25/07/2025
#कहानी
🌼🌻 माता पिता का कर्ज 🌺🌹
सुबह की हल्की धूप बरामदे में पसरी थी। नीरज बाबू ने खिड़की से झाँककर आँगन देखा — एक समय यही आँगन बच्चों की किलकारियों से गुलजार रहता था। आज वही आँगन खामोश था।
अंदर कमरे में सीमा, उनकी बहू, फर्श पर बैठी थी — पुराने बक्सों में कपड़े भरती हुई। हर कपड़ा, हर पुरानी चादर को वो ऐसे फोल्ड कर रही थी, जैसे जल्दी से जल्दी सब निबटा देना चाहती हो।
नीरज बाबू के पास एक पुराना थैला पड़ा था — उसमें कुछ पुरानी फाइलें, एक चश्मा और उनकी पत्नी की तस्वीर। तस्वीर पर हाथ फेरते हुए उनकी आँखें भर आईं।
सीमा ने बिना उनकी तरफ देखे आवाज़ लगाई,
“राजू! जरा दादाजी से कह देना, अंदर वाले कमरे में बैठ जाएँ। कुछ लोग मिलने आने वाले हैं।”
राजू, जो घर का पुराना नौकर था, हिचकिचाता हुआ पास आया। उसने देखा, नीरज बाबू आँखों में नमी लिए उसे ही देख रहे थे।
“दादाजी, अम्मा कह रही हैं आप अंदर चले जाएँ…” — उसने धीरे से कहा।
नीरज बाबू कुछ कह पाते, तभी बाहर की घंटी बजी। राजू ने दरवाजा खोला। तीन आदमी खड़े थे — गर्मी के बावजूद चेहरे पर मुस्कान थी, हाथ में मिठाई का डिब्बा।
“अरे राजू, अंदर बता देना — वरुण आया है!” सबसे आगे खड़े आदमी ने कहा।
राजू ने दरवाजा पूरा खोल दिया। वरुण, जिसने कहा था वो वरुण है, झट से अंदर आया — नीरज बाबू को देखते ही जैसे उसके कदम ठिठक गए।
“दादाजी!” वह झुककर उनके पैरों में गिर पड़ा।
नीरज बाबू ने चश्मा उतारकर आँखें मिचमिचाईं।
“कौन है रे…?”
वरुण ने उनके हाथ पकड़ लिए। “दादाजी, मैं वरुण हूँ! विवेक का बेटा! दीपक का दोस्त! आपको याद नहीं?”
नीरज बाबू के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान तैर गई।
“अरे ओहो… वरुण! तू तो बचपन में इधर ही आता था… तेरे बाबा कैसे हैं?”
“सब अच्छे हैं दादाजी। वो भी बाहर खड़े हैं — आपसे मिलने आए हैं।”
नीरज बाबू उठने को हुए ही थे कि पीछे से सीमा ने तेज़ी से आकर कहा — आवाज़ में मिठास तो थी, पर आँखों में नहीं।
“बाबूजी, आप अंदर चले जाएँ। सामान सारा पैक है। देख लीजिएगा, कुछ रह न जाए।”
नीरज बाबू एकटक सीमा को देखते रहे, फिर वरुण की तरफ देखा — जैसे कुछ कहना चाहते हों। पर फिर चुपचाप उठकर अंदर चले गए।
सीमा ने वरुण की ओर मुड़कर कहा, “अब इनका कुछ नहीं बचा। न सुनाई देता है, न समझ में आता है। बस उल्टा-सीधा बड़बड़ाते रहते हैं। गाँव भेज रहे हैं इन्हें — वही ठीक रहेगा।”
वरुण को जैसे किसी ने अंदर से झिंझोड़ दिया। उसके साथ खड़े दीपक ने फुसफुसाकर कहा, “भाभीजी, ये क्यों कर रही हैं आप? दादाजी यहीं रहेंगे तो आपको क्या तकलीफ?”
सीमा ने हल्की हँसी हँसी, “तकलीफ? आप लोग समझते नहीं। ये अब बच्चों की तरह हो गए हैं। पूरा दिन कुछ न कुछ माँगते रहते हैं। शहर में कहाँ वक्त है किसी के पास!”
तभी दीपक भी आ गया — जो नीरज बाबू का इकलौता बेटा था। उसने सीमा को घूरकर देखा, फिर वरुण की ओर मुड़ा, “हाँ यार, मैं भी चाहता हूँ कि बाबूजी यहीं रहें, लेकिन सीमा की भी मजबूरी है। बच्चों की पढ़ाई, मेरा ऑफिस — सब कुछ तो वही संभालती है…”
वरुण ने उसकी बात बीच में काट दी, “मजबूरी? दादाजी ने तुम्हारे लिए कितनी बार मेरी फीस भरी थी, याद है दीपक? तुम्हारे साथ मेरी किताबें भी ले आते थे। मेरे बाबा को संभाला, जब वो बीमार थे। वो कर्ज कोई नहीं उतार सकता दीपक!”
दीपक चुप हो गया। सीमा ने नजरें फेर लीं — जैसे उसे कोई फर्क ही न पड़ा हो।
राजू सब देख रहा था। वो जानता था — जब उसका बाप बीमार पड़ा था, तब नीरज बाबू ने ही डॉक्टर बुलाया था, पैसे दिए थे, दवा मँगवाई थी। पर आज वही नीरज बाबू एक बोझ लगने लगे थे।
वरुण ने दीपक के कंधे पर हाथ रखा, “दीपक, एक काम कर। दादाजी को मैं अपने घर ले जाता हूँ। बाबा जी से इनकी खूब जमती थी — साथ बैठकर बातें करेंगे। मेरी बीवी भी खुश रहेगी — उसे भी तो कहानी सुनने का शौक है।”
दीपक ने कोई जवाब नहीं दिया। सीमा ने दूर खड़े बच्चों को आवाज़ दी — “आरव, सिया! ज़रा आओ इधर!” बच्चे खेलते हुए बाहर आए। उन्होंने नीरज बाबू को देखा — दादाजी ने हाथ हिलाया, पर दोनों बच्चे झिझककर माँ के पीछे छुप गए।
नीरज बाबू के चेहरे पर हल्की थकान थी — और आँखों में गहरी उदासी।
राजू अंदर गया — उसने देखा, नीरज बाबू ने अपना पुराना थैला खोला था। उसमें पत्नी की तस्वीर थी, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ और एक पुरानी घड़ी।
वरुण भी अंदर आया — नीरज बाबू के पास बैठ गया।
“दादाजी, अब आप गाँव नहीं जाएंगे। आप मेरे साथ चलेंगे — बाबा जी इंतज़ार कर रहे हैं।”
नीरज बाबू ने उसका हाथ पकड़ लिया। उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी — जैसे कोई बुझा हुआ दिया फिर से टिमटिमाने लगा हो।
दीपक भी वहीं आया। उसने नीरज बाबू का हाथ छुआ — “बाबूजी, वरुण आपको अपने साथ ले जाएगा तो अच्छा रहेगा। मैं भी जल्दी-जल्दी आऊँगा मिलने।”
नीरज बाबू ने धीरे से सिर हिलाया — उनकी आँखों में आभार भी था और दर्द भी।
राजू ने थैला उठाकर वरुण को पकड़ा दिया, “साब जी, दादाजी की दवाइयाँ और चश्मा भी रख लेना।”
सीमा दूर खड़ी थी — उसने बस एक बार देखा, फिर अंदर चली गई। जैसे उसके लिए ये बस एक जिम्मेदारी थी, जो उतर गई।
वरुण ने धीरे से नीरज बाबू का हाथ थामा, “चलिए दादाजी — आपका बेटा हूँ मैं। आपको अब कोई चिंता नहीं करनी।”
नीरज बाबू चलते-चलते एक बार फिर पलटे — बरामदे की दीवार, वो पुरानी चारपाई, आँगन में लगा नीम का पेड़ — सबको ऐसे देखा जैसे अलविदा कह रहे हों।
गेट पर खड़ी सीमा ने बस औपचारिकता में हाथ जोड़ दिए। दीपक एक किनारे खड़ा था — वो कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द उसके गले में अटक गए।
गाड़ी में बैठते वक्त वरुण ने उनके पैर छुए। नीरज बाबू ने उसके सिर पर हाथ रखा — उनके हाथ काँप रहे थे, पर वो सुकून से भरे थे। वरुण ने मुस्कुरा कर कहा, “दादाजी, अब आपको कोई गाँव नहीं भेजेगा। आपके लिए पूरा घर खुला है।”
गाड़ी जैसे ही चलने लगी, नीरज बाबू ने खिड़की से बाहर झाँका — सड़क के किनारे खड़े राजू की आँखें भी भीगी थीं। नीरज बाबू ने हाथ हिलाया — और राजू ने भी हाथ जोड़ लिए।
पीछे वो घर रह गया — दीवारें, आँगन, और वो लोग, जिनके लिए उन्होंने पूरी उम्र खपा दी थी। पर अब उन्हें उस घर से कोई उम्मीद नहीं थी — उनके लिए अब वरुण ही सब कुछ था।
गाड़ी शहर की भीड़ में खो गई — और साथ ही वो पुराना कर्ज भी, जिसे शब्दों में चुकाया नहीं जा सकता था, पर एक बेटे जैसे दिल ने निभा दिया था।
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ये कहानी हर उस पिता की है, जिसने बिना कुछ माँगे सब कुछ दिया — और हर उस बेटे की, जिसने बिना कोई शोर किए, वो कर्ज चुका दिया।
काश! हर घर में कोई वरुण हो — जो कह सके —
"बाबूजी, आप कभी बोझ नहीं थे — आप तो वो नींव हैं, जिस पर हम खड़े हैं।"
#अज्ञात
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