
08/07/2025
कहानी का शीर्षक:
"एक और बेटी बच गई – एक सफर, एक सबक"
"सफर की शुरुआत"
16 सितंबर की सुबह थी। दिल्ली जाना जरूरी हो गया था — एक सेमिनार अटेंड करना था। जल्दी-जल्दी तत्काल टिकट कराया और कैफियत एक्सप्रेस के स्लीपर कोच में चढ़ गया। मेरी सीट विंडो के पास थी। ट्रेन ने गति पकड़ी, और बाहर खेत-खलिहान दौड़ते दिखने लगे।
करीब 3 घंटे बाद कानपुर स्टेशन पर ट्रेन कुछ देर रुकी। तभी एक दुबली-पतली, साफ-सुथरी सलवार-सूट पहने लड़की चढ़ी। कंधे पर बैग और चेहरे पर अनजाना सा डर।
वो मेरी सीट के कोने पर बैठ गई। मैंने उसे देखा, मगर कुछ नहीं कहा। वो बार-बार इधर-उधर देखती और मेरी ओर भी नजरें उठाकर जल्दी से झुका लेती। मैं एक मोटिवेशनल किताब पढ़ रहा था — "Emotional Intelligence for Youth", ironic था कि वही सफर एक भावनात्मक परिक्षा बन जाएगा।
"बातचीत की शुरुआत"
कुछ मिनटों बाद मैंने मुस्कुराकर पूछा,
"कहाँ जाना है?"
वो चौंकी, फिर बोली, "दिल्ली..."
"सीट है?"
"नहीं... जनरल टिकट है।"
मैंने कहा, "कोई बात नहीं, बैठिए। अभी टीटी आएगा तो टिकट बन जाएगा।"
टीटी आया, टिकट तो बना लेकिन सीट नहीं मिली। लड़की वहीं बैठी रही।
मैंने किताब एक तरफ रख दी और कहा,
"आप पढ़ती हैं?"
"जी... 11वीं में हूं।"
इतना सुनते ही मन चौंका — इतनी छोटी उम्र और इतनी दूर अकेले?
मैंने धीरे-धीरे बात आगे बढ़ाई।
"अनकहे इशारे और छिपे डर"
उसके चेहरे पर कई कहानियां थी — घबराहट, असमंजस और शायद पछतावे की शुरुआत। वो किसी को फोन करने लगी। कॉल के दौरान उसने धीरे से कहा,
"मैं ट्रेन में हूं... हाँ, वही गाड़ी... कानपुर पार हो चुका है... शाम तक दिल्ली पहुंच जाऊंगी..."
कॉल कटते ही वो चुपचाप खिड़की की ओर देखने लगी।
मैंने पूछा, "पापा से बात कर रही थीं?"
"नहीं, वो तो गांव में हैं..."
"तो भैया?"
"नहीं... वो मेरे..." (कुछ कहते-कहते रुक गई)
वो लड़की धीरे-धीरे खुलने लगी। उसने बताया कि दिल्ली में एक लड़का है — विक्रम, जिससे वो 6 महीने से सोशल मीडिया पर बात कर रही है। उसने शादी का वादा किया है और नौकरी भी दिलाने को कहा है।
"मोहब्बत या फांस"
"क्या तुम्हारे घरवालों को पता है?"
"नहीं..."
"उसका घर देखा है?"
"नहीं..."
"उसके मम्मी-पापा तुम्हें जानते हैं?"
"नहीं..."
अब तक मेरे मन में डर बैठ चुका था। लड़की खुद नहीं समझ पा रही थी कि वो क्या करने जा रही है।
मैंने कहा,
"क्या तुम्हें एक टेस्ट करना है? सच जानना है कि वो तुमसे प्यार करता है या सिर्फ इस्तेमाल?"
वो चुप रही। मैंने आग्रह किया।
"उसे फोन करो और कहो कि मम्मी-पापा राज़ी हो गए हैं, और वो भी तुमसे मिलने दिल्ली आ रहे हैं। साथ में तुम्हारे मामा-मामी भी। उससे कहो कि वो भी अपने घरवालों को ले आए, ताकि सगाई की बात हो जाए।"
वो डरते-डरते राज़ी हुई।
"परतों का गिरना"
फोन मिलाया। विक्रम उठाता है। लड़की वही कहती है जो मैंने बताया।
कुछ पल खामोशी के बाद लड़के की आवाज आई —
"क्या बकवास कर रही है? तेरे जैसे हजारों देखे हैं! पागल समझा है क्या?"
और फिर फोन काट दिया।
दूसरी बार फोन मिलाया — स्विच ऑफ।
लड़की फटी-फटी आंखों से मुझे देखने लगी —
"भैया... ये क्या हो गया?"
मैंने कहा,
"जो होना था वो हो गया। जो नहीं होना चाहिए था वो बच गया।"
"गुज़रे कल की कहानी"
मैंने उसे अपनी कहानी सुनाई —
"मैं भी एक लड़की से बहुत प्यार करता था। वो कहती थी भाग कर शादी कर लें। लेकिन मैंने उससे कहा, 'हम अपने मां-बाप को चोट नहीं पहुंचा सकते।'
मैंने अपने परिवार को मनाया, समय लिया — और फिर दोनों की शादी परिवार की मर्जी से हुई। आज मैं उसी लड़की के साथ 10 साल से हूं।"
लड़की धीरे-धीरे रोने लगी। मैं पास के पंखे की हवा की तरह शांत रहा — कोई शोर नहीं, बस सच्चाई का स्पर्श।
"खुद से सामना"
मैंने उससे कहा:
"अब एक ही रास्ता है — घर फोन करो। उनसे माफी मांगो।"
वो कांपते हाथों से फोन निकाली।
"हैलो पापा... मैं बहुत बड़ी गलती करने जा रही थी... लेकिन अब नहीं करूंगी... बस थोड़ा बहक गई थी..."
फोन के उस पार पिता की रुआंसी आवाज:
"बेटा, बस घर लौट आओ... सब ठीक हो जाएगा..."
"नई सुबह की ओर"
लड़की का चेहरा अब हल्का था — एक बोझ उतर गया था। उसने मुझसे कहा:
"भैया... अगर आज आप ना होते तो शायद मैं कहीं की नहीं रहती..."
मैंने उसे समझाया:
"बचपन में मां तुम्हारे गिरने से पहले पकड़ लेती थी। आज वो नहीं थी, तो ऊपरवाले ने मुझे भेज दिया।"
वो अगले स्टेशन पर उतर गई — नई दिशा की ओर।
"कुछ सवाल, पूरे समाज से"
क्यों लड़कियां ऐसे धोखेबाज प्रेम के जाल में फंसती हैं?
क्यों घरवाले उनसे दोस्ती नहीं करते?
क्या ‘संस्कार’ का मतलब ‘डर’ है?
क्यों हर पिता को बेटी की बात सुनने के लिए उसकी रोती आवाज का इंतजार करना पड़ता है?
"अंत नहीं — शुरुआत है ये"
यह कहानी एक लड़की की नहीं, हर उस लड़की की है जो प्यार के नाम पर धोखा खा सकती है। और हर उस इंसान की जो वक्त पर बोल दे तो जान बचा सकता है।
आपसे विनती
👉 माता-पिता:
बेटियों से संवाद कीजिए। प्यार दीजिए, नियंत्रण नहीं।
👉 युवतियां:
हर चमकता चेहरा सोना नहीं होता।
हर वादा शादी तक नहीं जाता।
हर “I Love You” के पीछे इरादा नेक नहीं होता।
👉 समाज:
ऐसी कहानियों को शर्म की नहीं, सबक की तरह बांटिए।
अंतिम शब्द
"दिल बहका था, पर राह बच गई...
उस एक सही मोड़ ने एक ज़िंदगी सवार दी।
चलिए मिलकर ऐसे और मोड़ बनाएं।"
❤️ अगर यह कहानी आपको सच में छू गई हो तो:
🔁 Share करें – किसी और की बेटी बच सकती है
💬 Comment करें – आपकी राय जरूरी है
📌 Follow करें – ऐसी और कहानियों के लिए