22/06/2021
पवित्र गाय: मिथक और तथ्य
पवित्र गाय: मिथक और तथ्य
हिंदू धर्म शास्त्रों में कहीं भी जीव हत्या और गोमांस भक्षण का उल्लेख नहीं है। जीव हत्या और गोमांस भक्षण क्रूरता और जघन्य पाप है। जिन लोगों ने हिंदू धर्म ग्रंथों का गंभीरता और गहनता के साथ अध्ययन किया है उन्हें यह बात आसानी से समझ में आ रही होगी कि मांस भक्षण के उक्त तथाकथित आलोचकों ने हिंदू धर्म शास्त्रों को पढ़ा तो क्या छुआ तक नहीं है।
अभी कल तक एक मात्र हिंदू राष्ट्र कहे जाने वाले पड़ोसी देश नेपाल के विश्व प्रसिद्ध गढ़ी माई मंदिर में प्रतिवर्ष करीब 200000 (दो लाख) पशुओं की बलि दी जाती है।
हिंदू धर्मग्रंथों से गाय व अन्य जीव के मांस भक्षण संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मांसाहार के आलोचक और विरोधी इन्हें गंभीरता से पढ़े। उम्मीद है कि प्रबुद्ध आलोचक इन उदाहरणों को पढ़कर अपनी आपत्तियों पर पुनर्विचार करेंगे और अवश्य किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।
ऋग्वेद के निम्न मंत्र को देखिए-
उक्ष्णो हि मे पंचदश साकं पचन्ति विंशमित्। उताहमद्मि पवि इदुभा कुक्षी पृणन्ति में विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः। (ऋग्वेद, 10-86-14)
भावार्थ- मेरे लिए इंद्राणी द्वारा प्रेरित यज्ञकर्ता लोग 15-20 बैल मार कर पकाते हैं, जिन्हें खाकर मैं मोटा होता हूँ। वे मेरी कुक्षियों को भी सोम रस से भरते हैं।
यजुर्वेद के एक मंत्र में पुरुषमेध का प्राचीन इतिहास इस तरह प्रस्तुत किया गया है।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽ अवध्नन् पुरुषं पशुम। (यजुर्वेद, 31-15)
भावार्थ- इंद्र आदि देवताओं ने पुरुषमेध किया और पुरुष नामक पशु का वध किया।
अथर्ववेद में स्पष्ट ‘शब्दों में पांच प्राणियों को देवता के लिए बलि दिए जाने योग्य कहा है -
तवेमे पंच पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः। (अथर्ववेद, 11-29-2)
भावार्थ- हे पशुपति देवता, तेरे लिए गाय, घोड़ा, पुरुष, बकरी और भेड़ ये पांच पशु नियत हैं।
मनुस्मृति जो स्वामी दयानंद सरस्वती के चिंतन का मुख्य आधार रही है उसमें न केवल मांस भक्षण का उल्लेख और संकेत है, बल्कि मांस भक्षण की स्पष्ट अनुमति दी गई है। मनुस्मृति में मांस भक्षण की अनुमति के साथ मांस भक्षण की उपयोगिता और महत्व भी बताया गया है।
यज्ञे वधोऽवधः। (मनुस्मृति, 5:39)
भावार्थ - यज्ञ में किया गया वध, वध नहीं होता।
एष्वर्थेषु पशून्हिसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः।
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम्।। (मनुस्मृति, 5:42)
भावार्थ - वेद-कर्मज्ञ द्विज यज्ञ-कर्म में पशु वध करता है तो वह पशु-सहित उत्तम गति को प्राप्त करता है।
उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोऽव्यजमृगा भक्ष्याः। (मनुस्मृति, 5:18)
भावार्थ- ऊंट को छोड़कर एक ओर दांतवालों में गाय, भेड़, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य हैं।
मासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।
अष्टावैणेस्यमांसेन रौरवेण नवैव तु।।
(मनुस्मृति, 3:270)
भावार्थ- बकरे, चित्रमृग, भेड़ व रूरूमृग के मांस से क्रमशः सात, आठ और नौ महीने तक मानव-पितर तृप्त- संतुष्ट रहते हैं।
महाभारत में मांसाहार के बारे लिखा हुआ है।
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्येत।
(अनुशासन पर्व, 88-5)
भावार्थ- गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना। महाभारत, वन पर्व में आता है।
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज,
द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा,
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा,
समांसं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः,
अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम, (वनपर्व 208-8,10)
भावार्थ- राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे। प्रतिदिन दो हजार गाय जाती थी। मांस सहित अन्न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई।
उक्त से कमअक़्ल व्यक्ति भी समझ सकता है कि महाभारत काल में गोवध और गोमांस भक्षण सराहनीय कार्य था ना कि निंदनीय।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी मांस भक्षण का स्पष्ट उल्लेख है, निम्न श्लोक देखिए।
जब भरत सेना सहित भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाते हैं तो भरद्वाज मुनि के आश्रम में भरत का सेना सहित मृग, मोर और मुर्गों के मांस से स्वागत सत्कार होता है।
वाप्यो मैरेयपूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृताः।
प्रतप्तपिठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटैः।।
(अयोध्या कांड, 91-70)
भावार्थ- भरत की सेना में आये हुए निषाद आदि निम्न वर्गों के लोगों की तृप्ति के लिए वहां मधु से भरी हुई बावड़ियां प्रकट हो गई थी तथा उनके तटोंपर तपे हुए पिठर (कुण्ड) में पकाये हुए मृग, मोर और मुर्गाें के स्वच्छ मांस भी ढेर के ढेर रख दिये गये थे।
जब रावण सीता के हरण की नीयत से साधु का वेष बनाकर वन में सीता के पास जाता है तो सीता अपना परिचय देते हुए रावण से राम के विषय में बतलाती है-
रुरून् गोधान् वराहांश्च हत्वाऽ ऽदायामिषं बहु।।
स त्वं नाम च गोत्रं च कुलमाचक्ष्व तत्त्वतः।।
एकश्च दण्डकारण्ये किमर्थ चरसि द्विज।।
(अरण्यकांड, 47-23, 24)
भावार्थ- ‘रुरू, गोह और जंगली सूअर आदि हिंसक पशुओं का वध करके तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य बहुत सा फल-मूल लेकर वे अभी आयेंगे। (उस समय आपका विशेष सत्कार होगा)। ब्रहान्! अब आप भी अपने नाम गोत्र और कुल का ठीक-ठीक परिचय दीजिए। आप अकेले इस दण्डकारण्य में किस लिये विचरते हैं ?
श्री राम जब गंगा पार करके समृद्धिशाली वत्स देश (प्रयाग) में पहुंचे तो वहां लक्ष्मण सहित दोनों भाइयों ने चार महामृगों का शिकार किया।
तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।
(अयोध्याकांड, 52-102)
भावार्थ- वहां उन दोनों भाइयों ने मृगया विनोद के लिए वराह, ऋश्य, पृषत् और महारुरु- इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कंद-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिए (सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये।
जो लोग कहते हैं कि हिंदू धर्म ग्रंथों में पशुबलि, जीव हत्या और गोमांस भक्षण का कहीं कोई उल्लेख नहीं है वे लोग अपने धर्मग्रंथों से क़तई अनभिज्ञ हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्य मांस प्रेमी थे, यज्ञों में पशु बलि को वे बहुत अधिक पुण्य का कार्य समझते थे।
फिर प्रश्न बनता है की, ब्राह्मण मांसाहारी से शाकाहारी क्यों और कैसे बने?
एक समय था जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकाण्ड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध ना होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को ना बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था।
तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई का़नून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय 5 में खान- पान के विषय में श्लोक मिलते हैं।
“बिना जीव को कष्ट पहुँचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता तो मनुष्य को चाहिये कि मांसाहार छोड़ दे।” (5:48)
क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाय? ऐसा मानने में एक परेशानी है इसलिए की मनुस्मृति में ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि वेद, मनुस्मृति, रामायण और महाभारत में सैकड़ो श्लोक है कि मांसाहार कैसे किया जाय। उदाहरण स्वरूप-
यज्ञे वधोऽवधः। (मनुस्मृति, 5:39)
भावार्थ - यज्ञ में किया गया वध, वध नहीं होता।
इससे स्पष्ट है कि मनु ने मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया। मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं:
(1) महापातक: ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं। और
(2) उपपातक: परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, माँ, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।
स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और वह तभी निन्दनीय था जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो।
तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक उत्तर नहीं है, क्योंकि अगर ऐसा है भी तो यह आचरण सिर्फ़ गो तक सीमित क्यों सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?
ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी ना रहकर गो पूजक बन गए। इस रहस्य का मूल बौद्ध- ब्राह्मण संघर्ष में छिपा हुआ है। उन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग 400 साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।
एक समय था जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए जो पहले किसी ने नहीं किए। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व ना दरबार में रहा ना जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।
इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनायें और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जायें। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरु किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्होने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाए। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिन्दू धर्म में कोई स्थान ना था पहली बार हिन्दू धर्म उनके लिए स्थान बना।
गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे, एक तो यहाँ की जनता कृषि प्रधान थे और दूसरे गाय बहुत उपयोगी जानवर था। और इसी वजह से ब्राह्मण गोघातक ठहराए जाने के कारण लोगो के घृणा के पात्र बन गए थे।
गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारी बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गए। यह एक कुटिल चाल थी क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे। यानी ऐसे पशु को जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा ना हो, सुना ना हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे। ऐसे पशु का जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।
तो इस प्रकार के शुद्ध किए हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यक्ता थी। थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचण्ड से पराजित करने की नीति है। यही वह युद्ध नीति है जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।
हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओ पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।
अतः यह सत्य है कि मांस भक्षण विज्ञान सम्मत तो है ही, धर्मशास्त्र सम्मत भी है। अगर हम अंधविश्वास और रुढ़िवादिता को छोड़कर उक्त वैज्ञानिक सत्य को स्वीकार कर लें तो ऐसा करने से हमारी कौन सी नाक कट जाएगी? एक वैज्ञानिक सत्य को अपनाने से हम कौन सा असभ्य और अनैतिक साबित हो जाएंगे? एक वैज्ञानिक सत्य को मानने से हम कौन सा कमजोर और बुद्धिहीन समझे जाएंगे?
Posted 11th August 2016 by Mohammad Ibraheem
Labels: पवित्र गाय: मिथक और तथ्य