
07/09/2024
दिन हो गये हैं दोपहर में ली गई नींद को। दोपहर की नींद से पहले खाये गये दाल चावल को। दाल चावल के साथ आम के अचार को खाए हुए। मट्ठे में जीरे का तड़का मार के, अघा के ज़ोर से डकार लिए हुए। घड़ी देखे बिना दोपहर में सोये हुए। दिन हो गये हैं अब।
ये सिर्फ़ संयोग नहीं एक समय सारिणी है, जिसके विरुद्ध जाकर नौकरी और पढ़ाई की जा रही है। बड़े होने का ढोंग है और छोटे ना हो पाने की उदासी। मन का ना कर पाने की पीड़ा और मन का हो जाने का अपराध बोध। अंग्रेज़ी में गिल्ट।
ग़ज़ब चक्रव्यूह में फँस गये हैं। रोज़ लगता है बस कल से सब ठीक हो जाएगा। नहीं भी लगे तो माँ लेते हैं। मान लेना ही आसान पड़ता है। सो जाना ही आसान लगता है। मगर ना करवट का कोण समझ आता है ना कदमों की दिशा। त्रिशंकु हो गये हैं। खिन्न हो गये हैं।
शराब में मज़हब ढूँढ लिया है और एकांत में मक़सद। सुरंग के दोनों तरफ़ अंधेरा है, बस गुप्प अंधेरा और कभी दाल चावल खा लो अकेले में तो आत्मग्लानि अलग से। दोपहर की नींद से शाम को उठने के बाद एक कप चाय, घर के चार लोग और बेतुकी चार बातें, सिवाय इसके कुछ छह नहीं, कुछ माँगा भी नहीं।
दोस्तों से ज़्यादा शनिवार से दोस्ती हो गई है, दुश्मनों से ज़्यादा रविवार से।
दो कतरा ज़िंदगी की बड़ी क़ीमत चुकाई गई है। इसका बदला लेना होगा। ज़िंदा रहना होगा।