18/07/2025
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*क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 27*
*मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2*
अध्याय – 1 (जारी)
पूँजी के परिपथ (सर्किट)
✍️ अभिनव
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*समाज-परिवर्तन के नियमों को समझने के इच्छुक गंभीर पाठकों के लिए जरूरी लेख श्रृंखला*
*सम्पादकीय टिप्पणी*
साथियो,
सितम्बर 2024 में ‘क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला’ के तहत श्रृंखला में प्रकाशित हो रही पुस्तक ‘मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त’ का पहला खण्ड ‘मज़दूर बिगुल’ में पूरा हो चुका था। फरवरी 2025 से हमने इस पुस्तक के दूसरे खण्ड का प्रकाशन शुरू किया है। यह पुस्तक निकटता से मार्क्स की ‘पूँजी’ के खण्डों का अनुसरण करती है, उसमें पेश पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के आम नियमों की व्याख्या को अधिकतम सम्भव सरलीकृत कर मज़दूर साथियों, छात्र-युवा साथियों और कम्युनिस्ट राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अध्ययन हेतु प्रस्तुत करती है, मार्क्स के क्रान्तिकारी वैज्ञानिक राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के कुछ तत्वों को आज के पूँजीवाद के अनुसार विस्तारित और विकसित करती है। इस पुस्तक के पहले खण्ड के अब तक ‘मज़दूर बिगुल’ में प्रकाशित अध्यायों ने मार्क्स की ‘पूँजी’ के पहले खण्ड की बुनियादी शिक्षाओं को आपके सामने पेश किया है। पुस्तक का पहला खण्ड जल्द ही एक जिल्द में प्रकाशित होकर आपके हाथों में होगा।
हम एक बार फिर से पाठकों को याद दिलाना चाहेंगे कि *मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र एक विज्ञान है – सामाजिक उत्पादन के नियमों को उद्घाटित करने वाला विज्ञान। किसी भी विज्ञान के समान इसके सरलीकरण की एक सीमा होती है, जिसके बाद सरलीकरण करना वैज्ञानिक शिक्षाओं की सटीकता के साथ समझौते की ओर ले जाता है।* नतीजतन, विज्ञान को समझने के लिए श्रमसाध्य प्रयासों, धैर्य और हठ की आवश्यकता होती है। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में भी यह बात लागू होती है। हमारा सुझाव होगा कि इसे ‘बिगुल मज़दूर अध्ययन मण्डल’ में सामूहिक तौर पर पढ़ें, व्यक्तिगत तौर पर भी पढ़ें और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की जानकारी रखने वाले सर्वहारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ पढ़ें, इस पर कक्षाओं को आयोजन करें। इस प्रक्रिया के ज़रिये इस विज्ञान को हम बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं।
साथ ही इस बात की याददिहानी भी इस पुस्तक के दूसरे खण्ड के श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन की शुरुआत के साथ प्रासंगिक होगी कि हमारे लिए मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के विज्ञान का अध्ययन कोई किताबी क़वायद नहीं है। यह सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षण का एक अंग है। हम जिस व्यवस्था के विरुद्ध लड़ रहे हैं, उसे समझे बग़ैर, अपने शोषण के रहस्य को समझे बग़ैर हम पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रभावी संघर्ष संगठित नहीं कर सकते हैं। साथ ही, मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्त हमें केवल पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के सम्बन्धों की ही गहरी समझदारी नहीं देते हैं, बल्कि पूँजीपति वर्ग के आपसी सम्बन्धों, पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ती वर्गों (मसलन, शहरी व ग्रामीण टुटपुँजिया वर्ग) के बीच के सम्बन्धों और सर्वहारा वर्ग और इन मध्यवर्ती वर्गों के बीच के सम्बन्धों की भी सुसंगत समझदारी देते हैं। संक्षेप में, वे पूँजीवादी समाज में मौजूद सभी वर्गों के बीच मौजूद सम्बन्धों व उनके आपसी आन्तरिक सम्बन्धों के बारे में एक वैज्ञानिक समझदारी देते हैं। जैसा कि लेनिन ने कहा था, यदि मज़दूर वर्ग को एक सामाजिक वर्ग (अपने आप में अस्तित्वमान वर्ग) एक राजनीतिक वर्ग (अपने ऐतिहासिक उद्देश्यों के लिए सचेतन रूप से सक्रिय वर्ग, यानी अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के लिए सक्रिय वर्ग) में, यानी सर्वहारा वर्ग में तब्दील होना है, तो उसे केवल अपने और पूँजीपति वर्ग के बीच के सम्बन्धों को ही नहीं, बल्कि समाज में मौजूद सभी वर्गों के बीच और उनके आपसी सम्बन्धों को समझना होगा। केवल तभी वह जनता के विभिन्न वर्गों (जो पूँजीवादी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में शोषित, दमित व उत्पीड़ित हैं) को अपने क्रान्तिकारी नेतृत्व में साथ लेकर एक पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी कैम्प या वर्गों के संयुक्त मोर्चे को निर्मित कर सकता है, केवल तभी वह जनता के तमाम वर्गों के बीच प्रभुत्वशाली पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व को तोड़कर अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक वर्चस्व को निर्मित कर सकता है और केवल तभी वह पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस और सर्वहारा सत्ता के मातहत एक समाजवादी व्यवस्था को खड़ा कर सकता है और कम्युनिस्ट समाज की ओर आगे बढ़ने के क्रान्तिकारी संघर्ष को संगठित कर सकता है। इन वर्गों के बीच और इनके आपसी सम्बन्धों का सारतत्व हम मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की सघन और व्यापक पढ़ाई के साथ ही समझ सकते हैं। इस पुस्तक का लक्ष्य यही है कि ऐसी समझदारी को निर्मित करने में मज़दूर साथियों, छात्र-युवा साथियों और सर्वहारा क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को सक्षम बनाया जाय।
जिस प्रकार पुस्तक के पहले खण्ड में मार्क्स की ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में पेश बुनियादी शिक्षाओं को अधिकतम सम्भव सरलीकृत करके और उसके कुछ तत्वों को समकालीन पूँजीवाद में मार्क्स के समय से आज के दौर तक आये कुछ परिवर्तनों की रोशनी में विस्तारित और विकसित करते हुए पेश किया था, उसी प्रकार पुस्तक का दूसरा खण्ड मार्क्स की ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड की बुनियादी खोजों को आपके सम्मुख प्रस्तुत करेगा। हम उम्मीद करते हैं कि श्रृ़ंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित हो रही इस पुस्तक के पहले खण्ड को ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों ने जैसी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया दी है, वह दूसरे खण्ड के श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन के दौरान भी जारी रहेगी।
– सम्पादक
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*सम्पूर्णता में मुद्रा-पूँजी का परिपथ*
लेख में प्रयुक्त गणितीय सूत्र ऑनलाइन ठीक से प्रदर्शित न हो पाने के कारण उन्हें इमेज फ़ाइल के रूप में अपलोड किया गया है।
मुद्रा-पूँजी के परिपथ का सर्वाधिक विस्तार से अध्ययन आवश्यक था क्योंकि औद्योगिक या आम तौर पर उद्यमी पूँजी के रूप को सम्पूर्णता और सटीकता से मुद्रा-पूँजी का परिपथ ही प्रदर्शित करता है। पूँजीपति की पूँजी बाज़ार में सबसे पहले मुद्रा-रूप में ही प्रकट होती है, न कि माल-रूप में। न ही वह सीधे उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में पूँजीपति के हाथों में पहले से मौजूद होती है। इसलिए मुद्रा-पूँजी का परिपथ आम तौर पर पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को उसकी सम्पूर्णता में रेखांकित करता है। इसके बाद अगले अध्याय में हम संक्षेप में उत्पादक-पूँजी के परिपथ और माल-पूँजी के परिपथ का भी संक्षिप्त अध्ययन करेंगे क्योंकि पूँजीवादी पुनरुत्पादन की समूची प्रक्रिया को समझने के लिए यह अपरिहार्य है। लेकिन मुद्रा-पूँजी का परिपथ इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्पादक-पूँजी व माल-पूँजी के परिपथ मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दुहराव से ही निकलते हैं। अब जबकि हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ के तीनों चरणों को विस्तार से समझ चुके हैं, तो हम इस चर्चा का समाहार कर सकते हैं।
सबसे पहली बात यह है कि मुद्रा-पूँजी के परिपथ (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) में हम मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप में देखते हैं। इसमें सबसे पहले पूँजीपति अपनी मुद्रा-पूँजी से कुछ निश्चित माल, यानी उत्पादन के साधन और मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदता है। इसके बाद, उत्पादक-पूँजी के तत्वों के तौर पर ये माल उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादक उपभोग से गुज़रते हैं। इसके नतीजे के तौर पर पूँजीपति के हाथों में उत्पादित माल होता है, जो अपने भौतिक रूप और मूल्य दोनों में ही मुद्रा-पूँजी द्वारा पहले चरण में ख़रीदे गये मालों से भिन्न होते हैं। वे श्रम प्रक्रिया और मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र चुके होते हैं। परिपथ का समापन इन उत्पादित मालों के बिकने और मुद्रा-रूप में मूल्य-संवर्धित पूँजी के वापस पूँजीपति के हाथों में लौटने से होता है। अगर हम केवल संचरण की श्रृंखला की बात करें तो यह पूँजी के आम सूत्र यानी M – C – M’ को ही चिह्नित करता है। लेकिन M – C – M’ का आम सूत्र व्यापारिक पूँजी पर भी लागू होता है, जो मालों के उत्पादन से अपने आप में कोई सरोकार नहीं रखती है। व्यापारी पहले माल को कम क़ीमत पर ख़रीदता है और फिर उसी माल को अधिक क़ीमत पर बेचता है। ख़रीद-क़ीमत और बिकवाली क़ीमत के अन्तर से ही उसका मुनाफ़ा आता है। चूँकि व्यापारिक पूँजी के सूत्र और औद्योगिक पूँजी के सम्पूर्ण परिपथ में, सिर्फ़ संचरण के आधार पर देखें, तो समानता दिखती है, यानी पूँजीपति जितना पूँजी-मूल्य निवेश में लगाता है, बिकवाली से उससे ज़्यादा मूल्य उसके पास मुद्रा-रूप में वापस आता है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि औद्योगिक पूँजी का परिपथ व्यापारिक पूँजी के आम सूत्र में ही शामिल है, या उसके ही समान है।
लेकिन औद्योगिक पूँजी के परिपथ में M – C और C’ – M’ समतुल्यों का ही विनिमय होता है। यानी, सामाजिक तौर पर, M – C में और साथ ही C’ – M’ में मुद्रा और माल बराबर मूल्य के होते हैं और फिर भी C’ का मूल्य C से ज़्यादा होता है। यहाँ मुनाफ़ा व्यापारी और उत्पादक के बीच असमान विनिमय पर आधारित नहीं होता है। यह मूल्य-संवर्धन तभी समझा जा सकता है, जब हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दूसरे चरण यानी P या उत्पादक-पूँजी के चरण को समझें। इस चरण में उत्पादक-पूँजी के तत्व यानी उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति उत्पादक उपभोग से गुज़रते हैं। इस प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों का मूल्य ज्यों का त्यों उत्पादित माल में स्थानान्तरित होता है, जबकि श्रमशक्ति अपने मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करने के अलावा बेशी मूल्य भी पैदा करती है। नतीजतन, मूल्य-संवर्धन होता है।
इसके अलावा, उत्पादन के साधनों में श्रम के उपकरणों का इस्तेमाल मज़दूर कच्चे माल पर कर उसका भौतिक रूप बदल देते हैं और एक ऐसा माल पैदा करते हैं जिसका उपयोग-मूल्य उन मालों से बिल्कुल भिन्न होता है, जिन मालों को शुरुआत में पूँजीपति ने अपनी मुद्रा-पूँजी से ख़रीदा था, यानी श्रमशक्ति और उत्पादन के साधन। इसलिए मार्क्स बताते हैं कि उत्पादक-पूँजी का चरण वास्तविक रूपान्तरण (real metamorphosis) का चरण है जबकि संचरण के दोनों चरण, पहला, जिससे मुद्रा-पूँजी का परिपथ शुरू होता है और, दूसरा, जिससे वह पूरा होता है, केवल रूपगत या औपचारिक रूपान्तरण (formal metamorphosis) के चरण होते हैं। उत्पादक-पूँजी के चरण में श्रम प्रक्रिया और मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के ज़रिये भौतिक रूप और मूल्य में भिन्न एक नया माल पैदा होता है और संचरण के दोनों ही चरणों में समतुल्यों का विनिमय होता है और मुद्रा माल का रूप ले लेती है या माल मुद्रा का रूप ले लेता है। यानी, संचरण के क्षेत्र में बदलाव केवल रूपगत होता है।
जो पूँजी संचरण और उत्पादन दोनों के चरणों से गुज़रती है, वही औद्योगिक या उद्यमी पूँजी होती है। संचरण के चरणों में वह माल-पूँजी या मुद्रा-पूँजी का रूप लेती है। उत्पादन के चरण में वह उत्पादक-पूँजी के तत्वों का रूप लेती है। इन चरणों से गुज़रते हुए पूँजी का मूल्य न सिर्फ़ क़ायम रहता है, बल्कि बढ़ता है। मुद्रा-पूँजी, माल-पूँजी व उत्पादक-पूँजी तीन अलग प्रकार की पूँजियाँ नहीं है, बल्कि वे प्रकार्यात्मक रूप हैं जो औद्योगिक पूँजी अपने परिपथ के विभिन्न चरणों से गुज़रते हुए लेती है। पूँजी का इन तीनों चरणों से बिना रुके गुज़रना अनिवार्य है। अगर प्रक्रिया पहले चरण में रुक जाती है, मुद्रा-पूँजी महज़ मुद्रा का एक ढेर बनकर रह जायेगी; अगर यह परिपथ दूसरे चरण में रुकता है तो उत्पादन के साधन बेकार पड़े रहेंगे और मज़दूर ख़ाली बैठे रहेंगे; अगर प्रक्रिया तीसरे चरण में रुक जाती है तो माल गोदाम में पड़े रह जायेंगे, बिकेंगे नहीं और संचरण की प्रक्रिया ही बाधित हो जायेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि हर चरण में पूँजी का अपना एक विशिष्ट रूप होता है और उस रूप में पूँजी को कुछ निश्चित प्रकार्य पूरे करने होते हैं। मुद्रा-पूँजी के तौर पर वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है जिनकी इजाज़त मुद्रा-रूप पूँजी को देता है; उसी प्रकार माल-पूँजी के रूप में वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है जो माल के प्रकार्य होते हैं और उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है, जो यह रूप पूँजी को करने की अनुमति देता है। हर चरण में पूँजी कुछ समय तक रुकती है, इन प्रकार्यों को पूरा करती है और फिर एक नये रूप में अगले चरण में प्रवेश करती है।
मार्क्स बताते हैं कि अपने उदाहरण में हमने यह मान लिया था कि उत्पादन के साधनों का पूरा का पूरा मूल्य एक बार में ही उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो जाता है। वास्तव में ऐसा बिरले ही होता है। उत्पादन की अधिकांश शाखाओं में उत्पादन के साधनों में से अचल पूँजी के तत्व, यानी इमारतें, मशीनरी, श्रम के अन्य उपकरण आदि एक बार में अपना समूचा मूल्य उत्पादित माल में स्थानान्तरित नहीं करते, बल्कि यह प्रक्रिया अंशों में होती है। इसकी गणना आसानी से की जा सकती है क्योंकि हर श्रम के उपकरण की उत्पादन की औसत दर से जारी प्रक्रिया में एक निश्चित दर पर घिसाई होती है और उसकी एक उम्र होती है। नतीजतन, उत्पादन के प्रत्येक चक्र में उत्पादन के ऐसे साधन कितना मूल्य माल में स्थानान्तरित करते हैं, हर पूँजीपति इसकी गणना करता ही है और अपने माल की क़ीमत में घिसाई-मूल्य (depreciation value) को शामिल करता है। इसलिए इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उत्पादन के साधन, विशेषकर श्रम के उपकरण व अवरचनागत तत्व अपना कितना मूल्य एक बार में माल में स्थानान्तरित करते हैं। मार्क्स लिखते हैं:
“हमारे उदाहरण में, उत्पादक पूँजी के मूल्य यानी 422 पाउण्ड में केवल कारखाना इमारत, मशीनरी, आदि की औसत आकलित घिसाई शामिल थी, और इस प्रकार उनके मूल्य का केवल वह हिस्सा शामिल था जो 10,000 एल.बी. कच्चे सूत को 10,000 एल.बी. सूत के धागों में, जो कि साठ घण्टों की एक सप्ताह जारी रहने वाली कताई की प्रक्रिया का उत्पाद है, तब्दील करने की प्रक्रिया के दौरान स्थानान्तरित होता है। उन उत्पादन के साधनों में, जिनमें स्थिर पूँजी को रूपान्तरित किया गया था, श्रम के उपकरण यानी इमारतें, मशीनरी, आदि, मानो इस प्रकार शामिल हुए थे जैसे उन्हें साप्ताहिक भुगतान के बदले में बाज़ार से किराये पर उठाया गया था। फिर भी, जहाँ तक मामले के सारतत्व का प्रश्न है, इससे कोई भी फ़र्क नहीं पड़ता है। हमें केवल 10,000 एल.बी. सूत के धागों के साप्ताहिक उत्पाद को दिये गये वर्षों की श्रृंखला से गुणा कर देना होगा, और उस दौर में ख़रीदे गये और ख़र्च हो गये श्रम के उपकरणों का पूरा मूल्य मालों में स्थानान्तरित हो चुका होगा।” (वही, पृ. 133-34, अनुवाद हमारा)
उत्पादक-पूँजी के चरण के पूर्ण हुए बिना पूँजीपति के हाथों में उत्पादित माल यानी C’ नहीं आ सकता है और उसके बिना वह उसे बेचकर बेशी मूल्य समेत अपने पूँजी-मूल्य को वापस प्राप्त नहीं कर सकता है और इस प्रकार मुनाफ़ा हासिल नहीं कर सकता है। लेकिन उत्पादन की सभी शाखाओं में माल कोई स्पर्श करने योग्य भौतिक रूप धारण नहीं करता है। मिसाल के तौर पर, संचार व परिवहन उद्योग में माल कोई उपयोगी भौतिक वस्तु नहीं बल्कि एक उपयोगी प्रभाव या सेवा होता है। मार्क्स यहाँ परिवहन उद्योग पर जो प्रेक्षण रखते हैं, उन्हें आज के दौर में तमाम उपयोगी सेवाओं पर लागू किया जा सकता है जो वास्तव में माल-उत्पादन ही हैं और इस प्रकार समाज में उत्पादक श्रम की श्रेणी में ही आती हैं। ज़ाहिर है, सभी सेवाएँ उत्पादक श्रम का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, मसलन, बैंकिंग, बीमा, आदि। ये केवल उत्पादित मूल्य का पुनर्वितरण करती हैं, कोई नया मूल्य नहीं पैदा करतीं और न ही समाज की समृद्धि में कोई इज़ाफ़ा करती हैं। लेकिन परिवहन, संचार आदि की सेवाएँ निश्चित तौर पर मूल्य व उपयोग-मूल्य का उत्पादन करती हैं और उत्पादक श्रम की श्रेणी में आती हैं। आज ऐसे और भी कई माल हैं जो कोई स्पर्शनीय भौतिक वस्तु नहीं हैं, मसलन, सॉफ्टवेयर। लेकिन सॉफ्टवेयर उद्योग व परिवहन तथा संचार उद्योग में अन्तर है क्योंकि सॉफ्टवेयर उद्योग में माल का उत्पादन व उपभोग एक साथ घटित होने वाली प्रक्रिया नहीं हैं। मार्क्स परिवहन उद्योग के बारे में लिखते हैं:
“लेकिन परिवहन उद्योग जो चीज़ बेचता है वह स्वयं स्थान में होने वाला वास्तविक परिवर्तन है। उत्पादित होने वाला यह उपयोगी प्रभाव अभिन्न रूप से परिवहन की प्रक्रिया से, यानी, परिवहन उद्योग की विशिष्ट उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। लोग और माल परिवहन के माध्यम से एक साथ यात्रा करते हैं, और यह यात्रा, यानी परिवहन के साधन की स्थानिक गति ही परिवहन उद्योग द्वारा अंजाम दी जाने वाली उत्पादन प्रक्रिया है। इस उपयोगी प्रभाव का उपभोग उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान ही हो सकता है; यह इस प्रक्रिया से अलग किसी वस्तु के रूप में, एक ऐसी वस्तु के रूप में मौजूद ही नहीं होता, जो वाणिज्य की वस्तु के रूप में काम करती हो और केवल अपने उत्पादन के बाद ही माल के रूप में संचरित होती हो। लेकिन इस उपयोगी प्रभाव का विनिमय मूल्य किसी भी अन्य माल के समान उसमें ख़र्च होने वाले उत्पादन के तत्वों के मूल्य (श्रमशक्ति और उत्पादन के साधन) और परिवहन उद्योग में लगे मज़दूरों के बेशी श्रम से पैदा होने वाले बेशी मूल्य के योग से ही निर्धारित होता है। अपने उपभोग के मामले में भी यह उपयोगी प्रभाव बिल्कुल अन्य मालों के समान ही बर्ताव करता है। अगर इसका व्यक्तिगत उपभोग होता है, तो इसका मूल्य इसके उपभोग के साथ ही समाप्त हो जाता है; अगर इसका उत्पादक उपभोग होता है, जिसके कारण यह स्वयं उस माल के उत्पादन का एक चरण है जिसका परिवहन हो रहा है, तो इसका मूल्य उस माल के मूल्य में जुड़ जाता है। इस प्रकार परिवहन उद्योग के लिए सूत्र हो जाता है (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) क्योंकि यह उत्पादन की प्रक्रिया से अलग कोई उत्पाद नहीं बल्कि स्वयं उत्पादन की प्रक्रिया ही है जिसके लिए भुगतान किया जाता है और जिसका उपभोग होता है। इसलिए इसका रूप लगभग बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि क़ीमती धातुओं के उत्पादन का होता है, सिवाय इस बात के कि M’ यहाँ उस उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा हुए उपयोगी प्रभाव का रूपान्तरित रूप है, न कि सोने या चाँदी का प्राकृतिक रूप जो कि इस प्रक्रिया में पैदा होता है और उससे निकलता है।” (वही, पृ. 135, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह केवल औद्योगिक पूँजी ही है जिसका प्रकार्य न सिर्फ़ बेशी उत्पाद या बेशी मूल्य का विनियोजन करना है, बल्कि बेशी उत्पाद व बेशी मूल्य का उत्पादन करना भी है। यानी, औद्योगिक पूँजी का आधार ही उजरती श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध और इसलिए सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग का अन्तरविरोध है। क्योंकि पूँजीवादी उत्पादन का अर्थ ही यह है कि इसमें एक ओर उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्ग खड़ा होता है और दूसरी ओर उत्पादन के साधनों व उपभोग के साधनों से पूर्ण रूप से वंचित सर्वहारा वर्ग होता है, और वे औपचारिक समानता के साथ बाज़ार में मिलते हैं। पूँजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग की श्रमशक्ति उजरत के बदले ख़रीदता है और उसके शोषण के ज़रिये पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया, यानी बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है।
दूसरी बात यह है कि औद्योगिक पूँजी (उद्यमी पूँजी) के प्रभुत्व के स्थापित होने के बाद उससे पहले अस्तित्व में आये पूँजी के रूप, मसलन व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी, उसके ही मातहत हो जाते हैं और उनकी कार्य-प्रणाली में भी उसके अनुसार बदलाव हो जाते हैं। वास्तव में, अब व्यवसाय की अलग शाखा के तौर पर व्यापारिक पूँजी व सूदखोर पूँजी स्वायत्त नहीं रह जाते बल्कि वे औद्योगिक पूँजी द्वारा संचरण के क्षेत्र में अपनाये जाने वाले विभिन्न रूपों की नुमाइन्दगी मात्र करते हैं। ये महज़ पूँजीपति वर्ग के अन्दरूनी श्रम विभाजन को दिखलाते हैं। व्यापारिक पूँजी का काम होता है औद्योगिक पूँजी द्वारा उत्पादित मालों के विपणन की प्रक्रिया को केन्द्रीकृत करना, सुचारू बनाना और उसकी लागत को कम करना और बदले में औद्योगिक पूँजीपति द्वारा विनियोजित बेशी मूल्य के एक हिस्से को व्यापारिक मुनाफ़े के रूप में प्राप्त करना। दूसरी ओर, मुद्रा-पूँजी में व्यवसाय करने वाले वित्तीय पूँजीपति का अस्तित्व भी औद्योगिक पूँजी द्वारा किये जाने वाले पूँजी संचय पर ही निर्भर करता है, हालाँकि पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण के साथ वित्तीय पूँजी की भूमिका पूँजीवादी उत्पादन में बढ़ती जाती है।
औद्योगिक या उद्यमी पूँजी का परिपथ वास्तव में मालों के आम संचरण का ही एक हिस्सा होता है। लेकिन हरेक उद्यमी पूँजी इस आम संचरण के भीतर अपने विशिष्ट परिपथ को बनाये रखती है। उसके परिपथ का पहला और अन्तिम चरण संचरण के क्षेत्र में ही घटित होते हैं, यानी M – C और C’ – M’। लेकिन यहाँ भी उनका विशिष्ट पूँजीवादी चरित्र स्पष्ट होता है क्योंकि पहले चरण में C के तत्व वास्तव में उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति होते हैं, जो उत्पादक उपभोग में जाते हैं। वहीं दूसरे चरण में C’ बेशी मूल्य से लदे उत्पादित मालों की नुमाइन्दगी करता है, जो इसके विशिष्ट पूँजीवादी चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार उद्यमी पूँजी का परिपथ मालों के आम संचरण का अंग होते हुए भी, अपनी विशिष्टता को बरक़रार रखता है। जहाँ तक उत्पादन के चरण यानी मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दूसरे चरण का सवाल है, तो उसका पूँजीवादी चरित्र आरम्भ से ही स्पष्ट होता है, जहाँ उजरती श्रम के पूँजीपति द्वारा शोषण के ज़रिये बेशी मूल्य का उत्पादन होता है। अन्त में, पूँजीपति द्वारा निवेशित पूँजी-मूल्य बेशी मूल्य समेत अपने मूल रूप, यानी मुद्रा-रूप में पूँजीपति के पास वापस आ जाता है, यानी पूँजीपति मुनाफ़े समेत अपने द्वारा निवेशिक पूँजी को रिकवर कर लेता है।
इस प्रकार, मुद्रा-पूँजी के इस परिपथ के बारे में जो पहली अहम बात है वह यह है कि यह मुद्रा के रूप में पूँजी के प्रवेश से शुरू होता है और फिर मुद्रा के ही रूप में मुनाफ़े समेत पूँजी के वापस पूँजीपति के हाथों में पहुँचने के साथ समापन पर पहुँचता है। (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) को देखते ही जो बात स्पष्ट हो जाती है वह यह कि यहाँ मुद्रा पूँजी के रूप में निवेशित की जा रही है, न कि सामान्य रूप में व्यक्तिगत उपभोग के लिए ख़र्च की जा रही है। पूँजीवादी उत्पादन का लक्ष्य विनिमय मूल्य है, न कि उपयोग मूल्य। चूँकि उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रे बिना “पैसे से पैसा बनाना” सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ उत्पादन का चरण एक अनिवार्य व्यवधान के रूप में प्रकट होता है। पूँजीपति के हिसाब से तो सबसे बेहतर यही होता कि इस “व्यवधान” से गुज़रे बिना ही मुनाफ़ा बटोर लिया जाय। सूदखोर पूँजीपति को ऐसा लगता भी है वह तो बस पैसे से पैसा बना रहा है; व्यापारिक पूँजीपति को भी यह प्रतीत होता है कि वह सस्ता ख़रीदकर महँगा बेच रहा है और इस चतुराई से ही उसका मुनाफ़ा पैदा हो रहा है। लेकिन यह वास्तविकता किसी न किसी स्तर पर हर पूँजीपति को पता चल ही जाती है कि उत्पादन के इस अनिवार्य व्यवधान के बिना “पैसे से पैसा” नहीं बनाया जा सकता है। बहरहाल, चूँकि यह परिपथ मुद्रा से शुरू होकर अधिक मात्रा में मुद्रा पर समाप्त होता है, इसलिए यह पूँजीवादी उत्पादन के लक्ष्य को सबसे स्पष्ट रूप में दिखलाता है : मुनाफ़ा हासिल करना। उत्पादक-पूँजी के परिपथ और माल-पूँजी के परिपथ (जिनका हम आगे अध्ययन करेंगे) में पूँजीवादी उत्पादन का यह लक्ष्य उस स्पष्टता के साथ प्रकट नहीं होता है। P…P या C’…C’ में हमें परिपथ के दोनों छोरों पर अनिवार्यत: मूल्य का इज़ाफ़ा नज़र नहीं आता। M…M’ में मूल्य-संव