卐श्री दादूवाणी दर्शन卐 卐Shri Daduvani Darshan卐

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27/09/2025

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*🌷卐 सत्यराम सा 卐🌷*
*श्री दादूमेला महोत्सव(२०१९) ~ गुरु ग्यारस*
*प्रवचन ~ Bajrangdas Swami*
*साभार ~ Das Swami*
https://youtu.be/roS4xktmBpE

27/09/2025

*🙏🇮🇳 🇮🇳🙏*
*🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*
*श्री दादूमेला महोत्सव(२०१९) ~ तपस्वी अखाड़ा*
*प्रवचन ~ Bajrangdas Swami*
https://youtu.be/bGupfUjnr0I

🌷🙏🇮🇳 * * 🇮🇳🙏🌷🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ**५. पतिव्रत कौ अंग ३७/४०*रजा राम की सीस ...
27/09/2025

🌷🙏🇮🇳 * * 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
*५. पतिव्रत कौ अंग ३७/४०*
रजा राम की सीस पर, आज्ञा मेटै नांहिं ।
ज्यौं राखै त्यौं ही रहै, सुन्दर पतिव्रत मांहिं ॥३७॥
साधक को सदा प्रभु की आज्ञा में ही रहना चाहिये । उस की आज्ञा का कभी उल्लङ्घन न हो - इस का निरन्तर ध्यान रखना चाहिये । वे जैसे रखना चाहें वैसे ही रहना चाहिये । उसे उनके प्रति सदा पतिव्रत धर्म(एकान्त निष्ठा) का पालन करना चाहिये ॥३७॥
साहिब मेरा रामजी, सुन्दर खिजमतिगार ।
पाव पलोटै प्रीति सौं, सदा रहै हुसियार ॥३८॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - साधक को चाहिये कि वह निरञ्जन निराकार प्रभु को अपना स्वामी समझते हुए निरन्तर उस की सेवा में एकान्त निष्ठा से तत्पर रहे । यही उसका पतिव्रत धर्म है ॥३८॥
करै हजूरी बन्दगी, और न कोई काम ।
हुकम कहै त्यौं ही चलै, सुन्दर सदा गुलाम ॥३९॥
साधक को केवल उस प्रभु की ही आज्ञा में रहना चाहिये । इसके अतिरिक्त उस का कोई कर्तव्य नहीं है । वे जैसी आज्ञा करें तदनुसार उसे जीवन में आचरण करना चाहिये, क्योंकि साधक तो सर्वथा अपने प्रभु के अधीन(गुलाम) होता है ॥३९॥
पति कौ बचन लियें रहै, सो पतिबरता नारि ।
सुन्दर भावै पीव कौं, आवै नहीं अवगारि ॥४०॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हम तो उसी को पतिव्रता स्त्री कहेंगे जो अपने पति के आज्ञावचनों का निरन्तर पालन करती रहे; क्योंकि किसी भी पति को अपनी किसी भी आज्ञा का उल्लङ्घन उसको अपना अपमान(अवज्ञा = अवगारि) प्रतीत होता है ॥४०॥
(क्रमशः)

* **॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥**॥ दादूराम~सत्यराम ॥**"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महार...
27/09/2025

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
६ आचार्य कृष्णदेव जी
मेडता में निवास ~
इधर मारोठ के पांचों पानों के ठाकुरों ने कृष्णदेवजी महाराज के योग - क्षेम का सब प्रबन्ध कर दिया । फिर शनै: शनै: कृष्णदेवजी महाराज के आने की घटना सब मारवाड में फैल गई । जोधपुर नरेश को तथा नागौर नरेश को भी किसी ने सुनाया और मेडता नरेश कृष्णसिंह दादूजी के परमभक्त हुये हैं ।
अत: दादूजी के समय से ही मेडता नरेशों की नारायणा दादूधाम पर अटूट श्रद्धा रहती आई थी और मेडतियों के मुखिया मेडता नरेश ही थे । उनको भी उक्त घटना का पता चला । फिर सभी मारवाड के नरेश तथा जागीरदार भक्तों आदि ने विचार किया कि - कृष्णदेवजी को “ कहां रखा जाय !” जोधपुर नरेश बखतसिंह जी ने कहा - मैं जोधपुर ले जाऊंगा ।
नागौर नरेश बखतसिंहजी ने कहा - नहीं महाराज को मैं नागौर ले जाऊंगा । दोनों राजाओं में विवाद बढा । तब मेडता के शासक ने कहा - महाराजाओं ! महाराज मेडते ही रहें यही मेरी हार्दिक इच्छा है । कृष्णदेवजी भी मेडता में ही रहना चाहते थे । अत: उन्होंने मेडते में रहना स्वीकार करके दोनों राजाओं को राजी कर दिया । तब जोधपुर नरेश तथा नागौर नरेश ने तथा अन्य सब ने मेडता के शासक की बात मान ली ।
और कहा - मेडता महाराज के लिये अच्छा ही रहेगा फिर मेडता के शासक मारोठ से कृष्णदेवजी महाराज को मेडता ले आये और बेबचा तालाब पर जो राजमहल था वह तथा आधा बगीचा कृष्णदेवजी महाराज को निवास के लिये समर्पण कर दिया । फिर महाराज अपने मंडल के सहित उक्त राजमहल में रहने लगे, भोजन के लिये महाराज को नगर के राजमहल में बुलाते थे ।
(क्रमशः)

🙏🇮🇳  # daduji 🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*कै यहु तुम को सेवक भावै,**कै यहु रचले खेल दिखावै ॥**कै यहु तुम को खेल पियारा,**कै यह...
27/09/2025

🙏🇮🇳 # daduji 🇮🇳🙏
🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*कै यहु तुम को सेवक भावै,*
*कै यहु रचले खेल दिखावै ॥*
*कै यहु तुम को खेल पियारा,*
*कै यहु भावै कीन्ह पसारा ॥*
*यहु सब दादू अकथ कहानी,*
*कहि समझावो सारंग-पाणी ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २३४)
===================
साभार ~ , http://hi.krishnakosh.org/
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
*५१. अद्वैताचार्य को श्यामसुन्दररूप के दर्शन*
यह सुनकर कुछ दीनता के भाव से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो ! आप हमारी हर समय क्यों वंचना किया करते हैं, लोगों को जब उन्माद होता है, तो उनसे अन्य लोगों को बड़ा भय होता है। लोग उनके समीप जाने तक में डरते हैं, किंतु आपका उन्माद तो लोगों के हृदयों में अमृत-सिंचन-सा करता है। भक्तों को उससे बढ़कर कोई दूसरा आनन्द ही प्रतीत नहीं होता। क्या आपका उन्माद सचमुच में उन्माद ही होता है? यदि ऐसा हो तो फिर भक्तों को इतना अपूर्व आनन्द क्यों होता है? आप में सर्वसामर्थ्य है। आप जिस समय जैसा चाहें रूप दिखा सकते हैं।’
प्रभु ने कहा- ‘पण्डित जी ! सचमुच में आप विश्वास कीजिये, किसी को कोई रूप दिखाना मेरे बिलकुल अधीन नहीं है। किस समय कैसा रूप बन जाता है, इसका मुझे स्वयं पता नहीं चलता। आप कहते हैं, आचार्य श्यामसुन्दर रूप के दर्शन करना चाहते हैं। यह मेरे हाथ की बात थोड़े ही है। यह तो उनकी दृढ़भावना के ही ऊपर निर्भर है। उनकी जैसे रूप में प्रीति होगी, उसी भाव के अनुसार उन्हें दर्शन होंगे। यदि उनकी उत्कट इच्छा है, यदि यथार्थ में वे श्यामसुन्दर रूप का ही दर्शन करना चाहते हैं तो आँखें बन्द करके ध्यान करें, बहुत सम्भव है, वे अपनी भावना के अनुसार श्यामसुन्दर की मनोहर मूर्ति के दर्शन कर सकें।’
प्रभु की ऐसी बात सुनकर आचार्य ने कुछ संदेह और कुछ परीक्षा के भाव से आँखें बंद कर लीं। थोड़ी ही देर में भक्तों ने देखा कि आचार्य मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े हैं। लोगों ने उनके शरीर को स्पर्श करके देखा तो उसमें चेतना मालूम ही न पड़ी। श्रीवास पण्डित ने उनकी नासिका के छिद्रों पर हाथ रखा, उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उनकी साँस चल ही नहीं रही है।
इन सब लक्षणों से तो यही प्रतीत होता था कि उनके शरीर में प्राण नहीं है, किंतु चेहरे की कान्ति समीप के लोगों को चकित बनाये हुए थी। उनके चेहरे पर प्रत्यक्ष तेज चमकता था। सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो रहा था। सभी भक्त उनकी ऐसी अवस्था देखकर आश्चर्य करने लगे ! श्रीवास पण्डित ने घबड़ाहट के साथ प्रभु से पूछा- ‘प्रभो ! आचार्य की यह कैसी दशा हो गयी? न जाने क्यों वे इस प्रकार मूर्च्छित और संज्ञाशून्य-से हो गये?’
प्रभु ने कहा- ‘आप लोग किसी प्रकार का भी भय न करें। मालूम होता है, आचार्य को हृदय में अपने इष्टदेव के दर्शन हो गये हैं, उसी के प्रेम में ये मूर्च्छित हो गये हैं। मुझे तो ऐसा ही अनुमान होता है।’ गद्गद कण्ठ से श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो ! अनुमान और प्रत्यक्ष दोनों ही आपके अधीन हैं। आचार्य सौभाग्यशाली हैं जो इच्छा करते ही उन्हें आपके श्यामसुन्दररूप के दर्शन हो गये। हतभाग्य तो हमीं हैं जो हमें इस प्रकार का कभी भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। अस्तु, अपना-अपना भाग्य ही तो है, न हो हमें किसी और रूप का दर्शन, हमारे लिये तो यह गौररूप ही यथेष्ट है। अब ऐसा अनुग्रह कीजिये जिससे आचार्य को होश आये।’
श्रीवासजी की बात सुनकर प्रभु ने कहा- ‘आप भी कैसी बात कहते हैं, मैं उन्हें कैसे चेतन कर सकता हूँ? वे स्वयं ही चैतन्य होंगे। यह देखो, आचार्य अब कुछ-कुछ आँखें खोलने लगे हैं।’ प्रभु का इतना कहना था कि आचार्य की मूर्छा धीरे-धीरे भंग होने लगी। जब वे स्वस्थ हुए तो श्रीवास पण्डित ने पूछा- ‘आचार्य ! क्या देखा?’
श्रीवास के पूछने पर गद्गद कण्ठ से आचार्य कहने लगे- ‘ओहो ! अद्भुत रूप के दर्शन हुए। वे ही श्यामसुन्दर वनवारी, पीतपटधारी, मुरलीमनोहर मेरे सामने प्रत्यक्ष प्रकट हुए। मैंने प्रत्यक्ष देखा, स्वयं गौर ने ही ऐसा रूप धारण करके मेरे हृदय में प्रवेश किया और अपनी मन्द-मन्द मुस्कान से मुझे बेसुध-सा बना लिया। मेरा मन अपने अधीन नहीं रहा। वह उस माधुरी को पान करने में ऐसा तल्लीन हुआ कि अपने-आपको ही खो बैठा। थोड़ी ही देर के पश्चात् वह मूर्ति गौररूप धारण करके मेरे सामने आ बैठी, तभी मुझे चेत हुआ।’
यह कहते-कहते आचार्य प्रेम के कारण गद्गद कण्ठ से रुदन करने लगे। उनकी आँखों की कोरों में से ठंडे अश्रुओं की दो धारा-सी बह रही थी। प्रभु ने हँसते हुए कुछ बनावटी उपेक्षा के साथ कहा- ‘मालूम पड़ता है, आचार्य ने गत रात्रि में जागरण किया है। इसीलिये आँखें बन्द करते ही नींद आ गयी और उसी नींद में इन्होंने स्वप्न देखा है, उसी स्वप्न की बातें ये कह रहे हैं।’
प्रभु की ऐसी बात सुनकर आचार्य अधीर होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़े और गद्गद कण्ठ से कहने लगे- ‘प्रभो ! मेरी अब अधिक वंचना न कीजिये। अब तो आपके श्रीचरणों में विश्वास उत्पन्न हो जाय, ऐसा ही आशीर्वाद दीजिये।’ प्रभु ने वृद्ध आचार्य को उठाकर गले से लगाया और प्रेम के साथ कहने लगे- ‘आप परम भागवत हैं, आपकी निष्ठा बहुत ऊँची है, आपके निरन्तर ध्यान का ही यह प्रत्यक्ष फल है कि नेत्र बंद करते ही आपको भगवान के दर्शन होने लगे हैं चलिये, अब बहुत देर हो गयी, माता भोजन बनाकर हम लोगों की प्रतीक्षा कर रही होगी। आज हम सब साथ-ही-साथ भोजन करेंगे।’
प्रभु की आज्ञा पाकर श्रीवास के सहित आचार्य महाप्रभु के घर चलने को तैयार हो गये। घर पहुँचकर प्रभु ने देखा, माता सब सामान बनाकर चौके में बैठी सब लोगों के आने की प्रतीक्षा कर रही है। प्रभु ने जल्दी से हाथ-पैर धोकर आचार्य और श्रीवास पण्डित के स्वयं पैर धुलाये और उन्हें बैठने को सुन्दर आसन दिये। दोनों के बहुत आग्रह करने पर प्रभु भी आचार्य और श्रीवास के बीच में भोजन करने के लिये बैठ गये।

शचीमाता ने आज बड़े ही प्रेम से अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये थे। भोजन परोस जाने पर दोनों ने भगवान के अर्पण करके तुलसी मंजरी पड़े हुए उन सभी व्यंजनों को प्रेम के साथ पाया। प्रभु बार-बार आग्रह कर-करके आचार्य को और अधिक परसवा देते और आचार्य भी प्रेम के वशीभूत होकर उसे पा लेते।
इस प्रकार उस दिन तीनों ने ही अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत अधिक भोजन किया। किंतु उस भोजन में चारों ओर से प्रेम-ही-प्रेम भरा था। भोजनोपरान्त प्रभु ने श्रीविष्णुप्रिया से लेकर आचार्य तथा श्रीवास पण्डित को मुख-शुद्धि के लिये ताम्बूल दिया। कुछ आराम करने के अनन्तर प्रभु की आज्ञा लेकर अद्वैत तो शान्तिपुर चले गये और श्रीवास अपने घर को चले गये।
(क्रमशः)

🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷* #श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी ...
27/09/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
* #श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
*~ द्वादश विन्दु ~*
*= गलता से चार साधुओं का साँभर आना (१)=*
सांभर में नाना स्थानों से साधक लोग आकर दादूजी से उपदेश ग्रहण करने लगे, इससे दादूजी की निर्गुण, निराकार, निरंजन ब्रह्म भक्ति का विस्तार उत्तरोत्तर होने लगा । यह देखकर कुछ वैष्णव महंतों ने मिलकर गलता में विचार किया ।
दादूजी का निर्गुण, निराकार, निरंजन, ब्रह्मवाद बढ़ता जा रहा है, उससे हमारे सगुण साकार रूप साधना में लोगों की रूचि कम होती जा रही है । अतः दादू को किसी भी प्रकार से अपने में मिला लेना चाहिये अर्थात् माला तिलकादि देकर वैष्णव बना लेना चाहिए । जिससे उसका प्रचार रुक जायगा और उसके निमित्त से हमारी साधन पद्धति का और भी अधिक प्रचार होगा । कारण उसके उपदेश का जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ।
उक्त प्रस्ताव सर्व संमति से पास हो गया तब गलता से चार साधुओं को कंठी, माला, तिलकादि अपने संप्रदाय का भेष - भूषा देकर कहा - तुम साँभर में जाकर दादू को वैष्णव बनाने का अपनी शक्ति अनुसार पूर्ण प्रयत्न करो । उन साधुओं के नाम ये थे - गैबीदास, जंगीदास, रामघटादास, छीतरदास ।
चारों साधु साँभर में दादूजी के पास पहुँचे और दादूजी को कहा - हमारे महाराज ने तुम्हारे पर दया करके तुम्हारे लिये कंठी, माला भेजी है, इनको धारण करो और तिलक लगाओ । फिर हम आपको अपने संप्रदाय में मिलाकर अच्छा पद देंगे जिससे आपकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ जायगी । दादूजी ने कहा -
"दादू एक हि आतमा, साहिब है सब मांहि ।
साहिब के नाते मिलें, भेष पंथ के नांहिं ॥"
अर्थात् आत्मा सबकी एक ही है, सब में ही परमात्मा भी विद्यमान हैं ।
(क्रमशः)

🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*दादू राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे ।**ऐसे पीव क्यौं पाइये, समझि मन बौरे ॥**(श्री दादूवाण...
27/09/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*दादू राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे ।*
*ऐसे पीव क्यौं पाइये, समझि मन बौरे ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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*साभार ~ मीरा चरित(सौभाग्य कुंवरी राणावत)*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
कथांश ९७
*भूत-प्रेतों का घर : भूत-महल*
‘कुँवराणीसा हुकम ! दाता हुकम ने हुजूर को याद फरमाया है । किस समय आऊँ आपको लिवाने के लिये?’ – रतनसिंहजी की माताजी धनाबाई की दासी ने आकर निवेदन किया ।
‘दिन ढलने पर मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाऊँगी । तुम जाकर निवेदन कर देना कि मुझे भी बुजीसा हुकम के दर्शन किये बहुत समय हो गया । आज कृपा करके उन्होंने याद फरमाया है तो दर्शन के लिये हाजिर हो जाऊँगी ।’ – मीरा ने कहा ।
‘दाता हुकम ने फरमाया है कि ठाकुरजी की आरती, भोग आदि सब करके पधारें, अन्यथा सरकार वहाँ विराज नहीं सकेंगी ।’ – दासी ने निवेदन किया ।
मीरा ने हँसकर सिर हिला दिया । रात को जब मीरा सासजी के महल में पधारीं तो वहाँ सभी राजपरिवार की स्त्रियाँ उपस्थित थीं । उनकी दासियाँ और पासवानों(उपपत्नियाँ) को मिलाकर सौ-डेढ़ सौ स्त्रियों का जमघट देखकर मीरा को कुछ आश्चर्य हुआ ।
उन्होंने अपनी सासों के चरणों में सिर झुकाया और देवरानियों को आशीर्वाद दिया । दासियों के अभिवादन स्वीकार करते हुए किसी के हाथ जोड़, किसी को सिर हिलाकर और किसी को दृष्टि द्वारा तथा हँस कर एकाध बात करके सम्मान दिया । सबके यथास्थान बैठ जानेपर राजमाता जोधीजी(धनाबाई) ने फरमाया- ‘और सभी तो कहीं-न-कहीं इकट्ठे होते और मिलते ही हैं, किन्तु बीनणी ! तुमसे मिलना सहज नहीं हो पाता, इसी कारण सोचा कि दो घड़ी बैठकर बात ही करेंगे ।’
‘बड़ी कृपा हुई । मैं तो हुजूर की बालक हूँ । यह दुर्भाग्य ही है मेरा कि राज की कोई सेवा नहीं बन आयी मुझसे ।’ - मीरा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया ।
‘अरे भाई ! भगतों का भगवान् से पिंड छूटे तो दूसरा याद आये न ।’ छोटी राजमाता हाड़ीजी ने हँसकर कहा - ‘कभी हमें भी याद कर लिया कीजिये कि हमारा भी उद्धार हो ।’
‘प्रभु समर्थ हैं हुकम ! उद्धार उनकी कृपा से ही होता है ।’
‘मुझे आज्ञा हो तो कुँवराणीसा से कुछ पूछना है ।’ - पासवानों(उपपत्नियों) की जाजिम पर बैठी हुई महाराजकुमार पृथ्वीराज की पासवानजी ने कहा ।
‘पूछो न ! ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिये अलग से हुकम लेना पड़े ।’ - मीरा ने हँस कर कहा ।
‘मेरी बहिन की बेटी को भूत लग गया है हुकम ! वह दिन-दिन दुबली होती जा रही है । औतरने(आवेश) के अलावा आंय-बाँय बातें करती है । बहुत टोटके किये; देवता, दिहाड़ी सबको सुमर लिया, पूज लिया, किन्तु उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ । मरने के बाद क्या सचमुच मनुष्य भूत बनता है हुकम? यदि बनता है तो वह दूसरों के सिर क्यों लगता फिरता है? क्या हमको भी कभी भूत बनना पड़ेगा?’
‘भूत ही क्यों, जगत में जितने भी प्राणी दिखायी देते हैं, वे सब मनुष्य योनि से निकले जीव हैं । मानव-जीवन में किये गये कर्मों का फल भोगने के लिये ही दूसरी जूण(योनि) बनी है । अब रही दुसरों को लगने की बात, सो मरने के पश्चात् भी स्वभाव तो साथ ही रहता है । जिसका स्वभाव संतोषी और भला है, वह भूत बने कि पशु, वह भला ही रहेगा और जिसका स्वभाव दुष्ट है, वह मरने पर भी दुष्ट ही रहेगा ।
मन साथ रहने से तृष्णा बनी रहती है, उसी तृष्णा के वश होकर वह लोगों के पास जाता है । मैंने तो कभी देखा नहीं, किन्तु सुना है कि भूतों के मुँह सुई के छेद जैसे होते हैं । वे कुछ भी खा-पी नहीं सकते । सड़े फलों का रस, मोरी का पानी, ऐसा ही कुछ वे ग्रहण कर सकते हैं अथवा मानव जन्म के उनके सगे-सम्बन्धी पिंड दें तो वह उन्हें प्राप्त होता है । सम्भव है कि इससे उन्हें मानसिक तृप्ति न होती हो । इसी कारण किसी की देह को माध्यम बनाकर उसके मिस से खाते-पीते और पहनते हों ।’
‘तभी भूत-महल की ओर कोई नहीं जाता । जो भी जाता है, वह या तो बीमार हो जाता है या मर जाता है ।’ – हाड़ीजी ने कहा ।
‘भगवान् के नाम से भूत पास नहीं आते हुकम ! राम-राम कहता हुआ मनुष्य कहीं भी जाये, भूत-प्रेत किसी की मजाल नहीं उसके समीप आने की ।’ – मीरा ने कहा ।
सच फरमा रही हैं आप?’ – हाड़ीजी ने आश्चर्य से कहा ।
‘इसमें आश्चर्य की क्या बात है हुकम ! भगवान् का नाम लेकर तो मनुष्य भवसागर पार कर लेते हैं । भूत बेचारा किस खेत की मूली है? संतों का कहना है कि भगवान् से भगवान् का नाम बड़ा है ।’
‘संतों की बातें तो आप ही जानती होंगी । हमें तो आप एक बार भूत-महल ही दिखा दीजिये । सुना है कि बहुत सुन्दर बना है । आपके साथ रहेंगी तो भूत हमें भी कुछ नहीं कर पायेंगे ।’
‘जब आप फरमाइये । मैं तो प्रस्तुत हूँ ।’ – मीरा ने कहा ।
‘अभी चले? फिर तो कौन जाने कब ऐसा अवसर मिले कि आपकी भक्ति के पट खुलें । जब भी किसी से पूछती हूँ - यही उत्तर मिलता है कि कुँवराणीसा को तो चेत ही नहीं है ।’
‘पधारें, भले ही ।’
‘फिर कभी पधार जायें, आज का आज ही क्या है? भूत-महल में देखने जैसा है ही क्या?’ राजमाता जीसा(करमचंद पुँवार बम्बोरी की बेटी) ने कहा- ‘कौन जाने कितनी पीढ़ियों से बंद पड़े हैं वे महल । कहीं झाड़ू-बुहारी नहीं लगी । कहीं पड़दड़ रहे होंगे । भूत तो है कि नहीं वहाँ, किंतु साँप गौहरे अवश्य रहते होंगे । ऐसी अँधेरी रात में वहाँ जायँ और किसी को साँप ने डस लिया तो रंग में भंग तो होगा ही । घर में हाण और जगत में हँसी भी होगी ।’
‘अरे जीजा हुकम ! अभी आपको ज्ञात ही नहीं है कि भक्ति में कितनी शक्ति है । मैंने तो सुना है कि वैद्यजी को श्रीजी ने डाँटा सो डर के मारे वे मर गये । फिर लोग उठाकर उन्हें बीनणी के पास ले गये । इन्होंने वैद्यजी को जीवित कर दिया । अपने तो वैद्य-हकीम सब घर में ही हैं । लो, उठो सब, रात अधिक हो जायगी ।’ दासियों की ओर देख हाड़ीरानीने कहा-‘तुम मशालें तैयार करो, जाओ ।’
मीराने अपनी दासियों की ओर देखकर कहा- ‘तुम जाओ । प्रातः के उत्सव की प्रस्तुति करनी है । मैं बुजीसा हुकम के साथ जा रही हूँ । फिर यहीं से किसी के साथ आ जाऊँगी ।’
‘इन दोनों को भेज दीजिये ।’ मंगला ने काँपते कंठ से कहा-‘मैं आपके साथ ही रहूँगी बाईसा हुकम !’
‘नहीं मंगला ! तू भी जा । इन्हें सब समझाना पड़ेगा न?’
‘हाँ, हाँ मंगला जा । तू यहाँ क्या करेगी? कुछ काम हुआ भी तो यह चार-पाँच गाड़ियाँ भर जायँ, इतनी खड़ी हैं यहाँ ।’ हाड़ीजी ने हँस कर कहा-‘अरे जीजा हुकम ! (बड़ी सौत)आप विराजी कैसे हैं? ऐसे तो विलम्ब हो जायगा, पधारें ।’
‘नहीं बहिन ! तुम ही सब जाओ । मेरा मन नहीं करता जाने को । आँखों से दीखता नहीं । कहीं पाँव ऊँचा-नीचा पड़ गया तो बुढ़ापे में हड्डियाँ जुड़ेंगी नहीं ।’ जोधीजी ने मना किया । हाड़ी जी और उनके साथ पचास-साठ स्त्रियाँ मीरा को लेकर भूत-महल की ओर चलीं ।
मीरा की दासियों ने सारी रात आँखों को राहमें गड़ाये-गड़ाये ही काट दी । ड्योढ़ी के द्वार खुले ही रहे । ब्राह्ममुहूर्त लगते ही चम्पा और चमेली जोधीजी के पास दौड़ी गयीं- ‘बुजीसा हुकम ! मेरी बाईसा हुकम कहाँ हैं? वे रात महलों में नहीं पधारीं ।’
‘हैं, क्या? महलों में नहीं पधारीं तो कहाँ गयीं?’ उन्होंने चौंक कर कहा ।
उन्होंने दासी भेज कर हाड़ीजी के महलमें पुछवाया । वहाँ से उत्तर आया कि भूत-महल से लौटते हुए द्वार तक हमारे साथ ही थीं, फिर अचानक लोप हो गयीं । हमने सोचा कि भक्त हैं, इनकी माया कौन जान सकता है ।’
यह सुन कर दोनों दासियाँ रो पड़ीं । उनकी आँखों से चौधारा छूट गयी । हिल्कियाँ लेते हुए ही बोलीं- ‘बुजीसा हुकम ! मुझे भूत-महल में जानेकी आज्ञा दीजिये । अवश्य ही बाईसा हुकम को उसमें बंद कर दिया गया है ।’
उसकी बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आँखें भर आयीं ।
‘तू कहाँ जायगी और कैसे जायगी? वहाँ की चाभियाँ तो श्रीजी के पास हैं । वे भी रात को भूत-महल पधारे थे, ऐसा सुना है ।’
यह सुन कर वे और जोर-जोर से रोने लगीं । रोते हुए जहर देने और तलवार से मारनेकी सारी बात कह सुनायी- ‘हमारी बाईसा हुकम तो भोली हैं हुकम ! छल-प्रपन्च उन्हें छू भी नहीं गया है । वे सभी को अपने समान समझती हैं । क्यों मारना चाहते हैं वे उन्हें? क्या बिगाड़ा है उन्होंने किसी का? हम मेड़ते चले जायँगे या किसी तीर्थ में जा बैठेंगे ।’ दासियों ने दुःख से अवश हो राजमाताजी के चरण पकड़ लिये- ‘जहाँ हमारी बाईसा हुकम हैं, वहीँ हमें भी पहुँचा दें ।’
‘तू चुप रह चम्पा ! तेरे यों बिलखने से कुछ भी ठंडाई नहीं पड़ेगी । हल्ला होने से तो तेरी बाईसा कल मारती होंगी तो आज ही मर जायंगी । मेरे सींग टूट गये हैं । अर्जुन-भीम जैसे बेटे खोकर आँखें फूट गयी हैं मेरी । कुछ दिखायी नहीं देता । राँड और निपूती दोनों ही हो गयी हूँ । विधाता के आगे किसका जोर चलता है? मुझसे जो हो सकेगा सो करूँगी, पर ध्यान रहे, घर की बात बाहर न जाय ।’
(क्रमशः)

🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु...
27/09/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
*(“पंचम - तरंग” २५/२६)*
*पुर्व अवतार की कथा टीला को दिखाना*
*मनोहर - छन्द*
स्वामीजी पूरब रुप, टीला को दिखाये जिन,
देखि के चकित होत सन्तन - प्रताप ही ।
कहीं रूप गिरि पर, कहुं तो समाधि करे,
कहीं रूप द्रुम डाले, तपत है ताप ही ।
कहीं रूप धूणी पर, जटाजूट शीश धरे,
कहीं रूप झूला झूले पाँचों अग्नि आप ही ।
पवन संयोग तांके आक्रति में शबद होत,
रोम रोम रंरंकार, जपत है जाप ही ॥२५॥
तब स्वामीजी ने प्रसन्न होकर टीलाजी को अपने पूर्व अवतार के दर्शन कराये । संत प्रताप से ध्यान में देखते हुये वे आश्चर्य से चकित होने लगे । किसी अवतार में दादूजी पर्वत पर तपस्या कर रह हैं तो किसी अवतार में समाधिस्थ हैं । कभी वृक्ष शाखा पर आसन लगाये हुये हैं तो कभी धूणी जगाये तप रहे हैं । कभी जटाजूट धारी बने हुये हैं तो कभी पाँचों अग्नियों के बीच झूल रहे हैं । पवन के स्पर्श मात्र से उनकी आकृतियों के रोम - रोम से राम - राम की ध्वनि निकल रही है । रोम - रोम से ररंकार का अखण्ड जाप हो रहा है ॥२५॥
अपनो स्वरूप ॠषि, देखत चकित शिष्य,
स्वामी को स्वरूप दिव्य सब सुखराशी है ।
कठिन तपस्या करि, तब आज्ञा दीन्ही हरि,
ताहिं को धरत ध्यान दादू अविनाशी है ।
अब डर नाहिं तोहि, टीला तूं भगत मोहि,
अंग के हजूरी होय पंथ को उपासी है ।
टीला कहे - सुनो गुरु, अब आश मम पूरो,
जीवन - उद्धार काज मूरति प्रकाशी है ॥२६॥
टीलाजी ने अपना स्वरूप भी देखा - वे एक ॠषि हैं, श्री दादूजी की सेवा में संलग्र हैं । दादूजी का रूप दिव्य प्रकाश से आलोकित है । कठिन तपस्या में रत दादूजी को श्री हरि की आज्ञा होती है, तदनुसार वर्तमान स्वरूप बालक रूप में धारण किया जाता है । यह सब देखकर टीलाजी चकित रह गये, वे अवर्णनीय सुख के सरोबर डूब से गये । अब उन्हें समझ में आया कि अविनाशी श्री दादूजी अपने इष्टदेव श्री हरि का ध्यान क्यों करते रहते हैं । स्वामीजी ने कहा - हे टीला ! अब तुम्हें कोई डर नहीं है, तुम तो मेरे पूर्व अवतार के भक्त हो । मेरे रूप की सेवा हजूरी करते हुये ब्रह्मपंथ की उपासना करो । टीला ने कहा - हे गुरुदेव ! आपने मेरी सब आशा पूर्ण कर दी, अब बस यही इच्छा है कि आप मेरा उद्धार कर देना । आपने तो जीवों के उद्धार हेतु ही यह मूर्ति स्वरूप धारण की ॥२६॥
(क्रमशः)

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26/09/2025

🙏🇮🇳 * * 🇮🇳🙏
🌷🙏 *卐 सत्यराम 卐* 🙏🌷
*७.४. विश्वास का अंग*
*भाजन आपु घड्यौ जिनि तौ,*
*भरि हैं भरि हैं भरि हैं भरि हैं जू ।*
*गावत है तिनकै गुन कौं,*
*ढरि हैं ढरि हैं ढरि हैं ढरि हैं जू ॥*
*सुन्दरदास सहाइ सही,*
*करि हैं करि हैं करि हैं करि हैं जू ।*
*आदि हु अंत हु मध्य सदा,*
*हरि हैं हरि हैं हरि हैं हरि हैं जू ॥४॥*
जिस हरि ने यह अनुपम देहपात्र बनाया है, वह अवश्य इसे भरेगा भी(भोजन देगा) ।
जिन की तूँ स्तुति कर रहा है, गुणकीर्तन कर रहा है, वे तुम पर अवश्य दया करेंगे ही ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वे प्रभु तेरी सहायता अवश्य करेंगे;
क्योंकि वे इस संसार के आदि अन्त मध्य - सभी भागों में सर्वत्र व्यापक हैं, विद्यमान हैं ॥४॥
*स्वर-संगीत : Subhash Jain*
* , #सवैयाग्रन्थ, #सुन्दरविलास, *
https://youtu.be/-fUKSwmkWiI
(क्रमशः)

26/09/2025

🙏🇮🇳 * * 🇮🇳🙏
🌷🙏 *卐 सत्यराम 卐* 🙏🌷
*७.३. विश्वास का अंग*
*नैकु न धीरज धारत है नर,*
*आतुर होई दसौं दिस धावै ।*
*ज्यौं पसु खैंचि तुड़ावत बंधन,*
*जौ लग नीर न आवै ही आवै ॥*
*जानत नाहिं महामति मूरख,*
*जा घर द्वार धनी पहुंचावै ।*
*सुन्दर आपु कियौ घड़ि भाजन,*
*सो भरि है मति सोच उपावै ॥३॥*
*देहपात्र का रचयिता ही उसका पूरयिता* : हे नर ! तूँ कुछ तो धैर्य धारण कर ! क्यों व्यर्थ दुःखी होता हुआ इधर उधर दौड़ रहा है ।
जैसे किसी पशु के सामने जब तक चारा(खाद्य) न आ जाय तब तक वह अधीर होकर अपना बन्धन तुड़ाता रहता है ।
अरे महामति(अधिक बुद्धि वाले) मूर्ख ! तूँ यह क्यों नहीं समझता कि जिस प्रभु(संसार के स्वामी) ने तुझे यह घर द्वार दिया है वही तेरे लिये भोजन का भी प्रबन्ध करेगा ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसने यह सुन्दर देहपात्र रचा है वही इसे भरने(रक्षा करने) का भी उपाय करेगा । अतः तूँ इस विषय में सोच सोच कर दुःखी न हो ॥३॥
*स्वर-संगीत : Subhash Jain*
* , #सवैयाग्रन्थ, #सुन्दरविलास, *
https://youtu.be/PZO6c6F3FzY
(क्रमशः)

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