Nag Anurak Eshin Divijata

Nag Anurak Eshin Divijata Information about buddhism and its people traditions

अवलोकितेश्वर बोधिसत्व कौन हैं?अवलोकितेश्वर बोधिसत्व करुणा के आदर्श माने जाते हैं। वे सभी प्राणियों की पीड़ा देखकर करुणा ...
13/09/2025

अवलोकितेश्वर बोधिसत्व कौन हैं?

अवलोकितेश्वर बोधिसत्व करुणा के आदर्श माने जाते हैं। वे सभी प्राणियों की पीड़ा देखकर करुणा से प्रेरित होते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। महायान बौद्ध परंपरा में अवलोकितेश्वर का अत्यंत आदर किया जाता है। उन्हें “लोक का रक्षक”, “करुणा का अवतार” और “सभी दुखियों के संरक्षक” के रूप में पूजा जाता है। बाद में वे तिब्बत, चीन, जापान, नेपाल, भारत आदि देशों में करुणा का प्रतीक बन गए।

अवलोकितेश्वर की पहली मूर्ति कब बनी?

ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार:

अवलोकितेश्वर की मूर्तियों का विकास प्रारंभिक महायान काल (लगभग 3री से 5वीं शताब्दी ईस्वी) में हुआ।

सबसे प्राचीन अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएँ गांधार (आज का पाकिस्तान-अफगानिस्तान क्षेत्र) और मथुरा क्षेत्र में मिलने का उल्लेख है।

कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार कुषाण काल (2री – 3री शताब्दी ईस्वी) में अवलोकितेश्वर की आद्य मूर्तियाँ बननी शुरू हुईं।

प्रारंभ में उन्हें पद्मधारी रूप में, करुणामय मुद्रा में दर्शाया गया। बाद में उनका स्वरूप बहु-मुखी और सहस्र भुजाओं वाला भी बना।

सबसे पहले किसने बनाई?

अवलोकितेश्वर का स्वरूप महायान बौद्धों द्वारा विकसित किया गया।

यह किसी एक कलाकार या शासक द्वारा निर्मित नहीं बल्कि बौद्ध मठों, संघों और क्षेत्रीय शिल्प परंपराओं द्वारा धीरे-धीरे विकसित हुआ।

गांधार क्षेत्र में ग्रीको-बौद्ध शैली के प्रभाव से अवलोकितेश्वर की मूर्तियाँ बनीं। यहाँ यूनानी शैली की नक्काशी, वस्त्रों की सिलवटें और मानवीय भावों का सुंदर चित्रण मिलता है।

मथुरा में भारतीय शैली में उन्हें आध्यात्मिक शांति और करुणा के प्रतीक रूप में उकेरा गया।

बाद में गुप्त काल (4थी–6ठी शताब्दी ई.) में अवलोकितेश्वर की पूजा और मूर्ति निर्माण व्यापक रूप से फैला।

इसलिए कहा जाता है कि अवलोकितेश्वर की पहली मूर्तियाँ महायान परंपरा के बौद्ध संघों द्वारा 3री से 5वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गांधार और मथुरा क्षेत्र में विकसित हुईं।

मूर्ति निर्माण के पीछे प्रेरणा

करुणा और लोकहित का आदर्श

महायान बौद्ध धर्म का विस्तार

ध्यान और साधना में सहायक प्रतीक

भक्तों के लिए करुणा का मूर्त रूप

लोकपालन और रक्षा का आश्वासन

ध्यान देने योग्य बातें

अवलोकितेश्वर को विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना गया

भारत: अवलोकितेश्वर / पद्मपाणि

तिब्बत: चेन्रेज़िग

चीन: गुआन यिन

जापान: कान्नोन

उनकी मूर्तियाँ कालानुसार विकसित हुईं — प्रारंभ में सरल रूप, बाद में बहु-बाहु और बहु-मुखी रूप।

करुणा का संदेश ही उनकी पूजा का आधार रहा।

अवलोकितेश्वर बोधिसत्व की मूर्तियाँ महायान बौद्ध धर्म के विकास के साथ 3री से 5वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गांधार और मथुरा क्षेत्र में विकसित हुईं। इन्हें किसी एक शासक या कलाकार ने नहीं बल्कि बौद्ध संघों और शिल्प परंपराओं ने मिलकर निर्मित किया। करुणा के आदर्श के रूप में यह प्रतीक आज भी बौद्ध साधना, ध्यान और पूजा का केंद्र है। उनकी छवि सभी प्राणियों की पीड़ा समझने वाले, करुणा से प्रेरित लोक रक्षक की है।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

प्रजापति गौतमी और भिक्षुणी संघ की स्थापनाप्रजापति गौतमी, जो बुद्ध की पालक माता थीं, ने करुणा, श्रद्धा और आध्यात्मिक उत्क...
13/09/2025

प्रजापति गौतमी और भिक्षुणी संघ की स्थापना

प्रजापति गौतमी, जो बुद्ध की पालक माता थीं, ने करुणा, श्रद्धा और आध्यात्मिक उत्कंठा से प्रेरित होकर महिलाओं के लिए भी धर्म साधना का मार्ग खुला हो, इस हेतु प्रयास किया। प्रारंभ में बुद्ध ने महिलाओं को संघ में प्रवेश देने में संकोच किया, परंतु अंततः महाकश्यप जैसे वरिष्ठ भिक्षुओं की मध्यस्थता और अनुग्रह से भिक्षुणी संघ की स्थापना की अनुमति दी।

इसके बाद गौतमी सहित 500 शाक्य कुल की महिलाएँ, जिन्होंने सांसारिक जीवन त्याग कर धर्म मार्ग अपनाया, संघ में प्रवेश कर साधना जीवन प्रारंभ किया।

उन्होंने आभार कैसे व्यक्त किया?

धम्म ग्रंथों और परंपराओं में उल्लेख मिलता है कि प्रजापति गौतमी और अन्य शाक्य स्त्रियों ने बुद्ध के प्रति अपना आभार निम्न तरीकों से व्यक्त किया:

1. श्रद्धा और वंदना से

उन्होंने बुद्ध के प्रति गहरी श्रद्धा व्यक्त की। वे उनके चरणों में वंदना कर उन्हें “तथागत” और “धर्म के प्रकाशक” के रूप में प्रणाम करती थीं। यह वंदना केवल औपचारिक नहीं, बल्कि हृदय से निकली थी।

2. धर्म का पालन कर

सबसे बड़ा आभार यह था कि उन्होंने संघ के नियमों का पालन किया — शील, ध्यान, करुणा, सेवा और संयम को जीवन का आधार बनाया। उन्होंने सिद्ध किया कि वे आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सक्षम हैं।

3. धर्म प्रचार में सहयोग कर

उन्होंने अन्य महिलाओं को प्रेरित किया कि वे भी धर्म साधना करें, ध्यान करें और जीवन में नैतिकता अपनाएँ। इस प्रकार उन्होंने धर्म के प्रचार का कार्य किया।

4. समानता और आत्मबल का उदाहरण बनकर

उन्होंने दिखाया कि महिलाओं के लिए भी निर्वाण का मार्ग खुला है। यह स्वयं में बुद्ध के प्रति आभार व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम था — कि उन्होंने महिलाओं को भी साधना का अवसर दिया।

5. थेरिगाथा में आत्मानुभव साझा कर

कुछ परंपराओं में कहा गया कि भिक्षुणियों ने अपने अनुभव गाथाओं में साझा किए, जिससे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिली। यह भी बुद्ध के प्रति कृतज्ञता का रूप था — कि उन्होंने धर्म का द्वार सबके लिए खोला।

तथागत बुद्ध का उनके प्रति दृष्टिकोण

तथागत बुद्ध ने उन्हें संघ में प्रवेश देकर उनके आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मुक्ति किसी लिंग पर निर्भर नहीं, बल्कि साधना, शील और प्रज्ञा पर आधारित है।

प्रजापति गौतमी और अन्य महिलाओं को ध्यान, शील और निर्वाण की साधना में सहयोग दिया।

आभार का आध्यात्मिक स्वरूप

प्रजापति गौतमी और अन्य शाक्य स्त्रियों का आभार केवल शब्दों में नहीं था। उन्होंने यह दिखाया कि:

आभार सेवा में व्यक्त होता है

आभार साधना में व्यक्त होता है

आभार करुणा और समता में व्यक्त होता है

आभार अनुशासन और संयम में व्यक्त होता है

आभार यह स्वीकार करने में है कि धर्म का प्रकाश सबके लिए है

प्रजापति गौतमी और 500 शाक्य स्त्रियों ने भिक्षुणी संघ में प्रवेश कर तथागत बुद्ध के प्रति अपना आभार हृदय की गहराई से व्यक्त किया। उन्होंने श्रद्धा से वंदना की, धर्म का पालन किया, आत्मबल का उदाहरण प्रस्तुत किया, अन्य महिलाओं को प्रेरित किया और साधना में अपने जीवन को समर्पित कर दिखाया कि मुक्ति सबके लिए संभव है। यह घटना बौद्ध धर्म के इतिहास में नारी आध्यात्मिकता की महान उपलब्धि है और बुद्ध की करुणा व समता का जीवंत उदाहरण भी।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

तथागत बुद्ध द्वारा यशोधरा को दिए गए निर्देशग्रंथों के अनुसार जब यशोधरा संघ में आईं तो उन्हें निम्न शिक्षाएँ दी गईं:1. अन...
13/09/2025

तथागत बुद्ध द्वारा यशोधरा को दिए गए निर्देश

ग्रंथों के अनुसार जब यशोधरा संघ में आईं तो उन्हें निम्न शिक्षाएँ दी गईं:

1. अनासक्ति का मार्ग अपनाना

बुद्ध ने कहा कि संसार में जो भी संबंध हैं, वे अनित्य हैं। इसलिए मोह, आसक्ति और कामना से मुक्त होकर साधना में मन लगाना आवश्यक है।

2. शील (नैतिक अनुशासन) का पालन

उन्हें पाँच शीलों का पालन करने को कहा गया:

प्राणी हत्या से दूर रहना

असत्य वचन से बचना

चोरी से दूर रहना

काम, मोह और आसक्ति से बचना

नशा और भ्रम से दूर रहना

3. ध्यान और समता का अभ्यास

ध्यान के द्वारा मन को स्थिर करना, समता और मैत्री विकसित करना, दुखों को समझकर उनसे ऊपर उठना — ये साधना के मुख्य आधार बताए गए।

4. स्वाध्याय और प्रज्ञा

धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना, आत्मचिंतन करना, और अनुभव से ज्ञान अर्जित करना आवश्यक बताया गया। बुद्ध ने उन्हें केवल बाहरी पूजा नहीं, बल्कि आत्म जागृति का मार्ग अपनाने को कहा।

5. धैर्य और करुणा

बुद्ध ने यशोधरा को धैर्य रखने, विपरीत परिस्थितियों में भी शांत बने रहने, तथा सबके प्रति करुणा विकसित करने का उपदेश दिया।

6. निर्वाण की दिशा

उन्हें बताया गया कि जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति केवल तब संभव है जब मन को शुद्ध किया जाए, आसक्ति और अहंकार से मुक्त होकर शील और ध्यान के माध्यम से निर्वाण का लक्ष्य साधा जाए।

ग्रंथों में उल्लेख

थेरिगाथा – यह बौद्ध ग्रंथ है जिसमें महाथेरियों (वरिष्ठ भिक्षुणियों) की जीवन कथाएँ और उनके अनुभवों को पद्य रूप में लिखा गया है। यशोधरा सहित कई भिक्षुणियों ने अपने आत्मानुभव साझा किए हैं।

विनय पिटक – संघ में प्रवेश के नियम, शील पालन और साधना का निर्देश।

महापरिनिर्वाण सुत्त – जहाँ बुद्ध ने संघ में अनुशासन और साधना का महत्व बताया।

परंपरा में बताया गया कि यशोधरा ने ध्यान, शील और करुणा का पालन करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त किया और श्रेष्ठ भिक्षुणियों में गिनी गईं।

यशोधरा का आदर्श

उन्होंने परिवार, वैभव और व्यक्तिगत सुख त्यागकर आत्मज्ञान का मार्ग अपनाया।

वे साधना में समर्पित रहीं और संघ में अनुशासन का पालन किया।

वे बौद्ध धर्म में महिलाओं के लिए प्रेरणा बनीं — यह सिद्ध कर कि ज्ञान, मुक्ति और निर्वाण सबके लिए संभव है।

उनका जीवन बताता है कि दुखों का सामना कर भी करुणा, शील और ध्यान के माध्यम से आत्मशुद्धि प्राप्त की जा सकती है।

तथागत बुद्ध ने महाथेरी यशोधरा को संघ में प्रवेश करते समय सांसारिक मोह से मुक्त होकर शील, ध्यान, प्रज्ञा, धैर्य और करुणा का मार्ग अपनाने का निर्देश दिया। उन्हें बताया कि जीवन अनित्य है, इसलिए आसक्ति छोड़कर आत्म जागरण का मार्ग अपनाना चाहिए। उनके साधना जीवन ने महिलाओं को यह प्रेरणा दी कि धर्म का मार्ग सबके लिए खुला है और निर्वाण की प्राप्ति संभव है। थेरिगाथा में उनके अनुभवों का उल्लेख मिलता है, जो आज भी साधकों के लिए प्रकाश स्रोत हैं।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

तथागत बुद्ध ने चलायमान जीवन और अल्प निवास का निर्देश क्यों दिया?तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों — भिक्षु और भिक्षुणियों — को...
13/09/2025

तथागत बुद्ध ने चलायमान जीवन और अल्प निवास का निर्देश क्यों दिया?

तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों — भिक्षु और भिक्षुणियों — को चलते रहने, संग्रह न करने, और एक ही स्थान पर तीन दिन से अधिक न रुकने की शिक्षा दी। इसके पीछे कई गहरे आध्यात्मिक, व्यावहारिक और नैतिक कारण हैं:

1. अनासक्ति ( निर्लिप्तता)

धम्म का उद्देश्य है कि साधक बाहरी चीजों, सुख-सुविधाओं या लोगों के मोह में न बंधे। यदि वे एक जगह रुकते हैं तो वहाँ आसक्ति, सुविधा की चाह, संबंधों का आकर्षण या अधिकार की भावना विकसित हो सकती है। चलायमान जीवन साधक को निरंतर जागरूक और निर्लिप्त बनाए रखता है।

2. अहंकार और पहचान से बचाव

लोग किसी स्थान पर रुके साधु को देखकर उसकी प्रशंसा, सेवा या सम्मान कर सकते हैं। इससे अहंकार उत्पन्न हो सकता है। बुद्ध चाहते थे कि भिक्षु समाज में रहकर सेवा करें, परंतु व्यक्तिगत गौरव की चाह से बचें।

3. आलस्य से बचाव

स्थिर जीवन साधक को आरामप्रिय और आलसी बना सकता है। निरंतर चलना शरीर और मन दोनों को सजग रखता है। साधना तभी जीवंत रहती है जब साधक प्रयासरत और सक्रिय रहे।

4. धर्म का प्रसार

चलते रहने से धर्म का संदेश दूर-दूर तक पहुँचता है। भिक्षु और भिक्षुणियाँ विभिन्न गाँवों, नगरों और समाज में जाकर लोगों को धर्म का मार्ग दिखा सकते हैं। स्थिर रहने से यह सेवा सीमित हो जाती।

5. संघ की शुद्धि और अनुशासन

जब साधक एक स्थान पर अधिक समय बिताते हैं तो विवाद, मतभेद या व्यक्तिगत स्वार्थ उभर सकते हैं। अल्प निवास से समुदाय शुद्ध रहता है, साधना पर ध्यान केंद्रित रहता है।

6. संसार की अस्थिरता का बोध

एक स्थान पर टिके रहने से मन स्थिर होकर भौतिक सुखों से जुड़ सकता है। जबकि चलायमान जीवन साधक को निरंतर यह स्मरण कराता है कि संसार अस्थिर है, सब कुछ क्षणिक है।

7. समाज सेवा का संतुलन

साधक कहीं जाकर सेवा करें, फिर आगे बढ़ें। यह संतुलन बनाए रखता है ताकि कोई स्थान उन पर निर्भर न हो और साधक भी अपने जीवन में संतुलन रखे।

एक ही स्थान पर तीन दिन से अधिक न रुकने का कारण

धम्म ग्रंथों में कहा गया है कि:

यदि कोई भिक्षु किसी स्थान पर तीन दिन से अधिक टिकता है तो लोग उस पर निर्भर हो सकते हैं।

उसकी साधना में विघ्न पड़ सकता है और वह सांसारिक सुखों में उलझ सकता है।

उसके प्रति मोह, आदर या स्वार्थ विकसित हो सकता है।

चलायमान जीवन साधक को आत्मसंयम और ध्यान में स्थिर रखता है।

इस नियम का उद्देश्य है — ध्यान में स्थिरता, मन की शुद्धता, अनासक्ति, सेवा का विस्तार और अहंकार से बचाव।

ग्रंथों में उल्लेख

विनय पिटक – भिक्षु और भिक्षुणियों के आचार-संहिता में स्पष्ट कहा गया है कि उन्हें घूमते रहना चाहिए और एक स्थान पर अधिक समय न बिताना चाहिए।

धम्मपद – आसक्ति, अहंकार और लोभ से दूर रहने की शिक्षा दी गई है।

महावग्ग – संघ की शुद्धि और अनुशासन के लिए चलायमान जीवन का निर्देश है।

बुद्ध के उपदेश – अनासक्ति, संयम, सेवा और ध्यान को साधना का मूल बताया गया है।

बुद्ध ने भिक्षु और भिक्षुणियों को चलने और तीन दिन से अधिक न रुकने की शिक्षा इसलिए दी ताकि वे:

अनासक्ति और निर्लिप्तता का अभ्यास करें,

अहंकार और आलस्य से बचें

धर्म का प्रचार दूर-दूर तक करें,

समाज की सेवा करें,

मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता बनाए रखें,

और संसार की क्षणभंगुरता का बोध रखें।

यह शिक्षा साधना का आधार है, जिससे साधक अपने भीतर स्थिर रहते हैं और बाहर करुणा व सेवा का प्रकाश फैलाते हैं। चलायमान जीवन ही धम्म का जीवंत स्वरूप है।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

धम्म चक्र – बुद्ध का महान प्रतीकधम्म चक्र (धर्म चक्र ) बौद्ध धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह बुद्ध के उपदेशों, ध...
13/09/2025

धम्म चक्र – बुद्ध का महान प्रतीक

धम्म चक्र (धर्म चक्र ) बौद्ध धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीक है। यह बुद्ध के उपदेशों, धर्म के प्रवाह और आत्म-जागरण का प्रतीक माना जाता है। इसे बुद्ध द्वारा दिए गए पहले उपदेश से जोड़ा जाता है, जिसे धम्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है — अर्थात “धर्म के चक्र को चलाना” या “धर्म का पहिया प्रारंभ करना”।

धम्म चक्र प्रवर्तन की कथा

तथागत बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति (सम्बोधि) के बाद यह निर्णय किया कि वे संसार को दुःख से मुक्त करने का उपाय बताएँगे। उन्होंने सबसे पहले ऋषिपत्तन मृगदाव (सारनाथ) में अपने पाँच पूर्व साथियों को धर्म का उपदेश दिया। यही पहला अवसर था जब उन्होंने:

चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्यसच्चानि)

अष्टांगिक मार्ग (आरिय अट्ठंगिक मग्ग)

का उपदेश दिया। इस क्षण को “धम्मचक्र प्रवर्तन” कहा गया — अर्थात धर्म का चक्र चल पड़ा, जो अब संसार में घूमेगा और लोगों को दुःख से मुक्ति का मार्ग दिखाएगा।

धम्म चक्र का प्रतीकात्मक अर्थ

1. धर्म का निरंतर प्रवाह
चक्र का घूमना बताता है कि धर्म स्थिर नहीं है, बल्कि सतत चलता रहता है। इसका उद्देश्य है कि लोग इसे समझें, अपनाएँ और जीवन में लागू करें।

2. सम्यक दृष्टि और सम्यक आचरण की दिशा
चक्र का केंद्र आत्मा की जागृति है और इसकी परिधि धर्म की शिक्षाएँ हैं, जिन्हें अपनाकर व्यक्ति जीवन में संतुलन और शांति प्राप्त कर सकता है।

3. संसार से निर्वाण की यात्रा
चक्र दुःख, उसके कारण, उसके निरोध और मार्ग की व्याख्या करता है — जो चार आर्य सत्य का सार है।

4. धर्म का सार्वभौमिक संदेश
चक्र यह दर्शाता है कि धर्म किसी एक देश, जाति या समय तक सीमित नहीं है। यह सभी प्राणियों के लिए कल्याणकारी है।

धम्म चक्र का रूप

धम्म चक्र प्रायः निम्नलिखित विशेषताओं के साथ दर्शाया जाता है:

आठ तीलियाँ – अष्टांगिक मार्ग का प्रतीक

मध्य का गोल भाग – सम्यक दृष्टि और ध्यान का केंद्र

बाहर का वृत्त – संसार की विविधता और धर्म का विस्तार

कभी-कभी दो मृग – सारनाथ मृगदाव की याद दिलाते हैं

भारत का राष्ट्रीय ध्वज भी धम्म चक्र से प्रेरित है। अशोक स्तंभ के शीर्ष पर भी धम्म चक्र अंकित है।

ग्रंथों में धम्म चक्र

धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त बुद्ध का पहला उपदेश, जिसमें उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग बताया।

अंगुत्तर निकाय – धर्म के नियमों और साधना के मार्ग का उल्लेख।

महावस्तु – धम्म चक्र प्रवर्तन की कथा का विस्तार।

बौद्ध कला और स्थापत्य में – धम्म चक्र धर्म का सबसे प्रख्यात चिह्न बन गया।

धम्म चक्र का जीवन में महत्व

यह हमें दुःख को पहचानने और उससे मुक्त होने का मार्ग देता है।

यह धर्म को स्थायी, सार्वभौमिक और आत्मानुभूति से जुड़ा बताता है।

यह प्रतीक आत्म-जागृति, नैतिक जीवन और करुणा का संदेश देता है।

यह बताता है कि धर्म का पालन केवल व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक
कल्याण से जुड़ा है।

यह चेतना देता है कि जीवन में संतुलन, संयम और ध्यान आवश्यक हैं।

धम्म चक्र बुद्ध के उपदेशों का सार है। यह धर्म के प्रवाह का प्रतीक है, जो संसार में दुःख से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। धम्मचक्र प्रवर्तन बुद्ध का पहला धर्म उपदेश था, जिसने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का प्रकाश किया। आज भी यह चक्र धर्म की निरंतरता, आत्म जागरण, करुणा और समता का प्रतीक है। सम्राट अशोक ने इसे अपने शासन का आदर्श बनाया और इसे जनकल्याण का प्रतीक घोषित किया। इसलिए धम्म चक्र बौद्ध धर्म का हृदय माना जाता है।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

कलिंग विजय से धम्म यात्रा तक – सम्राट अशोक की चित्त परिवर्तन की कथासम्राट अशोक का जीवन एक महान परिवर्तन की कहानी है। प्र...
13/09/2025

कलिंग विजय से धम्म यात्रा तक – सम्राट अशोक की चित्त परिवर्तन की कथा

सम्राट अशोक का जीवन एक महान परिवर्तन की कहानी है। प्रारंभ में वे एक शक्तिशाली सम्राट थे, जो विजय और विस्तार की नीति पर चलते थे। परंतु उनकी सबसे बड़ी युद्ध यात्रा — कलिंग युद्ध — ने उनके भीतर गहरा आत्ममंथन उत्पन्न किया। यही युद्ध आगे चलकर उनकी पूरी जीवन यात्रा को बदलकर धम्म यात्रा में परिवर्तित कर गया।

कलिंग युद्ध की त्रासदी

कलिंग (आधुनिक ओडिशा) स्वतंत्र और समृद्ध क्षेत्र था। इसे अपने साम्राज्य में शामिल करने के लिए अशोक ने एक भयानक युद्ध छेड़ा। शिलालेखों के अनुसार इस युद्ध में:

लाखों लोग मारे गए

लाखों लोग घायल हुए या विस्थापित हुए

परिवार उजड़ गए, करुणा और मानवीय पीड़ा का असीम दृश्य सामने आया

युद्ध के बाद जब सम्राट अशोक रणभूमि में घूमे, तब उन्होंने मृतकों के शरीर, रोते बच्चों, विधवाओं और पीड़ितों को देखा। उनके भीतर गहरा अपराधबोध उत्पन्न हुआ। शक्ति और विजय की लालसा क्षण भर में निरर्थक लगने लगी। यह अनुभव उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बन गया।

धम्म की ओर प्रवृत्ति

कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने यह निश्चय किया कि अब वे विजय के लिए युद्ध नहीं करेंगे। उन्होंने अपने हृदय में करुणा, अहिंसा, सेवा और धर्म की भावना को स्थान दिया। उन्होंने कहा:

“अब मेरी विजय युद्ध से नहीं, बल्कि धर्म से होगी।”

“धम्म ही सच्ची विजय है।”

“प्रजा की सेवा, अहिंसा, दया और शील ही जीवन का मार्ग है।”

यहीं से शुरू हुई उनकी धम्म यात्रा — एक ऐसी यात्रा जिसमें वे अपने राज्य, परिवार और समाज के कल्याण के लिए धर्म का प्रचार करने लगे।

धम्म यात्रा के प्रमुख पहलू

1. युद्ध से सेवा की ओर
उन्होंने युद्ध छोड़कर जनता की सेवा, अस्पताल, वृक्षारोपण, जलाशय निर्माण आदि कार्य किए।

2. धर्म प्रचार
अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को धर्म प्रचार के लिए भेजा। श्रीलंका, मध्य एशिया, नेपाल, अफगानिस्तान आदि देशों में धर्म का प्रचार हुआ।

3. धर्म लेख
उन्होंने शिलालेखों और स्तंभों पर करुणा, शील, सत्य, सहिष्णुता और धर्म पालन का संदेश अंकित कराया ताकि प्रजा और आने वाली पीढ़ियाँ इन्हें स्मरण करें।

4. धार्मिक सहिष्णुता
उन्होंने कहा कि सभी मतों का सम्मान किया जाए। वैमनस्य से बचें और धर्म के नाम पर हिंसा न करें।

5. प्रजा कल्याण
उन्होंने प्रशासन को धर्म आधारित नीति पर चलाया — न्याय, दया, गरीबों की सहायता, पशु संरक्षण आदि को बढ़ावा दिया।

ग्रंथों और शिलालेखों में उल्लेख

अशोक के शिलालेख – विशेष रूप से 13वें शिलालेख में कलिंग युद्ध के पश्चात पश्चाताप और धर्म की ओर प्रवृत्ति का वर्णन मिलता है।

धम्म नीति – उसमें अहिंसा, करुणा, माता-पिता की सेवा, प्रजा के हित की चिंता आदि को धर्म का अंग बताया गया।

बौद्ध परंपरा – उन्हें धर्म का प्रचारक और करुणा का प्रतीक माना गया।

इतिहासकारों ने उन्हें एक ऐसे राजा के रूप में बताया जो सत्ता की बजाय धर्म को प्राथमिकता देता था।

धम्म यात्रा का संदेश

सम्राट अशोक की धम्म यात्रा यह दिखाती है कि:

युद्ध और हिंसा का अंत करुणा से किया जा सकता है।

सच्ची विजय आत्मा की शुद्धि में है।

धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि सेवा, दया और नैतिक जीवन का मार्ग है।

एक महान शासक वही है जो प्रजा के हित को सर्वोपरि रखे।

व्यक्तिगत अनुभव (जैसे युद्ध की त्रासदी) जीवन को नया अर्थ दे सकता है।

कलिंग युद्ध ने सम्राट अशोक को भीतर तक झकझोर दिया। विजय की लालसा से उत्पन्न गर्व करुणा में बदल गया। उन्होंने युद्ध छोड़कर धर्म का मार्ग अपनाया और पूरे भारत तथा विदेशों में धर्म, सेवा और करुणा का प्रचार किया। यही कारण है कि वे केवल सम्राट नहीं, बल्कि धम्म राज कहलाए — एक ऐसा नेता जिसने शक्ति को त्याग कर करुणा को अपना सर्वोच्च मूल्य बनाया और धर्म की रक्षा और प्रसार को अपना जीवन ध्येय बनाया।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

सम्राट अशोक को धम्म राज क्यों कहा गया?सम्राट अशोक मौर्य भारत के महान सम्राटों में से एक थे। कलिंग युद्ध के बाद उन्हें अह...
13/09/2025

सम्राट अशोक को धम्म राज क्यों कहा गया?

सम्राट अशोक मौर्य भारत के महान सम्राटों में से एक थे। कलिंग युद्ध के बाद उन्हें अहिंसा, करुणा, समता और धर्म की महानता का बोध हुआ। इसके बाद उन्होंने शासन की दिशा बदल दी और अपने साम्राज्य में धर्म, शील, करुणा, न्याय और सेवा को बढ़ावा दिया। उन्होंने बौद्ध धम्म को अपनाया और उसे समाज में फैलाने का कार्य किया। उनके शासन का उद्देश्य केवल सत्ता नहीं बल्कि प्रजा का कल्याण और धर्म की रक्षा था। इसलिए उन्हें धम्म राज कहा गया – यानी ऐसा राजा जो स्वयं धर्म का पालन करता है, दूसरों को धर्म का मार्ग दिखाता है, प्रजा के हित की चिंता करता है, अहिंसा का प्रचार करता है और समता पर आधारित शासन चलाता है।

धम्म राज के गुण – बौद्ध धम्म में वर्णित

प्राचीन ग्रंथों और बुद्ध के उपदेशों में ऐसे आदर्श राजा के लिए निम्न गुण बताए गए हैं:

1. अहिंसा ( अक्रोध)

धम्म राज युद्ध और हिंसा से बचता है। वह प्रजा की रक्षा करता है और संघर्ष को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाता है। सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद यही मार्ग अपनाया।

2. करुणा

धम्म राज प्रजा की पीड़ा को समझता है। वह गरीब, बीमार, वृद्ध, अनाथ, जानवर – सभी की सेवा करता है। अशोक ने चिकित्सालय, जलाशय, वृक्षारोपण आदि कार्य कर जनहित का कार्य किया।

3. धम्म का प्रचार

धम्म राज धर्म का शिक्षण देता है। धर्म का उद्देश्य केवल पूजा नहीं बल्कि नैतिक जीवन, सत्य, संयम और सदाचार है। अशोक ने स्तंभों और शिलालेखों के माध्यम से धर्म का संदेश फैलाया।

4. समता ( सबके लिए न्याय)

धम्म राज जाति, वर्ग, मत या जन्म का भेद नहीं करता। सभी प्राणियों के प्रति समान करुणा और सेवा भाव रखता है।

5. शील और सदाचार

धम्म राज स्वयं संयमित जीवन जीता है। वह नशा, लोभ, क्रोध और कपट से दूर रहता है। बौद्ध ग्रंथों में बताया गया है कि शील का पालन करने वाला ही धर्म का आदर्श अनुयायी है।

6. धैर्य और क्षमा

धम्म राज प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं करता, बल्कि धैर्य रखता है और क्षमा का मार्ग अपनाता है।

7. प्रजा हित और सेवा

धम्म राज का लक्ष्य केवल राजकोष की वृद्धि नहीं, बल्कि लोगों का मानसिक, शारीरिक और सामाजिक कल्याण होता है।

ग्रंथों में धम्म राज की चर्चा

1. धम्मपद में बुद्ध ने कहा है कि जो व्यक्ति शील, करुणा और समता का पालन करता है, वही श्रेष्ठ है। यही गुण राजा में भी होने चाहिए।

2. सुत्तनिपात में बताया गया है कि शासक का कर्तव्य है कि वह धर्म का पालन कर प्रजा की रक्षा करे।

3. अंगुत्तर निकाय में धर्म आधारित शासन को सर्वोत्तम कहा गया है।

4. अशोक के शिलालेखों (Edicts) में स्पष्ट लिखा है कि उन्होंने धर्म के अनुसार शासन करने का प्रण लिया – पशु हिंसा कम करना, धार्मिक सहिष्णुता, दया और सेवा बढ़ाना।

5. बौद्ध परंपरा में कहा गया है कि धम्म राज स्वयं धर्म का अनुयायी होता है, दूसरों को धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करता है और न्यायप्रिय शासन चलाता है।

सम्राट अशोक – धम्म राज का आदर्श

कलिंग युद्ध के बाद अहिंसा अपनाई

धर्म प्रचार के लिए शिलालेख बनवाए

अस्पताल, कुएँ, वृक्षारोपण जैसे जनहित कार्य किए

सभी मतों का सम्मान किया

नैतिक शासन चलाया

करुणा और सेवा को शासन का आधार बनाया

इसलिए सम्राट अशोक को धम्म राज कहा गया – ऐसा राजा जो सत्ता से ऊपर उठकर धर्म का पालन करे, प्रजा का कल्याण करे और न्याय, करुणा व समता पर आधारित शासन दे।

धम्म राज का अर्थ केवल राजा होना नहीं, बल्कि ऐसा नेतृत्व करना है जो धर्म का पालन करे, करुणा और अहिंसा के आधार पर शासन चलाए, सबके लिए समान व्यवहार करे और समाज में शांति व सेवा का वातावरण बनाए। सम्राट अशोक इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं, जिनकी प्रेरणा आज भी धर्म और मानवता के लिए मार्गदर्शक बनी हुई है।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

13/09/2025

Hi everyone! 🌟 You can support me by sending Stars - they help me earn money to keep making content you love.

Whenever you see the Stars icon, you can send me Stars!

बौद्ध धर्म के चार दिशा रक्षक – लोकपाल देवता बौद्ध परंपरा में धर्म की रक्षा केवल मनुष्यों के भरोसे नहीं छोड़ी गई। तथागत ब...
13/09/2025

बौद्ध धर्म के चार दिशा रक्षक – लोकपाल देवता

बौद्ध परंपरा में धर्म की रक्षा केवल मनुष्यों के भरोसे नहीं छोड़ी गई। तथागत बुद्ध ने जब सम्यक संबोधि प्राप्त कर धर्म का प्रचार शुरू किया, तब चार दिव्य लोकपालों को धर्म की सेवा में नियुक्त किया। ये चारों दिशाओं – पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर – के रक्षक हैं और साधकों, संघ तथा धर्म की रक्षा करते हैं।

पूर्व दिशा – धृतराष्ट्र
ध्यान के वातावरण को सुरक्षित रखते हैं, मन को विघ्नों से बचाते हैं और धर्म का प्रचार करने में सहायता करते हैं।

दक्षिण दिशा – विरूपाक्ष
नागों और अन्य सूक्ष्म शक्तियों से साधकों की रक्षा करते हैं। ध्यान में एकाग्रता बनाए रखते हैं।

पश्चिम दिशा – विरूद्धक
अधर्म, हिंसा और अशुद्ध विचारों से बचाकर अनुशासन बनाए रखते हैं।

उत्तर दिशा – वैश्रवण / कुबेर
धर्म की स्थिरता और समृद्धि की रक्षा करते हैं, साधकों को आवश्यक संसाधन प्रदान करते हैं।

इन लोकपालों का उल्लेख अंगुत्तर निकाय, महावस्तु, ललितविस्तर जैसे प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। कहा जाता है कि देव और मनुष्य सभी मिलकर धर्म की रक्षा करें, इसलिए ये चारों दिशा रक्षक करुणा, शील, ध्यान और प्रज्ञा के संरक्षक माने जाते हैं। ध्यान, साधना और धर्म पालन के मार्ग में वे आध्यात्मिक सुरक्षा प्रदान करते हैं।

यह संदेश देता है कि धर्म का प्रकाश सभी लोकों के लिए है – मनुष्य हो या देव, सबकी रक्षा का आधार करुणा और जागरूकता ही है।

Nag Anurak Eshin Divijata
Rakeshh Y Gajbhiye
Copyright.

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! Prashanth Kumar, सम्यक मार्ग
08/11/2023

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! Prashanth Kumar, सम्यक मार्ग

27/10/2023

Address

Nagpur

Telephone

+917666442015

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Nag Anurak Eshin Divijata posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Business

Send a message to Nag Anurak Eshin Divijata:

Share