
01/09/2025
बलिदान न सिंह का होते सुना,
बकरे बलि बेदी पर लाए गए।
विषधारी को दूध पिलाया गया,
केंचुए कटिया में फंसाए गए।
न काटे टेढ़े पादप गए,
सीधों पर आरे चलाए गए।
बलवान का बाल न बांका भया
बलहीन सदा तड़पाए गए।
हमें रोटी कपड़ा मकान चाहिए।।
सेना के जवानो को यह पैगाम देने वाले पेरियार ललई सिंह यादव का जन्म 1 सितम्बर 1911 को गाँव कठारा, जिला कानपुर देहात के एक समाज सुधारक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम ‘लल्ला’ था, लल्ला से ‘ललई’ हुए।
उन्होंने हिन्दी में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। उन्होंने ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई। 29 मार्च 1947 को ललई यादव को पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप में धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों के साथ राज-बन्दी बनाया गया।
6 नवम्बर 1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 साल सश्रम कारावास और पाँच रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड ग्वालियर नेशनल आर्मी के अध्यक्ष हाई कमाण्डर होने के कारण दी। 12 जनवरी 1948 को सिविल साथियों के साथ वो बाहर आए।
इसके बाद वो स्वाध्याय में जुटे गए। इसी दौरान उन्होंने एक के बाद एक श्रृति स्मृति, पुराण और विविध रामायणें भी पढ़ी। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वो बहुत विचलित हुए।
धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों की महिमा का बखान और पिछड़े, शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यंत्र से वो व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। दुनिया के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने के बाद वैचारिक चेतना बढ़ने के कारण वे बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त हुए। धर्म शास्त्र पढ़कर उन्हें समझ आ गया था कि बड़ी चालाकी और षड्यंत्र से शोषित (शूद्रों) समाज के दो वर्ग बना दिए गए हैं। एक सछूत-शूद्र, दूसरा अछूत-शूद्र, शूद्र तो शूद्र ही है।
अपने जीवन संघर्ष क्रम में वैचारिक चेतना से लैस होते हुए उन्होंने यह मन बना लिया कि इस दुनिया में मानवतावाद ही सर्वोच्च मानव मूल्य है। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पेरियार ई. वी. रामस्वामी नायकर ने उस समय उत्तर भारत में कई दोरे किये थे. ललई यादव उनके सम्पर्क में आए और उनकी लिखित 'रामायण ए टू रिडिन्ग' को हिंदी में छापने का निर्णय लिया. इसके प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व और पश्चिम भारत में तहलका मच गया. इसके बाद यूपी सरकार ने 8 दिसम्बर 1969 को किताब को जब्त करने का आदेश दे दिया.
अपने जीवन संघर्ष क्रम में वैचारिक चेतना से लैस होते हुए उन्होंने यह मन बना लिया कि इस दुनिया में मानवतावाद ही सर्वोच्च मानव मूल्य है। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पेरियार ई. वी. रामस्वामी नायकर ने उस समय उत्तर भारत में कई दोरे किये थे। ललई यादव उनके सम्पर्क में आए और उनकी लिखित 'रामायण ए टू रिडिन्ग' को हिंदी में छापने का निर्णय लिया। इसके प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व और पश्चिम भारत में तहलका मच गया। इसके बाद यूपी सरकार ने 8 दिसम्बर 1969 को किताब को जब्त करने का आदेश दे दिया। मामला हाईकोर्ट में गया। वहाँ एडवोकेट बनवारी लाल यादव ने ‘सच्ची रामायण’ के पक्ष में जबरदस्त पैरवी की। फलतः 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए. कीर्ति ने जब्ती का आदेश निरस्त करते हुए सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी जब्तशुदा पुस्तकें वापिस करे और अपीलान्ट ललई सिंह को तीन सौ रुपए खर्च दे।
उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, श्रृति, स्मृति, पुराण आदि ग्रंथों से ही पोषित है। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है।
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