10/04/2025
सरकारी मदद से तबाह डोली गांव: उदासीन जनप्रतिनिधियों की कहानी
: दुर्गसिंह राजपुरोहित
डोली गांव की दुर्दशा आज किसी से छिपी नहीं है। राजस्थान के बालोतरा जिले में बसा यह गांव कभी अपनी शांत और सरल जिंदगी के लिए जाना जाता था, लेकिन आज यह रासायनिक पानी, गंदगी, बदबू और मच्छरों के कहर का शिकार बन चुका है। जोधपुर से आने वाला प्रदूषित पानी इस इलाके को नरक में तब्दील कर रहा है। स्कूल, खेत और घर—सब इस जहरीले पानी की चपेट में हैं। लेकिन सबसे दुखद पहलू यह है कि इस संकट के लिए जिम्मेदार सरकारी मदद और उदासीन जनप्रतिनिधियों की चुप्पी ने ग्रामीणों को अकेला छोड़ दिया है। यह सवाल उठता है—क्या हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों का कर्तव्य केवल वोट मांगना और वादे करना ही रह गया है?
डोली गांव की समस्या कोई नई नहीं है। सालों से औद्योगिक इकाइयों का दूषित पानी इस क्षेत्र में बहाया जा रहा है। शुरुआत में सरकार ने इसे गंभीरता से लिया—कमेटियां बनीं, जांच हुईं, और बड़े-बड़े दावे किए गए। लेकिन नतीजा? आज तक ग्रामीण राहत का इंतजार कर रहे हैं। स्थानीय जनप्रतिनिधियों की उदासीनता इस संकट को और गहरा रही है। विधायक हों या सांसद, इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। ग्रामीणों ने प्रदर्शन की चेतावनी दी, धरने दिए, लेकिन उनके प्रतिनिधि या तो मौन हैं या फिर औद्योगिक हितों के आगे नतमस्तक। क्या यह लोकतंत्र का मखौल नहीं है कि जिन्हें जनता की आवाज उठानी चाहिए, वे ही सबसे बड़े गुनहगार बन गए हैं?
यह सच है कि औद्योगिक विकास जरूरी है, लेकिन क्या यह विकास जनता की कीमत पर होना चाहिए? डोली के हालात इतने बदतर हैं कि बच्चे बीमार पड़ रहे हैं, मवेशी मर रहे हैं, और खेती चौपट हो रही है। प्रदूषित पानी से होने वाली बीमारियों ने ग्रामीणों की जिंदगी को और मुश्किल बना दिया है। फिर भी, स्थानीय नेताओं की प्राथमिकता में यह मुद्दा कहीं नहीं दिखता। जब ग्रामीण सड़कों पर उतरते हैं, तब जनप्रतिनिधि दिखावे के लिए पहुंचते हैं, दो-चार बातें बोलकर चले जाते हैं। उनकी यह ढोंग भरी सहानुभूति ग्रामीणों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी है।
हैरानी की बात यह है कि डोली की समस्या का समाधान इतना जटिल भी नहीं है। प्रदूषित पानी को रोकने के लिए ठोस नीति, औद्योगिक इकाइयों पर सख्ती, और वैकल्पिक जल व्यवस्था बनाई जा सकती है। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए, जो हमारे जनप्रतिनिधियों में नदारद है। वे शायद यह भूल गए हैं कि उनकी कुर्सी जनता के वोटों से बनी है, न कि उद्योगपतियों के धन से। जब ग्रामीण धरने पर बैठते हैं, तो प्रशासन उन्हें समझाने में जुट जाता है, लेकिन असल जिम्मेदारों—यानी जनप्रतिनिधियों—को कोई सवाल नहीं पूछता। यह दोहरा रवैया लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर कर रहा है।
डोली गांव की यह कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि उन तमाम जगहों की है, जहां जनप्रतिनिधियों की उदासीनता ने लोगों को सरकार से दूर कर दिया है। यह समय है कि हम अपने नेताओं से सवाल करें—आखिर उनकी जवाबदेही किसके प्रति है? अगर वे जनता की सुनवाई नहीं कर सकते, तो उनका पद पर बने रहना बेमानी है। डोली के ग्रामीण आज भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद कोई उनकी पुकार सुनेगा। लेकिन जब तक जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक यह उम्मीद एक सपना ही रहेगी।
यह लेख सिर्फ डोली की व्यथा नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—अगर हमने समय रहते अपने प्रतिनिधियों को नहीं जगाया, तो आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी।
फोटो साभार : सोशल मीडिया