कलोड, सेक्सिज़्म, लेट नाइट असाइन्मेंट्स — और इन सबके बीच उनकी निष्ठा, उनका पहनावा, यहां तक कि उनके देर रात घर लौटने का वक्त भी सवालों के घेरे में होता है।
उन्हें 'बहादुर' नहीं, 'बेपरवाह' कहा जाता है — और यही सोच सबसे ज़्यादा थकाती है।
"No Mental Health Please, We Are Media People"
मीडिया इंडस्ट्री का सबसे खतरनाक मिथ यही है — कि पत्रकार थकता नहीं, टूटता नहीं, रोता नहीं।
लेकिन सच ये है कि Burnout, Anxiety और Depression आज हर दूसरे पत्रकार की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं।
फिर भी न्यूज़ रूम में इन्हें बोलना आज भी 'कमज़ोरी' माना जाता है।
नए पत्रकार: उम्मीदें बड़ी, सपोर्ट शून्य
इंटर्नशिप पर आए युवा पत्रकारों से हर काम की उम्मीद की जाती है —
कैमरा पकड़ना हो, स्क्रिप्ट लिखनी हो, गेस्ट मैनेज करना हो — सब कुछ, और कभी-कभी चाय भी।
लेकिन उन्हें न गाइडेंस मिलती है, न सीखने का स्पेस, और सम्मान तो दूर की बात है।
अब सिर्फ़ रिफॉर्म नहीं, इंसानियत चाहिए
आज मीडिया को सिर्फ़ नीति सुधार की नहीं, सोच सुधार की ज़रूरत है।
हमें ये समझना होगा कि पत्रकार कोई मशीन नहीं है।
उनका भी एक घर है, दिल है, और सपने हैं।
उनकी आवाज़ भी मायने रखती है, वो भी सुनने लायक हैं।
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तो सवाल ये नहीं कि मीडिया में टॉक्सिक कल्चर है — सवाल ये है कि कब तक?
कब तक हम खबरों के नाम पर अपने ही लोगों को खोते रहेंगे?
कब तक 'सच दिखाने' वाली इंडस्ट्री अपने ही सच से आंखें मूंदे रहेगी?
अगर हम सच बोलने का दावा करते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने घर की सच्चाई स्वीकारनी होगी।
क्योंकि जो घर खुद शीशे का है, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंक सकता।
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लेखक: [ Anamika Pal पत्रकार]