हर दिन एक वेद मंत्र

हर दिन एक वेद मंत्र मैं हर दिन एक वेद मंत्र की हिन्दी व्याख्या से अपने दिन का शुभारंभ करता हूं।

18/05/2025

🚩‼️ओ३म्‼️🚩

🕉️🙏नमस्ते जी

दिनांक - - १८ मई २०२५ ईस्वी

दिन - - रविवार

🌖 तिथि -- पञ्चमी ( ५:५७ तक तत्पश्चात षष्ठी )

🪐 नक्षत्र - - उत्तराषाढ ( १८:५२ तक तत्पश्चात श्रवण )

पक्ष - - कृष्ण
मास - - ज्येष्ठ
ऋतु - - ग्रीष्म
सूर्य - - उत्तरायण

🌞 सूर्योदय - - प्रातः ५:२९ पर दिल्ली में
🌞 सूर्यास्त - - सायं १९:०७ पर
🌖 चन्द्रोदय -- २४:०८ पर
🌖 चन्द्रास्त - - ९:४९ पर

सृष्टि संवत् - - १,९६,०८,५३,१२६
कलयुगाब्द - - ५१२६
विक्रम संवत् - -२०८२
शक संवत् - - १९४७
दयानंदाब्द - - २०१

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🚩‼️ओ३म्‼️🚩

🔥माता भूमि पुत्रो अहं पृथव्या:अथर्ववेद
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ये धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है।धरती माता हमारे जीवन के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है, हमारा पोषण करती है।

इसलिए वेद आगे कहते है --- "उप सर्प मातरं भूमिम् " -- हे मनुष्यो मातृभूमि की सेवा करो और अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा व प्रेमभाव रखे। ऐसे भाव केवल और केवल "सनातन वैदिक धर्म " ही प्रकट करता है।
धरती को माता इस लिए कहा जाता है क्योकि सभी जीवों जलचरों और वनस्पतियों की प्रथम उतपति धरती से ही हुई है। ईशवर ने मनुष्य की उत्पति से पहले ही पेड़ पौधे आदि वनस्पतियाँ बनाऐ ताकि मनुष्य का पोष्ण हो सके।सृष्टी रचना के समय ईश्वर ने जिस तरह पेड़ों पक्षियो जानवरों जलचरों को उत्पन्न किया वैसे ही मनुष्यो की उतपति भी धरती से की। अब कुछ लोग के लिए यह सम्भव नही हो सकता है।उनको बताना चाहूँगा कि जैसे गर्भ रूपी अंडे से पक्षी निकलते है और बीज गर्भ रूपी धरती से पेड़ पौधे वनस्पतियाँ उगती है। वैसे ही मनुष्य को भी धरती के गर्भ से बनाया।गर्भ रूपी धरती की विशेष स्थिती में नर मादा मनुष्यों को हज़ारों की संख्या में पैदा किया।धरती अगर माता है तो पिता कौन ? पिता ईश्वर है जो बीज रूप जीवात्मा को भेजता है और धरती के गर्भ में डालकर पहले मनुष्यो की उत्पति करता है। जो ईश्वर सारी सृष्टी की रचना कर सकता है उसके लिए मनुष्य आदि जीव बनाने असम्भव नही है।जो लोग ऐडम ईव की कहानियाँ सुनाते है और आकाश से प्रथम स्त्री पुरूष के उतरने की बात करते है वे झूठ और अज्ञानता है।

जन्म के बाद माता की गोद से उत्तर कर हर मनुष्य धरती की गोद में ही सारा जीवन व्यतीत करता और उसका भोजन और पोष्ण धरती ही करती है।इस लिए जन्म देने वाली माता के साथ साथ धरती को भी माता का दर्जा दिया गया है।
इस लिए जो पालन करे उसका माता के रूप में सत्कार करना चाहिए।पिता की देखभाल के बिना भी बच्चा जन्म ले कर बड़ा हो सकता है लेकिन माता के बिना नही।पिता का कार्य गर्भ स्थापना पर पूर्ण हो जाता है लेकिन बच्चे का गर्भ से लेकर पालन तक माँ की ही भूमिका होती है।

आज कुछ संगठनों ने भारत माता की मूर्ति बना कर बहुत बड़ी मूर्खता कर दी यह कुछ मूर्ति पूजको की मानसिकता है, जिन्होंने ईशवर की भी मूर्तियों बना कर पूजना अरम्भ कर दिया।धरती का सत्कार छ: बाज़ू वाली माता का रूप बना कर पूजने से नही हो सकता बल्कि धरती को गंदगी और प्रदूष्ण से मुक्त करने से ही होगा। माता भावनात्मक शब्द है अगर हम भारत में जन्म लेकर रह रहे है तो भारत की धरती हमारी माता ही कहलायेगी। किसी अन्य देश में हम जा कर रह नही सकते न ही कोई देश हमें वहाँ घुसने देगा ,क्यो कि धरती का बँटवारा देशों सीमाओं से हो रखा है।अगर सारे विश्व की धरती को सभी देशो के लोग माता मान लें तो आपसी झगड़े ही समाप्त हो जायें और जन्नत के नाम पर धरती पर हिंसा भी बंद हो जाऐ।तभी वेद का व्यापक अादेश “माता भूमि पुत्रो अहं पृथव्या:”हक़ीक़त में दिखाई देगा और सभी मनुष्य पुकार उठेगें धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है।
अगर इसके साथ वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात सारा विश्व एक परिवार है ,की भावना भी जुड़ जाऐ और इन दोनों वाक्यों पर सारा संसार एक मत हो जाऐ तो देशो के सीमा विवाद समाप्त होकर धरती स्वर्ग बन जाऐ।

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🚩‼️मनुस्मृति श्लोक ‼️🚩

🌷क्षान्त्या शुद्धयन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिण: ।
प्रच्छन्नपापा जप्येन तमसा वेदवित्तमा: ।। ( मनुस्मृति )

💐अर्थ :- विद्वान सहनशीलता से शुद्ध होता है , बुरा काम करने वाला दान से , छुपकर पाप करने वाला पश्चाताप से और वेद को जानने वाला वेदानुकूल आचरण से शुद्ध होता है ।

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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक पञ्चाङ्ग के अनुसार👇
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🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏

(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त) 🔮🚨💧🚨 🔮

ओ३म् तत्सत् श्री ब्रह्मणो दिवसे द्वितीये प्रहरार्धे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे
कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- षड्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२६ ) सृष्ट्यब्दे】【 द्वयशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८२) वैक्रमाब्दे 】 【 एकाधिकद्विशतीतमे ( २०१) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे, रवि- उत्तरायणे , ग्रीष्म -ऋतौ, ज्येष्ठ - मासे, कृष्ण - पक्षे, पञ्चम्यां/ षष्ठम्यां तिथौ, उत्तराषाढ - नक्षत्रे, रविवासरे , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ, आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे

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13/11/2024

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! Suman Sharma, Kamlesh Mamgain, Deepak Idnani, Sushil Sharma, हरिशरण विद्यार्थी, Nitij Kumar Kakutsth, Rajan G Upadhyay, Sharma Aman, Ravindra Kumar Gupta, Rohit Darade, Sunil Valvi, Abhyudaya Arya, Krishan Pandey, चर्चा में

अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम् । जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमत्यों मत्येंना सयोनिः ॥ ३० ॥श्वसन प्रक्रि...
09/11/2024

अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम् । जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमत्यों मत्येंना सयोनिः ॥ ३० ॥

श्वसन प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में रहने वाला जीव (चन्चल जीव) जब शरीर से चला जाता है, तब यह शरीर घर में निश्चल पड़ा रहता है। मरणशील (मरण धर्मा) शरीरों के साथ रहनेवाली आत्मा अविनाशी है, अतएव अविनाशी आत्मा अपनी धारण करने की शक्तियों से सम्पन्न होकर सर्वत्र निर्वाध विचरण करती है ॥३०॥

ऋग्वेद १. १६४.३०

अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता । साचित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्य विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौह...
09/11/2024

अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता । साचित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्य विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत ॥ २९ ॥

वत्स गौ के चारों ओर बिना शब्द के अभिव्यक्ति करता है। गौ रंभाती हुई अपनी (भाव भरी) चेष्टाओं से मनुष्यों को लज्जित करती हैं। उज्ज्वल दूध उत्पन्न कर अपने भावो को प्रकाशित करती है ॥२९ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२९

गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिड्डकृणोन्मातवा उ । सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥ २८ ॥गौ (स्नेह...
09/11/2024

गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिड्डकृणोन्मातवा उ । सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥ २८ ॥

गौ (स्नेह से) आँखें मींचे (बन्द किये) हुए (बछड़े के समीप जाकर रंभाती है। बछड़े के सिर को चाटने ( सहलाने) के लिए वात्सल्यपूर्ण शब्द करती है। उसके मुँह के पास अपने दूध से भरे धनों को ले जाती हुई शब्द करती है। वह दूध पिलाते हुए (प्यार से) शब्द करते हुए बछड़े को संतुष्ट भी करती है ॥ २८ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२८

हिकृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् । दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धर्ता महते सौभगाय ॥२७॥कभी भी व...
09/11/2024

हिकृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् । दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धर्ता महते सौभगाय ॥२७॥

कभी भी वध न करने योग्य गौ, मनुष्यों के लिए अन्न, दुग्ध, घृत आदि ऐश्वर्य प्रदान करने की कामना से अपने बछड़े को मन से प्यार करती हुई, भाती हुई बछड़े के पास आ जाती है। वह गौ मानव समुदाय के महान् सौभाग्य को बढ़ाती हुई, प्रचुर मात्रा में दुग्ध प्रदान करती है ॥२७॥

ऋग्वेद १. १६४.२७

उप हृये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम् । श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो धर्मस्तद् षु प्र वोचम् ॥ २६ ॥द...
09/11/2024

उप हृये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम् । श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो धर्मस्तद् षु प्र वोचम् ॥ २६ ॥

दुग्ध (सुख) प्रदान करने वाली गौ (प्रकृति प्रवाहों) का हम आवाहन करते हैं। इस गौ के दुग्ध का दोहन कुशल साधक ही कर पाते हैं। सविता देव हमें दुग्ध (श्रेष्ठ प्राण) प्रदान करें तपस्वी एवं तेजस्वी (जीवन्त साधक) ही इसको ग्रहण कर सकता है; ऐसा कथन है ॥२६ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२६

जगता सिन्धुं दिव्यस्त भायद्रथन्तरे सूर्यं पर्यपश्यत् । गायत्रस्य समिधस्तित्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥ २५ ॥गति...
09/11/2024

जगता सिन्धुं दिव्यस्त भायद्रथन्तरे सूर्यं पर्यपश्यत् । गायत्रस्य समिधस्तित्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥ २५ ॥

गतिमान् सूर्यदेव द्वारा प्रजापति ने द्युलोक में जलों को स्थापित किया। वृष्टि के माध्यम से जल, सूर्यदेव और पृथ्वी संयुक्त होते हैं, तब सूर्य और द्युलोक में सत्रिहित प्राण, जल वृष्टि के द्वारा इस पृथ्वी पर प्रकट होता है । गायत्री के तीन पाद अग्नि, विद्युत् और सूर्य (पृथ्वी, द्यु और अन्तरिक्ष) हैं। उस प्रजापति की तेजस्विता से ही ये तीनों पाद बलशाली होते हैं, ऐसा कहा गया है ॥ २५ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२५

गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ॥ २४ ॥(परमात...
09/11/2024

गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् । वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ॥ २४ ॥

(परमात्मा ने ) गायत्री छन्द से प्राण की रचना की, कवाओं के समूह से सामवेद को बनाया, त्रिष्टुप छन्द से यजुर्वाक्यों की रचना की तथा दो पदों एवं चार पदों वाले अक्षरों से सातों छन्दमय वाणियों को प्रादुर्भूत (प्रकट किया ॥ २४ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२४

यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत । यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः...
09/11/2024

यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत । यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ॥२३ ॥

पृथ्वी पर गायत्री छन्द को, अन्तरिक्ष में त्रिष्टुप् छन्द को तथा आकाश में जगती छन्द को स्थापित करने वाले को जो जान लेता है, वह देवत्व (अमरत्व) को प्राप्त कर लेता है ॥२३ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२३

यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाथि विश्वे । तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥ २२...
08/11/2024

यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाथि विश्वे । तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥ २२ ॥

इस (संसार रूपी) वृक्ष पर प्राण रस का पान करने वाली जीवात्माएँ रहती हैं, जो प्रजा वृद्धि में समर्थ हैं। वृक्ष में ऊपर मधुर फल भी लगे हुए हैं, जो पिता (परमात्मा को) नहीं जानते, वे इन मधुर (सत्कर्म रूपी) फलों के आनन्द से वञ्चित रहते हैं ॥ २२ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२२

यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदधाभिस्वरन्ति । इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥ २१ ॥इस (प्रकृति...
08/11/2024

यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदधाभिस्वरन्ति । इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥ २१ ॥

इस (प्रकृति-रूपी वृक्ष पर बैठी हुई संसार में लिप्त मरणधर्मा जीवात्माएँ सुख-दुःख रूपी फलों को भोगती हुई अपने शब्दों में परमात्मा की स्तुति करती हैं। तब इन लोकों के स्वामी और संरक्षक परमात्मा अज्ञान से युक्त मुझ जीवात्मा में भी विद्यमान हैं ॥ २१ ॥

ऋग्वेद १. १६४.२१

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