22/08/2023
रास्ते की सोच
घर से निकलते समय बस एक ही ख्याल रहता है कि वहां बाजार/आफिस या किसी के घर निमंत्रण में पहुंच कर अपने काम वाम को पूरा करने के तुरंत बाद वापस चलें आएंगे।
बस इन सभी विचारों से पूर्ण होकर निकलने के बाद रास्ते आते जाते है लोगों से कुछ जैरम्मी आदि करते हुए अपने विचारों में खोए हुए चलते रहते हैं और अगर रास्ते साफ़ सुथरे और बने ठने मिले तो मजा आता है पर वही कहीं रास्ते कुछ खराब हों तो पुरा विचार ही बदल जाता है। यह सारी ग़लती सरकार कि है उसे कम से कम सड़कों को तो बनवा देना चाहिए आने जाने में कितनी समस्या होती है।
लेकिन नहीं हमें वोट दो हम ये कर देंगे वो कर देंगे लेकिन परिणाम वहीं दादागिरी।
उनको क्या कभी पैदल चलना है कि कहीं साइकिल चलाना है वो तो बड़ी बड़ी गाड़ियों में बैठकर हाथ हिलाकर मुंह छिपाकर चुपचाप निकल जाना है। और पांच साल तो नजर नहीं आना है। बातें तो ऐसे करेंगे कि आपके आज्ञाकारी पुत्र हैं जो आपके एक इसारे में सिर के बल खड़ा हो जाएंगा। लेकिन हम तो इनकी सब नेतागिरी जानते हैं। पर उ का है न हमारे जैसे लोग ही उनके आगे पीछे जीभ निकाल कर मिमियाने लगते हैं कि 'हमरे उ जमीनिया के मामले में कुछ ले दे के रफा दफा करवाइ देते न त हमार उ वोट दिहा सफल होइ जात। हमरे बेटउना के कुछ काम वोम दियवाइ देते न त मज़ा आइ जात।'
इन सब विचारों का आना स्वाभाविक है क्योंकि हमें ऐसा लगने लगता है कि मंत्री तो हमारे गांव घर का है और इतना तो कर ही सकते हैं। लेकिन क्या करें मंत्री बन गए तो पहचानते ही नहीं। 'का करें भइया इ त सबइ क हाल बा।' आगे वाली दुकान में चलकर पानी वानी पी लें थोड़ी प्यास लग रही है उस रास्ते पर चलना तो बड़ी टेड़ी खीर है।
पानी वानी पी लिया फिर क्या एक नया जोश आया और अपने विचारों में खोए हुए मंजिल की ओर रवाना हो गए।
तो मंजिल आने वाली है और हमें क्या लेना देना था उसका सब कुछ अता पता लापता हो गया। और पूरे मन से फिर वही रास्ते की बातों को याद करते हुए रास्ते को कोसते हुए गुस्से से लाल पीले होते हुए अपने मन में थोड़ी सी अच्छी सोच पुनः लाते हैं और अपने विचारों में खोए रहते हैं।
© चन्द्र कुमार गोंड