The Hind manch

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हमारा मुख्य लक्ष्य भारत को समृद्ध, शक्तिशाली और ज्ञानवान बनाना है, जिससे आने वाली पीढ़ी को अपने देश, उनके पूर्वजों, महापुरुषों और उनकी संस्कृति पर गर्व हो , उन्हें वैदिक धर्म की जानकारी प्रदान करना, उन्हें सही रास्ते पर ले जाना और भारत को फिर से विश्वगुरु बनाना है।
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 #श्राद्ध की  #चतुर्दशी:  #अकाल_मृत्यु की त्रासदी और  #सनातन सहानुभूति का प्रतीक #पितृ_पक्ष का सोलह दिनों का यह महीना हम...
20/09/2025

#श्राद्ध की #चतुर्दशी: #अकाल_मृत्यु की त्रासदी और #सनातन सहानुभूति का प्रतीक

#पितृ_पक्ष का सोलह दिनों का यह महीना हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और स्मरण का एक सुनहरा अध्याय है। इस पवित्र अवधि के अंतिम दिनों में आने वाली चतुर्दशी श्राद्ध का विशेष महत्व है। यह दिन उन सभी व्यक्तियों की स्मृति को समर्पित है जिनकी मृत्यु 'अकाल' या 'असामयिक' मानी जाती है - चाहे वह किसी #दुर्घटना, #हत्या, #आत्महत्या, या किसी अन्य अप्राकृतिक कारण से हुई हो। यह सनातन परंपरा की उस गहरी #मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समझ को उजागर करता है, जो केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं है, बल्कि एक सूक्ष्म सहानुभूति और मानवीय संवेदना का दस्तावेज है।

परंपरा का दार्शनिक आधार

हिंदू मान्यताओं के अनुसार, जिस आत्मा का शरीरान्त अचानक, अप्रत्याशित और हिंसक तरीके से होता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति में बाधा का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी आत्माएं भटकाव की स्थिति में रहती हैं, जिसे 'प्रेत योनि' कहा गया है। चतुर्दशी श्राद्ध का उद्देश्य इन आत्माओं को शांति प्रदान करना और उन्हें मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करने में सहायता करना है। #तर्पण, #पिंडदान और #ब्राह्मण #भोजन जैसे कर्मकांडों के माध्यम से, जीवित परिजन उन्हें आध्यात्मिक शक्ति और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

एक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य

चतुर्दशी श्राद्ध की महत्ता केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है। इसके पीछे एक गहरा सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य का पहलू भी छिपा है।

1. शोक प्रबंधन का एक साधन: किसी प्रियजन की अचानक और त्रासदपूर्ण मृत्यु परिवार पर एक गहरा आघात छोड़ जाती है। ऐसी मौतों के साथ अक्सर अपराधबोध, अधूरेपन और अत्यधिक दुःख की #भावना जुड़ी होती है। श्राद्ध की यह रस्म परिवारजनों को उस दुःख को व्यक्त करने, उसे संस्कारों के माध्यम से निकालने और मानसिक शांति पाने का एक ढाँचा (Framework) प्रदान करती है। यह एक तरह का 'कलेक्टिव थेरेपी' है।
2. सामुदायिक समर्थन: ऐसे दुखद मौके पर, परिवार अक्सर खुद को अलग-थलग महसूस करता है। श्राद्ध का कर्म एक सामुदायिक कार्यक्रम बन जाता है, जहाँ रिश्तेदार और #समुदाय के लोग एकत्रित होकर शोक संतप्त परिवार का moral support करते हैं। यह उन्हें अकेलेपन की भावना से बाहर निकालता है।
3. सभी को सम्मान: यह परंपरा इस बात का संदेश देती है कि #मृत्यु का कारण चाहे कुछ भी हो, अंततः प्रत्येक आत्मा का अपना महत्व और सम्मान है। समाज द्वारा किसी भी प्रकार की कलंकित (stigmatized) मृत्यु को भी इस दिन एक पवित्र स्थान और प्रार्थना मिलती है, जो एक प्रगतिशील और समावेशी सोच को दर्शाता है।

आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता

आज के युग में, जहाँ दुर्घटनाओं और मानसिक #अवसाद के कारण आत्महत्याओं की संख्या दुखद रूप से बढ़ रही है, चतुर्दशी श्राद्ध की अवधारणा और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। यह हमें याद दिलाता है कि ऐसे मामलों में केवल कानूनी जाँच या सामाजिक कलंकन पर ध्यान न देकर, पीड़ित के परिवार की मानसिक पीड़ा और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को भी समझना चाहिए। यह दिन मृत्यु के प्रति हमारे दृष्टिकोण को विस्तार देता है और जीवन की नश्वरता तथा उसके गूढ़ रहस्यों के प्रति विनम्र बनाता है।

चतुर्दशी श्राद्ध पितृ पक्ष का सबसे संवेदनशील और करुणामय दिन है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना, मनोवैज्ञानिक #चिकित्सा और सामाजिक एकजुटता का एक शक्तिशाली प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि मृत्यु के प्रकार से ऊपर उठकर, हर departed आत्मा के प्रति हमारा कर्तव्य शांति और मुक्ति की कामना करना है। इस दिवस को मनाना, अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए सभी लोगों के प्रति एक सामूहिक सहानुभूति और प्रार्थना है - एक ऐसा कार्य जो मरणोपरांत भी मानवता को #गरिमा प्रदान करता है।

 #हनुमान_पोद्दार जी  एक भूला-बिसरा संकल्पना-नायक, जिसने भारत का आध्यात्मिक  #भूगोल बदल दियाआज जब हम ' #गीता_प्रेस,  #गोर...
17/09/2025

#हनुमान_पोद्दार जी एक भूला-बिसरा संकल्पना-नायक, जिसने भारत का आध्यात्मिक #भूगोल बदल दिया

आज जब हम ' #गीता_प्रेस, #गोरखपुर' का नाम सुनते हैं, तो हमारी आँखों के सामने एक ऐसा #प्रकाशन #संस्थान उभरता है जो सदियों से चली आ रही भारतीय ज्ञान-परंपरा का अविचल प्रहरी है। करोड़ों हिंदू परिवारों की पूजा-अर्चना, आचार-विचार और नैतिकता की नींव इसी प्रेस द्वारा प्रकाशित सस्ते और सुलभ धार्मिक ग्रंथों पर टिकी है। किंतु, इस विशालतम व्यक्तित्व के पीछे जिस एक व्यक्ति की तपस्या, दूरदर्शिता और निस्वार्थ भावना काम कर रही थी, वे हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, जिन्हें सभी ' #भाईजी' के नाम से जानते थे।

आधुनिक भारत के #इतिहास में भाईजी एक ऐसे विरल व्यक्तित्व हैं जिन्होंने पूँजी, प्रसिद्धि या सत्ता के बल पर नहीं, बल्कि सेवा, साधना और सत्य के बल पर एक ऐसा साम्राज्य खड़ा किया जो आज भी अटल है। उनका जन्म 1892 में राजस्थान के एक छोटे से गाँव में हुआ था। व्यवसायिक जीवन की शुरुआत की, किंतु भाग्य ने उन्हें कोलकाता लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ वे सेठ घनश्यामदास बिरला के निकट came। यहीं उनकी मुलाकात महान राष्ट्रवादी संत स्वामी करपात्री जी और स्वतंत्रता संग्राम के महानायक महामना मदन मोहन मालवीय जैसे विभूतियों से हुई।

लेकिन भाईजी की असली पहचान एक ' #साधक' की थी। उन्होंने देखा कि अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिकता की अंधी दौड़ में भारत का समाज अपने मूल्यों और आध्यात्मिक धरोहर से दूर होता जा रहा है। धर्मग्रंथ महंगे और दुर्लभ थे, सामान्य जनता की पहुँच से बाहर। उस समय की यह एक सांस्कृतिक #आपातकालीन स्थिति थी। भाईजी ने इस चुनौती को एक अवसर में बदला।

1923 में, मात्र 500 रुपये की पूँजी से, उन्होंने गीता #प्रेस की नींव रखी। उद्देश्य स्पष्ट और पवित्र था: "हिंदू धर्म के मूल ग्रंथों को न्यूनतम मूल्य पर, सर्वोत्तम गुणवत्ता में, आम जनता तक पहुँचाना।" यह व्यवसाय नहीं, एक #धर्मयुद्ध था। उन्होंने ' #कल्याण' #पत्रिका की शुरुआत की, जो केवल एक पत्रिका नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, दर्शन, नैतिकता और #साहित्य का एक जीवंत विश्वकोश बन गई। आज भी लाखों परिवारों में इसकी प्रतीक्षा की जाती है।

भाईजी की महानता के तीन स्तंभ थे:

1. निस्वार्थ #सेवा: उन्होंने गीता प्रेस से कभी एक पैसा भी वेतन के रूप में नहीं लिया। उल्टे, अपनी निजी संपत्ति को भी इसी कार्य में लगा दिया। उनका जीवन सादगी और त्याग की मिसाल था।
2. गुणवत्ता पर अटल विश्वास: कम कीमत का मतलब खराब छपाई या कागज नहीं था। #श्रीमद्भगवद्गीता, #रामचरितमानस, #पुराण—हर किताब श्रेष्ठ कागज और सटीकता के साथ छपती थी।
3. सर्व-स्पर्शीय दृष्टिकोण: उनकी दृष्टि में कोई ऊँच-नीच नहीं थी। उन्होंने धर्मग्रंथों को जन-जन की भाषा ( #हिंदी) में, उनकी जेब के भीतर पहुँचाया, जिससे एक साधारण किसान से लेकर एक विद्वान तक सभी लाभान्वित हुए।

आज के दौर में, जब प्रकाशन उद्योग मुनाफे के चक्कर में भाग रहा है और सनसनीखेज सामग्री को बढ़ावा दिया जा रहा है, गीता प्रेस और भाईजी का आदर्श और भी प्रासंगिक हो जाता है। उन्होंने हमें सिखाया कि व्यवसाय का उद्देश्य केवल पूँजी का संचय नहीं, बल्कि समाज के चरित्र-निर्माण और सांस्कृतिक संरक्षण का दायित्व भी हो सकता है।

हनुमान पोद्दार कोई साधारण #संपादक या #उद्योगपति नहीं थे। वे एक सांस्कृतिक क्रांतिकारी, एक धर्म-दूत और एक ऐसे दूरदर्शी थे, जिन्होंने अपनी छपाई मशीनों के माध्यम से भारत की आत्मा को बचाए रखने का काम किया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक व्यक्ति का निस्वार्थ #संकल्प इतिहास की धारा को मोड़ सकता है और करोड़ों लोगों के जीवन को सकारात्मक दिशा दे सकता है। उनकी विरासत न केवल गोरखपुर में, बल्कि देश के कोने-कोने में उस लाखों पाठकों के हृदय में बसी है, जो आज भी गीता प्रेस की पुस्तकों से प्रकाश और शांति प्राप्त करते हैं।

 #धर्म की जय हो,  #अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का  #कल्याण हो —  #सनातन_धर्म का मूल मंत्र“धर्म की ...
14/09/2025

#धर्म की जय हो, #अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का #कल्याण हो — #सनातन_धर्म का मूल मंत्र

“धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो” केवल एक नारा नहीं, बल्कि जीवन की गहनतम साधना और मानवता की दिशा है। यह वाक्य सनातन धर्म की उस शाश्वत धारा को व्यक्त करता है, जिसने सदियों से समाज को सत्य, न्याय और कर्तव्य की राह दिखाई है। धर्म का अर्थ यहां किसी विशेष मजहब या पंथ तक सीमित नहीं है, बल्कि धर्म का आशय है — सत्य का पालन, न्याय की स्थापना और कर्तव्य की पूर्णता।

अधर्म का नाश तभी संभव है, जब समाज स्वयं अपने भीतर झांककर अन्याय, लोभ, हिंसा और अज्ञान को त्यागे। जब व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज और विश्व की भलाई में सोचने लगे, तभी अधर्म पर धर्म की विजय होती है।

“प्राणियों में सद्भावना हो” यह भाव सनातन संस्कृति की आत्मा है। वेदों से लेकर उपनिषदों तक, हर जगह ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उच्चारण हमें मिलता है। इसका अर्थ यही है कि केवल मानव नहीं, बल्कि सभी जीव-जंतु, वृक्ष-पौधे और सृष्टि का प्रत्येक अंश हमारे परिवार का हिस्सा है। जब तक हम इस भावना को आत्मसात नहीं करेंगे, तब तक सद्भावना और करुणा का सच्चा वातावरण नहीं बन सकता।

विश्व का कल्याण तभी संभव है, जब हम धर्म और सद्भाव के मार्ग पर चलकर एक-दूसरे को सहयोग दें, सीमाओं और स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवता को सर्वोपरि मानें। आज जब पूरी दुनिया संघर्ष, हिंसा और स्वार्थ की आग में झुलस रही है, तब सनातन धर्म का यह मूल मंत्र और भी प्रासंगिक हो जाता है।

इसलिए, हमारा संकल्प यही होना चाहिए—
👉 धर्म का पालन हो,
👉 अधर्म का विनाश हो,
👉 सभी प्राणियों में प्रेम और सद्भावना फैले,
👉 और सम्पूर्ण विश्व सुख, शांति और कल्याण की ओर अग्रसर हो।

यही सनातन धर्म का सार है और यही मानवता का शाश्वत मार्ग।

11/09/2025

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 #पितृ_पक्ष: कृतज्ञता की वह महान परंपरा, जो पीढ़ियों को जोड़ती हैहर वर्ष भाद्रपद की  #पूर्णिमा के बाद आश्विन मास के कृष्...
11/09/2025

#पितृ_पक्ष: कृतज्ञता की वह महान परंपरा, जो पीढ़ियों को जोड़ती है

हर वर्ष भाद्रपद की #पूर्णिमा के बाद आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का आगमन हमारे समाज में एक गहन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना लेकर आता है। इन सोलह दिनों को हम 'पितृ पक्ष', 'श्राद्ध' या 'कनागत' के नाम से जानते हैं। यह वह समय है जब हवा में भी श्रद्धा और स्मरण की एक विशेष गंभीरता तैरती हुई महसूस होती है। लेकिन क्या यह परंपरा सिर्फ पिंड दान और अनुष्ठानों तक सीमित है? निस्संदेह नहीं। पितृ पक्ष का अद्भुत इतिहास और इसके पीछे का दर्शन, हमें हमारे अस्तित्व के मूल से जोड़ने का काम करता है।

आधुनिक दौर की भागदौड़ भरी जिंदगी में अक्सर हम अपने वर्तमान और भविष्य में इतना उलझ जाते हैं कि हमारी जड़ें यानी हमारे पूर्वज धुंधले से होते चले जाते हैं। पितृ पक्ष एक वार्षिक अनुस्मारक है जो हमें रुकने और उन लोगों को याद करने का अवसर देता है, जिनके बिना हमारा अस्तित्व ही संभव नहीं था। यह हमारी सनातन संस्कृति की ही देन है कि उसने केवल जीवित लोगों के प्रति ही नहीं, बल्कि those who came before us के प्रति भी हमारा दायित्व तय किया है। इसे 'पितृ ऋण' कहा गया है।

#महाभारत के योद्धा #कर्ण की कथा इसका मार्मिक उदाहरण है। स्वर्ग में उन्हें केवल सोना और गहने ही भोजन के रूप में मिले, क्योंकि उन्होंने जीवन भर केवल धन का दान किया था, पितरों को भोजन अर्पित नहीं किया था। इस कथा का सार यही है कि पितरों की तृप्ति भौतिक संपदा से नहीं, बल्कि श्रद्धा, भोजन और जल से होती है। यह कहानी हमें यह सिखाने के लिए पर्याप्त है कि हमारी विरासत क्या है और हमारा वास्तविक दायित्व किसके प्रति है।

दुर्भाग्य से, आज अधिकतर लोग इन रिवाजों को केवल एक रूढ़ि या अंधविश्वास समझने की भूल कर बैठते हैं। उन्हें लगता है कि यह सब पुराने जमाने की बातें हैं। किंतु, पितृ पक्ष का सार तो उस 'कृतज्ञता' में छुपा है, जो मानवीय संबंधों की सबसे मजबूत डोर है। तर्पण की every drop that falls from our hands, पिंड दान का every morsel, ब्राह्मण भोज की every plate—ये हमारी 'थैंक्यू' नोट्स हैं, उन्हें दिए गए उपहार हैं, जिन्होंने हमें यह जीवन दिया।

यह परंपरा हमें यह भी सिखाती है कि जीवन और मृत्यु एक चक्र है। मृत्यु संबंधों का अंत नहीं है, बल्कि उन्हें एक भिन्न आयाम देती है। पितृ पक्ष उसी आयाम से संवाद स्थापित करने का प्रयास है। यह एक ऐसा सांस्कृतिक bridge है जो पारलौकिक world को हमारे वर्तमान से जोड़ता है।

अंततः, पितृ पक्ष का महत्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि उस भावना में है जो इन्हें जीवंत रखती है। यह हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान, कृतज्ञता और प्रेम का पर्व है। आइए, इस बार पितृ पक्ष पर इन रस्मों को केवल एक formality न समझें। बल्कि, अपने बच्चों को अपने पूर्वजों की कहानियाँ सुनाएँ, उनके संघर्षों और सफलताओं को याद करें। क्योंकि, जब तक हम उन्हें याद रखेंगे, वे हमारे बीच ही रहेंगे और their blessings हमारे कुल की उन्नति के लिए सदैव बनी रहेगी। यही इस अद्भुत #परंपरा का वास्तविक उद्देश्य और सार है।

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10/09/2025

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 #पितृपक्ष तर्पण में उपयोग होने वाली सामग्रियाँ और उनका महत्व #सनातन_धर्म में पितरों का सम्मान और श्राद्ध अत्यंत महत्वपू...
09/09/2025

#पितृपक्ष तर्पण में उपयोग होने वाली सामग्रियाँ और उनका महत्व
#सनातन_धर्म में पितरों का सम्मान और श्राद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। भाद्रपद #पूर्णिमा से लेकर आश्विन #अमावस्या तक का समय पितृपक्ष कहलाता है। इस अवधि में अपने पितरों को जल, तिल, अक्षत, पिंड आदि अर्पित कर तर्पण किया जाता है ताकि उनकी #आत्मा को शांति मिले और उनका आशीर्वाद परिवार पर बना रहे। तर्पण की विधि में कुछ विशेष सामग्रियों का प्रयोग होता है, जिनका अपना #धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है।
पितृ तर्पण की प्रमुख सामग्री
1. जल से भरे पात्र (कलश/थाली)
जल तर्पण का मुख्य माध्यम है। पवित्र जल पितरों की आत्मा तक पहुँचाने के लिए उपयोग होता है।
इसमें कुशा डालकर अर्घ्य दिया जाता है।
2. कुशा (दर्भा घास)
कुशा को अत्यंत पवित्र माना गया है। श्राद्ध और तर्पण में बिना कुशा के कोई भी क्रिया पूर्ण नहीं मानी जाती।
पितरों को जल अर्पित करने के लिए कुशा के टुकड़े जलपात्र में डाले जाते हैं।
3. तिल (काले तिल)
तिल से किया गया अर्घ्य पितरों तक शीघ्र पहुँचता है।
तिल का प्रयोग #पिंडदान और जल में मिलाकर अर्पण करने में होता है।
4. पिंड (चावल के गोलक/लड्डू या आटे के पिंड)
पितरों के तृप्ति हेतु पिंड बनाए जाते हैं।
यह शरीर का प्रतीक माने जाते हैं, जिन्हें अर्पित कर पितरों को तृप्त किया जाता है।
5. चावल (अक्षत)
अक्षत यानी चावल श्राद्ध में स्थिरता और अखंडता का #प्रतीक है।
इन्हें तर्पण के साथ अर्पित किया जाता है।
6. दही, दूध और घी
ये सभी पवित्रता, ताजगी और तृप्ति का प्रतीक हैं।
तर्पण सामग्री में इनका विशेष स्थान है।
7. पुष्प (विशेषकर गेंदे या पीले फूल)
पितरों को अर्पण करने के लिए ताजे #पुष्प चढ़ाए जाते हैं।
यह श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है।
8. #सिंदूर और #हल्दी
पूजा के दौरान तर्पण सामग्री में शुभता के लिए उपयोग किए जाते हैं।
9. दीपक और कच्चा दूध
दीपक से वातावरण पवित्र होता है और पितरों के लिए मार्गदर्शन का प्रतीक है।
दूध ताजगी और पवित्रता दर्शाता है।
अन्त में........
पितृपक्ष केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने का अवसर है। जिस तरह एक वृक्ष अपनी जड़ों से शक्ति पाता है, उसी प्रकार हमारा जीवन भी पितरों के आशीर्वाद से संवरता है। तर्पण की प्रक्रिया हमें यह स्मरण कराती है कि हम अकेले नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों की परंपरा और संस्कारों का विस्तार हैं।
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में अक्सर हम अपनी जड़ों से कटने लगते हैं। ऐसे समय में पितृपक्ष का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह न केवल पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का माध्यम है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए संस्कृति और मूल्यों को जीवित रखने का संकल्प भी है।
#श्राद्ध और तर्पण के इन छोटे-छोटे अनुष्ठानों में गहरी आध्यात्मिकता छिपी हुई है। जल की धारा से लेकर तिल और पिंड तक, हर सामग्री हमें यह एहसास कराती है कि #जीवन और #मृत्यु एक निरंतर चक्र है, और हमारी आस्था ही उस चक्र को संतुलित करती है।
आइए, इस पितृपक्ष में हम श्रद्धा और समर्पण के साथ अपने पितरों को तर्पण अर्पित करें, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिले और हमारे जीवन में सदैव उनके आशीर्वाद का प्रवाह बना रहे।
कमेंट पर जरूर बताइए #पितृ_तर्पण आपके यहां कौन करता है?

25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस भारत में मनाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, तुलसी का पौधा घर में लगाने से सुख-समृद्धि आती ...
25/12/2024

25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस भारत में मनाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, तुलसी का पौधा घर में लगाने से सुख-समृद्धि आती है और नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। तुलसी के पौधे को पूजनीय माना जाता है और इसे देवी तुलसी का स्वरूप माना जाता है। इस दिन लोग तुलसी के पौधे को सजाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। मान्यताओं के अनुसार, तुलसी पूजन करने से मां लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। इस उपलक्ष्य में आप सभी को तुलसी पूजन दिवस की बहुत सारी शुभकामनाएं।
#तुलसी #सनातनहमारीपहचान

परिजात वृक्ष...…🌺🌺🌺🌺🌺पांडव की मां कुंती के नाम पर रखा गया, किन्तूर गांव, जिला मुख्यालय बाराबंकी से लगभग 38 किलोमीटर पूर्...
02/11/2024

परिजात वृक्ष...…🌺🌺🌺🌺🌺

पांडव की मां कुंती के नाम पर रखा गया, किन्तूर गांव, जिला मुख्यालय बाराबंकी से लगभग 38 किलोमीटर पूर्वी दिशा में है। इस जगह के आसपास प्राचीन मंदिर और उनके अवशेष हैं। यहां कुंती द्वारा स्थापित मंदिर के पास, एक विशेष पेड़ है जिसे ‘परिजात’ कहा जाता है। इस पेड़ के बारे में कई बातें प्रचलित हैं जिनको जनता की स्वीकृति प्राप्त है। जिनमें से यह है, कि अर्जुन इस पेड़ को स्वर्ग से लाये थे और कुंती इसके फूलों से शिवजी का अभिषेक करती थी। दूसरी बात यह है, कि भगवान कृष्ण अपनी प्यारी रानी सत्यभामा के लिए इस वृक्ष को लाये थे। ऐतिहासिक रूप से, यद्यपि इन बातों को कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि यह वृक्ष एक बहुत प्राचीन पृष्ठभूमि से है। परिजात के बारे में हरिवंश पुराण में निम्नलिखित कहा गया है। परिजात एक प्रकार का कल्पवृक्ष है, कहा जाता है कि यह केवल स्वर्ग में होता है। जो कोई इस पेड़ के नीचे मनोकामना करता है, वह जरूर पूरी होती है। धार्मिक और प्राचीन साहित्य में, हमें कल्पवृक्ष के कई संदर्भ मिलते हैं, लेकिन केवल किन्तुर (बाराबंकी) को छोड़कर इसके अस्तित्व के प्रमाण का विवरण विश्व में कहीं और नहीं मिलता। जिससे किन्तूर के इस अनोखे परिजात वृक्ष का विश्व में विशेष स्थान है। वनस्पति विज्ञान के संदर्भ में, परिजात को ‘ऐडानसोनिया डिजिटाटा’ के नाम से जाना जाता है, तथा इसे एक विशेष श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह अपने फल या उसके बीज का उत्पादन नहीं करता है, और न ही इसकी शाखा की कलम से एक दूसरा परिजात वृक्ष पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार यह एक यूनिसेक्स पुरुष वृक्ष है, और ऐसा कोई पेड़ और कहीं नहीं मिला है।

निचले हिस्से में इस वृक्ष की पत्तियां, हाथ की उंगलियों की तरह पांच युक्तियां वाली हैं, जबकि वृक्ष के ऊपरी हिस्से पर यह सात युक्तियां वाली होती हैंं। इसका फूल बहुत खूबसूरत और सफेद रंग का होता है, और सूखने पर सोने के रंग का हो जाता है। इसके फूल में पांच पंखुड़ी हैं। इस पेड़ पर बेहद कम बार बहुत कम संख्या में फूल खिलता है, लेकिन जब यह होता है, वह ‘गंगा दशहरा’ के बाद ही होता है, इसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलती है। इस पेड़ की आयु 1000 से 5000 वर्ष तक की मानी जाती है। इस पेड़ के तने की परिधि लगभग 50 फीट और ऊंचाई लगभग 45 फीट है। एक और लोकप्रिय बात जो प्रचलित है कि, इसकी शाखाएं टूटती या सूखती नहीं, किंतु वह मूल तने में सिकुड़ती है और गायब हो जाती हैं। आसपास के लोग इसे अपना संरक्षक और इसका ऋणी मानते हैं, अतः वे इसकी पत्तियों और फूलों की रक्षा हर कीमत पर करते हैं। स्थानीय लोग इसे बहुत उच्च सम्मान देते हैं, इस के अलावा बड़ी संख्या में पर्यटक इस अद्वितीय वृक्ष को देखने के लिए आते हैं।

बनाकर "दीये मिट्टी" के ज़रा सी "आस" पाली है !मेरी "मेहनत" ख़रीदो लोगों "मेरे घर भी "दीवाली" है.❣ #दिवाली
28/10/2024

बनाकर "दीये मिट्टी" के ज़रा सी "आस" पाली है !
मेरी "मेहनत" ख़रीदो लोगों "मेरे घर भी "दीवाली" है.❣

#दिवाली

03/10/2024
पितृ विसर्जन अमावस्या 2 अक्टूबर 2024....…....नैमिषारण्य के चक्रतीर्थ व आदि गंगा गोमती में स्नान कर श्रद्धालु अपने पितरों...
02/10/2024

पितृ विसर्जन अमावस्या 2 अक्टूबर 2024....…....
नैमिषारण्य के चक्रतीर्थ व आदि गंगा गोमती में स्नान कर श्रद्धालु अपने पितरों की मुक्ति के लिए पिंडदान व तर्पण करते हैं। आज का दिन अपने पितरों के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने के लिए होता है। आश्विन मास की अमावस्या को पितृ विसर्जन अमावस्या भी कहा जाता है।

आज मुझे भी सनातन धर्म में मनाया जा रहा पितृपक्ष में पितरों के श्राद्ध तर्पण के लिए नैमिषारण्य आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

नैमिष तीर्थ भूमि का इस दिन विशेष महत्व है, इसे नाभि गया के नाम से भी जाना जाता है। यहां पितरों की तृप्ति के लिए पिंडदान, श्राद्ध व तर्पण करने से विशेष फल प्राप्त होता है।

जिन परिवारों को अपने पितरों की तिथि याद नहीं रहती है या पितरों की तिथि ज्ञात होने पर भी यदि समय पर किसी कारण से श्राद्ध न हो पाए, तो उनका श्राद्ध भी इसी अमावस्या को कर देने से पितर संतुष्ट हो जाते हैं। जिनकी अकाल मृत्यु हो गई हो उनका भी श्राद्ध इसी अमावस्या के दिन किया जा सकता है।

जय सनातन 🙏🙏

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