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 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है पहल और ज्ञानरंजन - कर्मेंदु शिशिर ...................................‘पहल’ के अब तक प्रकाश...
23/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है

पहल और ज्ञानरंजन - कर्मेंदु शिशिर ...................................

‘पहल’ के अब तक प्रकाशित 90 अंकों की सम्पूर्ण सामग्री से अगर आप सरसरी तौर पर भी गुज़रें तो समकालीनता के सारे गवाक्ष दिख जाएँगे । जिस विवेक से ‘पहल’ समाज और समय पर पैनी निगाह रखता है, उसे देखकर उसके वैचारिक भूगोल का विस्तृत पाट समझ में आ जाता है । समय, समाज और साहित्य को प्रभावित करने वाला शायद ही कोई मुद्दा उससे ओझल रहा हो । उसकी वैज्ञानिक सोच और यथार्थपरक विश्लेषण से तमाम अन्तर्विरोधों और विडम्बनाओं के परखने तथा एक ऐसी सांस्कृतिक सोच विकसित करने में मदद मिली, जिससे मौजूदा समय में हमारी संवेदना और संस्कार समृद्ध हुए । साहित्य और जीवन मूल्यों के विकास की यह एकता ‘पहल’ की महत्त्वपूर्ण वैचारिक उपलब्धि रही क्योंकि उसने व्यापक सामाजिक सरोकारों से ही साहित्य और संस्कृति के मूल्य विकसित किये ।

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 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #मीडियाजनसंचार माध्‍यम : भाषा और साहित्‍य - सुधीश पचौरी.....................................
22/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #मीडिया

जनसंचार माध्‍यम : भाषा और साहित्‍य - सुधीश पचौरी...................................

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया, इस तरह सूचना के साथ प्रकटत: लगभग एक जैसा व्यवहार ही करते हैं। उनके द्वारा दी जाती सूचना उनके अपने स्वरूप के अनुसार भले बदलती रहती हो लेकिन काम एक है : उपयोगी अनुभव को सूचना में बदलना। यह काम दोनों तरह के मीडिया करते हैं लेकिन 'अनुभव' को सूचना में बदलने की इस प्रकृति में एक जैसे लगते हुए भी दोनों तरह के मीडिया 'सूचना' को अपने-अपने ढंग से बनाते हैं। वे मनोरंजन को भी अपने-अपने ढंग से बनाते हैं। इस भेद को जानना जरूरी है कि क्यों एक ही अनुभव एक ही घटना प्रिंट मीडिया में ठीक वही अर्थ नहीं रखती जो इलेक्ट्रानिक मीडिया में रखती है। यह भेद दोनों तरह के मीडिया की प्रकृति के माइक्रो स्तर के भेद की वजह से है। यह तकनीक का भी भेद है और तद्‌जन्य सूचना के रूप का भेद है।

पढ़िए विजुअल और प्रिंट मीडिया

मीडिया और हिंदी भाषा एवं साहित्य के अंतर्संबंधों पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। होना चाहिये। हिंदी में मीडिया को लेकर ...

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #पत्रिका  तद्भव अंक 50...................................वह पता नहीं कितना अच्छा या बुरा,...
22/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #पत्रिका

तद्भव अंक 50...................................

वह पता नहीं कितना अच्छा या बुरा, मांगलिक या मनहूस, एकरैखिक या बहुअर्थीय, शांत या उपप्लवी, ऊब भरा या उत्तेजक, संगत असंगत दिन था जब अमन ने अनुग्रह निवास के चील के पंखों के रंग वाले ऊंचे से गेट की बेल बजाई जिसे सुन कर सांवले लावण्य का उजला नमक बिखेरती रानी गेट खोलने आई और जब गेट गीध के तिलिस्मी पंखों की तरह खुला तो स्याह हड्डाई चमक वाले अमन ने कहा कि वह अमन है जिसे सुन कर भरीदेह रानी ने यह नहीं कहा कि वह रानी है बल्कि एक आदमी भर के आने के लिए दरवाजा खोल कर कहा कि अमन अपने कैनवास के जूते जो बहुत मटमैले थे और मोजे जो बहुत फटे थे वहीं उतार दे और नल के पानी से अपने पैर जिनमें बहुत बिवाइयां थीं और मुंह जो पतला और उदास था धो ले - अमन ने वैसा ही किया और कुछ देर तक चेहरे और हाथ को हवा में सुखाने की कोशिश करते हुए चेहरा इस तरफ और उस तरफ किया और हाथ दाएं से बाएं और बाएं से दाएं हिलाया तो यह सब मजा लेकर देखते हुए भीतर अति आरंभिक रासायनिक परिवर्तन की पहली लहर को महसूस करते हुए रानी ने पूछा, “रूमाल लेकर नहीं चलते?”

पढ़िए देवी प्रसाद मिश्र की कहानी सजाएं

आधुनिक रचनाशीलता पर केंद्रित विशिष्ट संचयन

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #पत्रिका  व्यंग्य यात्रा जनवरी - जून ’25...................................ऐसा नहीं कि मै...
22/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #पत्रिका

व्यंग्य यात्रा जनवरी - जून ’25...................................

ऐसा नहीं कि मैं इससे पहले प्रेम को जानता नहीं था लेकिन हमारी दोस्ती का रंग 21 साल के कुछ पहले से ही गहरा होने लगा था। एक दिन मैं प्रेम के घर ही बैठा हुआ उसके और आशा भाभी के साथ चाय पी रहा था कि अचानक प्रेम ने मुझसे कहा- ‘सौ रुपए निकालो’। मैंने सौ रुपए दे दिए। मैंने पूछा भी नहीं कि वह सौ रुपए मुझसे क्यों माँग रहा है लेकिन मेरी आँखों में तैरते प्रश्न को उसने पढ़ लिया था और बोला- ‘बहुत दिनों से मन में है कि केवल व्यंग्य पर केन्द्रित एक पत्रिका निकालूँ। अभी केवल पाँच अंक निकालने की योजना है। इसलिए कुछ दोस्तों से पाँच अंकों का ही शुल्क ले रहा हूँ।’ उसके बाद बातों का सिलसिला चल निकला, जिसका लब्बोलुआब यह था कि केवल व्यंग्य पर केन्द्रित हिन्दी
में एक भी पत्रिका नहीं है। व्यंग्य को वैसे भी साहित्य में एक विध के रूप में अभी स्वीकार नहीं किया जाता। ‘मेरा प्रश्न था कि फिर केवल पाँच अंकों से क्या हो जाएगा?

पढ़िए प्रताप सहगल का आलेख व्यंग्य-शिविरों, कार्यशालाओं एवं विमर्श का मंच

दो दशक के पदचिह्न

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है मझधर में धार  - पंकज चतुर्वेदी...................................सोन को ‘मेकलसुत’ भी कहा ज...
21/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है

मझधर में धार - पंकज चतुर्वेदी...................................

सोन को ‘मेकलसुत’ भी कहा जाता है, अर्थात मेकल पर्वत या सतपुड़ा शृंखला का विंध्य से संधिस्थल पर स्थित पर्वत। इसी मेकल के पश्चिम छोर पर है अमरकंटक, जहाँ से नर्मदा प्रवाहित होती है। महाभारत के वन पर्व में उल्लेख है कि सोन और नर्मदा का उद्गमस्थल ‘वंशुग्लम’ है। लोक श्रुति यह भी है कि ब्रह्मा की आँखों से टपके दो आँसू ही नर्मदा और सोन हैं। असल में सोन का उद्गम पेंडरा और कंदा के बीच सोन मुंडा में है। एक लंबी सँकरी घाटी है जहाँ दो समानांतर पहाड़ियाँ हैं। यहीं एक पक्की बावली है। असल में सोन यहीं से प्रकट होती है।

पढ़िए सोन नद में बेख़ौफ घुलता जहर

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 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #पत्रिका  #मंटू_के_जीवन_लेखन_पर_अनूप_त्रिवेदी_का_नाटकबनास जन 77.............................
21/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #पत्रिका #मंटू_के_जीवन_लेखन_पर_अनूप_त्रिवेदी_का_नाटक

बनास जन 77...................................

‘सब्ज-सैंडिल’ और ‘अक्कल दाढ़’ को अलग-अलग ना पेश करने की सलाह दी हमारे संगी रंगमंडल के कलाकार कैलाश चौहान जी ने। कैलाश जी काफी अनुभवी हैं....उन्होंने कहा इन दोनों अफसानों को मिला देने से एक अलग सी बात बनेगी। मैंने उनकी बात मान ली और दोनों अफसानों को एक कर दिया।
तीन खामोश औरतें, पसेमन्जर आदि के जरिए मंटो का दर्द, जो वो हमसे कहना चाहते थे हमारे साथ share करना चाहते थे। नाटक की शक्ल में मैंने उनकी जिन्दगी और काम को आप तक वैसा ही पहुँचाने की हिम्मत जुटाई।

मंटू के जीवन और लेखन पर अनूप त्रिवेदी का नाटक

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #पत्रिका लमही अप्रैल - जून ’10...................................इस तथ्य से तो साहित्य सं...
21/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #पत्रिका

लमही अप्रैल - जून ’10...................................

इस तथ्य से तो साहित्य संसार भली भाँति परिचित है कि मुंशी प्रेमचंद का एक उर्दू उपन्यास किशना 1906 में प्रकाशित हुआ था लेकिन दुर्भाग्य से अभी तक भी उसकी कोई प्रति प्राप्त नहीं हो सकी है और वह उपन्यास साहित्य संसार के समक्ष नहीं आ पाया है। लेकिन इस तथ्य से साहित्य संसार अभी तक परिचित नहीं हो सका है कि मुंशी प्रेमचंद का एक नहीं वरन् दो उर्दू उपन्यास अभी तक भी प्रकाशित नहीं हो सके हैं। यह बात कहने-सुनने में अटपटी सी लगती है और सहसा इस पर विश्वास करने का भी मन नहीं होता लेकिन यह वास्तविकता है और इससे मुँह भी नहीं मोड़ा जा सकता। ऐसा क्यों हुआ, साहित्य संसार इस वास्तविकता से अपरिचित क्यों बना रहा, इन उपन्यासों की पाण्डुलिपियाँ कहाँ हैं, और ये उपन्यास अभी तक भी प्रकाशित क्यों नहीं हो सके, ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो किसी भी साहित्य प्रेमी के मन में स्वाभाविक रूप से जन्म लेंगे। और आगामी पंक्तियों में तार्किक आधारों पर इन जैसे समस्त प्रश्नों के उत्तर देने का विनम्र प्रयास किया गया है।

पढ़िए डा. प्रदीप जैन का आलेख प्रेमचंद के दो अप्रकाशित उपन्यास

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 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #पत्रिका  #हिंदी_साहित्येतिहास_लेखन_की_समस्याएँ  #विशेषांक समसामयिक सृजन अप्रैल - जून ’12...
21/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #पत्रिका #हिंदी_साहित्येतिहास_लेखन_की_समस्याएँ #विशेषांक

समसामयिक सृजन अप्रैल - जून ’12...................................

पहली बात तो यह है कि शुक्ल जी का जो इतिहास है उसकी पूरी जो संरचना है उस संरचना से मुक्त होकर ही नये इतिहास की बात सोची जा सकती है। जब मैं कह रहा हूँ इसके पीछे कई सारी बातें हैं, एक तो शुक्ल जी ने अपने इतिहास में जिस बात पर जोर दिया है वह है पढ़े-लिखे लोगों की रूचि के सवाल पर, रूचि को उन्होंने वरीयता दी है है जो पढ़े लिखे लोग है। उनकी जो साहित्यिक रूचि है उस रूचि को शुक्ल जी ने वरीयता दी है। ऐसा है कि जिस देश में साक्षरता दो से तीन प्रतिशत रही हो उस देश के साहित्य का पैमाना जब हम बनाते हैं तो केवल पढ़े-लिखे लोगों को पैमाना अगर बनाते हैं तो एक जो बड़ी संख्या है उस पैमाने से छूट जायेगी। शुक्ल जी साहित्य की परिभाषा जब देते हैं तो वे जनता की चित्तवृत्ति की बात करते हैं लेकिन व्यवहार में इतिहास अपना लिखते हुए वे पढ़े-लिखे लोगों की रूचि को महत्व देते हुए दिखाई पड़ते हैं। शुक्ल जी के इतिहास के साथ एक दिक्कत ये भी है कि वो इतिहास की किताब है। इसके साथ-साथ वह एक श्रेणी बनाने का भी काम करते हैं। कवियों का एक मूल्यांकन भी वो रखते हैं और कवियों का मूल्यांकन करते हुए प्रवृत्तियों का मूल्यांकन करते हुए शुक्ल जी की जो रूचि है वो पढ़े-लिखे लोगों के साथ मेल खाती हैं उनकी इस रूचि को आप ध्यान से देखें तो सारी चीजें, जो काल विभाजन उसमें भी मिलता है, प्रवृत्तियों का जो विभाजन है उसमें भी मिलता है।

पढ़िए सदानन्द शाही का आलेख शुक्ल जी का इतिहास एक खास अभिजात्य अभिरूचि से पल्लवित हो रहा है

हिंदी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएं

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है  #भारत_के_राजनेता  #सीरीज6सदन में रामविलास पासवान: प्रतिनिधि भाषण - सीरीज संपादक - संजीव च...
21/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #भारत_के_राजनेता #सीरीज6

सदन में रामविलास पासवान: प्रतिनिधि भाषण -
सीरीज संपादक - संजीव चंदन
संपादक - संजय पासवान, अदिति नारायणी...................................

सभापति महोदय, सबसे पहले मैं मुख्यमंत्री का ध्यान एक बात की ओर आकृष्ट करना चाहता हूं कि अभी कुछ देर पहले गर्दनीबाग के डोमटोली में हमला हो गया है और बहुत-से आदमी घायल हो गये हैं। मैंने इस बात को दारोगाजी से पूछा है।
मैं कटोती के प्रस्ताव का समर्थन करता हूं और धांधलियों के बारे में सरकार का ध्यान खींचना चाहता हूं। सभापति महोदय, सरकार की ओर से भूतपूर्व वक्ता ने कहा है कि उसी ओर ध्यान दिया जाता है जो क्षेत्र प्रगतिशील है। जो सबसे पिछड़ा क्षेत्र है उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है। समय कम है इसलिए मैं अपने क्षेत्र अलौली की तरफ आपका ध्यान ले जाता हूं। यह क्षेत्र पिछड़ा है और यहां सिंचाई का कोई साधन नहीं है। एक भी पंचायत ऐसा नहीं है एक भी गांव ऐसा नहीं है जहां सिंचाई की व्यवस्था की गयी हो। सरकार के पदाधिकारी क्या करते हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती है। कम-से-कम खर्च में जो काम हो सकता है वह भी नहीं होता है। हमारे यहां कई नदियां हैं - बागमती है, करेह नदी है, उसके पानी को इकट्ठा करके सिंचाई की जा सकती है।

पढ़िए कोशीग्रस्त की ओर सरकार का ध्यान क्यों नहीं

भारत के राजनेता सीरीज-6 सदन में रामविलास पासवान: प्रतिनिधि भाषण

पत्रिका का नया अंक1. नया ज्ञानोदय का नवीनतम अंक अब ऑनलाइन उपलब्ध है। यह विशेषांक हिंदी-उर्दू के सांस्कृतिक विमर्श को कें...
19/07/2025

पत्रिका का नया अंक
1. नया ज्ञानोदय का नवीनतम अंक अब ऑनलाइन उपलब्ध है। यह विशेषांक हिंदी-उर्दू के सांस्कृतिक विमर्श को केंद्र में रखकर तैयार किया गया है। इसमें भाषा, पहचान और साहित्य की गहन बहसों को समाहित किया गया है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=DmxI4DDN

2. निकट पत्रिका का डिजिटलीकरण
निकट पत्रिका के पुराने अंकों को डिजिटल रूप दिया जा रहा है। इस क्रम में सातवाँ अंक अब ऑनलाइन प्रकाशित हो गया है। यह अंक विशेष रूप से "पहली कहानी: पीढ़ियाँ साथ-साथ (भाग 1)" के रूप में जाना जाता है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=lNoAXDlC

3. मुक्तनाद: एक निरंतर प्रयास
SAMHAT द्वारा प्रकाशित पत्रिका मुक्तनाद के डिजिटलीकरण का कार्य जारी है। इस सप्ताह तीन नए अंक ऑनलाइन उपलब्ध कराए गए हैं, जो पाठकों को समकालीन साहित्यिक विमर्शों से जोड़ते हैं।

4. 'आज' पत्रिका के अतीत की ओर एक यात्रा
प्रसिद्ध उर्दू पत्रिका ‘आज’ (Ajmal Kamal द्वारा संपादित) के पुराने अंकों को डिजिटल रूप में सहेजने का काम भी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। इस सप्ताह 118वां अंक ऑनलाइन प्रकाशित किया गया है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=3jwOMM8o

नवीन डिजिटल पुस्तकें: साहित्य का नया रूप
1. विजय शर्मा की नई आलोचना-कृति: 'वर्जित संबंध नोबेल साहित्य में'
यह पुस्तक नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पाँच साहित्यिक कृतियों के "ग्रे शेड्स" की आलोचना करती है। शामिल प्रमुख रचनाएँ हैं:
Toni Morrison: The Bluest Eye
Gabriel Garcia Marquez: Of Love And Other Demons
Elfriede Jelinek: The Piano Teacher
Gunter Grass: The Tin Drum
Mario Vargas Llosa: Aunt Julia and the Scriptwriter
पुस्तक इन कृतियों में छिपे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक उलझनों की परतें खोलती है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=TnZl7buC

2. मधुकर उपाध्याय की ईबुक: "दांडी मार्च – धुंधले पदचिह्न"
प्रसिद्ध लेखक मधुकर उपाध्याय की यह पुस्तक अब डिजिटल फॉर्मेट में उपलब्ध है। लेखक ने स्वयं दांडी मार्च की ऐतिहासिक यात्रा को दोहराया और उस अनुभव को हर दिन की ऐतिहासिक झलकियों के साथ इस किताब में सजीव किया है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=SQKCO6TB

3. विष्णु नागर की काव्य-कृति की वापसी: "तालाब में डूबी छह लड़कियाँ"
1980 में प्रकाशित यह प्रतिष्ठित काव्य-संग्रह लंबे समय से आउट ऑफ प्रिंट था। अब इसे डिजिटल स्वरूप में पुनः प्रकाशित किया गया है, जिससे यह नई पीढ़ी के पाठकों तक पहुँचे।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=jgozm1GU

4. निदा नवाज़ की डायरी: "सिसकियाँ लेता स्वर्ग"
यह डायरी कश्मीर में आतंकवाद के प्रारंभिक दौर की सजीव दस्तावेज़ी प्रस्तुति है। लेखक की व्यक्तिगत पीड़ा और प्रत्यक्ष अनुभव से पगी यह डायरी 2015 तक की घटनाओं को समेटती है, जो पाठकों को उस दौर की गहराई से झलक देती है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=s81o2895

5.शरणकुमार लिंबाले की चर्चित पुस्तक "हिंदू" का पंजाबी अनुवाद
प्रसिद्ध दलित लेखक शरणकुमार लिंबाले की चर्चित कृति "हिंदू" का पंजाबी अनुवाद इस सप्ताह डिजिटल रूप में प्रकाशित हुआ है। यह सामाजिक अन्याय और पहचान की जटिलताओं पर आधारित महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
https://notnul.com/Pages/Book-Details.aspx?ShortCode=nLwo2Nzq

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है    #कश्मीर  #डायरीसिसकियाँ लेता स्वर्ग - निदा नवाज़...................................डर ह...
19/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है #कश्मीर #डायरी

सिसकियाँ लेता स्वर्ग - निदा नवाज़...................................

डर हमारे साथ ही जन्म लेता है और जीवन भर हमारे साथ लुका-छुपी का खेल खेलता है। कल की डरावनी रात का एक-एक दृश्य जैसे मेरी नज़रों के सामने आकर मुझे एक बार फिर भयभीत करना चाहता है । कल रात के लगभग साढ़े बारह बज चुके थे। मैं कुछ समय पूर्व ही नींद की सीढ़ी उतरने लगा था कि अचानक दरवाज़े को ज़ोरदार धक्का लगा। मेरी हृदय गति बढ़ गई। कुछ क्षण के लिए मैंने सोचा कि मैं परिवार जनों को जगाऊँ, लेकिन प्रयत्न करने के बाद भी मेरे गले से आवाज़ न निकल सकी। मुझे शाप सा लग गया था। बाहर उल्लू की बेहंगम आवाज़ रात के अंधेरे को चीर रही थी। मुझे बाहर किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी। मेरा पूरा शरीर पसीने से सराबोर हो गया।

पढ़िए आत्मा को कुरेदती डरावनी रात 12 सितंबर, 1992

परिस्थितियाँ जटिल, मार्मिक और भयावह हों और लेखक स्वयं उनका एक हिस्सा हो तो उन्हें डायरी के पन्नों पर उतारना मानसिक...

 #नॉटनल  #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है भारतीय बौद्धिकता और स्वदेश चिन्ता पिछली दो शताब्दियाँ - रूपा गुप्ता..........................
19/07/2025

#नॉटनल #पढ़ना_ही_ज़िंदगी_है

भारतीय बौद्धिकता और स्वदेश चिन्ता पिछली दो शताब्दियाँ - रूपा गुप्ता...................................

“है ताजगंज में अब तो नज़ीर का मेला।
नज़ीर क्या कि अजब बेनज़ीर का मेला।।”
नज़ीर हिन्दू.मुसलमान में समान रूप से लोकप्रिय थे। इस तथ्य की बार.बार चर्चा की जानी चाहिए। आखिर उनकी शायरी में ऐसा क्या था कि मुसलमानों ने काफिरों के व्रत.त्योहारों में शामिल होने वाले यहाँ तक कि उनके देवी.देवताओं की स्तुति लिखने वाले इस धर्म.भ्रष्‍ट शायर को इतनी मुहब्बत दी और हिन्दुओं ने इस विधर्मी कवि द्वारा लिखी गयी कविताओं को अपने जीवन में ही सम्मिलित नहीं किया बल्कि मन्दिर में उसे आरती रूप में भी गाया। अपने धर्म पर पूरा अक़ीदा रखते हुए नज़ीर सभी धर्मों को समान मानते थे। अठारहवीं-उन्‍नीसवीं सदी के उस सामन्तवादी परिवेश में यह क्योंकर सम्भव हुआ होगा! जबकि आज इक्‍कीसवीं सदी में यह स्थिति कल्पनातीत लगती है। इस कल्पना को सच में जिया था वली मुहम्मद ‘नज़ीर’ अकबराबादी ने।

पढ़िए नज़ीर अकबराबादी रू साझी पहचान का ‘निखालिस' कवि

यह पुस्तक विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में समय समय पर छपे मेरे आलेखों का परिनिष्‍ठित एवं परिवर्द्धित संकल...

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