27/09/2025
🙏🇮🇳 🇮🇳🙏
🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*दादू राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे ।*
*ऐसे पीव क्यौं पाइये, समझि मन बौरे ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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*साभार ~ मीरा चरित(सौभाग्य कुंवरी राणावत)*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
कथांश ९७
*भूत-प्रेतों का घर : भूत-महल*
‘कुँवराणीसा हुकम ! दाता हुकम ने हुजूर को याद फरमाया है । किस समय आऊँ आपको लिवाने के लिये?’ – रतनसिंहजी की माताजी धनाबाई की दासी ने आकर निवेदन किया ।
‘दिन ढलने पर मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाऊँगी । तुम जाकर निवेदन कर देना कि मुझे भी बुजीसा हुकम के दर्शन किये बहुत समय हो गया । आज कृपा करके उन्होंने याद फरमाया है तो दर्शन के लिये हाजिर हो जाऊँगी ।’ – मीरा ने कहा ।
‘दाता हुकम ने फरमाया है कि ठाकुरजी की आरती, भोग आदि सब करके पधारें, अन्यथा सरकार वहाँ विराज नहीं सकेंगी ।’ – दासी ने निवेदन किया ।
मीरा ने हँसकर सिर हिला दिया । रात को जब मीरा सासजी के महल में पधारीं तो वहाँ सभी राजपरिवार की स्त्रियाँ उपस्थित थीं । उनकी दासियाँ और पासवानों(उपपत्नियाँ) को मिलाकर सौ-डेढ़ सौ स्त्रियों का जमघट देखकर मीरा को कुछ आश्चर्य हुआ ।
उन्होंने अपनी सासों के चरणों में सिर झुकाया और देवरानियों को आशीर्वाद दिया । दासियों के अभिवादन स्वीकार करते हुए किसी के हाथ जोड़, किसी को सिर हिलाकर और किसी को दृष्टि द्वारा तथा हँस कर एकाध बात करके सम्मान दिया । सबके यथास्थान बैठ जानेपर राजमाता जोधीजी(धनाबाई) ने फरमाया- ‘और सभी तो कहीं-न-कहीं इकट्ठे होते और मिलते ही हैं, किन्तु बीनणी ! तुमसे मिलना सहज नहीं हो पाता, इसी कारण सोचा कि दो घड़ी बैठकर बात ही करेंगे ।’
‘बड़ी कृपा हुई । मैं तो हुजूर की बालक हूँ । यह दुर्भाग्य ही है मेरा कि राज की कोई सेवा नहीं बन आयी मुझसे ।’ - मीरा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया ।
‘अरे भाई ! भगतों का भगवान् से पिंड छूटे तो दूसरा याद आये न ।’ छोटी राजमाता हाड़ीजी ने हँसकर कहा - ‘कभी हमें भी याद कर लिया कीजिये कि हमारा भी उद्धार हो ।’
‘प्रभु समर्थ हैं हुकम ! उद्धार उनकी कृपा से ही होता है ।’
‘मुझे आज्ञा हो तो कुँवराणीसा से कुछ पूछना है ।’ - पासवानों(उपपत्नियों) की जाजिम पर बैठी हुई महाराजकुमार पृथ्वीराज की पासवानजी ने कहा ।
‘पूछो न ! ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिये अलग से हुकम लेना पड़े ।’ - मीरा ने हँस कर कहा ।
‘मेरी बहिन की बेटी को भूत लग गया है हुकम ! वह दिन-दिन दुबली होती जा रही है । औतरने(आवेश) के अलावा आंय-बाँय बातें करती है । बहुत टोटके किये; देवता, दिहाड़ी सबको सुमर लिया, पूज लिया, किन्तु उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ । मरने के बाद क्या सचमुच मनुष्य भूत बनता है हुकम? यदि बनता है तो वह दूसरों के सिर क्यों लगता फिरता है? क्या हमको भी कभी भूत बनना पड़ेगा?’
‘भूत ही क्यों, जगत में जितने भी प्राणी दिखायी देते हैं, वे सब मनुष्य योनि से निकले जीव हैं । मानव-जीवन में किये गये कर्मों का फल भोगने के लिये ही दूसरी जूण(योनि) बनी है । अब रही दुसरों को लगने की बात, सो मरने के पश्चात् भी स्वभाव तो साथ ही रहता है । जिसका स्वभाव संतोषी और भला है, वह भूत बने कि पशु, वह भला ही रहेगा और जिसका स्वभाव दुष्ट है, वह मरने पर भी दुष्ट ही रहेगा ।
मन साथ रहने से तृष्णा बनी रहती है, उसी तृष्णा के वश होकर वह लोगों के पास जाता है । मैंने तो कभी देखा नहीं, किन्तु सुना है कि भूतों के मुँह सुई के छेद जैसे होते हैं । वे कुछ भी खा-पी नहीं सकते । सड़े फलों का रस, मोरी का पानी, ऐसा ही कुछ वे ग्रहण कर सकते हैं अथवा मानव जन्म के उनके सगे-सम्बन्धी पिंड दें तो वह उन्हें प्राप्त होता है । सम्भव है कि इससे उन्हें मानसिक तृप्ति न होती हो । इसी कारण किसी की देह को माध्यम बनाकर उसके मिस से खाते-पीते और पहनते हों ।’
‘तभी भूत-महल की ओर कोई नहीं जाता । जो भी जाता है, वह या तो बीमार हो जाता है या मर जाता है ।’ – हाड़ीजी ने कहा ।
‘भगवान् के नाम से भूत पास नहीं आते हुकम ! राम-राम कहता हुआ मनुष्य कहीं भी जाये, भूत-प्रेत किसी की मजाल नहीं उसके समीप आने की ।’ – मीरा ने कहा ।
सच फरमा रही हैं आप?’ – हाड़ीजी ने आश्चर्य से कहा ।
‘इसमें आश्चर्य की क्या बात है हुकम ! भगवान् का नाम लेकर तो मनुष्य भवसागर पार कर लेते हैं । भूत बेचारा किस खेत की मूली है? संतों का कहना है कि भगवान् से भगवान् का नाम बड़ा है ।’
‘संतों की बातें तो आप ही जानती होंगी । हमें तो आप एक बार भूत-महल ही दिखा दीजिये । सुना है कि बहुत सुन्दर बना है । आपके साथ रहेंगी तो भूत हमें भी कुछ नहीं कर पायेंगे ।’
‘जब आप फरमाइये । मैं तो प्रस्तुत हूँ ।’ – मीरा ने कहा ।
‘अभी चले? फिर तो कौन जाने कब ऐसा अवसर मिले कि आपकी भक्ति के पट खुलें । जब भी किसी से पूछती हूँ - यही उत्तर मिलता है कि कुँवराणीसा को तो चेत ही नहीं है ।’
‘पधारें, भले ही ।’
‘फिर कभी पधार जायें, आज का आज ही क्या है? भूत-महल में देखने जैसा है ही क्या?’ राजमाता जीसा(करमचंद पुँवार बम्बोरी की बेटी) ने कहा- ‘कौन जाने कितनी पीढ़ियों से बंद पड़े हैं वे महल । कहीं झाड़ू-बुहारी नहीं लगी । कहीं पड़दड़ रहे होंगे । भूत तो है कि नहीं वहाँ, किंतु साँप गौहरे अवश्य रहते होंगे । ऐसी अँधेरी रात में वहाँ जायँ और किसी को साँप ने डस लिया तो रंग में भंग तो होगा ही । घर में हाण और जगत में हँसी भी होगी ।’
‘अरे जीजा हुकम ! अभी आपको ज्ञात ही नहीं है कि भक्ति में कितनी शक्ति है । मैंने तो सुना है कि वैद्यजी को श्रीजी ने डाँटा सो डर के मारे वे मर गये । फिर लोग उठाकर उन्हें बीनणी के पास ले गये । इन्होंने वैद्यजी को जीवित कर दिया । अपने तो वैद्य-हकीम सब घर में ही हैं । लो, उठो सब, रात अधिक हो जायगी ।’ दासियों की ओर देख हाड़ीरानीने कहा-‘तुम मशालें तैयार करो, जाओ ।’
मीराने अपनी दासियों की ओर देखकर कहा- ‘तुम जाओ । प्रातः के उत्सव की प्रस्तुति करनी है । मैं बुजीसा हुकम के साथ जा रही हूँ । फिर यहीं से किसी के साथ आ जाऊँगी ।’
‘इन दोनों को भेज दीजिये ।’ मंगला ने काँपते कंठ से कहा-‘मैं आपके साथ ही रहूँगी बाईसा हुकम !’
‘नहीं मंगला ! तू भी जा । इन्हें सब समझाना पड़ेगा न?’
‘हाँ, हाँ मंगला जा । तू यहाँ क्या करेगी? कुछ काम हुआ भी तो यह चार-पाँच गाड़ियाँ भर जायँ, इतनी खड़ी हैं यहाँ ।’ हाड़ीजी ने हँस कर कहा-‘अरे जीजा हुकम ! (बड़ी सौत)आप विराजी कैसे हैं? ऐसे तो विलम्ब हो जायगा, पधारें ।’
‘नहीं बहिन ! तुम ही सब जाओ । मेरा मन नहीं करता जाने को । आँखों से दीखता नहीं । कहीं पाँव ऊँचा-नीचा पड़ गया तो बुढ़ापे में हड्डियाँ जुड़ेंगी नहीं ।’ जोधीजी ने मना किया । हाड़ी जी और उनके साथ पचास-साठ स्त्रियाँ मीरा को लेकर भूत-महल की ओर चलीं ।
मीरा की दासियों ने सारी रात आँखों को राहमें गड़ाये-गड़ाये ही काट दी । ड्योढ़ी के द्वार खुले ही रहे । ब्राह्ममुहूर्त लगते ही चम्पा और चमेली जोधीजी के पास दौड़ी गयीं- ‘बुजीसा हुकम ! मेरी बाईसा हुकम कहाँ हैं? वे रात महलों में नहीं पधारीं ।’
‘हैं, क्या? महलों में नहीं पधारीं तो कहाँ गयीं?’ उन्होंने चौंक कर कहा ।
उन्होंने दासी भेज कर हाड़ीजी के महलमें पुछवाया । वहाँ से उत्तर आया कि भूत-महल से लौटते हुए द्वार तक हमारे साथ ही थीं, फिर अचानक लोप हो गयीं । हमने सोचा कि भक्त हैं, इनकी माया कौन जान सकता है ।’
यह सुन कर दोनों दासियाँ रो पड़ीं । उनकी आँखों से चौधारा छूट गयी । हिल्कियाँ लेते हुए ही बोलीं- ‘बुजीसा हुकम ! मुझे भूत-महल में जानेकी आज्ञा दीजिये । अवश्य ही बाईसा हुकम को उसमें बंद कर दिया गया है ।’
उसकी बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आँखें भर आयीं ।
‘तू कहाँ जायगी और कैसे जायगी? वहाँ की चाभियाँ तो श्रीजी के पास हैं । वे भी रात को भूत-महल पधारे थे, ऐसा सुना है ।’
यह सुन कर वे और जोर-जोर से रोने लगीं । रोते हुए जहर देने और तलवार से मारनेकी सारी बात कह सुनायी- ‘हमारी बाईसा हुकम तो भोली हैं हुकम ! छल-प्रपन्च उन्हें छू भी नहीं गया है । वे सभी को अपने समान समझती हैं । क्यों मारना चाहते हैं वे उन्हें? क्या बिगाड़ा है उन्होंने किसी का? हम मेड़ते चले जायँगे या किसी तीर्थ में जा बैठेंगे ।’ दासियों ने दुःख से अवश हो राजमाताजी के चरण पकड़ लिये- ‘जहाँ हमारी बाईसा हुकम हैं, वहीँ हमें भी पहुँचा दें ।’
‘तू चुप रह चम्पा ! तेरे यों बिलखने से कुछ भी ठंडाई नहीं पड़ेगी । हल्ला होने से तो तेरी बाईसा कल मारती होंगी तो आज ही मर जायंगी । मेरे सींग टूट गये हैं । अर्जुन-भीम जैसे बेटे खोकर आँखें फूट गयी हैं मेरी । कुछ दिखायी नहीं देता । राँड और निपूती दोनों ही हो गयी हूँ । विधाता के आगे किसका जोर चलता है? मुझसे जो हो सकेगा सो करूँगी, पर ध्यान रहे, घर की बात बाहर न जाय ।’
(क्रमशः)