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कहानी का शीर्षक:"एक और बेटी बच गई – एक सफर, एक सबक"      "सफर की शुरुआत"16 सितंबर की सुबह थी। दिल्ली जाना जरूरी हो गया थ...
08/07/2025

कहानी का शीर्षक:
"एक और बेटी बच गई – एक सफर, एक सबक"

"सफर की शुरुआत"

16 सितंबर की सुबह थी। दिल्ली जाना जरूरी हो गया था — एक सेमिनार अटेंड करना था। जल्दी-जल्दी तत्काल टिकट कराया और कैफियत एक्सप्रेस के स्लीपर कोच में चढ़ गया। मेरी सीट विंडो के पास थी। ट्रेन ने गति पकड़ी, और बाहर खेत-खलिहान दौड़ते दिखने लगे।

करीब 3 घंटे बाद कानपुर स्टेशन पर ट्रेन कुछ देर रुकी। तभी एक दुबली-पतली, साफ-सुथरी सलवार-सूट पहने लड़की चढ़ी। कंधे पर बैग और चेहरे पर अनजाना सा डर।

वो मेरी सीट के कोने पर बैठ गई। मैंने उसे देखा, मगर कुछ नहीं कहा। वो बार-बार इधर-उधर देखती और मेरी ओर भी नजरें उठाकर जल्दी से झुका लेती। मैं एक मोटिवेशनल किताब पढ़ रहा था — "Emotional Intelligence for Youth", ironic था कि वही सफर एक भावनात्मक परिक्षा बन जाएगा।

"बातचीत की शुरुआत"
कुछ मिनटों बाद मैंने मुस्कुराकर पूछा,
"कहाँ जाना है?"
वो चौंकी, फिर बोली, "दिल्ली..."
"सीट है?"
"नहीं... जनरल टिकट है।"
मैंने कहा, "कोई बात नहीं, बैठिए। अभी टीटी आएगा तो टिकट बन जाएगा।"

टीटी आया, टिकट तो बना लेकिन सीट नहीं मिली। लड़की वहीं बैठी रही।
मैंने किताब एक तरफ रख दी और कहा,
"आप पढ़ती हैं?"
"जी... 11वीं में हूं।"

इतना सुनते ही मन चौंका — इतनी छोटी उम्र और इतनी दूर अकेले?
मैंने धीरे-धीरे बात आगे बढ़ाई।

"अनकहे इशारे और छिपे डर"

उसके चेहरे पर कई कहानियां थी — घबराहट, असमंजस और शायद पछतावे की शुरुआत। वो किसी को फोन करने लगी। कॉल के दौरान उसने धीरे से कहा,
"मैं ट्रेन में हूं... हाँ, वही गाड़ी... कानपुर पार हो चुका है... शाम तक दिल्ली पहुंच जाऊंगी..."

कॉल कटते ही वो चुपचाप खिड़की की ओर देखने लगी।
मैंने पूछा, "पापा से बात कर रही थीं?"
"नहीं, वो तो गांव में हैं..."
"तो भैया?"
"नहीं... वो मेरे..." (कुछ कहते-कहते रुक गई)

वो लड़की धीरे-धीरे खुलने लगी। उसने बताया कि दिल्ली में एक लड़का है — विक्रम, जिससे वो 6 महीने से सोशल मीडिया पर बात कर रही है। उसने शादी का वादा किया है और नौकरी भी दिलाने को कहा है।

"मोहब्बत या फांस"

"क्या तुम्हारे घरवालों को पता है?"
"नहीं..."
"उसका घर देखा है?"
"नहीं..."
"उसके मम्मी-पापा तुम्हें जानते हैं?"
"नहीं..."

अब तक मेरे मन में डर बैठ चुका था। लड़की खुद नहीं समझ पा रही थी कि वो क्या करने जा रही है।
मैंने कहा,
"क्या तुम्हें एक टेस्ट करना है? सच जानना है कि वो तुमसे प्यार करता है या सिर्फ इस्तेमाल?"

वो चुप रही। मैंने आग्रह किया।
"उसे फोन करो और कहो कि मम्मी-पापा राज़ी हो गए हैं, और वो भी तुमसे मिलने दिल्ली आ रहे हैं। साथ में तुम्हारे मामा-मामी भी। उससे कहो कि वो भी अपने घरवालों को ले आए, ताकि सगाई की बात हो जाए।"

वो डरते-डरते राज़ी हुई।

"परतों का गिरना"

फोन मिलाया। विक्रम उठाता है। लड़की वही कहती है जो मैंने बताया।
कुछ पल खामोशी के बाद लड़के की आवाज आई —
"क्या बकवास कर रही है? तेरे जैसे हजारों देखे हैं! पागल समझा है क्या?"

और फिर फोन काट दिया।

दूसरी बार फोन मिलाया — स्विच ऑफ।

लड़की फटी-फटी आंखों से मुझे देखने लगी —
"भैया... ये क्या हो गया?"
मैंने कहा,
"जो होना था वो हो गया। जो नहीं होना चाहिए था वो बच गया।"

"गुज़रे कल की कहानी"

मैंने उसे अपनी कहानी सुनाई —
"मैं भी एक लड़की से बहुत प्यार करता था। वो कहती थी भाग कर शादी कर लें। लेकिन मैंने उससे कहा, 'हम अपने मां-बाप को चोट नहीं पहुंचा सकते।'

मैंने अपने परिवार को मनाया, समय लिया — और फिर दोनों की शादी परिवार की मर्जी से हुई। आज मैं उसी लड़की के साथ 10 साल से हूं।"

लड़की धीरे-धीरे रोने लगी। मैं पास के पंखे की हवा की तरह शांत रहा — कोई शोर नहीं, बस सच्चाई का स्पर्श।

"खुद से सामना"

मैंने उससे कहा:
"अब एक ही रास्ता है — घर फोन करो। उनसे माफी मांगो।"

वो कांपते हाथों से फोन निकाली।
"हैलो पापा... मैं बहुत बड़ी गलती करने जा रही थी... लेकिन अब नहीं करूंगी... बस थोड़ा बहक गई थी..."

फोन के उस पार पिता की रुआंसी आवाज:
"बेटा, बस घर लौट आओ... सब ठीक हो जाएगा..."

"नई सुबह की ओर"

लड़की का चेहरा अब हल्का था — एक बोझ उतर गया था। उसने मुझसे कहा:
"भैया... अगर आज आप ना होते तो शायद मैं कहीं की नहीं रहती..."

मैंने उसे समझाया:
"बचपन में मां तुम्हारे गिरने से पहले पकड़ लेती थी। आज वो नहीं थी, तो ऊपरवाले ने मुझे भेज दिया।"

वो अगले स्टेशन पर उतर गई — नई दिशा की ओर।

"कुछ सवाल, पूरे समाज से"

क्यों लड़कियां ऐसे धोखेबाज प्रेम के जाल में फंसती हैं?

क्यों घरवाले उनसे दोस्ती नहीं करते?

क्या ‘संस्कार’ का मतलब ‘डर’ है?

क्यों हर पिता को बेटी की बात सुनने के लिए उसकी रोती आवाज का इंतजार करना पड़ता है?

"अंत नहीं — शुरुआत है ये"

यह कहानी एक लड़की की नहीं, हर उस लड़की की है जो प्यार के नाम पर धोखा खा सकती है। और हर उस इंसान की जो वक्त पर बोल दे तो जान बचा सकता है।

आपसे विनती

👉 माता-पिता:
बेटियों से संवाद कीजिए। प्यार दीजिए, नियंत्रण नहीं।

👉 युवतियां:
हर चमकता चेहरा सोना नहीं होता।
हर वादा शादी तक नहीं जाता।
हर “I Love You” के पीछे इरादा नेक नहीं होता।

👉 समाज:
ऐसी कहानियों को शर्म की नहीं, सबक की तरह बांटिए।

अंतिम शब्द

"दिल बहका था, पर राह बच गई...
उस एक सही मोड़ ने एक ज़िंदगी सवार दी।
चलिए मिलकर ऐसे और मोड़ बनाएं।"

❤️ अगर यह कहानी आपको सच में छू गई हो तो:

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08/07/2025

" अमित, अरे बाबूजी उठे नहीं क्या अभी तक ?

टाइम पर दवा नहीं लेने से उनकी तबियत बिगड़ जाती है।

अमित, जरा देखोगे क्या उनके कमरे में जाकर ?

मैं रोटियाँ बना रही हूँ, सब्जी भी गैस पर रखी है, तुम्हारा टिफिन भी लगाना है अभी।

जागते ही चाय चाहिए उनको, वो भी सुबह ठीक सात बजे। अब तो पौने आठ बज रहे हैं, आज चाय-चाय करते किचन तक आए भी नहीं। "

अदिति की बातें सुनते अमित को भी आश्चर्य हुआ। बाबूजी आज अभी तक उठे क्यों नहीं ? वो तुरंत उनके कमरे में गया। बाबूजी अभी बिस्तर पर ही थे, गहरी नींद में।

अमित ने उन्हें आवाज दी : " बाबूजी, उठिए, आठ बजने को आए। आज चाय नहीं पीनी क्या ? "

कोई जवाब न पाकर अमित ने उन्हें हिलाया और जगाने की कोशिश की लेकिन उनके एकदम ठंडे पड़े शरीर के स्पर्श से वह चौंक गया और चीखा : "

अदितिsss...अदितिsss...इधर आओ जरा।

देखो, बाबूजी उठ नहीं रहे हैं। "

रोटी बेलना छोड़, सब्जी की गैस बंद कर अदिति तेजी से बाबूजी के कमरे में पहुँची।

अमित को कुछ सूझ नहीं रहा था। बोला : " अदिति, देखो, बाबूजी उठते नहीं हैं।

अदिति ने भी कोशिश की मगर बाबूजी न जागे।

उसकी आँखों से अश्रु बह निकले फिर खुद को मानो सांत्वना देती हुई वह बोली : " जरूर रात की दवाओं के असर से गहरी नींद में हैं।

ठहरो मैं डॉक्टर को फोन करती हूँ। "

अदिति ने बाबूजी के रेग्युलर डॉक्टर को कॉल किया : " हलो डॉक्टर साहब, मैं गीता बोल रही हूँ। "

डॉक्टर : " हाँ, गीता, बोलो। बाबूजी तो ठीक हैं न ?

परसों ही तो उन्हें चैक किया था, बीपी बढ़ा हुआ था इसलिए मैंने दवाई भी चेंज कर दी है। "

अदिती : " डॉक्टर साहब, बाबूजी उठ नहीं रहे। प्लीज आप जल्दी घर आएँगे क्या ? "

डॉक्टर : " हाँ... हाँ... मैं तुरंत आता हूँ। "

10 मिनिट में डॉक्टर साहब आ गए। बाबूजी को चैक किया।

फिर अमित की पीठ पर सांत्वना की थपकी देते हुए बोले : " सुबह-सुबह ही डेथ हुई है इनकी।

बीपी ही इनपर भारी गुजरा। मैं डेथ सर्टिफिकेट बना देता हूँ।

डॉक्टर की बात सुन, अदिति हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी।

डॉक्टर ने उसे कहा : " गीता, जन्म-मरण हमारे हाथ में थोड़ी होता है और फिर उम्र भी तो हो गई थी इनकी। होनी को कौन टाल सकता है। "

फिर अमित की ओर देखते वे बोले : " मैं तो कहता हूँ, अच्छा ही हुआ जो तकलीफ से निजात पा गए।

अल्जाइमर रोग बहुत तकलीफदेह होता है, खुद पेशेंट के लिए भी और उसके नाते-रिश्तेदारों के लिए भी। "

" डेथ सर्टिफिकेट पर उनका नाम क्या लिखूँ ?

उन्हें चैक करने आता था तो तुम लोगों की देखा-देखी मैं भी उन्हें बाबूजी ही कहता था। गीता के बाबूजी के रूप में ही जानता हूँ मैं इन्हें।

" ---डॉक्टर ने आगे कहा।

थोड़ी देर के लिए अमित और अदिति सकपकाए से एक दूसरे का मुँह देखने लगे फिर गीता ने चुप्पी तोड़ी और डॉक्टर से बोली : " डॉक्टर साहब, मेरा नाम गीता नहीं, अदिति है।

पिछले दस सालों से मैं बाबूजी के लिए गीता बनी हुई थी। "

डॉक्टर : " क्या मतलब ? "

अदिति : " कोई 10 साल पुरानी बात है डॉक्टर साहब, मैं साग-भाजी लेने सब्जी मार्केट गई थी।

खरीदारी के बाद जब मार्केट से बाहर आई और किसी खाली रिक्शे की तलाश में इधर-उधर देख रही थी

तभी, गीताss गीताss पुकारते एक बुजुर्गवार मेरे करीब पहुँचे और मेरी बाँह पकड़ मुझसे बोले, गीताss, अरे मुझे अपना घर ही नहीं मिल रहा।

कब से मैं यहाँ खड़ा हूँ लेकिन किधर जाऊँ कुछ समझ ही नहीं आ रहा। अच्छा हुआ तू आ गई। चल, अब घर चलें। "

" बुजुर्गवार किसी अच्छे घर के लग रहे थे, दिखने में भी और कपड़ों से भी। मेरा हाथ थामे बोलने लगे, गीताsss चल जल्दी। मुझे कबसे भूख लगी है। "

" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ?

बुजुर्गवार की स्नेहमयी, मीठी वाणी सुन सोचा कि, उनको घर ले जाती हूँ। कुछ खिलाकर, शांति से उनका एड्रेस पूछती हूँ और फिर उन्हें उनके घर छोड़ आती हूँ। अतः रिक्शे पर हम दोनों घर आए। "

" घर पहुँचते ही, बुजुर्गवार बोलने लगे, गीताsss जल्दी खाना दे, बहुत भूख लगी है।

" मैंने जल्दी से थाली में उन्हें उपलब्ध भोजन परोसा तो कई दिनों के उपवासे जैसे वे तेजी से खाने लगे।

भरपेट भोजन के बाद मैंने उनसे पूछा, बाबूजी आप कहाँ रहते हो ? याद है क्या आपको ? चलो मैं आपको, आपके घर छोड़ आती हूँ। "

बुजुर्गवार बोले : " अरे गीता, यही तो है अपना घर। "

" मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। फिर वे बाहर सोफे पर ही सो गए। "

" शाम को अमित के घर आने पर मैंने सारा किस्सा सुनाया।

फिर अमित के कहने पर हमने न्यूजपेपर में गुमशुदा वाले पृष्ठ पर और टीवी के गुमशुदा वाले कार्यक्रम के माध्यम से बुजुर्गवार का एड्रेस और नाते-रिश्तेदारों का पता करना प्रारंभ किया।

अमित ने पुलिस थाने में भी बुजुर्गवार की जानकारी दी। पुलिस ने कहा, कुछ पता चलने पर खबर करेंगे।

तब तक बुजुर्गवार को अपने घर पर रखो या तुम्हें दिक्कत हो तो उन्हें सरकारी वृद्धाश्रम अथवा अस्पताल में दाखिल करवा दो। "

" गीता...गीता...पुकारते वे मेरे आगे-पीछे घूमा करते।

गीता आज भिंडी की सब्जी बना, आज बेसन के भजिए वाली कढ़ी बना, आज हलवे की इच्छा है,

ऐंसी फरमाइशें किया करते। उनकी बातें, उनका अपनापन देख-सुन मेरा मन भर-भर आता।

बड़े हक से वे मुझे हर बात कहते जो मुझे भी बहुत भाता। "

" हफ्ता गुजर गया लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला।

उनसे कोई हेल्प नहीं मिलती लेकिन घर में रह रहे एक बुजुर्ग का अस्तित्व हमें खूब अच्छा लगने लगा। उनके लिए कुछ करना हमें खूब भाता। "

" मैंने और अमित ने निर्णय लिया कि हम उन्हें कहीं नहीं भेजेंगे, अपने घर पर अपने साथ ही रखेंगे। फिर हमने पुलिस थाने में भी अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। बस तभी से बुजुर्गवार हमारे बाबूजी बन गए। "

" दस बरस हो गए मेरा दूसरा नामकरण गीता हुए। आज बाबूजी के साथ गीता का भी अस्तित्व समाप्त हो गया।

" ---बोलते हुए अदिति की आँखों से पुनः झर-झर आँसू बहने लगे।

अदिति से सारा किस्सा सुन डॉक्टर निशब्द हो गए। थोड़ी देर बाद बोले : " इतने सालों में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ कि,

ये तुम्हारे पिता नहीं बल्कि कोई गैर हैं। सच कहूँ तो अल्जाइमर बड़ा गंभीर रोग है। आजकल वृद्ध लोगों में यह समस्या बढ़ती ही जा रही है। "

" आज के दौर में खुद की औलादें अपने माता-पिता को साथ रखना पसंद नहीं कर रहीं।

पैसे-प्रोपर्टी वसूली कर वृद्ध माता-पिता की जवाबदारी से मुँह मोड़ लेने का चलन समाज में बढ़ गया है। दिनोंदिन वृद्धाश्रमों में भीड़ बढ़ती ही जा रही है।

लेकिन इसी समाज में आप जैसे लोग भी हैं, यह मेरे लिए बेहद आश्चर्य का विषय है।

फिर डॉक्टर साहब खामोश हो गए। उन्होंने अमित और अदिति की पीठ पर प्यार और सांत्वना भरी थपकी दी।

फिर बाबूजी का डेथ सर्टिफिकेट उन्हें सौंपा और डबडबाई आँखों से घर के मुख्यद्वार की ओर बढ़ गए।।

"जब आँखें खुलीं तो रिश्ता समझ आया""जब उसने 'भाभी' कहा, तब मैं टूटा: एक रिश्ते का आईना"गाँव की गर्मी और मन का ज्वरमेरा ना...
07/07/2025

"जब आँखें खुलीं तो रिश्ता समझ आया"

"जब उसने 'भाभी' कहा, तब मैं टूटा: एक रिश्ते का आईना"

गाँव की गर्मी और मन का ज्वर

मेरा नाम आदित्य है। उम्र कोई खास नहीं, वही 20 साल। पढ़ाई दिल्ली यूनिवर्सिटी में चल रही थी, लेकिन गर्मियों की छुट्टियों में अपने गांव वापस आया था। शहर की भीड़-भाड़ से हटकर गांव की मिट्टी में कुछ सुकून है — पर सच्चाई ये है कि मैं सिर्फ आराम के लिए नहीं, बल्कि खुद को ढूंढने लौटा था।

गांव में मेरे ताऊजी का घर हमारे घर के ठीक सामने था। उनका बेटा मेरा सबसे करीबी भाई था, और उनकी पत्नी — मेरी भाभी — नीलिमा भाभी, हाल ही में ब्याह कर आई थीं।

वो नई थीं, इसलिए हर कोई उन्हें जानने में लगा था। पर नीलिमा भाभी अलग थीं। पढ़ी-लिखी, शांत, और सबसे बढ़कर — उनकी आँखों में एक गहराई थी जो आमतौर पर गांव की बहुओं में नहीं दिखती।

वो मुझसे खुलकर बात करतीं, किताबों की बातें, फिल्में, समाज। मुझे अच्छा लगता था — कोई ऐसा जिससे मैं अपना मन साझा कर सकूं। वो अक्सर कहतीं —

"आदित्य, तुम्हारी सोच दूसरों से अलग है। कभी खुद को छोटा मत समझना।"

मन का झोल और भ्रम का धागा

धीरे-धीरे न जाने कब मैं इस रिश्ते में डूबने लगा — लेकिन उस भाव में नहीं, जिसमें होना चाहिए था।

कभी जब भाभी बालों में तेल लगातीं, मैं छिपकर उन्हें देखता। जब वो मेरे कमरे में चाय देने आतीं, मैं उनके कंधे पर पड़ी चुन्नी से ज़्यादा उनकी आँखों को पढ़ता।

मैंने अपने मन में एक फिल्म बना ली थी — जिसमें हम दोनों कुछ ‘खास’ थे। जब वो मेरी तारीफ करतीं, मैं सोचता “शायद वो भी मुझे चाहती हैं…”।

वो एक दिन मंदिर से लौटीं, माथे पर सिंदूर और चेहरे पर वही स्नेह… लेकिन मुझे वो सिंदूर खलने लगा।

भूल की हद

एक दिन बारिश हो रही थी। बिजली कड़क रही थी और घर में बस हम दोनों थे। वो रसोई में थीं, और मैं बरामदे में बैठा। फिर खुद को रोक न पाया।

मैं धीरे से रसोई में गया और कहा —

"नीलिमा भाभी… क्या आप कभी अकेलापन महसूस करती हैं?"

वो मुस्कुराईं — "हर इंसान करता है आदित्य… क्यों पूछा?"

मैंने साहस कर लिया और बोला —

"कभी लगता है… आप और मैं… कुछ तो है जो…"

वो चौंकीं। उनकी मुस्कान गायब हो गई। उनके चेहरे पर एक स्त्री नहीं, एक ज्वालामुखी खड़ा था।

"आदित्य! ये क्या कह रहे हो तुम? क्या इसी दिन के लिए मुझसे दोस्ती की थी?"

मैं चुप। जैसे गूंगा हो गया।

एक चांटा और हकीकत की आवाज़

फिर उन्होंने कुछ ऐसा किया जो शायद आज तक किसी ने नहीं किया — मुझे एक चांटा मारा।

"तुम्हारे जैसे लड़कों की वजह से औरतें रिश्तों से डरने लगती हैं। क्या हर मुस्कान को इशारा समझोगे? हर बातचीत में छुपा अर्थ ढूंढोगे? मैं तुम्हारी भाभी हूँ आदित्य — भाभी! समझे तुम?"

वो चली गईं, लेकिन उस चांटे की गूंज आज तक कानों में है।

आत्मग्लानि और आत्मनिर्माण

मैंने उस दिन खुद को कमरे में बंद कर लिया। खाना नहीं, बात नहीं, बस सोचता रहा — “क्या मैं इतना गिर गया था?”

माँ ने पूछा तो कुछ नहीं बताया। दो दिन बाद भाभी खुद आईं, हाथ में खिचड़ी का कटोरा लिए।

"गलती हर किसी से होती है, लेकिन उसे मानना ही असली मर्दानगी है। मैं चाहती हूँ तुम खुद को माफ करो — लेकिन पहले सीखो कि एक औरत भी इंसान होती है, कोई वस्तु नहीं।"

उस दिन मेरी आँखें खुलीं।

7 साल बाद…

आज मैं एक काउंसलर हूँ — कॉलेजों में जाकर यौन शिक्षा, रिश्तों की गरिमा और स्त्री-पुरुष की मर्यादा पर बात करता हूँ।

मैंने एक किताब लिखी है — "भ्रम के भीतर का सच", जिसकी भूमिका नीलिमा भाभी ने खुद लिखी।

हर बार जब मैं लड़कों को समझाता हूँ कि “स्त्री कोई संकेत नहीं देती, वो बस इंसान है” — तो मुझे भाभी की वो थप्पड़ याद आता है, जिसने मेरी आत्मा को झकझोर दिया था।

---

📜 सीख:

भाभी एक रिश्ता है — माँ और बहन के बीच का।

औरत की मुस्कान उसका संस्कार है, संकेत नहीं।

जो तुम समझते हो, वही सच नहीं — कभी सामने वाले की आँखों से भी देखो।

"ससुराल: घर या पराया द्वार?""क्या मैं यहाँ मेहमान हूँ?" सौम्या ने खुद से पूछा जब वह रसोई में चाय बनाते हुए सास की तीखी ब...
02/07/2025

"ससुराल: घर या पराया द्वार?"

"क्या मैं यहाँ मेहमान हूँ?" सौम्या ने खुद से पूछा जब वह रसोई में चाय बनाते हुए सास की तीखी बातें याद कर रही थी।

तीन महीने पहले ही वह विवाह करके इस घर में आई थी। उसके सपनों में उसका ससुराल एक नया घर था — जहाँ सास उसकी माँ की तरह होगी, ससुर पिता की तरह, और पति उसका हमसफ़र। लेकिन जो मिला, वह उम्मीदों से बिल्कुल विपरीत था।

यह घर ससुर का था। और इस बात की याद दिलाना कोई मौका नहीं छोड़ता था।

"तू बस यहाँ की बहू है, मालिक नहीं। ये घर मेरे पति ने बनाया है, और तू इसे कभी अपना समझने की भूल मत करना," सास ने पहले ही दिन कहा था।

सौम्या ने चुपचाप यह सब सहा। उसकी परवरिश ऐसे माहौल में हुई थी जहाँ संयम और संस्कार सर्वोपरि थे। लेकिन वह यह भी जानती थी कि रिश्ते प्यार और सम्मान से बनते हैं, अधिकार जताने से नहीं।

पति, अमन, उससे बहुत प्यार करता था। लेकिन वह माँ और पत्नी के बीच संतुलन नहीं बना पा रहा था। माँ के हर कटाक्ष पर वह चुप रह जाता, और सौम्या की हर शिकायत पर बस यही कहता, "समझने की कोशिश करो यार, माँ का स्वभाव ऐसा ही है।"

पर समस्या केवल सास के स्वभाव की नहीं थी।

असल में यह घर सौम्या का नहीं था — यह बात उसे हर रोज़ याद दिलाई जाती थी।

हर चीज़, हर कोना, हर कमरा — सबकुछ "ससुर जी का" था। सोफे से लेकर चूल्हे तक। सौम्या से अगर ज़्यादा देर फोन पर बात हो जाती, तो भी सुनना पड़ता: "अपने मायके की बातें इस घर में ज़्यादा मत लाओ।"

एक दिन, जब सास ने अमन के सामने सौम्या को ताना मारा कि "बहुओं को अपने मायके की चीज़ें छोड़ कर इस घर में जीना सीखना चाहिए," तो अमन ने पहली बार विरोध किया।

"माँ, सौम्या मेरी पत्नी है। आप हर बार उसे 'पराई' कहकर क्यों नीचा दिखाती हैं? क्या आपने मुझे इसलिए पाला था कि मेरी पत्नी को हर दिन उसकी औकात दिखाई जाए?"

सास नाराज़ होकर बोली, "तू बदल गया है, अब तू अपनी बीवी की सुनता है।"

यही वह वाक्य था जिसने सौम्या को झकझोर दिया।

उसने अपने कमरे में जाकर सोच लिया — "क्या वाकई मैं किसी का बेटा छीन रही हूँ? क्या प्यार करना, साथ देना, समझाना — किसी को उससे अलग करने के बराबर है?"

अगले दिन सौम्या ने कुछ अलग किया।

वह सास के पास गई, उनके हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए बोली, "माँजी, आप सही कहती हैं। यह घर आपका है, आपने इसे बनाया है, इसे सजाया है, इसमें ज़िंदगी गुज़ारी है। मैं यहाँ मेहमान हूँ — लेकिन अगर आप चाहें, तो इसे अपना घर बना सकती हूँ।"

सास हैरान रह गईं। सौम्या ने बात जारी रखी:

"आप जिस बेटे को मुझसे छिनता देखती हैं, वही बेटा हर रोज़ आपके बीच फँसकर टूटता है। हम दोनों उसकी दुनिया हैं, लेकिन हम एक-दूसरे की दुश्मन बन गई हैं। क्या हम दोनों मिलकर इस घर को एक ऐसा स्थान नहीं बना सकते जहाँ प्यार हो, ना कि अधिकार की लड़ाई?"

सास की आँखें नम हो गईं। सालों से उन्होंने वही देखा था — कि बहू आती है, बेटे को 'अपने पाले' में कर लेती है, और माँ को अकेला छोड़ देती है। पर सौम्या का नजरिया कुछ और था। वह 'ससुराल' को सिर्फ 'ससुर का घर' नहीं, बल्कि एक 'नया घर' मानती थी, जहाँ उसे भी कुछ जोड़ना था, ना कि तोड़ना।

उस दिन के बाद बहुत कुछ बदला।

अमन ने भी ज़िम्मेदारी ली। उसने माँ को समय दिया, पत्नी को सम्मान। घर में अब अधिकार की नहीं, सहभागिता की बातें होती थीं।

सास और सौम्या ने साथ में एक बगिया लगाई। चाय की बातचीत अब कटाक्ष की नहीं, कहानियों की होती थी। रसोई में अब "मेरे पति का घर" नहीं, बल्कि "हमारा घर" कहा जाने लगा।

और एक दिन सास ने सबसे कहा, "ये बहू नहीं, मेरी बेटी है। मेरे घर को घर बनाए रखने वाली।"

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निष्कर्ष:

ससुराल सिर्फ "ससुर का घर" नहीं होता। यह एक नई शुरुआत होती है, जहाँ बहू भी उतनी ही हिस्सेदार होती है जितनी कोई और। अगर एक बहू ससुराल को घर बना सकती है, तो एक सास उसे बेटी भी बना सकती है।

क्योंकि रिश्ते अधिकार से नहीं, समझ से चलते हैं।

बिलकुल! पारिवारिक झगड़ों को सुलझाने और रिश्तों को मधुर बनाए रखने के लिए ये 10 सूत्र बेहद प्रभावशाली हैं। ---  अपने बच्चो...
01/07/2025

बिलकुल! पारिवारिक झगड़ों को सुलझाने और रिश्तों को मधुर बनाए रखने के लिए ये 10 सूत्र बेहद प्रभावशाली हैं।

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अपने बच्चों के जीवन में अति हस्तक्षेप से बचें।

उनके निर्णयों का सम्मान करें, चाहे वह करियर का हो, रिश्तों का हो या जीवनशैली का। सलाह जरूर दें, लेकिन निर्णय उन पर छोड़ें।

शिकायतों की जगह संवाद को चुनें।

अगर कोई बात खटकती है तो बिना गुस्से और आरोप के, शांत स्वर में अपनी बात रखें। झगड़े तब बढ़ते हैं जब सुनने की बजाय हम जवाब देने के लिए तत्पर होते हैं।

रिश्तों में 'स्वीकृति' और 'अपेक्षा' का संतुलन रखें।

हर किसी से वैसा व्यवहार न अपेक्ष करें जैसा आप सोचते हैं। सबकी परवरिश, सोच, आदतें अलग होती हैं – उन्हें वैसे ही स्वीकारें।

नई पीढ़ी के साथ चलना सीखें, टकराना नहीं।

समय के साथ पीढ़ियों की सोच और जीवनशैली बदलती है। हर चीज़ को “हमारे ज़माने में ऐसा नहीं होता था” कहकर खारिज न करें।

अपनी बातों में कटाक्ष से बचें।

पारिवारिक संवाद में कभी भी ताना मारना, तुलना करना या पुराने झगड़ों को दोहराना रिश्तों में कड़वाहट घोल सकता है।

अपने जीवन साथी के साथ सामंजस्य रखें।

यदि आप स्वयं अपने जीवन साथी से लड़ते हैं तो बच्चों पर उसका असर ज़रूर पड़ता है। घर में शांति लाने के लिए पहले खुद शांति रखें।

हर छोटे विवाद को ‘सम्मान का मुद्दा’ न बनाएं।

कभी-कभी चुप रह जाना, बात को जाने देना, समझदारी होती है। हर बात पर बहस करने से रिश्तों में दरार आती है।

घर के हर सदस्य को स्वतंत्रता दें।

हर व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी से कुछ करने का अधिकार है – जैसे कि बाहर जाना, खाना बनाना, कपड़े पहनना। नियंत्रक बनने की बजाय गाइड बनने की कोशिश करें।

अपने जीवन के लक्ष्य तय करें जो बच्चों से जुड़े न हों।

बुज़ुर्ग भी अपनी रुचियों, मित्रों और गतिविधियों में व्यस्त रहें। जीवन का केंद्र केवल बच्चे नहीं होने चाहिए।

हर दिन धन्यवाद कहना सीखें।

परिवार में अगर कोई आपके लिए कुछ करे – चाहे छोटा हो या बड़ा – "धन्यवाद" कहने की आदत डालें। इससे रिश्ते मजबूत होते हैं।

📌 निष्कर्ष:

इन सुझावों का पालन कर आप अपने परिवार में शांति, प्रेम और सम्मान बनाए रख सकते हैं। याद रखें – रिश्ते अधिकार नहीं, विश्वास और समझदारी से चलते हैं।

🙏 इसे अपने प्रियजनों के साथ अवश्य साझा करें।
🎯 क्योंकि ये सिर्फ सलाह नहीं, एक सुखी परिवार की नींव हैं।

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24/06/2025

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"ਅਨਕਹੀਆਂ ਲਹਿਰਾਂ"
PremDaSilentMode

ਧੀਰੇ-ਧੀਰੇ ਸਮਾਂ ਲੰਘ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਪਰ ਘਰ ਦੀਆਂ ਪੀਲੀਆਂ ਪਈਆਂ ਕੰਧਾਂ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਉਸ ਪੁਰਾਣੇ ਝੂਲੇ 'ਤੇ ਬੈਠੀ ਮਾਇਆ ਦੀ ਹੰसी ਅਜੇ ਵੀ ਉਹੀ ਸੀ — ਸਾਫ਼, ਮਿੱਠੀ ਤੇ ਸਿਰਫ਼ ਮੋਹਨ ਲਈ।

ਮੋਹਨ ਆਪਣੇ ਚਸ਼ਮੇ ਨੂੰ ਕਮੀਜ਼ ਦੀ ਬਾਂਹ ਨਾਲ ਸਾਫ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ:
"ਸਾਡੇ ਜ਼ਮਾਨੇ 'ਚ ਨਾ ਕੋਈ ਮੋਬਾਈਲ ਸੀ, ਨਾ ਕੋਈ ਵਾਇ-ਫਾਈ… ਪਰ ਦਿਲਾਂ ਦੀ ਲਹਿਰ ਬਿਨਾਂ ਰੁਕਾਵਟ ਚਲਦੀ ਸੀ।"

ਮਾਇਆ ਹੌਲੀ ਜਿਹੀ ਮੁਸਕਰਾ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਕੋਈ ਪੁਰਾਣਾ ਗੀਤ ਸਿਰ੍ਹਾਨੇ 'ਚੋਂ ਵੱਜ ਪਿਆ ਹੋਵੇ।

"ਤੇ ਯਾਦ ਏ? ਹਰ ਰੋਜ਼ ਠੀਕ 5 ਵਜੇ 55 ਮਿੰਟ 'ਤੇ ਮੈਂ ਦਰਵਾਜ਼ੇ 'ਤੇ ਪਾਣੀ ਦਾ ਗਿਲਾਸ ਲੈ ਕੇ ਖੜੀ ਹੁੰਦੀ, ਤੇ ਤੁਸੀਂ ਆ ਜਾਂਦੇ ਸੀ," ਮਾਇਆ ਨੇ ਕਿਹਾ।

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਹੌਲੀ ਝੂਲੇ ਤੋਂ ਉਤਰ ਕੇ ਉਸਦੇ ਕੋਲ ਆ ਬੈਠਦਾ ਹੈ, "ਮੈਂ ਅੱਜ ਤੱਕ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸਮਝ ਸਕਿਆ ਕਿ ਮੈਂ ਆਉਂਦਾ ਸੀ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਤੁਸੀਂ ਪਾਣੀ ਲੈ ਕੇ ਆਉਂਦੀ ਸੀ, ਜਾਂ ਤੁਸੀਂ ਆਉਂਦੀ ਸੀ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਮੈਂ ਆ ਜਾਂਦਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਹੱਥ ਫੜ ਕੇ ਹੱਸ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, "ਜਿੱਥੇ ਦਿਲ ਜੁੜੇ ਹੋਣ, ਓਥੇ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਲੋੜੀਂਦੇ… ਓਥੇ ਤਾਂ ਸਿਰਫ਼ ਮਿਹਸੂਸ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਏ।"

ਗੱਲਾਂ ਉਲਝ ਗਈਆਂ, ਪਰ ਜਿਵੇਂ ਵਕ਼ਤ ਦੇ ਧਾਗਿਆਂ ਵਿੱਚ ਪਿਆਰ ਦੀ ਗੂੰਜ ਸੀ।

"ਯਾਦ ਏ ਤੈਨੂੰ ਖੀਰ ਵਾਲੀ ਗੱਲ?" ਮੋਹਨ ਕਹਿੰਦਾ, "ਦਫ਼ਤਰ ਤੋਂ ਨਿਕਲਦੇ ਸਮੇਂ ਸੋਚਦਾ ਸੀ ਕਿ ਅੱਜ ਖੀਰ ਮਿਲ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਚੰਗਾ ਹੋਵੇ… ਤੇ ਘਰ ਆ ਕੇ ਵੇਖਦਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਬਣਾ ਲਈ ਹੁੰਦੀ।"

ਮਾਇਆ ਮੁਸਕਰਾ ਕੇ ਕਹਿੰਦੀ, "ਕਿਉਂਕਿ ਤੇਰੀ ਸੋਚ ਮੇਰੇ ਤੱਕ ਪਹਿਲਾਂ ਪਹੁੰਚ ਜਾਂਦੀ ਸੀ।"

"ਜਦ ਤੂੰ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰੀ ਮਾਯਕੇ ਗਈ ਸੀ… ਤੇ ਜਦ ਪੇਟ ਦਰਦ ਹੋਇਆ, ਤੂੰ ਸੋਚਿਆ, ਕਾਸ਼ ਮੋਹਨ ਹੁੰਦਾ… ਤੇ ਮੈਂ ਘੰਟੇ ਵਿੱਚ ਤੇਰੇ ਕੋਲ ਸੀ।"

"ਕਿਉਂਕਿ ਮੈਂ ਦਿਲੋਂ ਪੁਕਾਰਿਆ ਸੀ… ਤੇ ਤੁਸੀਂ ਬਿਨਾਂ ਕਹੇ ਸੁਣ ਲਿਆ ਸੀ।"

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਹੌਲੀ ਕਹਿੰਦਾ, "ਤੇ ਜਦ ਮੈਂ ਤੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ 'ਚ ਅੱਖਾਂ ਪਾ ਕੇ ਕਵਿਤਾ ਦੀਆਂ ਲਾਈਨਾਂ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਹੱਸਦੀ ਹੋਈ ਕਹਿੰਦੀ, "ਤੇ ਮੈਂ ਸ਼ਰਮਾ ਕੇ ਪਲਕਾਂ ਝੁਕਾ ਲੈਂਦੀ ਸੀ…"

"ਤੇ ਮੈਂ ਸੋਚਦਾ ਸੀ ਕਿ ਇਹ ਵੀ ਕਵਿਤਾ ਦੀ ਲਾਈਨ ਹੀ ਹੋਣੀ ਏ।"

ਮਾਇਆ ਕਹਿੰਦੀ, "ਜਦ ਮੈਂ ਚਾਹ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੋਈ ਥੋੜੀ ਜਲ ਗਈ ਸੀ, ਤੇ ਤੂੰ ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਜੇਬ 'ਚੋਂ ਬਰਨੋਲ ਦੀ ਟਿਊਬ ਕੱਢੀ ਸੀ…"

ਮੋਹਨ: "ਪਿਛਲੇ ਹਫ਼ਤੇ ਹੀ ਵੇਖਿਆ ਸੀ ਕਿ ਟਿਊਬ ਖਤਮ ਹੋ ਗਈ ਸੀ… ਸੋਚਿਆ ਕਿ ਲੈ ਆਵਾਂ, ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਦੋਂ ਲੋੜ ਪੈ ਜਾਵੇ।"

ਮਾਇਆ ਉਠ ਕੇ ਕਹਿੰਦੀ, "ਚਾਹ ਬਣਾਂਵਾਂ?"

ਮੋਹਨ: "ਮੈਂ ਤਾਂ ਕਹਿਣ ਹੀ ਲੱਗਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਮੁਸਕਰਾਉਂਦੀ ਹੈ, "ਮੈਂ ਅਜੇ ਵੀ ਤੇਰੇ ਦਿਲ ਦੇ ਨੈੱਟਵਰਕ ਵਿੱਚ ਹਾਂ… ਕਵਰੇਜ ਪੂਰਾ ਏ।"

ਦੋਵੇਂ ਹੱਸ ਪੈਂਦੇ ਹਨ।

ਮੋਹਨ ਝਰੋਖੇ 'ਚੋਂ ਬਾਹਰ ਵੇਖਦਾ ਹੈ। ਬੇਟਾ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਪਤਨੀ ਆਪਣੇ-ਆਪਣੇ ਫੋਨਾਂ ਵਿੱਚ ਖੋਏ ਹੋਏ। ਨ ਕੋਈ ਗੱਲ, ਨ ਕੋਈ ਹੱਸ, ਸਿਰਫ਼ ਸਕ੍ਰੀਨ ਤੇ ਸਵਾਈਪ।

"ਹੁਣ ਵਟਸਐਪ ਹੈ, ਪਰ ਗੱਲਾਂ ਨਹੀਂ। ਲਗਾਵ ਦੀ ਥਾਂ ਟੈਗ ਆ ਗਿਆ। ਪਿਆਰ ਦੀ ਥਾਂ ਲਾਈਕ, ਤੇ ਨੋਕ-ਝੋਕ ਦੀ ਥਾਂ ਅਨਫ੍ਰੈਂਡ।"

ਮਾਇਆ ਚੁਪ-ਚਾਪ ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ, "ਅਸੀਂ ਸ਼ਾਇਦ ਆਖ਼ਰੀ ਪੀੜੀ ਹਾਂ, ਜਿਸਨੇ ਪਿਆਰ ਨੂੰ ਕਦੇ ਐਪਸ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ, ਪਰ ਅੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਿਆ ਸੀ…"

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਕਹਿੰਦਾ, "ਹੁਣ ਅਸੀਂ ਦੋਵੇਂ ਵਾਇਬਰੇਟ ਮੋਡ 'ਚ ਹਾਂ… ਬੈਟਰੀ ਇਕ ਲਾਈਨ ਤੇ ਆ ਗਈ ਏ, ਪਰ ਨੈੱਟਵਰਕ ਅਜੇ ਵੀ ਫੁੱਲ ਸਿਗਨਲ ਤੇ ਏ।"

ਮਾਇਆ ਚਾਹ ਦੀ ਪਿਆਲੀ ਹਥ ਵਿਚ ਦਿੰਦੀ ਹੈ:
"ਜਦ ਤੱਕ ਸਿਗਨਲ ਏ, ਕਾਲ ਕਰਦੇ ਰਹੀ।"

ਮੋਹਨ ਹੱਸ ਕੇ ਕਹਿੰਦਾ, "ਤੇ ਜਦ ਤੱਕ ਤੂੰ ਕਵਰੇਜ 'ਚ ਏ, ਮੈਂ ਹਰ ਰੋਜ਼ 5:55 'ਤੇ ਆ ਜਾਂਵਾਂਗਾ।"

ਇਹ ਸਿਰਫ਼ ਪਿਆਰ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਨਹੀਂ, ਇਹ ਉਸ ਦੌਰ ਦੀ ਯਾਦਗਾਰ ਹੈ ਜਿੱਥੇ 'ਕਨੈਕਸ਼ਨ' ਸਿਰਫ਼ ਨੈੱਟਵਰਕ ਨਹੀਂ, ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਦੀ ਡੋਰ ਹੋਈ ਕਰਦੀ ਸੀ।

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"ਅਨਕਹੀਆਂ ਲਹਿਰਾਂ"             PremDaSilentModeਧੀਰੇ-ਧੀਰੇ ਸਮਾਂ ਲੰਘ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਪਰ ਘਰ ਦੀਆਂ ਪੀਲੀਆਂ ਪਈਆਂ ਕੰਧਾਂ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਉਸ ਪੁਰਾਣ...
24/06/2025

"ਅਨਕਹੀਆਂ ਲਹਿਰਾਂ"
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ਧੀਰੇ-ਧੀਰੇ ਸਮਾਂ ਲੰਘ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਪਰ ਘਰ ਦੀਆਂ ਪੀਲੀਆਂ ਪਈਆਂ ਕੰਧਾਂ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ ਉਸ ਪੁਰਾਣੇ ਝੂਲੇ 'ਤੇ ਬੈਠੀ ਮਾਇਆ ਦੀ ਹੰसी ਅਜੇ ਵੀ ਉਹੀ ਸੀ — ਸਾਫ਼, ਮਿੱਠੀ ਤੇ ਸਿਰਫ਼ ਮੋਹਨ ਲਈ।

ਮੋਹਨ ਆਪਣੇ ਚਸ਼ਮੇ ਨੂੰ ਕਮੀਜ਼ ਦੀ ਬਾਂਹ ਨਾਲ ਸਾਫ ਕਰਦਾ ਹੋਇਆ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ:
"ਸਾਡੇ ਜ਼ਮਾਨੇ 'ਚ ਨਾ ਕੋਈ ਮੋਬਾਈਲ ਸੀ, ਨਾ ਕੋਈ ਵਾਇ-ਫਾਈ… ਪਰ ਦਿਲਾਂ ਦੀ ਲਹਿਰ ਬਿਨਾਂ ਰੁਕਾਵਟ ਚਲਦੀ ਸੀ।"

ਮਾਇਆ ਹੌਲੀ ਜਿਹੀ ਮੁਸਕਰਾ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਕੋਈ ਪੁਰਾਣਾ ਗੀਤ ਸਿਰ੍ਹਾਨੇ 'ਚੋਂ ਵੱਜ ਪਿਆ ਹੋਵੇ।

"ਤੇ ਯਾਦ ਏ? ਹਰ ਰੋਜ਼ ਠੀਕ 5 ਵਜੇ 55 ਮਿੰਟ 'ਤੇ ਮੈਂ ਦਰਵਾਜ਼ੇ 'ਤੇ ਪਾਣੀ ਦਾ ਗਿਲਾਸ ਲੈ ਕੇ ਖੜੀ ਹੁੰਦੀ, ਤੇ ਤੁਸੀਂ ਆ ਜਾਂਦੇ ਸੀ," ਮਾਇਆ ਨੇ ਕਿਹਾ।

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਹੌਲੀ ਝੂਲੇ ਤੋਂ ਉਤਰ ਕੇ ਉਸਦੇ ਕੋਲ ਆ ਬੈਠਦਾ ਹੈ, "ਮੈਂ ਅੱਜ ਤੱਕ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸਮਝ ਸਕਿਆ ਕਿ ਮੈਂ ਆਉਂਦਾ ਸੀ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਤੁਸੀਂ ਪਾਣੀ ਲੈ ਕੇ ਆਉਂਦੀ ਸੀ, ਜਾਂ ਤੁਸੀਂ ਆਉਂਦੀ ਸੀ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਮੈਂ ਆ ਜਾਂਦਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਹੱਥ ਫੜ ਕੇ ਹੱਸ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, "ਜਿੱਥੇ ਦਿਲ ਜੁੜੇ ਹੋਣ, ਓਥੇ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਲੋੜੀਂਦੇ… ਓਥੇ ਤਾਂ ਸਿਰਫ਼ ਮਿਹਸੂਸ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਏ।"

ਗੱਲਾਂ ਉਲਝ ਗਈਆਂ, ਪਰ ਜਿਵੇਂ ਵਕ਼ਤ ਦੇ ਧਾਗਿਆਂ ਵਿੱਚ ਪਿਆਰ ਦੀ ਗੂੰਜ ਸੀ।

"ਯਾਦ ਏ ਤੈਨੂੰ ਖੀਰ ਵਾਲੀ ਗੱਲ?" ਮੋਹਨ ਕਹਿੰਦਾ, "ਦਫ਼ਤਰ ਤੋਂ ਨਿਕਲਦੇ ਸਮੇਂ ਸੋਚਦਾ ਸੀ ਕਿ ਅੱਜ ਖੀਰ ਮਿਲ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਚੰਗਾ ਹੋਵੇ… ਤੇ ਘਰ ਆ ਕੇ ਵੇਖਦਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਬਣਾ ਲਈ ਹੁੰਦੀ।"

ਮਾਇਆ ਮੁਸਕਰਾ ਕੇ ਕਹਿੰਦੀ, "ਕਿਉਂਕਿ ਤੇਰੀ ਸੋਚ ਮੇਰੇ ਤੱਕ ਪਹਿਲਾਂ ਪਹੁੰਚ ਜਾਂਦੀ ਸੀ।"

"ਜਦ ਤੂੰ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰੀ ਮਾਯਕੇ ਗਈ ਸੀ… ਤੇ ਜਦ ਪੇਟ ਦਰਦ ਹੋਇਆ, ਤੂੰ ਸੋਚਿਆ, ਕਾਸ਼ ਮੋਹਨ ਹੁੰਦਾ… ਤੇ ਮੈਂ ਘੰਟੇ ਵਿੱਚ ਤੇਰੇ ਕੋਲ ਸੀ।"

"ਕਿਉਂਕਿ ਮੈਂ ਦਿਲੋਂ ਪੁਕਾਰਿਆ ਸੀ… ਤੇ ਤੁਸੀਂ ਬਿਨਾਂ ਕਹੇ ਸੁਣ ਲਿਆ ਸੀ।"

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਹੌਲੀ ਕਹਿੰਦਾ, "ਤੇ ਜਦ ਮੈਂ ਤੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ 'ਚ ਅੱਖਾਂ ਪਾ ਕੇ ਕਵਿਤਾ ਦੀਆਂ ਲਾਈਨਾਂ ਪੜ੍ਹਦਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਹੱਸਦੀ ਹੋਈ ਕਹਿੰਦੀ, "ਤੇ ਮੈਂ ਸ਼ਰਮਾ ਕੇ ਪਲਕਾਂ ਝੁਕਾ ਲੈਂਦੀ ਸੀ…"

"ਤੇ ਮੈਂ ਸੋਚਦਾ ਸੀ ਕਿ ਇਹ ਵੀ ਕਵਿਤਾ ਦੀ ਲਾਈਨ ਹੀ ਹੋਣੀ ਏ।"

ਮਾਇਆ ਕਹਿੰਦੀ, "ਜਦ ਮੈਂ ਚਾਹ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੋਈ ਥੋੜੀ ਜਲ ਗਈ ਸੀ, ਤੇ ਤੂੰ ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਜੇਬ 'ਚੋਂ ਬਰਨੋਲ ਦੀ ਟਿਊਬ ਕੱਢੀ ਸੀ…"

ਮੋਹਨ: "ਪਿਛਲੇ ਹਫ਼ਤੇ ਹੀ ਵੇਖਿਆ ਸੀ ਕਿ ਟਿਊਬ ਖਤਮ ਹੋ ਗਈ ਸੀ… ਸੋਚਿਆ ਕਿ ਲੈ ਆਵਾਂ, ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਦੋਂ ਲੋੜ ਪੈ ਜਾਵੇ।"

ਮਾਇਆ ਉਠ ਕੇ ਕਹਿੰਦੀ, "ਚਾਹ ਬਣਾਂਵਾਂ?"

ਮੋਹਨ: "ਮੈਂ ਤਾਂ ਕਹਿਣ ਹੀ ਲੱਗਾ ਸੀ…"

ਮਾਇਆ ਮੁਸਕਰਾਉਂਦੀ ਹੈ, "ਮੈਂ ਅਜੇ ਵੀ ਤੇਰੇ ਦਿਲ ਦੇ ਨੈੱਟਵਰਕ ਵਿੱਚ ਹਾਂ… ਕਵਰੇਜ ਪੂਰਾ ਏ।"

ਦੋਵੇਂ ਹੱਸ ਪੈਂਦੇ ਹਨ।

ਮੋਹਨ ਝਰੋਖੇ 'ਚੋਂ ਬਾਹਰ ਵੇਖਦਾ ਹੈ। ਬੇਟਾ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਪਤਨੀ ਆਪਣੇ-ਆਪਣੇ ਫੋਨਾਂ ਵਿੱਚ ਖੋਏ ਹੋਏ। ਨ ਕੋਈ ਗੱਲ, ਨ ਕੋਈ ਹੱਸ, ਸਿਰਫ਼ ਸਕ੍ਰੀਨ ਤੇ ਸਵਾਈਪ।

"ਹੁਣ ਵਟਸਐਪ ਹੈ, ਪਰ ਗੱਲਾਂ ਨਹੀਂ। ਲਗਾਵ ਦੀ ਥਾਂ ਟੈਗ ਆ ਗਿਆ। ਪਿਆਰ ਦੀ ਥਾਂ ਲਾਈਕ, ਤੇ ਨੋਕ-ਝੋਕ ਦੀ ਥਾਂ ਅਨਫ੍ਰੈਂਡ।"

ਮਾਇਆ ਚੁਪ-ਚਾਪ ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ, "ਅਸੀਂ ਸ਼ਾਇਦ ਆਖ਼ਰੀ ਪੀੜੀ ਹਾਂ, ਜਿਸਨੇ ਪਿਆਰ ਨੂੰ ਕਦੇ ਐਪਸ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ, ਪਰ ਅੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਪੜ੍ਹਿਆ ਸੀ…"

ਮੋਹਨ ਹੌਲੀ ਕਹਿੰਦਾ, "ਹੁਣ ਅਸੀਂ ਦੋਵੇਂ ਵਾਇਬਰੇਟ ਮੋਡ 'ਚ ਹਾਂ… ਬੈਟਰੀ ਇਕ ਲਾਈਨ ਤੇ ਆ ਗਈ ਏ, ਪਰ ਨੈੱਟਵਰਕ ਅਜੇ ਵੀ ਫੁੱਲ ਸਿਗਨਲ ਤੇ ਏ।"

ਮਾਇਆ ਚਾਹ ਦੀ ਪਿਆਲੀ ਹਥ ਵਿਚ ਦਿੰਦੀ ਹੈ:
"ਜਦ ਤੱਕ ਸਿਗਨਲ ਏ, ਕਾਲ ਕਰਦੇ ਰਹੀ।"

ਮੋਹਨ ਹੱਸ ਕੇ ਕਹਿੰਦਾ, "ਤੇ ਜਦ ਤੱਕ ਤੂੰ ਕਵਰੇਜ 'ਚ ਏ, ਮੈਂ ਹਰ ਰੋਜ਼ 5:55 'ਤੇ ਆ ਜਾਂਵਾਂਗਾ।"

ਇਹ ਸਿਰਫ਼ ਪਿਆਰ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਨਹੀਂ, ਇਹ ਉਸ ਦੌਰ ਦੀ ਯਾਦਗਾਰ ਹੈ ਜਿੱਥੇ 'ਕਨੈਕਸ਼ਨ' ਸਿਰਫ਼ ਨੈੱਟਵਰਕ ਨਹੀਂ, ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਦੀ ਡੋਰ ਹੋਈ ਕਰਦੀ ਸੀ।

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"शादी या सज़ा: प्यार की सलाखों में"शादी — एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही कोई सात फेरे, मंडप और प्रेम की कल्पना करता है। लेकिन...
15/06/2025

"शादी या सज़ा: प्यार की सलाखों में"

शादी — एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही कोई सात फेरे, मंडप और प्रेम की कल्पना करता है। लेकिन क्या हर शादी वाकई प्रेम से बंधी होती है? या वो एक सामाजिक समझौता होती है जिसमें इंसान धीरे-धीरे घुटने लगता है?

ये कहानी है — आरव और सनाया की। वो दोनों जो कभी "एक-दूसरे के लिए बने हैं" कहे गए थे, पर अब एक सवाल के जवाब खोज रहे हैं —
"ये शादी है... या सज़ा?"
---
सनाया एक तेज़-तर्रार, आत्मनिर्भर और रचनात्मक सोच रखने वाली लड़की थी। पत्रकार थी, जो समाज की सच्चाइयों पर लिखती थी और हर मुद्दे को बेबाकी से उठाती थी। दूसरी ओर, आरव एक कॉर्पोरेट वकील था — अनुशासन प्रिय, शांत और व्यावहारिक सोच वाला।

एक पारिवारिक समारोह में मुलाकात हुई, बातों का सिलसिला चला और परिवारों के दबाव में दोनों ने रिश्ता मंज़ूर कर लिया।

“हम बिल्कुल अलग हैं,” सनाया ने कहा था।
“शायद इसीलिए तो साथ होना ज़रूरी है,” आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया था।

शादी हो गई। रिसेप्शन में सबने तारीफ की — “बिल्कुल परफेक्ट कपल लगते हैं!”

शादी के कुछ महीनों तक सब ठीक था। लेकिन जैसे-जैसे ‘हम’ के पीछे ‘मैं’ की खोज शुरू हुई, दूरी पनपने लगी।

सनाया चाहती थी कि आरव उसके कॉलम पढ़े, उसकी कविताओं पर प्रतिक्रिया दे। पर आरव देर रात तक ऑफिस से थका हुआ आता और ज़्यादा से ज़्यादा दो शब्द कहता —
"ठीक है" या "अच्छा लिखा है।"

सनाया के लिए ये दो शब्द रिश्ते की मौत थे।
"तुम सिर्फ मेरी बातें सहते हो, समझते नहीं," वो एक रात फूट पड़ी।
"और तुम सिर्फ महसूस करती हो, हल नहीं खोजती," आरव ने ठंडे लहजे में जवाब दिया।

दुनिया की नज़रों में वो अब भी खुशहाल जोड़ा थे। लेकिन घर के अंदर रिश्तों की दीवारें दरकने लगी थीं।

बिस्तर एक था, मगर तकिए अलग।

भोजन एक ही टेबल पर, मगर बात नहीं होती थी।

इच्छाएं एक समान, मगर रास्ते उलटे।

एक बार आरव ने कहा, “शादी सिर्फ प्यार नहीं, जिम्मेदारी भी है।”
सनाया ने पलट कर पूछा, “और अगर जिम्मेदारी ही सब कुछ है, तो जेल और शादी में फर्क क्या रह गया?”

एक दिन सनाया ने तलाक की बात छेड़ी।
आरव चौंका नहीं — उसने केवल एक वाक्य कहा:
“शायद यही सही है।”

दोनों ने वकील से बात की। फॉर्म भर गए।
तारीख तय हो गई — "25 मार्च"

पर जाने क्यों, उस रात नींद किसी को नहीं आई।

आरव ने पुराने अलबम निकाले। हनीमून की तस्वीरों में हँसती हुई सनाया को देखा।
सनाया ने अपने ड्राफ्ट फोल्डर में आरव के नाम एक अधूरी चिट्ठी देखी, जो उसने कभी भेजी ही नहीं थी।

“अगर कभी ये रिश्ता टूटे, तो याद रखना — मैंने कोशिश की थी... बहुत की थी।”

तलाक से ठीक एक दिन पहले आरव ने सनाया को एक लिफाफा दिया।

उसमें एक लंबा ख़त था:

"सनाया,
तुमने हमेशा कहा कि मैं भाव नहीं दिखाता। शायद तुम सही थी। लेकिन मैंने हर रात तुम्हारे बिखरे हुए बालों को देखा है, जब तुम गहरी नींद में होती थी। मैंने तुम्हारी कहानियों को पढ़ा है, चुपचाप — क्योंकि मुझे डर था कि तारीफ कर दी तो कमज़ोर हो जाऊँगा।

मैंने कोशिश की, पर शायद तरीका गलत था। शादी मेरे लिए परंपरा थी, तुम्हारे लिए उड़ान — और हम दोनों ही न खुद को समझा पाए, न एक-दूसरे को।

तुम पूछती थी — "शादी है या सज़ा?"
मैं कहता हूँ — ये वो सज़ा है, जो मैं फिर से भुगतने को तैयार हूँ... अगर सज़ा तुम्हारे साथ हो।”

सनाया ने वो ख़त पढ़ा, मगर कुछ नहीं कहा।

25 मार्च की सुबह — दोनों कोर्ट पहुंचे।

जज ने पूछा, “आप दोनों का निर्णय पक्का है?”

आरव ने सनाया की तरफ देखा।
सनाया ने कहा, “मैं सिर्फ एक सवाल पूछना चाहती हूँ...”

"अगर हम फिर से शुरुआत करें — इस बार बिना परफेक्ट बनने की कोशिश किए, तो क्या तुम साथ दोगे?"

आरव की आँखों में पहली बार आंसू थे — "हर जन्म में।”

अब उनके बीच पहले जैसे झगड़े फिर से होते हैं। लेकिन अब हर लड़ाई के बाद एक चाय साथ में ज़रूर होती है।

अब वे किताबें साथ नहीं पढ़ते, पर एक-दूसरे की पसंद की इज़्ज़त करते हैं।

अब भी सब कुछ परफेक्ट नहीं है, लेकिन अब किसी को भी ये सवाल नहीं पूछना पड़ता: "शादी है या सज़ा?"

क्योंकि अब जवाब साफ़ है —
"ये बंधन है, सज़ा नहीं। बस समझने और निभाने का हुनर चाहिए।"
---

🔚 निष्कर्ष:

शादी एक रूमानी परिकथा नहीं है, ये दो अलग ज़िंदगियों की टकराहट है — जहां कभी-कभी चोट लगती है, कभी प्यार मिलता है, और कभी सब कुछ बिखर जाता है।

पर अगर दोनों साथ में झुकने को तैयार हों, तो यही शादी एक सज़ा नहीं — सबसे खूबसूरत इम्तिहान बन जाती है।

---
अगर आपको ये कहानी दिल से छू गई हो, तो इसे अपने किसी ऐसे दोस्त से ज़रूर साझा करें, जो शायद आज इसी सवाल से जूझ रहा हो —
"ये शादी है... या सज़ा?"

15/06/2025
14/06/2025

Sarah Wall is a famed American teen artist and Founder of the Art to Heart Foundation, which supports children with autism and other special needs.

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141001

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