मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul

मज़दूर बिगुल Mazdoor Bigul मज़दूरों का मासिक अख़बार Workers' monthly newspaper
https://www.mazdoorbigul.net/

‘मज़दूर बिगुल’ का स्वरूप, उद्देश्‍य और जिम्मेदारियां
‘मज़दूर बिगुल’ व्‍यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करता है। यह मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार करेगा और सच्‍ची सर्वहारा संस्‍कृति का प्रचार करेगा। यह दुनिया की क्रान्तियों के इतिहास और शिक्षाओं से, अपने देश के वर्ग संघर्षों और मज़दूर आन्‍दोलन के इतिहास और सबक से मज़दूर वर्ग को पर

िचित करायेगा तथा तमाम पूंजीवादी अफवाहों-कुप्रचारों का भण्‍डाफोड़ करेगा।

मज़दूर बिगुल’ भारतीय क्रान्ति के स्‍वरूप, रास्‍ते और समस्‍याओं के बारे में क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍टों के बीच जारी बहसों को नियमित रूप से छापेगा और ‘बिगुल’ देश और दुनिया की राजनीतिक घटनाओं और आर्थिक स्थितियों के सही विश्‍लेषण से मज़दूर वर्ग को शिक्षित करने का काम करेगा।
स्‍वयं ऐसी बहसें लगातार चलायेगा ताकि मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा हो तथा वे सही लाइन की सोच-समझ से लैस होकर क्रान्तिकारी पार्टी के बनने की प्रक्रिया में शामिल हो सकें और व्‍यवहार में सही लाइन के सत्‍यापन का आधार तैयार हो।

‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई चलाते हुए सर्वहारा क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन से उसे परिचित करायेगा, उसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के लिए भी लड़ना सिखायेग, दुअन्‍नी-चवन्‍नीवादी भूजाछोर ”कम्‍युनिस्‍टों” और पूंजीवादी पार्टियों के दुमछल्‍ले या व्‍यक्तिवादी-अराजकतावादी ट्रेडयूनियनों से आगाह करते हुए उसे हर तरह के अर्थवाद और सुधारवाद से लड़ना सिखायेगा तथा उसे सच्‍ची क्रान्तिकारी चेतना से लैस करेगा। यह सर्वहारा की कतारों से क्रान्तिकारी भरती के काम में सहयोगी बनेगा।
‘मज़दूर बिगुल’ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक, प्रचारक और आह्वानकर्ता के अतिरिक्‍त क्रान्तिकारी संगठनकर्ता और आन्‍दोलनकर्ता की भी भूमिका निभायेगा।

हीरो मोटोकार्प और रिको कम्पनी के मज़दूरों के बीच चलाया गया ‘मज़दूर बिगुल’ का वितरण अभियान!बीते 18 अगस्त को बिगुल मज़दूर ...
17/10/2025

हीरो मोटोकार्प और रिको कम्पनी के मज़दूरों के बीच चलाया गया ‘मज़दूर बिगुल’ का वितरण अभियान!

बीते 18 अगस्त को बिगुल मज़दूर द्वारा दोपहर दो पहिया वाहन निर्माता हीरो मोटोकार्प कम्पनी के गुड़गाँव (हरियाणा) के मदर प्लाण्ट के पास तथा रिको ऑटो कम्पनी के पास मज़दूरों के बीच के क्रान्तिकारी अख़बार 'मज़दूर बिगुल’ का वितरण अभियान चलाया गया।

मज़दूरों से अपील की गयी कि सभी मज़दूरों को देश-दुनिया में जारी मज़दूरों-मेहनतकशों के संघर्षों और अपने इतिहास को जानना-समझना बेहद ज़रूरी है। साथ ही उनका समर्थन करने के साथ, हर सम्भव तरीके से उनके साथ खड़ा होना होगा। इसी एकजुटता से न केवल अपनी समस्याओं को हल कर सकते हैं, बल्कि हम लूट-शोषण पर आधारित मुनाफाख़ोर और आदमख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था को दुनिया के हर कोने से मिटा सकते हैं। मज़दूर बिगुल अख़बार इसी मक़सद से निकाला जा रहा है कि पूरे देश के मज़दूरों को एकजुट किया जा सके और मज़दूरों के शोषण पर टिकी इस व्यवस्था को ख़त्म किया जा सके। इसलिए आज ऑटोमोबाइल सेक्टर समेत हर सेक्टर और इलाक़े में मज़दूरों-मेहनतकशों को संघर्षों का नये सिरे से आगाज़ करना होगा।

बजा बिगुल मेहनतकश जाग!चिंगारी से लगेगी आग!!बीते 12 अक्टूबर को ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा में 'बिगुल मज़दूर दस्ता' द्वारा मज...
15/10/2025

बजा बिगुल मेहनतकश जाग!
चिंगारी से लगेगी आग!!

बीते 12 अक्टूबर को ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा में 'बिगुल मज़दूर दस्ता' द्वारा मज़दूरों को एकजुट और संगठित करने के लिए मज़दूर बिगुल अख़बार का प्रचार अभियान चलाया गया। आज मज़दूरों-मेहनतकशों को बेहद बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी 16-16 घण्टे फैक्ट्रियों में हड्डियाँ गलानी पड़ रही हैं। देश की बड़ी मेहनतकश आबादी अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार से महरूम है। ग्रेटर नोएडा में काम करने वाले मज़दूरों के बच्चों के लिए एक भी ऐसा स्कूल नहीं है जहाँ वे अपने बच्चों को उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिला सकें, ऐसा अस्पताल नहीं है जहाँ इलाज कराना आसानी से सम्भव हो। पूरा नोएडा और ग्रेटर नोएडा निजीकरण की आग में झुलस रहा है। मज़दूरों को दड़बे जैसे लॉज़ों में ठूँस-ठूँस कर भरा गया है जिनका हर साल किराया बढ़ता रहता है।

मौजूदा फ़ासीवादी सरकार ने शोषण भरे ढाँचे को मज़बूत करने का काम किया है जो लोगों को बेरोज़गारी की ओर धकेल रही है। ऐसे में बेहद कम वेतन पर भी एक बड़ी आबादी काम करने को मजबूर है। इस शोषण के ख़िलाफ़ भारत के मज़दूरों में ग़ुस्सा साफ़ झलकता है। क्रान्तिकारी विकल्पहीनता के कारण यह ग़ुस्सा ज़ाया हो रहा है। ऐसे वक़्त में मज़दूर बिगुल अख़बार क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा और राजनीतिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार का काम कर रहा है और आज पूँजीपतियों के अख़बारों के बरअक्स विकल्प के रूप में यह अख़बार मेहनतकशों के बीच है।

मज़दूरों की वर्ग एकता ज़िन्दाबाद।

#मज़दूर

📮_______________📮*लद्दाख से लेकर उत्तराखण्ड तक, नेपाल से लेकर बंगलादेश तक नयी युवा पीढ़ी का सड़कों पर उबलता रोष, लेकिन क...
12/10/2025

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*लद्दाख से लेकर उत्तराखण्ड तक, नेपाल से लेकर बंगलादेश तक नयी युवा पीढ़ी का सड़कों पर उबलता रोष, लेकिन क्या स्वत:स्फूर्त विद्रोह पर्याप्त है?*
✍️ सम्पादकीय अग्रलेख, मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025
📱 https://mazdoorbigul.net/archives/17864
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इस लेख का एक अंश - *जब जनता के सब्र का प्याला छलकता है तो उसके अलग-अलग हिस्से, अलग-अलग मौक़ों पर, अलग-अलग मुद्दों पर सड़कों पर उतरते हैं, आन्दोलन करते हैं, विद्रोह करते हैं। शासक वर्ग को इससे तात्कालिक तौर पर बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन अगर ऐसे जनान्दोलनों में कोई क्रान्तिकारी पार्टी नेतृत्व में न हो, तो जनान्दोलन अपनी कुछ तात्कालिक विशिष्ट माँगों को पूरा करके शान्त हो जाते हैं। लोगों के दिल की भड़ाँस निकल जाती है। कई बार इससे शासन-परिवर्तन भी हो जाता है और पूँजीपति वर्ग अपने एक सन्तृप्त हो चुके मुखौटे को हटाकर कोई नया मुखौटा लगा लेता है। जनता को कुछ फौरी राहतें दे दी जाती हैं, ताकि वह शान्त हो जाये। और इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था सुरक्षित रहती है और जनता के साथ कुछ समझौते कर, उसके सामने कुछ टुकड़े फेंककर लोगों के गुस्से और असन्तोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव कर देती है। नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका में यही हुआ है।* ..............
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हम मज़दूर जानते हैं कि दुनिया भर में एक उथल-पुथल मची हुई है। एक ओर फ़िलिस्तीन की आज़ादी का सवाल तमाम देशों में हज़ारों की संख्या में मज़दूरों, छात्रों-युवाओं और नागरिकों को सड़कों पर उतार रहा है, न सिर्फ़ इज़रायल की हत्यारी सेटलर औपनिवेशिक सत्ता के चरित्र के बारे में उनकी आँखें खोल रहा है बल्कि सभी पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में उनके अपने शासक वर्ग के हत्यारे चरित्र के बारे में भी उनकी आँखें खोल रहा है; वहीं दूसरी ओर, आर्थिक संकट के दौर में दुनिया के कई अन्य देशों में भी बढ़ती आर्थिक असमानता, महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी के कारण पैदा जनअसन्तोष के कारण वहाँ के शासक वर्गों की सत्ता की वैधता ख़तरे में पड़ गयी है। संकट के दौर में शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के बीच के अन्तरविरोध बढ़ रहे हैं और इसी के चलते भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के तमाम मसले जनता के सामने आ रहे हैं। जनता के बढ़ते असन्तोष से घबरायी ये पूँजीवादी सत्ताएँ जनता के दमन को बढ़ा रही हैं, उनके जनवादी अधिकारों को छीन रही हैं, सोशल मीडिया प्रतिबन्ध आदि लगा रही हैं, लेकिन संकट के दौर में ये क़दम इन शासक वर्गों की सत्ता के वर्चस्व को और भी ज़्यादा कमज़ोर बना रहे हैं।

नेपाल में कहने के लिए सोशल मीडिया बैन के मसले पर नौजवान सड़कों पर उतरे और जल्द ही इस स्वत:स्फूर्त उभार ने देश के अच्छे-ख़ासे हिस्से को अपनी ज़द में ले लिया। नतीजा यह हुआ कि कुछ दिनों में ही ओली सरकार पलट गयी और इस समय वहाँ एक भूतपूर्व महिला जज सुशीला कार्की ने अन्तरिम सरकार की बागडोर सम्भाल ली है। तीन वर्ष पहले श्रीलंका में भी व्यापक जनअसन्तोष के फलस्वरूप पैदा हुआ जनउभार ने राजपक्सा सरकार को गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया और उसके परिणामस्वरूप वहाँ जनता विमुक्ति पेरामुना की दिस्सानायके सरकार सत्ता में आयी थी। पिछले साल बंगलादेश में भी छात्रों-युवाओं के विद्रोह के नतीजे के तौर पर शेख़ हसीना की दमनकारी और भ्रष्ट सरकार ज़मींदोज़ कर दी गयी और उसकी जगह अर्थशास्त्री व बैंकर मुहम्मद युनुस की सरकार अस्तित्व में आयी। इसी बीच इण्डोनेशिया और फिलिप्पींस से भी जनअसन्तोष और छात्रों-युवाओं के आन्दोलनों की ख़बरें आ रही हैं।

संक्षेप में, दक्षिण एशिया के कई देशों में वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में बढ़ती आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूख, बेघरी, अशिक्षा, महँगाई और बढ़ती आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा और अनिश्चितता के कारण व्यापक जनता में भारी असन्तोष है और अब कई देशों में वह फूटकर सड़कों पर भी आ रहा है। अगर लम्बी दूरी में देखा जाय तो यह प्रक्रिया वैश्विक स्तर पर 2008-09 से ही जारी है। अमेरिका में ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आन्दोलन, अरब विश्व में अरब बसन्त का जनउभार, तुर्की में गेज़ी पार्क आन्दोलन इसी दीर्घकालिक प्रक्रिया का अंग थे। ग़ौरतलब है कि 2007 के अन्त में ही इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी की शुरुआत हुई थी, जिससे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था कभी पूरी तरह से उबर नहीं पायी है और रह-रहकर औंधे मुँह गिरती रही है।

हमारे देश में भी वैश्विक मन्दी का असर 2011-12 से सघनता के साथ प्रकट होने लगे थे। इससे पैदा जनअसन्तोष को अण्णा हज़ारे नामक प्रतिक्रियावादी दक्षिणपन्थी प्यादे का इस्तेमाल कर फ़ासीवादी ताक़तों ने दक्षिणपन्थी दिशा में मोड़ा और यही प्रक्रिया अन्त में 2014 में मोदी सरकार के सत्तासीन होने के रूप में परिणत हुई। इसका ख़ामियाज़ा देश की जनता अभी तक भुगत रही है। पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार ने राज्यसत्ता के तमाम उपकरणों पर फ़ासीवादी शक्तियों की आन्तरिक पकड़ को गुणात्मक रूप से बढ़ाया है, इस दौर में समाज में टुटपुँजिया वर्गों के बीच की अन्धी फ़ासीवादी प्रतिक्रिया को बढ़ाते हुए फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन को भी सुदृढ़ किया है और भारत में पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बनाये रखते हुए उसकी अन्तर्वस्तु को अधिकाधिक खोखला बना दिया है। इस समूची प्रक्रिया का नतीजा यह है कि आज चुनावों की समूची प्रक्रिया को ही मोदी सरकार वोट चोरी व चुनावी घपले के अन्य रूपों के ज़रिये बेकार बनाने पर तुली हुई है और काफ़ी हद तक बना भी दिया है।

न्यायपालिका, नौकरशाही, पुलिस प्रशासन, सेना, ईडी व केन्द्रीय चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की क्या स्थिति हो गयी है, इससे जनता का बड़ा हिस्सा वाक़िफ़ हो चुका है। लोकतन्त्र का “चौथा खम्भा” ऐसी स्थिति में पहुँच गया है कि कोई श्वान प्रजाति का जीव उस पर मूत्र-विसर्जन करना भी पसन्द नहीं करेगा और नतीजतन जनता का बहुलांश उसे ‘गोदी मीडिया’ की संज्ञा देने लगा है। पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा अभी भी मोदी सरकार के पीछे मज़बूती से खड़ा है क्योंकि आर्थिक संकट के दौर में उसे एक फ़ासीवादी शासन की आवश्यकता है जो एक ओर मज़दूरों व आम मेहनतकश आबादी की मज़दूरी और आय को नीचे गिराये, पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को बढ़ाये, जनता की सार्वजनिक सम्पत्ति को निजी मालिकों के हवाले करे, जनता के प्रतिरोध का बर्बर दमन करे और इस प्रकार मन्दी से पूँजीपति वर्ग को राहत दे। लेकिन पूँजीपति वर्ग के समर्थन और जनता के टुटुपुँजिया वर्ग के एक व्यवस्थित रूप से साम्प्रदायिकीकृत हिस्से को छोड़कर मोदी सरकार जनता के बड़े हिस्से में जनवैधता खो चुकी है और यह अब साफ़ तौर पर दिख रहा है। साथ ही, देश भर में अर्थव्यवस्था के भयंकर कुप्रबन्धन के साथ-साथ राजनीतिक मसलों को सम्भालने के मामले में भी मोदी सरकार अपने इस संकट के दौर में भारी ग़लतियाँ करने को बाध्य है।

नतीजतन, देश भर में असमानता, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, महँगी होती शिक्षा के मसले पर व्यापक छात्र-युवा आबादी में भारी असन्तोष है जो उत्तराखण्ड समेत तमाम जगहों पर जब-तब फूट पड़ रहा है। मेहनतकश जनता में भी भयंकर गुस्सा सुलग रहा है। उसकी औसत मज़दूरी व आय को गिराने का हर क़दम मोदी सरकार धड़ल्ले से उठाती रही है और अभी भी उठा रही है। हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में संगठित क्षेत्र के मैन्युफैक्चरिंग उत्पादन में पहली बार ठेका व अस्थायी मज़दूरों का हिस्सा 42 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। नये लेबर कोडों के लागू हुए बिना ही यह स्थिति है तो अस्थायीकरण के नये-नये रूपों को नये-नये नामों के साथ बढ़ाने के लिए बनाये गये इन नये लेबर कोडों के लागू होने के बाद अनौपचारिकीकरण की दर में किस गति से बढ़ोत्तरी होगी, यह समझा जा सकता है। भयंकर बेरोज़गारी से मजबूर हम मेहनतकश-मज़दूर अभी ठेका, अस्थायी, अप्रेण्टिस, ट्रेनी आदि के नाम पर बेहद कम मज़दूरी पर काम करने को मजबूर हैं और जो भी काम मिल रहा है उसे पकड़ने के अलावा हमारे पास फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिखता। लेकिन समूचे सामाजिक पैमाने पर यह स्थिति आने वाले समय में व्यापक मज़दूर आबादी में विस्फोटक गुस्से को जन्म देगा क्योंकि ये चीज़ें श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध और नतीजतन मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच के अन्तरविरोध को बेहद तेज़ी से तीखा बनायेंगी। मेहनतकशों के बीच और मज़दूर आन्दोलन में आज जो सापेक्षिक शान्ति नज़र आ रही है, वह हमेशा नहीं बनी रहेगी और महज़ यहाँ-वहाँ फूट पड़ने के बजाय मज़दूरों में व्यापक असन्तोष और गुस्सा एक व्यापक आन्दोलन का रूप भी ले सकता है। अगर मज़दूर अपने बीच मौजूद भितरघातियों को किनारे लगाने में क़ामयाब होते हैं, यानी माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी नकली वाम पार्टियों और उनकी अर्थवादी ट्रेड यूनियनों, मसलन, सीटू, एटक व ऐक्टू को, तो आने वाले दिनों में मज़दूरों के बीच से भी किसी व्यापक विद्रोह के फूट पड़ने की सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

लद्दाख़ में सोनम वांगचुक के नेतृत्व में राज्य के दर्जे के लिए जारी जनान्दोलन से लेकर पेपर लीक के मसले पर उत्तराखण्ड में जारी युवा आन्दोलन तक हमारे देश में भी अलग-अलग मसलों पर यहाँ-वहाँ जनता का असन्तोष राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के लिए फूट रहा है। सच है कि इसने अभी श्रीलंका, बंगलादेश या नेपाल की तरह देशव्यापी स्वरूप अख्तियार नहीं किया है और शायद निकट भविष्य में ऐसा हो भी नहीं, क्योंकि भारत के शासक वर्ग और इन पड़ोसी देशों के शासक वर्ग के इतिहास और उनके वर्चस्व की जड़ों में काफ़ी अन्तर है। लेकिन देश के शासक वर्गों को डराने के लिए यहाँ-वहाँ हो रही उथल-पुथल और पड़ोसी देशों में हो रहे जनविद्रोह भी आज के हालात में भारतीय शासक वर्गों की आत्मा में सिहरन पैदा कर देने के लिए पर्याप्त हैं। साथ ही, वोट चोरी के मसले पर भी देश की जनता में एक गुस्सा और असन्तोष सुलग रहा है। यह बात अब स्पष्ट तौर पर सामने आ चुकी है कि भाजपा ने चुनावों को और उसमें आने वाले जनादेश को चुराया है और इस प्रकार पूँजीवादी लोकतन्त्र के भीतर जनता को मिलने वाले एक राजनीतिक जनवादी अधिकार का हनन किया है।

दक्षिण एशिया में तमाम देशों में हुए शासन-परिवर्तन और हमारे देश में मौजूद सतह के नीचे सुलग रहे जनअसन्तोष के आधार पर कई लोग ऐसा क़यास लगा रहे हैं कि भारत में भी कोई स्वत:स्फूर्त देशव्यापी युवा उभार हो सकता है और उस सूरत में शासन-परिवर्तन भी हो सकता है। यूँ तो इसकी गुंजाइश फिलहाल कम नज़र आ रही है, लेकिन ऐसा हो भी तो ज़्यादा से ज़्यादा हम किस चीज़ की उम्मीद कर सकते हैं? इसे समझने के लिए उन सभी देशों में आज मौजूद सामाजिक-आर्थिक स्थिति का एक मूल्यांकन करें जिनमें पिछले 17-18 वर्षों में किसी जनान्दोलन या युवा उभार के कारण शासन-परिवर्तन हुए हैं, मसलन, मिस्र, ट्यूनीशिया, श्रीलंका, बंगलादेश, नेपाल। बाद के दो देशों में स्थितियाँ स्पष्ट होने में कुछ और समय लगेगा, लेकिन इतना साफ़ हो गया है कि मेहनतकश जनता की जीवन और कार्य स्थितियों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है। वजह यह कि इन देशों में जो पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद थी वह अभी भी मौजूद है। इन शासन-परिवर्तनों से पहले भी देश की समस्त सम्पदा के बहुलांश पर मुट्ठी-भर धन्नासेठों और मालिकों का कब्ज़ा था, अभी भी है। तब भी हर वस्तु और सेवा का उत्पादन इन मुट्ठी-भर मालिकों के मुनाफ़े की ख़ातिर होता था, न कि सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए; अब भी ऐसा ही है। तब भी देश की राज्यसत्ता पर पूँजीपति वर्ग काबिज़ था, अभी भी इन देशों में राज्यसत्ता पर पूँजीपति वर्ग ही काबिज़ है। फ़र्क सिर्फ़ इतना आया है कि शासक वर्ग के शासक ब्लॉक के विभिन्न धड़ों के आन्तरिक रिश्तों में फ़र्क आ गया है, सरकार बदल गयी है, शासक वर्ग का कोई नया चेहरा जनता के गुस्से को सोखने के लिए सत्ता में आ गया है। यही वजह है कि श्रीलंका में मेहनतकश जनता क्रान्ति का रास्ता छोड़ चुकी और उससे ग़द्दारी कर चुकी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना के हाथों में श्रीलंका के पूँजीपति वर्ग ने सत्ता की बागडोर सौंपी। अन्य सुधारवादी, संशोधनवादी और सामाजिक-जनवादी बन चुकी पार्टियों के समान ही जेवीपी भी पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था की आख़िरी सुरक्षा पंक्ति का काम श्रीलंका में निभा रही है। जब अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ जनता का विश्वास खो चुकी हैं, जनता को विकल्प की तलाश है, लेकिन जनता के बीच कोई क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व नहीं हैं, तो जेवीपी के दिस्सानायके सामने आये हैं पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा के लिए।

सामाजिक-जनवादी व सुधारवादी पार्टियों का चरित्र जनता के बीच सबसे देर से नंगा होता है, विशेष तौर पर तब जबकि वे विचारणीय समय तक सत्ता में रह जायें। जेवीपी के साथ भी ऐसा ही होगा और ऐसा होना शुरू हो चुका है।

उसी प्रकार बंगलादेश में साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के दूरदर्शी पहरेदार और सुधारवादी अर्थशास्त्री व बैंकर मुहम्मद युनुस नये शासक बने हैं। राजनीतिक कार्यक्रम, दिशा और नेतृत्व से वंचित विद्रोही युवाओं को ऐसे चरित्र आसानी से भटका सकते हैं। इसलिए क्योंकि सम्भवत: उन पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं होता और सम्भवत: वह भाई-भतीजावाद नहीं करते हैं। लेकिन यह वही मुहम्मद युनुस हैं जिन्होंने बंगलादेश के शासक वर्गों को एक समय चेताया था कि निर्बन्ध पूँजीवादी लूट से देश में विद्रोह हो सकता है, गाँव के ग़रीबों को पूरी तरह से बरबाद करने और शहरों की ओर उनके प्रवास की प्रक्रिया की रफ़्तार को धीमा करना होगा क्योंकि शहरी असन्तोष समूची व्यवस्था के लिए ख़तरनाक़ हो सकता है। इसके इलाज के तौर पर उन्होंने ग्रामीण बैंक, बंगलादेश के कर्ता-धर्ता के तौर पर सूक्ष्म ऋण योजना शुरू की थी, जिसका मक़सद था एक ओर भयंकर ब्याज दरों के ज़रिये ग़रीब मेहनतकशों के शरीर से ख़ून चूसना और वित्त पूँजी को लाभ पहुँचाना, वहीं दूसरी ओर ग़रीबों को भुखमरी के स्तर पर उद्यमी बन जाने के भ्रम के साथ ज़िन्दा रखना। और इसके लिए मुहम्मद युनुस को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, बल्कि शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला! क्यों? क्योंकि उन्होंने एक देश में पूँजीवादी अन्यायपूर्ण ‘शान्ति’ को दीर्घजीवी बनाने में बंगलादेश के शासक पूँजीपति वर्ग की सहायता की थी और दुनिया भर के पिछड़े पूँजीवादी देशों के शासक वर्ग के लिए एक उपयोगी नुस्खा पेश किया था।

इसी प्रकार, नेपाल में न्यायपालिका के एक शख़्स को युवाओं के विद्रोह और ओली सरकार के पतन के बाद अन्तरिम सरकार की बागडोर सौंपी गयी। न्यायपालिका पूँजीवादी राज्यसत्ता के उन निकायों में से होती है, जिसका पूँजीवादी चरित्र जनता के सामने सबसे कम और सबसे देर से साफ़ होता है। जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से को यह भ्रम होता है कि न्यायपालिका तो निष्पक्ष है और वह कोई निरपेक्ष और वर्गेतर न्याय करती है। इस वजह से दुनिया में पहले भी पूँजीपति वर्ग ने अपने राजनीतिक संकट के दौरों में न्यायपालिका के लोगों का इस्तेमाल किया है। सच्चाई यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में न्यायपालिका पूँजीवादी सम्बन्धों की ही रक्षा करती है। चूँकि वह पूँजीपति वर्ग के भीतर के, जनता के भीतर के, पूँजीपति वर्ग और मध्य वर्ग के भीतर के, पूँजीपति वर्ग और मेहनतकश जनता के भीतर के विवादों, सभी का निपटारा करती है, इसलिए निष्पक्ष प्रतीत होती है क्योंकि पूँजीपति वर्ग और मेहनतकश जनता के बीच के विवादों के निपटारों का मामला छोड़ दिया जाय, तो आम तौर पर वह अन्य विवादों के निपटारे में निष्पक्षता की एक तस्वीर पेश करती है। साथ ही, कई बार पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हितों के मद्देनज़र वह किसी एक या कुछेक पूँजीपतियों के हितों के बजाय मज़दूरों के हित में फैसला देती है क्योंकि पूँजीपति वर्ग के हितों की रखवाली के लिए यह आवश्यक होता है कि उसके दूरगामी सामूहिक राजनीतिक वर्ग हितों की रक्षा की जाय और कई बार यह एक या कुछ पूँजीपतियों के हितों की क़ीमत पर ही सम्भव हो पाता है। यही वजह है कि न्यायपालिका को लेकर हम मज़दूरों, मेहनतकशों और आम जनता में कई भ्रम-विभ्रम बने रहते हैं और हम उस पर काफ़ी धैर्य के साथ भरोसा जमाये रहते हैं। यही वजह है कि नेपाल के शासक वर्ग ने अपने सभी राजनीतिक मुखौटों के फिलहाल मैला हो जाने के कारण न्यायपालिका से आयीं और भूतपूर्व जज सुशीला कार्की के हाथों में अन्तरिम सरकार की सत्ता सौंपी है।

ये अपेक्षाकृत “साफ़ चेहरे” या “साफ़ मुखौटे” पूँजीवादी व्यवस्था को तात्कालिक संकट से बचाते हैं, जनता का गुस्सा सोखते हैं, व्यवस्था-परिवर्तन के बिना पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर “परिवर्तन” का दृष्टि-भ्रम पैदा करने का काम करते हैं, छीन लिये गये राजनीतिक जनवादी अधिकारों को बहाल करने वाले कुछ प्रतीकात्मक क़दम उठाते हैं, कुछ क़ानूनी सुधार करते हैं, और इस प्रकार जारी जन-आँधी के गुज़र जाने तक पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा करते हैं। जब तक व्यापक मेहनतकश जनता के पास एक क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यक्रम, क्रान्तिकारी राजनीतिक लाइन, क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन और क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व नहीं होगा, तब तक वह इन छलावों में आती ही रहेगी और एक समय बाद अपने गुस्से के सहयोजित कर लिये जाने के बाद, महज़ शासन-परिवर्तन कर और कुछ तात्कालिक विशिष्ट माँगों को जीतकर, और पूँजीवादी व्यवस्था को ज्यों का त्यों छोड़ अपने घर लौट जायेगी।

इसलिए हमारे सामने आज, जब दक्षिण एशिया उबाल पर है, तो यह सवाल फिर से उपस्थित है, जिसे हमने अरब जनउभार के ठीक बाद भी ‘बिगुल’ के पन्नों पर उठाया था: क्या स्वत:स्फूर्त पूँजीवाद–विरोध और विद्रोह पर्याप्त है? पिछले डेढ़ दशक का इतिहास दिखलाता है कि यह काफ़ी नहीं है। बिना एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त के, बिना क्रान्तिकारी संगठन के कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन, यानी ऐसा आन्दोलन नहीं सम्भव है जो महज़ शासन-परिवर्तन पर समाप्त न हो जाये, बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन को अंजाम दे।

हमें यह समझना होगा कि पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी रक्षा करने वाली पूँजीवादी राज्यसत्ता का चरित्र क्या है। पूँजीवादी समाज और व्यवस्था में उत्पादन के समस्त साधन पूँजीपति वर्ग के निजी स्वामित्व के मातहत होते हैं। ये उत्पादन के साधन उनके पुरखों ने उन्हें “कमाकर” नहीं दिये और न ही यह उनके पुरखों की क़ाबिलियत के बूते उन्हें मिले। ये उत्पादन के साधन लूट और ज़ोर-ज़बर्दस्ती के ज़रिये उनके हाथों में आये। पूँजीवादी विचारधारा हमें इस झूठ में यक़ीन दिलाना सिखाती है कि जो क़ाबिल था वह पूँजीपति व धनी बन गया, और हम ग़रीब इसलिए रह गये क्योंकि हम नाक़ाबिल थे! इस झूठ को यह व्यवस्था अपनी शिक्षा व्यवस्था व मीडिया द्वारा इतनी बार दुहराती है कि यह सच लगने लगता है। चूँकि हमारे पास समूचे समाज और इतिहास के ज्ञान तक सहज पहुँच नहीं होती है, इसलिए हममें से कई साथी इस झूठ का शिकार भी हो जाते हैं। सच्चाई यह है कि प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा सभी को बराबर हक़ के साथ मिलने चाहिए और हर उत्पादन के साधन का उत्पादन स्वयं किसी एक मज़दूर ने नहीं बल्कि समूचे मज़दूर वर्ग ने मिलकर ही किया है, न कि किसी मालिक या धन्नासेठ ने। नतीजतन, सभी प्राकृतिक संसाधनों पर समूचे समाज का सामूहिक हक़ होता है और साथ ही समस्त उत्पादन के साधन भी मेहनतकश वर्ग की सामूहिक सम्पत्ति होते हैं।

लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में समस्त उत्पादन के साधन पूँजीपति वर्ग के इजारेदार मालिकाने के मातहत होते हैं। नतीजतन, जो वास्तव में प्रत्यक्ष उत्पादक हैं, यानी औद्योगिक और खेतिहर मज़दूर, वे अपनी श्रमशक्ति पूँजीपति (उद्योगपति, धनी व्यापारी, धनी किसान व भूस्वामी वर्ग) को बेचने को मजबूर होते हैं। दूसरी तरफ़, छोटे किसान और साधारण माल उत्पादक अपने उत्पादन के साधनों व ज़मीन के मालिक होते हैं, लेकिन वे पूँजीपति नहीं होते और मज़दूरों की श्रमशक्ति का शोषण नहीं करते, बल्कि अपने व अपने पारिवारिक श्रम के साथ स्वयं उत्पादन करते हैं। इन साधारण माल उत्पादकों को धनी किसान, आढ़ती, व्यापारी, सूदखोर व बिचौलिये असमान विनिमय के ज़रिये, यानी उनके मालों को उनके मूल्य से कम दाम पर ख़रीदकर या ब्याज के ज़रिये लूटते हैं। लेकिन ये साधारण माल उत्पादक प्रत्यक्ष उत्पादक होते हैं और मेहनतकश जनता का अंग होते हैं। आज तो इन साधारण माल उत्पादकों का बड़ा हिस्सा भी अर्द्ध-मज़दूर में तब्दील हो चुका है क्योंकि उनकी अपनी छोटी खेती या छोटे-मोटे धन्धे से उनके घर की अर्थव्यवस्था नहीं चलती और उन्हें पूँजीपतियों के यहाँ उजरती श्रम भी करना पड़ता है।

पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों और मेहनतकश आबादी के इस शोषण व उनकी लूट पर ही टिकी होती है। पूँजीवादी राज्यसत्ता इन्हीं उत्पादन के सम्बन्धों की रक्षा करती है, अपने दमनकारी उपकरण के ज़रिये भी और अपने विचारधारात्मक उपकरणों के ज़रिये भी। ऐसी व्यवस्था और राज्यसत्ता को जड़ से उखाड़कर फेंकना ही मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी का अन्तिम लक्ष्य है। उनका लक्ष्य मज़दूरों व मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना करना है और एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का निमार्ण करना है जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के समूचे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का अधिकार हो और फ़ैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में हो। यही समाजवादी क्रान्ति का कार्यक्रम है।

पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर और मेहनतकश वर्ग अपने रोज़मर्रा के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों के लिए अपनी यूनियनों व अपने जनसंगठनों के ज़रिये संघर्ष करते हैं। लेकिन अगर उनका यह संघर्ष केवल इन्हीं आर्थिक माँगों को जीतने तक ही सीमित रह जाता है तो उनकी मुक्ति नहीं हो सकती है। इन संघर्षों का लक्ष्य भी यह होता है कि हम मेहनतकश मौजूदा व्यवस्था के समूचे चरित्र को उजागर करें, उसे समझें और यह जान लें कि इस व्यवस्था की चौहद्दियों के भीतर हमारी समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। इसलिए मज़दूर वर्ग के लिए इन रोज़मर्रा के संघर्षों को भी अर्थवादी तरीक़े से नहीं बल्कि राजनीतिक तरीक़े से संगठित करना अनिवार्य है और यह भी अर्थवादी ट्रेड यूनियनों के ज़रिये सम्भव नहीं है। इसके लिए तमाम पूँजीवादी व नकली वाम पार्टियों की ट्रेड यूनियनों की जगह मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों को खड़ा करना ज़रूरी है, जो रोज़मर्रा के विशिष्ट संघर्षों को दूरगामी सामान्य संघर्ष से जोड़ सकें, उसकी एक कड़ी बना सकें। लेकिन फिर भी ये विभिन्न तात्कालिक व विशिष्ट माँगों को जीतने के लिए होने वाले ये संघर्ष मज़दूर वर्ग व आम मेहनतकश जनता की मुक्ति की परियोजना को मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर फेंकना और उसकी रक्षा करने वाली पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस ही एकमात्र रास्ता है।

लेकिन एक क्रान्तिकारी पार्टी के बिना यह सम्भव नहीं है। क्योंकि एक क्रान्तिकारी पार्टी ही समूची मेहनतकश आबादी को देशव्यापी पैमाने पर एकजुट कर सकती है, न कि एक कारखाने, एक पेशे, एक क्षेत्र के आधार पर। देश का पूँजीपति वर्ग अपनी पूँजीवादी पार्टियों के ज़रिये अपने वर्ग हितों को संगठित करता है और एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर अपने आपको संगठित कर अपनी सत्ता को चलाता है। उसकी राज्यसत्ता हमारे दमन का एक हिंसात्मक और संगठित उपकरण है। उसका ध्वंस तभी सम्भव है जब मेहनतकश जनता भी अपनी एक क्रान्तिकारी पार्टी के मातहत संगठित हो। साथ ही, इस क्रान्तिकारी पार्टी के ज़रिये ही मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता अपने दुश्मन वर्गों और मित्र वर्गों की सही पहचान कर सकते हैं, क्रान्ति का सही लक्ष्य और कार्यक्रम निर्धारित कर सकते हैं और उसकी रणनीति और आम रणकौशल को निर्मित कर सकते हैं। ऐसी क्रान्तिकारी पार्टी ही व्यापक क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को संगठित कर सकती है, उन्हें एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कार्यक्रम के ज़रिये एक सूत्र में पिरो सकती है और पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर एक मज़दूर सत्ता का निर्माण कर सकती है। यानी, एक क्रान्तिकारी पार्टी, क्रान्तिकारी कार्यक्रम और क्रान्तिकारी जनान्दोलन के बिना आमूलगामी बदलाव सम्भव नहीं है।

इनके अभाव में भी जब जनता के सब्र का प्याला छलकता है तो उसके अलग-अलग हिस्से, अलग-अलग मौक़ों पर, अलग-अलग मुद्दों पर सड़कों पर उतरते हैं, आन्दोलन करते हैं, विद्रोह करते हैं। शासक वर्ग को इससे तात्कालिक तौर पर बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन अगर ऐसे जनान्दोलनों में कोई क्रान्तिकारी पार्टी नेतृत्व में न हो, तो जनान्दोलन अपनी कुछ तात्कालिक विशिष्ट माँगों को पूरा करके शान्त हो जाते हैं। लोगों के दिल की भड़ाँस निकल जाती है। कई बार इससे शासन-परिवर्तन भी हो जाता है और पूँजीपति वर्ग अपने एक सन्तृप्त हो चुके मुखौटे को हटाकर कोई नया मुखौटा लगा लेता है। जनता को कुछ फौरी राहतें दे दी जाती हैं, ताकि वह शान्त हो जाये। और इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था सुरक्षित रहती है और जनता के साथ कुछ समझौते कर, उसके सामने कुछ टुकड़े फेंककर लोगों के गुस्से और असन्तोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव कर देती है। नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका में यही हुआ है।

जनता के गुस्से का स्वत:स्फूर्त रूप से फूटना कितना भी हिंस्र और भयंकर हो, उसका स्वत:स्फूर्त विद्रोह कितना भी जुझारू हो, वह अपने आप में पूँजीवादी व्यवस्था को पलटकर कोई आमूलगामी बदलाव नहीं ला सकता है। वजह यह है कि ऐसे विद्रोह के पास कोई विकल्प नहीं होता है, कोई स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं होता है। वह पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ लक्षणों का निषेध करता है, लेकिन वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में नहीं खड़ा करता और न ही उसका कोई व्यावहारिक विकल्प पेश कर पाता है। क्या नहीं चाहिए, यह उसे कुछ लक्षणों के रूप में समझ आता है, लेकिन क्या चाहिए इसका कोई एक सुव्यवस्थित विचार उसके पास नहीं होता है।

निश्चित तौर पर, यह एक सकारात्मक बात है कि पिछले डेढ़ दशकों के दौरान जनता के बीच छायी शान्ति, शिथिलता और निष्क्रियता समाप्त हुई है। दुनिया के तमाम हिस्सों में जनता की बग़ावतों ने दिखला दिया है कि 1990 में सोवियत यूनियन में सामाजिक-साम्राज्यवाद और संशोधनवाद के पतन के बाद से जो निराशा और पस्तहिम्मती छायी हुई थी, उसकी मोटी सतह में आज दीर्घकालिक मन्दी और इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी के दौरान दरारें पड़ने लगी हैं। लेकिन जनता के स्वत:सफूर्त आन्दोलनों में जबतक क्रान्तिकारी विचारधारा, क्रान्तिकारी राजनीति, क्रान्तिकारी राजनीतिक लाइन और इनके वाहक के तौर पर क्रान्तिकारी संगठन का प्रवेश नहीं होता तो ज़्यादा से ज़्यादा वे शासन-परिवर्तन ही कर सकते हैं, व्यवस्था-परिवर्तन नहीं। कुल मिलाकर, जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आता है। बस कुछ तात्कालिक राहतें ही हासिल हो सकती हैं, चाहे वे आर्थिक अधिकारों व सुधारों के रूप में हों या राजनीतिक अधिकारों व सुधारों के रूप में।

जब दुनिया मौजूद उथल-पुथल से गुज़र रही है, तो यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि एक क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण आज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसके बिना, परिवर्तन के लिए इतिहास द्वारा उपस्थित किये जा रहे अवसर बेकार चले जायेंगे। संकटग्रस्त पूँजीवाद के दौर में क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ पैदा होती रहेंगी और कोई न कोई पूँजीवादी दल या नेता उसे बरबाद कर पूँजीवादी व्यवस्था के सीमान्तों की रक्षा करता रहेगा। अगर हम परिवर्तन की घड़ी को यूँ ही अपना गुस्सा निकालकर गुज़र जाने देते हैं, तो आम तौर पर हमारी सज़ा होती है फ़ासीवादी व अन्य प्रकार की धुर-दक्षिणपन्थी पूँजीवादी प्रतिक्रिया, जैसा कि अरब विश्व में कई देशों का उदाहरण दिखलाता है। ऐसे जनउभार हमें पूर्वसूचना देकर नहीं आते। वे अचानक आते हैं और सबसे समझदार क्रान्तिकारी पार्टी या नेताओं को भी अक्सर चौंका देते हैं। जब ये जनउभार होते हैं, उसी समय हम अचानक क्रान्तिकारी पार्टी और विकल्प का निर्माण नहीं कर सकते हैं। क्रान्तिकारी पार्टी सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष, उसकी रणनीति व आम रणकौशल के निर्माण व कार्यान्वयन का मुख्यालय होती है। इसका निर्माण क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को सतत् जारी रखना होता है और उसे तैयार करते रहना होता है। हमारे देश में भी स्थितियाँ भविष्य में विस्फोटक दिशा में जा सकती हैं। यहाँ के पूँजीवाद और पूँजीवादी राज्यसत्ता की जड़ें नेपाल, बंगलादेश या श्रीलंका के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा गहरी हैं। यहाँ पूँजीवादी विचारधारा का जनता के बीच प्रभाव भी अपेक्षाकृत ज़्यादा है। इसलिए यहाँ पर ऐसी स्थितियाँ तत्काल पैदा हो जायेंगी, इसकी गुंजाइश कम है। लेकिन हमें इतिहास का यह नियम याद रखना चाहिए कि पूँजीवादी व्यवस्था में श्रम और पूँजी तथा सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग का अन्तरविरोध पूँजीवादी व्यवस्था की आर्थिक व राजनीतिक गति के कारण लगातार गहराता रहता है। चाहे पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीवादी शासक वर्ग व उसकी राज्यसत्ता तथा उसकी विचारधारा का वर्चस्व व प्रभाव कितना ही गहरा और सुदृढ़ क्यों न हो, पूँजी की नैसर्गिक गति श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध को बार-बार ऐसे असम्भाव्यता के बिन्दुओं पर पहुँचाती रहती है, जहाँ इस वर्चस्व के ढाँचे में दरारें आने लगती हैं और पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के लिए जनता के जुझारू जनान्दोलनों और विद्रोहों को रोक पाना असम्भव हो जाता है। ऐसी स्थितियाँ भारत में भी पैदा होंगी और इतिहास में पैदा हुई भी हैं। यह इतिहास का नियम है। ऐसे में, आज यह समझना हमारे लिए सबसे अनिवार्य हो जाता है कि हमारे देश में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करना ही होगा जो ग़रीब मेहनतकश किसानों, मध्यवर्ग और समूची आम मेहनतकश आबादी को एक क्रान्तिकारी समाजवादी कार्यक्रम पर साथ ले सके, एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा कर सके और पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता को उखाड़ फेंके।

हमारे पड़ोसी देशों और दुनिया के कई देशों में जारी घटनाक्रम ने एक ओर आशा का संचार किया है और दूसरी ओर यह चिन्ता भी पैदा की है कि एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के निर्माण के कार्य को बिना रुके, बिना थके लगातार जारी रखा जाय ताकि हमारे देश में भी परिवर्तन की घड़ी यूँ ही न बीत जाये, किसी शासन-परिवर्तन मात्र में न समाप्त हो जाये, बल्कि एक व्यवस्थागत परिवर्तन की ओ जाये। हम मज़दूरों

📚 *लोहे और लहू की कविताएँ* 📚_____________________*कविता – ऑटो मज़दूर का गीत*✍️ राल्‍फ़ मार्लेट (अमेरिका में ‘युनाइटेड ऑटो...
10/10/2025

📚 *लोहे और लहू की कविताएँ* 📚
_____________________
*कविता – ऑटो मज़दूर का गीत*
✍️ राल्‍फ़ मार्लेट (अमेरिका में ‘युनाइटेड ऑटो वर्कर’ नामक पत्रिका में 1930 के दशक में प्रकाशित)
🖥 https://www.mazdoorbigul.net/archives/1815
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क्या तुमने किया कभी उस लाइन पर काम
जिसमें झोंके जाते हैं हर रोज़ पाँच हज़ार शरीर?
तो फिर, मेरे भाई, तुमने कभी नहीं जाना
होता क्या है जहन्नुम;
चीख़ता है भोंपू और चालू हो जाती है लाइन
झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा, कसो पेंच
और अब रुकना नहीं जब तक न आये दोपहर
या फिर, जब तक कि तुम गिर न पड़ो।

झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा, कसो पेंच,
और बहता रहता है पसीना, भरता है मुँह, भरती हैं आँखें
जब तक कि न सूज जायें होंठ पसीने के नमक से
भीगी लटें बरबस गिरती हैं आँखों पर
पर फ़ुरसत कहाँ कि फेर सको उन्हें वापस अपनी जगह
लहसुनी गन्ध में, उलटने लगती हैं तुम्हारी अँतड़ियाँ,
मितलाती उन्हें मानव शरीरों की तीखी गन्ध,
मितलाता है वह जब लोग थूकते हैं खैनी का रस,
और ख़ून!

झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा कसो पेंच
उत्पादन बढ़ाओ, लगायी जाती है हाँक
जवाब देती है अब टूटने की कगार पर पहुँची कमर,
पर, न कर सकते सीधा उसे, न ले सकते अँगड़ाई
निर्मम लाइन तुम पर शरीरों का दबाव डालती जाती है
और कुछ नहीं कर सकते तुम उन्हें रोकने के लिए
झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा, कसो पेंच
हे भगवान! कहाँ है वह भोंपू,

झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा, कसो पेंच
और चार घण्टे बाद खाने के लिए मिलेंगे सिर्फ़ पन्द्रह मिनट
ठूँसो सारी रोटियाँ एक साथ
और फिर से
झुको, उठाओ, मारो हथौड़ा, कसो पेंच
क्या तुमने किया कभी उस लाइन पर काम
जिसमें झोंके जाते हैं हर रोज़ पाँच हज़ार शरीर?
तो फिर, मेरे भाई, तुमने कभी नहीं जाना
होता क्या है जहन्नुम!
➖➖➖➖➖➖➖➖
*Poem – Song of the Auto Worker*
✍️ Ralph Marlatt (Published in the 1930s in the American magazine “United Auto Worker”)

Have you ever worked on a line puttin’ out five thousand bodies a day?
Then, brother, you ain’t ever been to hell;
The bell rings and the line starts,
Bend, lift, hammer, screw,
No stopping now ’till noon, or ’til you drop,

Bend, lift, hammer, screw,
And the sweat pouring into your eyes and mouth
‘Til your lips are puffed with the salt of it,
Your dripping hair hangs in your eyes
And you can’t take time to push it back,
And your belly turns over at the smell of garlick,
Turns sick at the stench of human bodies,
Turns sick at guys spittin’ to***co juice and blood,

Bend, lift, hammer, screw,
Get production, the eternal cry,
Your back feels like it’s about to bust
And you can’t straighten up or stretch,
And the line keeps pushin’ bodies at you,
And there ain’t no way you can hold ’em back,
Bend, lift, hammer, screw,
Oh, Christ, where is that bell,

Bend, lift, hammer, screw,
Four hours of it and then fifteen minutes to eat,
Bolt a hunk of bread and at it again,
Bend, lift, hammer, screw;
Have you ever worked on a line puttin’ out five thousand bodies a day?
Then, brother, you ain’t ever been to hell.
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