Dangal Josh

Dangal Josh दोस्तो पेज दंगल से जुड़ी video को HDमें आपको पहुचाने का प्रयास करेगा पेज गरीब बच्चों को समर्पित है।

Dangal Josh परिवार के सभी सदस्यों को   की हार्दिक सुभकामनाये
27/08/2025

Dangal Josh परिवार के सभी सदस्यों को की हार्दिक सुभकामनाये

05/08/2025
03/08/2025

बेचारी बिल्ली का बच्चा अपनी माँ से बिछड़ गया है।

दोस्तों ये कौन सा फल हैं कमेन्ट में बताओ।
31/07/2025

दोस्तों ये कौन सा फल हैं कमेन्ट में बताओ।

 #कहानी   🌼🌻 माता पिता का कर्ज 🌺🌹सुबह की हल्की धूप बरामदे में पसरी थी। नीरज बाबू ने खिड़की से झाँककर आँगन देखा — एक समय ...
25/07/2025

#कहानी

🌼🌻 माता पिता का कर्ज 🌺🌹

सुबह की हल्की धूप बरामदे में पसरी थी। नीरज बाबू ने खिड़की से झाँककर आँगन देखा — एक समय यही आँगन बच्चों की किलकारियों से गुलजार रहता था। आज वही आँगन खामोश था।

अंदर कमरे में सीमा, उनकी बहू, फर्श पर बैठी थी — पुराने बक्सों में कपड़े भरती हुई। हर कपड़ा, हर पुरानी चादर को वो ऐसे फोल्ड कर रही थी, जैसे जल्दी से जल्दी सब निबटा देना चाहती हो।

नीरज बाबू के पास एक पुराना थैला पड़ा था — उसमें कुछ पुरानी फाइलें, एक चश्मा और उनकी पत्नी की तस्वीर। तस्वीर पर हाथ फेरते हुए उनकी आँखें भर आईं।

सीमा ने बिना उनकी तरफ देखे आवाज़ लगाई,
“राजू! जरा दादाजी से कह देना, अंदर वाले कमरे में बैठ जाएँ। कुछ लोग मिलने आने वाले हैं।”

राजू, जो घर का पुराना नौकर था, हिचकिचाता हुआ पास आया। उसने देखा, नीरज बाबू आँखों में नमी लिए उसे ही देख रहे थे।

“दादाजी, अम्मा कह रही हैं आप अंदर चले जाएँ…” — उसने धीरे से कहा।

नीरज बाबू कुछ कह पाते, तभी बाहर की घंटी बजी। राजू ने दरवाजा खोला। तीन आदमी खड़े थे — गर्मी के बावजूद चेहरे पर मुस्कान थी, हाथ में मिठाई का डिब्बा।

“अरे राजू, अंदर बता देना — वरुण आया है!” सबसे आगे खड़े आदमी ने कहा।

राजू ने दरवाजा पूरा खोल दिया। वरुण, जिसने कहा था वो वरुण है, झट से अंदर आया — नीरज बाबू को देखते ही जैसे उसके कदम ठिठक गए।

“दादाजी!” वह झुककर उनके पैरों में गिर पड़ा।

नीरज बाबू ने चश्मा उतारकर आँखें मिचमिचाईं।
“कौन है रे…?”

वरुण ने उनके हाथ पकड़ लिए। “दादाजी, मैं वरुण हूँ! विवेक का बेटा! दीपक का दोस्त! आपको याद नहीं?”

नीरज बाबू के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान तैर गई।
“अरे ओहो… वरुण! तू तो बचपन में इधर ही आता था… तेरे बाबा कैसे हैं?”

“सब अच्छे हैं दादाजी। वो भी बाहर खड़े हैं — आपसे मिलने आए हैं।”

नीरज बाबू उठने को हुए ही थे कि पीछे से सीमा ने तेज़ी से आकर कहा — आवाज़ में मिठास तो थी, पर आँखों में नहीं।
“बाबूजी, आप अंदर चले जाएँ। सामान सारा पैक है। देख लीजिएगा, कुछ रह न जाए।”

नीरज बाबू एकटक सीमा को देखते रहे, फिर वरुण की तरफ देखा — जैसे कुछ कहना चाहते हों। पर फिर चुपचाप उठकर अंदर चले गए।

सीमा ने वरुण की ओर मुड़कर कहा, “अब इनका कुछ नहीं बचा। न सुनाई देता है, न समझ में आता है। बस उल्टा-सीधा बड़बड़ाते रहते हैं। गाँव भेज रहे हैं इन्हें — वही ठीक रहेगा।”

वरुण को जैसे किसी ने अंदर से झिंझोड़ दिया। उसके साथ खड़े दीपक ने फुसफुसाकर कहा, “भाभीजी, ये क्यों कर रही हैं आप? दादाजी यहीं रहेंगे तो आपको क्या तकलीफ?”

सीमा ने हल्की हँसी हँसी, “तकलीफ? आप लोग समझते नहीं। ये अब बच्चों की तरह हो गए हैं। पूरा दिन कुछ न कुछ माँगते रहते हैं। शहर में कहाँ वक्त है किसी के पास!”

तभी दीपक भी आ गया — जो नीरज बाबू का इकलौता बेटा था। उसने सीमा को घूरकर देखा, फिर वरुण की ओर मुड़ा, “हाँ यार, मैं भी चाहता हूँ कि बाबूजी यहीं रहें, लेकिन सीमा की भी मजबूरी है। बच्चों की पढ़ाई, मेरा ऑफिस — सब कुछ तो वही संभालती है…”

वरुण ने उसकी बात बीच में काट दी, “मजबूरी? दादाजी ने तुम्हारे लिए कितनी बार मेरी फीस भरी थी, याद है दीपक? तुम्हारे साथ मेरी किताबें भी ले आते थे। मेरे बाबा को संभाला, जब वो बीमार थे। वो कर्ज कोई नहीं उतार सकता दीपक!”

दीपक चुप हो गया। सीमा ने नजरें फेर लीं — जैसे उसे कोई फर्क ही न पड़ा हो।

राजू सब देख रहा था। वो जानता था — जब उसका बाप बीमार पड़ा था, तब नीरज बाबू ने ही डॉक्टर बुलाया था, पैसे दिए थे, दवा मँगवाई थी। पर आज वही नीरज बाबू एक बोझ लगने लगे थे।

वरुण ने दीपक के कंधे पर हाथ रखा, “दीपक, एक काम कर। दादाजी को मैं अपने घर ले जाता हूँ। बाबा जी से इनकी खूब जमती थी — साथ बैठकर बातें करेंगे। मेरी बीवी भी खुश रहेगी — उसे भी तो कहानी सुनने का शौक है।”

दीपक ने कोई जवाब नहीं दिया। सीमा ने दूर खड़े बच्चों को आवाज़ दी — “आरव, सिया! ज़रा आओ इधर!” बच्चे खेलते हुए बाहर आए। उन्होंने नीरज बाबू को देखा — दादाजी ने हाथ हिलाया, पर दोनों बच्चे झिझककर माँ के पीछे छुप गए।

नीरज बाबू के चेहरे पर हल्की थकान थी — और आँखों में गहरी उदासी।

राजू अंदर गया — उसने देखा, नीरज बाबू ने अपना पुराना थैला खोला था। उसमें पत्नी की तस्वीर थी, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ और एक पुरानी घड़ी।

वरुण भी अंदर आया — नीरज बाबू के पास बैठ गया।
“दादाजी, अब आप गाँव नहीं जाएंगे। आप मेरे साथ चलेंगे — बाबा जी इंतज़ार कर रहे हैं।”

नीरज बाबू ने उसका हाथ पकड़ लिया। उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी — जैसे कोई बुझा हुआ दिया फिर से टिमटिमाने लगा हो।

दीपक भी वहीं आया। उसने नीरज बाबू का हाथ छुआ — “बाबूजी, वरुण आपको अपने साथ ले जाएगा तो अच्छा रहेगा। मैं भी जल्दी-जल्दी आऊँगा मिलने।”

नीरज बाबू ने धीरे से सिर हिलाया — उनकी आँखों में आभार भी था और दर्द भी।

राजू ने थैला उठाकर वरुण को पकड़ा दिया, “साब जी, दादाजी की दवाइयाँ और चश्मा भी रख लेना।”

सीमा दूर खड़ी थी — उसने बस एक बार देखा, फिर अंदर चली गई। जैसे उसके लिए ये बस एक जिम्मेदारी थी, जो उतर गई।

वरुण ने धीरे से नीरज बाबू का हाथ थामा, “चलिए दादाजी — आपका बेटा हूँ मैं। आपको अब कोई चिंता नहीं करनी।”

नीरज बाबू चलते-चलते एक बार फिर पलटे — बरामदे की दीवार, वो पुरानी चारपाई, आँगन में लगा नीम का पेड़ — सबको ऐसे देखा जैसे अलविदा कह रहे हों।

गेट पर खड़ी सीमा ने बस औपचारिकता में हाथ जोड़ दिए। दीपक एक किनारे खड़ा था — वो कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द उसके गले में अटक गए।

गाड़ी में बैठते वक्त वरुण ने उनके पैर छुए। नीरज बाबू ने उसके सिर पर हाथ रखा — उनके हाथ काँप रहे थे, पर वो सुकून से भरे थे। वरुण ने मुस्कुरा कर कहा, “दादाजी, अब आपको कोई गाँव नहीं भेजेगा। आपके लिए पूरा घर खुला है।”

गाड़ी जैसे ही चलने लगी, नीरज बाबू ने खिड़की से बाहर झाँका — सड़क के किनारे खड़े राजू की आँखें भी भीगी थीं। नीरज बाबू ने हाथ हिलाया — और राजू ने भी हाथ जोड़ लिए।

पीछे वो घर रह गया — दीवारें, आँगन, और वो लोग, जिनके लिए उन्होंने पूरी उम्र खपा दी थी। पर अब उन्हें उस घर से कोई उम्मीद नहीं थी — उनके लिए अब वरुण ही सब कुछ था।

गाड़ी शहर की भीड़ में खो गई — और साथ ही वो पुराना कर्ज भी, जिसे शब्दों में चुकाया नहीं जा सकता था, पर एक बेटे जैसे दिल ने निभा दिया था।

---

ये कहानी हर उस पिता की है, जिसने बिना कुछ माँगे सब कुछ दिया — और हर उस बेटे की, जिसने बिना कोई शोर किए, वो कर्ज चुका दिया।

काश! हर घर में कोई वरुण हो — जो कह सके —
"बाबूजी, आप कभी बोझ नहीं थे — आप तो वो नींव हैं, जिस पर हम खड़े हैं।"

#अज्ञात

#एवरीवन ゚viralシviralシfypシ゚viralシalシ




 #कहानी  🌙 पहली रात की दहलीज से…मेरी शादी को आज भी याद करते हुए हँसी आ जाती है। हँसी इसलिए नहीं कि सब कुछ परफेक्ट था, बल...
25/07/2025

#कहानी

🌙 पहली रात की दहलीज से…

मेरी शादी को आज भी याद करते हुए हँसी आ जाती है। हँसी इसलिए नहीं कि सब कुछ परफेक्ट था, बल्कि इसलिए कि उस रात से ही मेरी ज़िन्दगी में ‘आशीर्वादों’ की बरसात शुरू हो गई थी — और वो भी ऐसे कि बंद ही नहीं हुई!

तो बात तब की है जब मेरी शादी को बस कुछ ही घंटे हुए थे। नई-नई दुल्हन बनी मैं लाल जोड़े में, चूड़ियों की खनक के साथ धीरे-धीरे उस कमरे की ओर बढ़ी थी, जिसे अब से मेरा और मेरे पति का ‘हमारा कमरा’ कहा जाता था। कमरे के अंदर मेरे पति — वो ही जिनसे चार महीने से फोन पर रोमांटिक बातें करती आ रही थी — पलकें बिछाए बैठे थे। मैं भी शरमा-शरमा कर मुस्कुरा रही थी। अंदर हल्की-हल्की बातें शुरू ही हुई थीं कि तभी दरवाजे पर किसी ने ऐसे धम से दस्तक दी कि दिल धक-धक करने लगा।

“बेटा, बाहर आओ!” — ये आवाज़ मेरी बुआ सास की थी। मैं और मेरे पति, दोनों ने ऐसे नज़रें मिलाईं जैसे चोरी पकड़ी गई हो। जल्दी-जल्दी साड़ी संभाली, घूँघट ठीक किया और बाहर निकली।

बुआ सास ने मेरे सिर पर हाथ रखकर बड़े ही गंभीर स्वर में कहा, “देखो बहू, आज तुम्हारी सुहागरात है। सब कुछ अच्छे से करना तुम्हारी जिम्मेदारी है। हमारा बबुआ थोड़ा नादान है।”

मैंने मन में सोचा — चार महीने से फोन पर जो बातें होती थीं, उस हिसाब से तो नादानी का कोई सवाल ही नहीं!

“ठीक है बुआ जी,” मैंने घूँघट में से मुस्कुराते हुए कहा।

बुआ जी की सलाह यहीं खत्म नहीं हुई। जाते-जाते उन्होंने कहा, “जल्दी से पोता या पोती का मुँह दिखा दो, नेक काम में देरी नहीं होनी चाहिए।”

उस रात मेरी हँसी रोकना मुश्किल हो गया। कमरे में आते ही मैंने पतिदेव को छेड़ा — “सुना आपने? आप नादान हैं!”

वो भी हँस दिए। फिर बातें हुईं, चुपके-चुपके हँसी-ठिठोली हुई और वही हुआ जो हर नई शादीशुदा जोड़े के बीच होना था।

---

💐 अगले दिन से शुरू हुआ ‘बच्चा कब?’ कार्यक्रम

हनीमून खत्म होने से पहले ही हमारे घर में मेहमान आने लगे। हर कोई मुझे देखता, फिर मेरी गोद को देखता और मुस्कुरा कर वही आशीर्वाद — “जल्दी से खुशखबरी सुनाना बहू!”

शुरू में तो मैं शरमा जाती। फिर धीरे-धीरे मुझे ये ‘जल्दी-जल्दी’ की लाइनें सुन-सुनकर बोरियत होने लगी। मुझे लगने लगा जैसे मैंने शादी करके कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया है, जिसका प्रायश्चित तभी होगा जब गोद में बच्चा होगा!

कभी-कभी तो मन करता कि बोल दूँ — इतनी जल्दी है तो पहले ही बच्चा कर लेतीं, शादी में मुझे तोहफे में दे देतीं!

लेकिन नई बहू थी, संस्कारों की मर्यादा थी। चुप रह जाती।

---

📞 रिश्तेदारों का फोन — हेलो के बाद सीधा ‘कब?’

धीरे-धीरे रिश्तेदारों का फोन भी आने लगा। कोई हालचाल नहीं पूछता — सीधा मुद्दे पर आते।

“बहू को कुछ है क्या?”

जैसे मैं कोई रिपोर्ट कार्ड हूँ! एक बार तो मजाक में सोचा कि अगली बार बोल दूँ — हाँ, मुझे बहुत कुछ है! धैर्य, सहनशीलता और ये सब आप लोगों की वजह से!

---

👫 पति से पहली बहस

अब ये सब बातें सुन-सुनकर मेरा मन खराब होने लगा। एक रात मैंने पति से कह ही दिया — “हमें डॉक्टर से मिलकर बच्चा प्लान करना चाहिए। शादी को छह महीने हो गए हैं।”

वो हँसकर बोले, “पागल हो क्या? अभी इतना खर्चा कैसे संभालेंगे? जो बोल रहे हैं, बोलने दो। इग्नोर करो।”

मुझे गुस्सा आ गया — “आप तो बाहर रहते हो, सुनना मुझे पड़ता है। हर कोई ताने देता है। किसी का क्या जाता है? आप ही बताओ — मैं सबको क्या जवाब दूँ?”

यही थी हमारी पहली लड़ाई। मैं चुपचाप सो गई। वो भी करवट बदलते रहे। घर की शांति पहली बार ऐसे खामोशी से टूट गई थी।

---

👵 सास-ससुर का रोल

दो दिन बाद मेरी सास पास आकर बोलीं — “बेटा, कोई दिक्कत है तो बताओ, डॉक्टर से दिखा देंगे। जल्दी बच्चा होना चाहिए।”

मैंने गुस्से में कह दिया — “मम्मी जी, मैं तो तैयार हूँ, पर आपके बबुआ नहीं मानते।”

फिर क्या था! घर में तूफान। पति मुझे घूरने लगे — जैसे मैंने कोई राज़ खोल दिया हो। सास नाराज़, ननद ताना मारने लगी — “देखो, बहू क्या बोल रही है।”

लेकिन उस शाम मेरे ससुर जी ने कमाल कर दिया। उन्होंने सबको हॉल में बुलाया और बड़े ठहराव से बोले —

“देखो, बच्चा ज़िन्दगी का सबसे बड़ा फैसला होता है। पहले ज़माना अलग था। कम कमाई में भी सब चल जाता था। पर आज का दौर अलग है।”

उन्होंने अपनी कहानी सुनाई —

“जब मैंने शादी की थी, मेरी नौकरी में महीने के सौ रुपये मिलते थे। उसी में तीन बच्चे पाले। लेकिन तब ना इंटरनेट था, ना मोबाइल। आज बच्चों की किताबें भी ऑनलाइन आती हैं और फीस भी ऑनलाइन जाती है — और सब कुछ चार गुना खर्च होता है।

हमारे लिए बस रोटी, कपड़ा, मकान काफी था। आज बच्चों को स्कूल में प्रोजेक्ट चाहिए, टिफिन में पास्ता चाहिए, और छुट्टी में मॉल भी जाना चाहिए। तब कुएँ का पानी पीते थे, अब पानी भी बोतल में आता है। तब सर्दी-जुकाम में अदरक की चाय चलती थी, अब डॉक्टर के पास जाना पड़ता है। खर्चा बढ़ गया है, आमदनी नहीं।”

ससुर जी बोले — “बच्चा पैदा करने से पहले ये देखो कि उसे अच्छा खिला सको, पढ़ा सको, बड़ा सपना दिखा सको। इसलिए बबुआ अगर थोड़ा वक्त लेना चाहता है, तो लेने दो। लेकिन ज़्यादा मत खींचना, वरना पता चला रिटायरमेंट की उम्र में बच्चा स्कूल जा रहा है।”

सब चुप। पहली बार घर में किसी ने इतने सीधे और साफ शब्दों में सच्चाई सामने रख दी थी।

---

🌱 दो साल बाद की सुबह

ससुर जी की वो बात जैसे पत्थर की लकीर बन गई। किसी ने दोबारा ‘कब बच्चा होगा’ नहीं पूछा। पति ने थोड़ी सेविंग शुरू की। मैंने भी छोटा सा ट्यूशन जॉइन कर लिया। कुछ-कुछ जोड़ने लगे, ताकि जो भी आए, उसे किसी चीज़ की कमी ना हो।

दो साल बाद — वही घर, वही बुआ सास, वही आँगन — लेकिन इस बार गोद में हमारी बेटी थी। सबके आशीर्वाद फिर से शुरू हुए — अबकी बार “जुग-जुग जियो” के साथ-साथ “अब दूसरा कब?” भी जुड़ गया। पर इस बार मैंने मुस्कुरा कर कहा —

“पहले इसको बड़ा कर लूँ, फिर सोचेंगे!”

---

💡 क्या सीखा मैंने?

कहने को तो ये बस एक छोटी सी कहानी है — एक आम भारतीय बहू की, जिसकी शादी के तुरंत बाद उस पर ‘माँ’ बनने का दबाव डाल दिया गया। लेकिन इस कहानी में एक सीख छुपी है — कि परिवार में अगर कोई बड़ा समझदारी से बोले, तो घर बिखरने से बच जाता है।

मेरे ससुर जी ने उस दिन जो कहा, वो बस बातें नहीं थीं — वो एक पूरा अनुभव था। उस अनुभव ने मुझे और मेरे पति को जिम्मेदारी का मतलब समझा दिया। बच्चे सिर्फ पैदा नहीं होते — वो हमारी जेब और सोच दोनों का विस्तार मांगते हैं।

आज मेरी बेटी स्कूल जाती है। मैं उसके साथ बैठकर होमवर्क कराती हूँ। जब वो हँसती है, तो मुझे वही पहली रात याद आती है — जब बुआ सास ने कहा था, “बबुआ नादान है।” तब नादानी हमें हँसी लग रही थी, लेकिन आज समझ आता है कि नादानी नहीं — समझदारी ज्यादा जरूरी है। और वो आती है परिवार के अनुभव से।

---

🎉 और आखिर में…

अब भी कभी-कभी मेहमान आकर पूछ लेते हैं, “अब छोटा कब?” तो मैं हँस कर कहती हूँ —

“अरे! अभी बड़ी को बड़ा तो हो लेने दो। फिर बैठकर सब मिलकर डिसाइड करेंगे!”

क्योंकि अब मैं जान गई हूँ — कोई भी फैसला जल्दी में नहीं, समझदारी से लेना चाहिए। तभी घर चलता है, रिश्ते सँभलते हैं और नई ज़िन्दगी खुशहाल होती है।

---

✨ सच कहूँ तो…

घर की नींव बस ईंट-पत्थर से नहीं बनती। वो बनती है बड़ों की बातों, छोटों के सपनों और बीच की पीढ़ी की समझदारी से। और अगर कहीं ये तीनों साथ हो जाएँ — तो कोई भी रिश्ता डगमगाता नहीं।

बस यही है मेरी कहानी — मेरी पहली रात की दस्तक से शुरू होकर मेरी बेटी की खिलखिलाहट तक पहुँची एक छोटी सी सीख।

---

समाप्त। 🌸

#अज्ञात
#एवरीवन
゚viralシviralシfypシ゚viralシalシ




 #स्टोरी    पूजा शर्मा, उम्र 29 वर्ष, एक सरकारी स्कूल में शिक्षक — और मन से बेहद संवेदनशील, दूसरों की पीड़ा को अपना समझ ...
17/06/2025

#स्टोरी

पूजा शर्मा, उम्र 29 वर्ष, एक सरकारी स्कूल में शिक्षक — और मन से बेहद संवेदनशील, दूसरों की पीड़ा को अपना समझ लेने वाली महिला।
शादी को तीन साल हो चुके थे। पति विवेक एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर इंजीनियर थे और अक्सर प्रोजेक्ट्स पर शहरों से बाहर रहते थे।

जब पूजा गर्भावस्था के सातवें महीने में थी, डॉक्टर ने गंभीर लहज़े में कहा:

"अब आपको पूरा आराम चाहिए… बेहतर होगा आप मायके चली जाएं।"

मायका पंजाब में था, लेकिन उस समय विवेक चेन्नई में प्रोजेक्ट पर थे। मजबूरी में विवेक ने अपने छोटे भाई कबीर से कहा कि वो पूजा को रेलवे स्टेशन तक छोड़ दे।

भाग 1: अकेली और थकी हुई

वो दिन बेहद भारी था — आसमान में धूप तेज़ थी, और पूजा के पाँव सूजन से भरे थे। तीन बड़े बैग, मन में चिंता और शरीर में थकावट — पूजा प्लेटफॉर्म पर पहुँच गई।

लेकिन जैसे ही वहाँ पहुँची, उसे बताया गया कि उसकी ट्रेन दो घंटे लेट है।

कबीर ने कहा,
"भाभी, मुझे ऑफिस का एक इमरजेंसी मेल भेजना है… बस 15 मिनट में आता हूँ, तब तक आप बैठिए।"

पूजा ने बिना कोई शक किए हामी भर दी…
पर वो "15 मिनट" कभी खत्म नहीं हुए।
कबीर लौट कर नहीं आया।

भाग 2: प्लेटफॉर्म की सूनी बेंच और एक नज़र

अब रात के करीब 11 बज चुके थे। स्टेशन धीरे-धीरे शांत होता जा रहा था। लोग थक कर इधर-उधर लेटे थे। पूजा की आँखों में बेचैनी थी — प्यास लगी थी, कमर में दर्द था, और अकेलेपन का डर दिल को जकड़ रहा था।

उसी क्षण, उसकी नज़र एक बूढ़े कुली पर पड़ी — दुबला-पतला, 65-70 साल की उम्र, चेहरे पर झुर्रियाँ, पर आँखों में किसी मंदिर की मूर्ति-सी शांति।

उसने इशारे से बुलाया।

"बाबा, प्लीज़ मेरा सामान प्लेटफॉर्म नंबर 5 तक रखवा दीजिए… पेट में बच्चा है, और शरीर साथ नहीं दे रहा।"

बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा —
"बस पंद्रह रुपये दे देना बेटी… शाम की रोटी का इंतज़ाम हो जाएगा।"

पूजा की आंखों में आंसू आ गए — इतनी सादगी, इतनी गरिमा।

"आप रख दीजिए बाबा, और जितना बन पड़ेगा, मैं दूँगी।"

भाग 3: जब सेवा दौड़ती है, पैसे नहीं

डेढ़ घंटे बीत गए, अब ट्रेन आने वाली थी… लेकिन बूढ़ा कुली नज़र नहीं आ रहा था।

पूजा बेचैनी से चारों ओर देखने लगी… अब रात के 12:30 बज चुके थे। प्लेटफॉर्म लगभग खाली था।

और तभी —
दूर से वो बूढ़ा कुली आता दिखा —
हांफता हुआ, पसीने से तरबतर, हाथ में गमछा, लेकिन आंखों में वही समर्पण।

"बिटिया, माफ करना देर हो गई… रोटियाँ लेकर आ गया था, अब चलो… सामान चढ़ा देंगे ट्रेन में।"

भाग 4: जब किस्मत ने चुनौती दी

अभी ट्रेन आने से बस 10 मिनट पहले घोषणा हुई —
"आपकी ट्रेन अब प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर आएगी।"

मतलब अब ऊपर पुल पार करना पड़ेगा —
तीन बैग, पूजा की हालत और बूढ़े के कांपते घुटने।

पूजा ने कहा —
"बाबा, रहने दीजिए… मैं किसी और को ढूंढ लूंगी।"

लेकिन उस बूढ़े ने मानो सुना ही नहीं।

सारी ताकत बटोर कर, वो एक-एक बैग उठाता गया —
कभी सीढ़ियाँ चढ़ता, कभी रुक कर साँस लेता, पर रुकता नहीं।

भाग 5: वो अंतिम दौड़, जो आत्मा को छू गई

ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी।
पूजा किसी तरह चढ़ गई, और कोच का दरवाज़ा थामे खड़ी थी।

तभी वो बूढ़ा कुली दौड़ता हुआ आया —
पहला बैग… फिर दूसरा… और आखिर में तीसरा।

पूजा ने कांपते हाथों से कुछ रुपये जेब से निकाले, लेकिन…

वो बस दूर खड़ा मुस्कुरा कर हाथ जोड़ चुका था।

कोई लेन-देन नहीं…
कोई “बेटी, पैसे?” नहीं…
बस एक नमस्ते — और उसके बाद वो भीड़ में खो गया।

भाग 6: वो एहसान जो जेब से नहीं, दिल से उतरता है

पूजा की आँखों में आँसू थे।

एक अजनबी ने बिना नाम पूछे, बिना कोई दाम लिए…
बस एक गर्भवती औरत की मदद की… जैसे वो उसका अपना हो।

वो दिल्ली पहुँच गई। कुछ महीनों बाद एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया।

उसका नाम रखा — “नमन”।
क्योंकि उस रात एक अजनबी ने सेवा कर ऐसी मिसाल दी, जिसके आगे सिर झुकता है।

भाग 7: वो तलाश जो अधूरी रह गई

डिलीवरी के बाद पूजा कई बार उसी स्टेशन गई —
कभी सुबह, कभी रात में…

"वो बाबा हैं क्या यहाँ?"

हर कोई यही कहता —

"बहन जी, ऐसे कई कुली हैं… पर जैसा आप बता रही हो, वैसा कोई नहीं दिखा हमें।"

वो कुली, वो करुणा, वो नि:स्वार्थता… अब बस यादों में रह गए।

भाग 8: जब एक माँ ने जीवन को नया अर्थ दिया

आज पूजा एक NGO चलाती है —
"नमन सेवा केंद्र", जो रेलवे स्टेशनों पर बुज़ुर्गों, बेसहारा कुलियों और ज़रूरतमंदों को गर्म कपड़े, खाना और दवाइयाँ उपलब्ध कराता है।

जब कोई पूछता है —
"आप ये सब क्यों करती हैं?"

वो बस मुस्कुरा कर कहती है:

"कभी किसी ने बिना कुछ पूछे, मेरी ज़िंदगी आसान की थी… अब मैं वही एहसान दूसरों पर लुटा रही हूँ — रोज़, हर पल।"

---

अंतिम पंक्तियाँ — दिल को छू जाने वाली

🕯️ हर मदद पैसे की मोहताज नहीं होती…
कुछ लोग मिलते हैं जो इंसानियत की सबसे ख़ूबसूरत भाषा — नि:स्वार्थता — सिखा जाते हैं।

💔 कुछ लोग हमारे जीवन से चले जाते हैं…
पर उनका प्रभाव हमारे कर्मों में जीता रहता है।

❣️ अगर ये कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे ❤️LIKE और 💬SHARE ज़रूर करें —
क्योंकि शायद आप भी किसी "बिना नाम के फरिश्ते" को आज तक ढूंढ रहे हों…

या फिर… किसी और की तलाश पूरी करने में मदद कर दें।

#अज्ञात

   #नालंदाविश्वविद्यालय: एक उज्ज्वल ज्ञान युग की अमर गाथाकभी भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि समूची दुनिया का ज्ञान केंद्र ह...
17/06/2025



#नालंदाविश्वविद्यालय: एक उज्ज्वल ज्ञान युग की अमर गाथा

कभी भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि समूची दुनिया का ज्ञान केंद्र हुआ करता था। आज भले ही हम वैश्विक शिक्षा रैंकिंग में नीचे हों, लेकिन जब दुनिया अंधकार में थी, तब भारत नालंदा के रूप में ज्ञान की लौ जलाकर बैठा था।

🌿 ज्ञान का तीर्थ: नालंदा

गुप्त वंश के शासनकाल में स्थापित नालंदा विश्वविद्यालय न केवल भारत का, बल्कि संपूर्ण विश्व का सबसे महान और प्राचीन शिक्षा केंद्र था। यह विश्वविद्यालय सिर्फ एक भवन नहीं था, यह एक विचार था — एक परंपरा, जहाँ ज्ञान, तपस्या और संस्कार की त्रिवेणी बहती थी।

यहाँ एक समय में 10,000 से अधिक विद्यार्थी और 2,000 से भी अधिक शिक्षक हुआ करते थे। यानी हर पाँच छात्रों पर एक शिक्षक — जो आज के किसी भी आधुनिक विश्वविद्यालय से कहीं अधिक श्रेष्ठ अनुपात था। शिक्षा का स्तर इतना उच्च था कि छात्र कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, ईरान, ग्रीस, इंडोनेशिया, मंगोलिया जैसे देशों से यहाँ पढ़ने आते थे।

🏛️ संरचना और वैभव

नालंदा का विशाल परिसर आठ अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित था।

यहाँ दस भव्य मंदिर, नौ मंजिला पुस्तकालय, ध्यान हॉल्स, सभागार और हजारों कक्ष थे।

लाइब्रेरी में 90 लाख से अधिक पांडुलिपियाँ थीं — विज्ञान, गणित, चिकित्सा, वास्तुकला, खगोलशास्त्र, मनोविज्ञान, युद्धनीति, कानून, भाषा विज्ञान, साहित्य जैसे अनेक विषयों पर।

छात्रावासों की व्यवस्था, सुंदर बाग-बगिचे और झीलें इस स्थान को शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक शांति का केंद्र भी बनाती थीं। छात्रों के लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा — सबकुछ निःशुल्क था। इसका खर्च विश्वविद्यालय को राज्य द्वारा दान में प्राप्त 200 गाँवों से होता था।

🎓 प्रवेश परीक्षा और व्यवस्था

यहाँ प्रवेश लेना कोई साधारण बात नहीं थी। नालंदा की प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी कि केवल प्रतिभाशाली और तपस्वी विद्यार्थी ही इसमें प्रवेश पा सकते थे। छात्रों का अपना संगठन होता था, वे अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ स्वयं निभाते थे। आधुनिक विश्वविद्यालयों में जो ‘स्टूडेंट यूनियन’ की अवधारणा है, वह यहाँ सदियों पहले ही लागू थी।

🔥 एक सुनहरा अध्याय का दुःखद अंत

लेकिन हर वैभवशाली कहानी में एक काला अध्याय भी होता है।
1193 ईस्वी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को तहस-नहस कर डाला। मिन्हाज-ए-सिराज की पुस्तक "तबकात-ए-नासिरी" के अनुसार:

हजारों भिक्षुओं को जीवित जला दिया गया।

कई विद्वानों के सिर कलम कर दिए गए।

और नालंदा की विशाल पुस्तकालय में आग लगा दी गई, जो लगातार 6 महीने तक जलता रहा।

वह धुआँ सिर्फ काग़ज़ों का नहीं था — वह एक समूची सभ्यता, ज्ञान की परंपरा, और आत्मा की हत्या थी।

---

✨ नालंदा: आज भी एक प्रेरणा

नालंदा आज भी भारत की आत्मा में जीवित है। वह हमें याद दिलाता है कि हमने कभी दुनिया को ज्ञान, तर्क और करुणा का रास्ता दिखाया था। और शायद आने वाला कल, फिर से नालंदा की उस लौ को प्रज्वलित कर सके — एक नई पीढ़ी के लिए, एक नए भारत के लिए।

Address

Lucknow

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Dangal Josh posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Share