14/08/2025
कैसे पिछड़ गये नीतीश कुमार के सबसे योग्य उत्तराधिकारी?
:- विवेकानंद सिंह कुशवाहा(राजनीतिक विश्लेषक)
राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा आज अगर जदयू में होते तो न केवल वह खुद राजनीतिक रूप से अलग स्थिति में होते, बल्कि जदयू के भविष्य को लेकर जो खतरे के बादल मंडराने की बातें होती हैं, वह नहीं हो रही होतीं। नीतीश कुमार बिहार को आगे ले जाने में इतने लीन हो गये कि उन्हें अपनी पार्टी जदयू के सांगठनिक उत्कर्ष का ध्यान ही नहीं रहा। आज उनके बाद जदयू के जो सबसे बड़े चेहरे हैं, सभी जनाधार विहीन हैं। ललन सिंह और संजय झा को नीतीश कुमार के दाएं और बाएं राजनीतिक हाथ कहें तो गलत नहीं होगा। दोनों की अपनी राजनीतिक योग्यता व क्षमता है, लेकिन दोनों में से किसी के पास इतने वोट नहीं हैं कि नीतीश कुमार के बिना जदयू को दो कदम आगे तक ले जा सके।
इसके बावजूद, जदयू पर अभी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इन्हीं दोनों का सर्वाधिक नियंत्रण है। इनको लगता है कि जब जीतनराम मांझी जी का जदयू में भाग्य जाग सकता है, तो उनका क्यों नहीं? यही कारण है कि जदयू के मूल वोट आधार(लव-कुश, अतिपिछड़े) वाले वर्ग से जब भी कभी सेकेंड लाइन लीडरशिप को खड़ा करने के प्रयास हुए, उनको इन दोनों ने अपने-अपने स्किल से नीतीश कुमार के ऊपर ही चैलेंज साबित कर देने का प्रयास किया। इनके अलावा पटना में भी दो नेता हैं, जो नीतीश कुमार के बेहद करीब हैं। दोनों का बैकग्राउंड कांग्रेसी है। दोनों लोग बात करने के मामले में/सरकार का पक्ष रखने के मामले में(एडवोकेसी) बहुत ही सीजन्ड हैं। दिक्कत इन दोनों के साथ भी यह है कि इनका कनेक्ट पब्लिक की जगह पार्टी के नेता से है।
इनके अलावा जदयू के राष्ट्रीय महासचिव मनीष कुमार वर्मा खुद को जदयू कार्यकर्ताओं के बीच ले जाने की कोशिश में जरूर जुटे हैं, लेकिन लीडरशिप चार्म अब तक उनमें भी मिसिंग है। चूँकि, उनका अपना कोई राजनीतिक संघर्ष नहीं रहा है, जो कुछ है, वह ब्यूरोक्रेसी का अनुभव है। आरसीपी सिंह को लेकर जदयू वर्करों के जो अनुभव रहे हैं, वह मनीष वर्मा के लिए जदयू में नेता के रूप में स्थापित होने की राह के लिए रोड़े की तरह है। यही कारण है कि कुर्मी समाज के बीच से भी निशांत कुमार को राजनीति में लाने की माँग लगातार हो रही है।
हालांकि, जदयू को बिहार की एक राजनीतिक ताकत बनाये व बचाये रखने की सोच वाले चिंतक वर्ग के लोग यह अच्छे से समझते हैं कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहते अचानक निशांत कुमार का राजनीति में आगमन राजद और लालू प्रसाद यादव की राजनीति को वैलिडेट(वैधता) करने जैसा कदम होगा। इससे राजद और जदयू के बीच का अंतर समाप्त हो जायेगा। दो बार राजद के साथ सरकार बना कर नीतीश कुमार आधा वैलिडेशन तो उनको दे ही चुके हैं।
इन सभी लोगों के इतर 'उपेंद्र कुशवाहा' की राजनीति में हर वह तत्व मौजूद हैं, जो नीतीश कुमार की राजनीति में हैं। 'लोकलाज', 'सरल स्वाभाव' और 'सादा जीवन' दोनों के व्यक्तित्व को समरस बनाता है। उपेंद्र कुशवाहा को शायद इन्हीं गुणों के वजह से नीतीश कुमार ने तमाम बगावत के बाद अपनाया। चूँकि, दोनों के बीच राजनीतिक रूप से 'लव-हेट' रिलेशनशिप की स्थितियां बनती रही हैं। उन स्थितियों की तह में जायेंगे तो पायेंगे कि नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा में जितनी भी 'हेट रिलेशनशिप' की स्थितियां बनीं, उनके पीछे कोई-न-कोई तीसरा व्यक्ति जिम्मेदार रहा। आखिरी दफा उपेंद्र कुशवाहा के नीतीश कुमार से अलग होने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उपेंद्र कुशवाहा की सरलता और स्वाभिमानी स्वभाव उन्हें हर बार वहीं पहुँचा देता है, जहाँ खुद साबित करने की परीक्षा देनी होती है।
14 मार्च 2021 को जब उपेंद्र कुशवाहा जदयू में शामिल हुए तो सिर्फ वह नहीं, बल्कि उन्होंने अपनी पार्टी को भी विलोपित कर दिया। इससे उपेंद्र कुशवाहा के प्रति उन लोगों में नाराजगी पनपी, जिन्होंने उन पर भरोसा करके जदयू/राजद जैसी पार्टी को छोड़ उन्हें चुना था। दरअसल, उपेंद्र कुशवाहा को लगा कि इस कदम से वह नीतीश कुमार और जदयू के वर्कर का इतना विश्वास जरूर जीत पायेंगे कि नीतीश कुमार के बाद जदयू में नंबर दो की उनकी दावेदारी मजबूत हो सके। 2005 के विधानसभा चुनाव के समय उपेंद्र कुशवाहा, नीतीश कुमार के कमांडर-इन-चीफ (नेता प्रतिपक्ष) हुआ करते थे।
भले 2020 विधानसभा चुनाव में 99 सीटों पर चुनाव लड़कर उनकी पार्टी को कोई सीट नहीं मिला और महज 1.8 प्रतिशत वोट मिले, पर उनमें से 24 सीटें ऐसी रहीं, जहां उनके उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे और दर्जन भर सीट पर जदयू की हार की वजह बने। नीतीश कुमार ने भी उनके इस महत्व को समझा और जदयू ज्वाइन करते ही उनको पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया गया और विधान परिषद की सदस्यता(मनोनीत) दी गयी। हालाँकि, वह पद हाथी के दांत से ज्यादा कुछ भी नहीं था।
उस समय आरसीपी सिंह जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री थे। वह उपेंद्र कुशवाहा के जदयू में मिलन समारोह में शामिल नहीं हुए थे। बस साइन किया हुआ अपना लेटर भेज दिया था। उस दिन जदयू दफ्तर में एक अलग सी ताजगी का माहौल था। 2020 में 43 सीटों पर सिमट कर रह गयी जदयू के वर्कर एक अलग ही उत्साह से भरे थे।
ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा का जदयू में आगमन और उस मौके पर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को संभाल रहे आरसीपी सिंह की अनुपस्थिति, ललन सिंह के लिए एक सियासी मौका बन गया। ललन सिंह की केंद्र में मंत्री बनने की इच्छा आरसीपी सिंह की वजह से अधूरी रह गयी थी। वह आरसीपी सिंह से अपना स्कोर सेटल करना चाहते थे।
आपलोगों को याद हो तो शुरू-शुरू में जब उपेंद्र कुशवाहा जदयू में शामिल हुए तो मॉर्निंग वाक करते हुए ललन सिंह(राजीव रंजन), उपेंद्र कुशवाहा के घर पहुँच जाते थे। मुझे कहने में कोई गुरेज नहीं कि उन्होंने कायदे से उपेंद्र कुशवाहा के कंधे को आरसीपी सिंह के खिलाफ इस्तेमाल किया। सरल हृदय वाले उपेंद्र कुशवाहा को उस समय लगा हो कि जदयू में नंबर-2 के पद के लिहाज से अरसीपी सिंह उनके लिए चुनौती बन सकते हैं, तो ललन सिंह की चिकनी बातों में फिसल गये हो।
उपेंद्र कुशवाहा की जदयू में एंट्री के चार महीने के अंदर 'एक व्यक्ति-एक पद' का हवाला देकर आरसीपी सिंह अध्यक्ष पद से हटा दिये गये और 31 जुलाई, 2021 को ललन सिंह जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिये गये। ललन सिंह ने अध्यक्ष बनते ही नारा देना शुरू किया कि समता पार्टी के टाइम के कार्यकर्ताओं को सम्मान देना है और नम्बर एक पार्टी बनाना है। उपेंद्र कुशवाहा के सुर भी यही थे। इस बीच भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल सरकार पर लॉ एंड ऑर्डर से जुड़े सवाल उठाने लगे। भाजपा-जदयू के कुछ नेताओं के बीच बहसों का दौर शुरू हो गया था। जदयू की ओर से उपेंद्र कुशवाहा बढ़-बढ़ कर संजय जायसवाल से बहस कर ले रहे थे।
भाजपा को लेकर जदयू के भीतर माहौल तल्ख बनाने में ललन सिंह की अपनी भूमिका रही। जदयू के वर्करों को ऐसा एहसास कराया गया, जैसे आरसीपी सिंह ने भाजपा के साथ मिलकर 2020 वाला चिराग कांड किया हो। आरसीपी पर आरोप लगे कि जदयू के लिए फेबरेवल सीट लेने में उन्होंने कोताही बरती।
मौजूदा केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने ऐसा होम्योपैथी उपचार किया कि एक साल के भीतर जदयू में अरसीपी सिंह के खिलाफ माहौल बन गया। पार्टी में नंबर दो गिने जाने वाले आरसीपी सिंह की जगह खीरू महतो को जदयू राज्यसभा उम्मीदवार बना दिया गया। एक कुर्मी की जगह दूसरा भी कुर्मी ही था, तो ललन सिंह के इस दाँव को जदयू के कुर्मी वर्कर खुशी-खुशी हजम कर गये। बाकी जातियों के वर्कर के लिए भी गुस्सा होने जैसा कुछ खास था नहीं। यह नारा दिया गया कि जदयू झारखंड में विस्तार करेगी। अंतत: आरसीपी सिंह को न सिर्फ मंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा, बल्कि पार्टी छोड़नी पड़ी।
इधर उपेंद्र कुशवाहा ने यह बयान दिया कि नीतीश कुमार पीएम मैटेरियल हैं। इस बयान में भी मुंह उपेंद्र कुशवाहा का था, लेकिन ललन सिंह की अपनी पॉलिटिक्स छिपी थी। इन बयानों को जानबूझ कर दिया जाने लगा था, ताकि जदयू के भाजपा से अलग होने और महागठबंधन में शामिल होने को स्मूद दिखाया जाये। साथ ही यह संदेश महागठबंधन को दिया जाये कि नीतीश कुमार इस ओर पीएम बनने के उद्देश्य से आ रहे हैं।
इस तरह ललन सिंह ही वह मुख्य कड़ी बने, जिसने जदयू और राजद का दूसरी बार गठबंधन करवाया। इस फैसले से उपेंद्र कुशवाहा असहमत थे, क्योंकि नीतीश कुमार के सीएम से हटने पर तेजस्वी प्रसाद यादव के लिए अवसर बन रहा था।
जब नीतीश कुमार राजद के साथ सरकार बना रहे थे तो इस दौरान यह चर्चा हुई कि उपेंद्र कुशवाहा भी मंत्री बनाये जा सकते हैं। तभी पटना के होटल में जदयू के अधिकांश कुशवाहा नेताओं की एक बैठक हुई। इस मीटिंग के निर्देशक कोई और थे, जिन्होंने इन नेताओं के कान में भर दिया कि देखो, यह आया और तुमलोगों का हिस्सा खाने की तैयारी शुरू हो गयी। यह जदयू में रहा तो तुमलोगों को कौन पूछेगा? बाहरी बगावत से आसानी से निबटा जा सकता है, लेकिन घर के ही लोग जब आपके खिलाफ साजिश का हिस्सा बनें, तो निबटना ज्यादा मुश्किल हो जाता है।
इस तरह राजद-जदयू की पार्ट-2 की सरकार में उपेंद्र कुशवाहा को मंत्री नहीं बनाया गया। यदि वह मंत्री बन जाते तो नीतीश कुमार के साथ रहते और कनफूंकवा गिरोह को ज्यादा अवसर नहीं मिल पाता। इसके बाद भी उपेंद्र कुशवाहा का फोकस 2024 का लोकसभा चुनाव था। ललन सिंह हर दिन लालू प्रसाद यादव के लिए तरह-तरह के कसीदे गढ़ रहे थे। उन्हें सामाजिक न्याय का योद्धा बता रहे थे, ताकि मुंगेर के यदुवंशियों को अपने वोट बैंक में तब्दील कर सकें। पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह को वह आड़े हाथों ले रहे थे।
इसी बीच नीतीश कुमार बिहार की यात्रा कर रहे थे। उन्हें इन्हीं सज्जनों ने बताया कि ऊपर में तो राजद और जदयू का तो मेल हो गया है, लेकिन नीचे में हमारे वर्कर/समर्थकों में दूरी बनी हुई है। इस बात को समझते हुए एक दिन पत्रकारों से बात के क्रम में नीतीश कुमार ने तेजस्वी की ओर इशारा करते हुए यह बयान दे दिया कि मेरे बाद इसी को न संभालना है सबकुछ। इससे राजद प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह की इस बात को बल मिला, जिसमें वह कहते थे कि खरमास के बाद नीतीश कुमार दिल्ली की राजनीति में जायेंगे और तेजस्वी सीएम बनेंगे।
उपेंद्र कुशवाहा का माथा इसी के बाद ठनका कि भीतर से कोई साजिश चल रही है। वह इसके खिलाफ बयान देने ही लगे थे कि तभी एक नयी खबर मीडिया में प्लांट करवायी गयी कि उपेंद्र कुशवाहा 14 जनवरी 2023 के बाद बिहार सरकार में डिप्टी सीएम बनाये जा सकते हैं। जब इसको लेकर उपेंद्र जी से मीडिया ने पूछा तो ऐसी चर्चा है, आप क्या कहेंगे इस विषय पर और आपको क्या लगता है। उन्होंने कह दिया कि वह मठ खोलकर थोड़ी बैठे हैं या सन्यासी हैं? उन्होंने कहा कि यह चर्चा सुनकर अच्छा ही लग रहा है।
उपेंद्र जी के इस बयान से यह मैसेज गया कि उनकी भी इच्छा है। हो सकता है कि उन्होंने ही मीडिया में यह बयान प्लांट करवाया हो। तभी बिहार की यात्रा कर रहे सीएम नीतीश कुमार से जब मीडिया के लोगों ने सवाल पूछा कि क्या उपेंद्र कुशवाहा को डिप्टी सीएम बनाया जायेगा? तो नीतीश कुमार ने कहा कि पता नहीं यह बात कहां से आ गयी, फालतू बात है यह सब, ऐसा कह कर उन्होंने सवाल को खारिज कर दिया।
नीतीश कुमार के इस लहजे से उपेंद्र कुशवाहा को बुरा लगा। क्योंकि उनको पता था कि मीडिया में उन्होंने यह बात नहीं दी थी। उनको यह जरूर लगा कि भाजपा ने जैसे सम्राट चौधरी को विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष बनाया है, तो हो सकता है कि भाजपा के दांव का काउंटर करने के लिए नीतीश जी ऐसा सोच रहे हैं, लेकिन जदयू की ओर से उपेंद्र कुशवाहा के लिए रवैया सख्त होता गया। नाराज उपेंद्र कुशवाहा समझ चुके थे कि उनकी राजनीतिक हत्या की कोशिश चल रही है। रूटीन मेडिकल चेकअप के लिए वह अचानक दिल्ली एम्स में भर्ती हुए थे, तो बिहार बीजेपी के तीन नेताओं ने उनसे मुलाकात की। तभी स्पष्ट हो गया था कि उपेंद्र कुशवाहा जदयू छोड़ेंगे।
इसके बाद जब वह पटना लौटे तो मन बना चुके थे कि जदयू को छोड़ना पड़ा तो छोड़ देंगे, लेकिन इससे पहले उन्होंने हक-हिस्से की बात की। उपेंद्र कुशवाहा पर जदयू की ओर से चौतरफा हमले शुरू हो गये। इसी क्रम में 20 फरवरी 2023 को नौबत आयी कि उपेंद्र कुशवाहा को फिर जदयू छोड़ना पड़ा।
उपेंद्र कुशवाहा ने बयान दिया कि नीतीश जी पीएम मैटेरियल हैं, लेकिन अब वह पीएम नहीं बन पायेंगे। ललन सिंह अपने मिशन में कामयाब हो चुके थे। नीतीश कुमार को भी लग रहा था कि महागठबंधन के साथ वह पीएम उम्मीदवार बन ही जायेंगे, लेकिन एक साल के अंदर उनको समझ आ गया कि वह गलत ट्रैक पर हैं। दिसंबर, 2023 में सबसे पहले ललन सिंह से अध्यक्ष पद से इस्तीफा लिया गया।
फिर नीतीश कुमार खुद अध्यक्ष बने, दाएं की जगह बाएं हाथ की सक्रियता बढ़ गयी। यानी संजय झा की भूमिका बढ़ गयी। वह भाजपा-जदयू के सुलह के सूत्रधार बने। उपेंद्र कुशवाहा की बात सही सिद्ध हुई, नीतीश कुमार पीएम मैटेरियल होते हुए भी पीएम पद की रेस में न शामिल हो सके। हालाँकि, नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी से उपेंद्र कुशवाहा के लिए ही फिर से मुश्किल स्थिति बन गयी, क्योंकि एक ही प्रकृति के दो नेता हों, तो जूनियर का राजनीतिक महत्त्व स्वत: कम हो जाता है।
उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए में रहकर 2024 में एकमात्र लोकसभा सीट मिली, जिस पर घात(राजपूत समाज द्वारा उपेंद्र कुशवाहा की बजाय पवन सिंह को वोट) की वजह से वह हार गये। अगर सामाजिक स्तर पर प्रतिघात(भाजपा-जदयू के राजपूत उम्मीदवारों वाले सीटों पर कुशवाहा समाज द्वारा राजद-कॉंग्रेस को वोट) न हुआ होता तो आज उपेंद्र कुशवाहा राज्यसभा सदस्य भी नहीं बन पाये होते। इसके बावजूद कि उनकी अपनी पार्टी है, लेकिन कल भविष्य में सीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिए जैसे संगठन की जरूरत होती है। वह उपेंद्र कुशवाहा जी के पास नहीं है। वरना बोल-चाल, लोकलाज का ख्याल और मुद्दों की समझ के मामले में नीतीश चाचा के सबसे योग्य उत्तराधिकारी बिहार में उपेंद्र कुशवाहा ही हैं, लेकिन शातिर नेताओं की अढाईया में फंस कर वह इस रेस में फिलहाल बहुत पिछड़ गये हैं।
(नोट:- प्रस्तुत विचार लेखक का निजी सोच और समझ है।)