13/10/2025
हर पेशे का एक मान होता है
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कामयाबी आदमी को अक्सर ज्ञानी बना देती है।
जो लोग किसी भी तरीके से पैसा कमा लेते हैं, वे अचानक जीवन दर्शन बांटने लगते हैं। जैसे धन ने उन्हें न सिर्फ अमीर बनाया, बल्कि ज्ञानी भी कर दिया।
हाल ही में एक मशहूर एंकर ने अपने इंटरव्यू में कहा,
“अगर एक फिल्म स्टार कुछ महीनों की शूटिंग के लिए करोड़ों ले सकता है, तो मैं क्यों नहीं? मैं तो साल के 365 दिन काम करता हूं।”
कहना आसान है। सुनना खतरनाक। क्योंकि ये तुलना सिर्फ सतही नहीं, घातक है।
फिल्म झूठ बेचती है और यह सबको पता है।
फिल्मी दुनिया में कोई ढोंग नहीं है। वो साफ़ कहते हैं कि यह कल्पना है, यह अभिनय है।
फिल्म शुरू होते ही स्क्रीन पर लिखा आता है, “इस कहानी का वास्तविक घटनाओं से कोई संबंध नहीं।”
यानि दर्शक जानता है कि उसे तीन घंटे की झूठी तसल्ली मिलने वाली है। शाहरुख खान जब सौ करोड़ लेते हैं, तो कोई हैरान नहीं होता। क्योंकि वह झूठ बेचने आए हैं, और उसने पहले ही ईमानदारी से यह स्वीकार कर लिया है।
लेकिन पत्रकारिता का धर्म क्या है?
क्या पत्रकार भी यह कह सकते हैं, ‘जो मैं आपको दिखा रहा हूं, वह सत्य नहीं, मनोरंजन है’।
अगर नहीं कह सकते, तो फिर तुलना ही गलत है।
पत्रकारिता और मनोरंजन में फर्क समझिए-
पत्रकारिता कोई मनोरंजन उद्योग नहीं है। यह समाज का आईना है, वो आईना जिसमें जनता खुद को देखती है, अपने सवाल देखती है।
फिल्म का काम है सपना बेचना, पत्रकार का काम है सच दिखाना।
जब पत्रकार भी सपना बेचने लगे, तो फिर समाज अंधा हो जाता है।
अगर पत्रकार यह कहे कि वह फिल्म स्टार जितना कमाना चाहता है, तो फिर उसे अपने शो की शुरुआत में एक चेतावनी लिखनी चाहिए,
“इस कार्यक्रम का सत्य से कोई लेना-देना नहीं। यह केवल मनोरंजन के लिए है।”
फिर कमाइए जितना चाहे। कोई ऐतराज़ नहीं। क्योंकि तब आप सच नहीं, स्पॉन्सरशिप बेच रहे होंगे।
फर्क नैतिकता का है-
हर पेशे की अपनी मर्यादा होती है। सैनिक युद्ध जीतने के लिए मरता है, साधु सत्य के लिए तपता है, किसान भूमि के लिए झुकता है, और पत्रकार जनता के भरोसे के लिए खड़ा होता है।
अगर पत्रकार भी बाजार की भाषा बोलने लगे, “मेरी टीआरपी, मेरा ब्रांड, मेरा पैकेज” तो फिर भरोसा मर जाता है। और पत्रकारिता? पत्रकारिता नहीं, एक बिकने वाला उत्पाद बन जाती है।
संजय सिन्हा की ये बात गांठ बांध कर रखिएगा- भरोसा सबसे महंगी मुद्रा है। किसी डॉलर, गोल्ड से अधिक कीमती। करोड़ों की सैलरी के ऊपर।
मैंने अरुण शौरी को इंडियन एक्सप्रेस में अपने मालिक रामनाथ गोयनका के खिलाफ खड़े होते हुए देखा है। मैंने जनसत्ता के संपादक बनवारी को नौकरी छोड़ते देखा है, क्योंकि वो किसी एक बिंदु पर झुकने को तैयार नहीं थे। ये पत्रकारिता थी। वो दौर था जब कलम बिकती नहीं थी। अब दौर है जब कलम के भाव तय होते हैं।
एंकर नहीं, ‘ब्रांड’-
आज कुछ एंकर ऐसे हैं जो खुद को ब्रांड कहते हैं। वो समाज की बात नहीं करते, अपनी रेटिंग, अपने शो, अपनी डील की बात करते हैं। पैकेज करोड़ों का हो तो सवाल भी पैकेज्ड हो जाते हैं।
वो कहते हैं, “मैं तो प्रोफेशनल हूं।”
लेकिन पत्रकारिता कोई कॉर्पोरेट प्रोफेशन नहीं है।यह एक आह्वान है, जनता की आवाज़ बनने का, सत्ता से सवाल करने का।
जो यह नहीं समझता, वो चाहे करोड़ों कमा ले, संजय सिन्हा की नजर में अंदर से कंगाल पत्रकार है।
एक बात आख़िर में-
आपके घर काम करने वाली नौकरानी जो हजार, दो हज़ार में आपके जूठे बर्तन धोती है, कपड़े साफ करती है, घर की सफाई करती है- वो चाहती तो सड़क पर खड़ी होकर हज़ारों रोज़ कमा सकती थी। पर उसने अपने पेशे का मान रखा है। वो ईमानदार है। उसने धोखा नहीं दिया, न अपने काम से, न अपने जमीर से। नहीं तो ऐसा नहीं कि बिकने की विद्या उसे नहीं मालूम। वो जानती है कि बाजार में किस चीज का रेट क्या है।
जो नहीं बिकने का फैसला करते हैं, उनके लिेए मन में आदर रखिए।
आप करोड़ों कमाइए। किसी को आपसे ईर्ष्या नहीं। पर गलत तर्क देकर, गलत तुलना कर पेशे की गरिमा मत बेचिए।
फिल्म फिल्म है। पत्रकारिता पत्रकारिता है। फर्क मिटाया तो भरोसा मिट जाएगा और भरोसे के बिना समाज टिकता नहीं।
“अगर फिल्मी कलाकार करोड़ों ले सकते हैं, तो पत्रकार क्यों नहीं”?
क्योंकि फिल्म झूठ बेचती है और यह स्वीकार करती है, पत्रकार झूठ बेचता है और इसे छिपाता है। फर्क यही है, और फर्क ही तो भरोसा है।
नोट-
1. पिता के रोल में हैं तो पिता की भूमिका निभाइए। पिता पुत्री के प्रेमी नहीं होते।
पत्रकार जनता के हक की लड़ाई का नायक होता है, उसके मनोरंजन का साधन नहीं।
2. तस्वीर 25 साल पुरानी पत्रकारिता की गैलरी से निकली है। कौन-कौन है आप ही पहचानें।