22/06/2025
⬛ बस इतनी सी बात है,
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⬛ एक पिता की पुत्र के नाम पाती, ✍️ ( सी आर बुनकर-बैतूल ( म प्र ),
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" दिल नाउम्मीद मत कर ,थोड़ा नाकाम ही तो है ।
माना कि लम्बी है गम की शाम ,मगर शाम ही तो है ।"
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जिन्दगी के एक एक सफे को पलटते हुए अन्तरमन की गहराइयों से अनुभव किया कि
" पिता होना क्या होता है "
कि " पिता का होना क्या होता है!"
अमीर या गरीब, दुर्बल या सबल, शिक्षित या अशिक्षित पिता होने से कोई फर्क नहीं पड़ता; जिसके पास पिता होता है वह बड़े अभिमान और विश्वास के साथ ऐंठ कर कहता है -"अरे अभी तो बाप जिन्दा है यार! "
इस एक कथन में जाने कितनी शक्ति समाहित है ।
इसलिये साल में एक बार ही सही, पिता को अनुभूत करना भी उनके लिए कृतज्ञता प्रकट करने के लिए पर्याप्त हो सकता है ।
आज मैं, एक पिता
आपसे, अपने पुत्रों से सम्बोधित हूँ ।
" बेटे तुम भी देख रहे हो, समय जिस तरह की चाल चल रहा है, वो ना तुम्हें रास आ रही है और ना ही हमें । नियति समस्त परिपाटियों, साँस्कृतिक विरासतों और नैतिक अनैतिक रूढ़ियों से इतर कुछ विचित्र से परिदृश्य और परिणाम प्रस्तुत कर रही है ।
घर में निरपेक्ष भाव से तुम्हारा चुपचाप आना, चुपचाप जाना; कुछ पूछो तो एक संक्षिप्त सी " हूँ as " बस ।
मैं अत्यंत आहत हो कर कहना चाहता हूँ कि हमारे बीच ' अबोलेपन' की जो जानलेवा नीरवता बढ़ती जा रहीं हैं; आपका पता नहीं लेकिन हमें समूचा तोड़ कर रख देती है ।
यह तो हम भी स्वीकार करते हैं कि आपका यह समय काल का सबसे विकट समय है ।
यहाँ आपकी अपनी परछाई आपसे स्पर्द्धा कर रही है।
ऐसे मुश्किल दौर में कुछ हासिल करना तो दूर अपने आप को साबित करना ही कठिनतम होता जा रहा है ।
एक पिता के रूप में हम आपको विश्वास दिलाना चाहते हैं कि इस मुश्किल घड़ी में आप अकेले नहीं हैं ।
हम पूरी शिद्दत से पूरी संवेदना के साथ आपके साथ खड़े हैं ।
हम कभी भी आपसे अकल्पनीय अपेक्षाएँ नहीं रखते । हमें मालूम है घर से बाहर निकल कर अब तो एक एक साँस के लिए भी अपनी दावेदारी जतानी पड़ती है । मेंढकी को मारने के लिए भी अपने पास तोप का इन्तेजाम दिखाना पड़ता है ।
इन्सानी हवस और मक्कारी चरम पर पहुँच गयी है ।
श्रम का हद दर्जे तक अवमूल्यन हो रहा है ।
संविदा कल्चर ने कुछ जाहिल और अवसरवादियों के हाथ में प्रतिभा को कौड़ियों में खरीदने का हक दे दिया है
अवसरो की बंदरबांट और छीना-झपटी बेशर्मी की हद तक बढ़ गई है ।
और इसमें निम्न और मध्यमवर्गीय आप जैसे लोग तिलमिला कर लुटे पिटे से जब घर वापस आते हो; आपकी यह टूटन देख कर क्या हम नहीं दहल जाते?
ना हम कुछ पूछ पाते हैं ना तुम कुछ बता पाते हो । तुम्हारा चुपचाप सिर गड़ा कर लेट जाना ही बाहर की एक एक ठोकर का पता बता देता है ।
समय बुरा चल रहा है ।
समय बहुत ही बुरा चल रहा है ।
इस वक्त सबसे बुरा वक्त जिन्दगी पर आन पड़ा है । जिन्दगी अकबकाई सी घूम रही है ।
आगे पीछे उसे कोई अपना नज़र नहीं आ रहा है ।
आज अपना सबसे बड़ा और पहला फर्ज यही बन पड़ता है कि; दूसरे की मुमकिन नहीं तो कम से कम अपनी ही जिन्दगी की हम हिफाज़त कर सकें ।
एक बात कहना चाहते हैं--
" दिल नाउम्मीद मत कर ,थोड़ा नाकाम ही तो है ।
माना कि लम्बी है गम की शाम ,मगर शाम ही तो है ।"
ये कोई आपको बहलाने या बरगलाने के लिए फकत फैंसी बात नहीं कही जा रही है ।
" बल्कि यही एक रास्ता है "
" बल्कि इसके सिवा रास्ता भी क्या है?"
वक्त और इन्सान में एक अद्भुत अन्तर्सम्बन्ध है ।
वक्त की यह खूबी है कि वह हर हाल में गुजर जाता है और इन्सान की यह खूबी है कि कितने भी मुश्किल हालात हो वह अपने हिस्से की जिन्दगी जी ही लेता है ।
इसलिये उपरोक्त उद्धृत दो पंक्तियाँ सर्वाधिक मौजू व अनुकरणीय हैं ।
असफलता का आशय यह नहीं निकालना चाहिए कि हम निराश हो कर बैठ जाएँ ।
शाम कितनी भी लम्बी लगे उसे गुजर जाना ही है ।
आज तक कोई भी रात इतनी ताकतवर नहीं रही कि वो सवेरा को रोक सके ।
और फिर बैठ जाना, रुक जाना किसी समस्या का हल नहीं है ।
मनुष्य ने युगों के प्रयास के बाद इस समाज की संरचना की है ।
बर्बर स्वच्छंदता का परित्याग करके परस्पर एक दूसरे पर आश्रित रहने का बंधन स्वेच्छा से स्वीकार किया है । सामाजिक संरचना ही इस प्रकार की हो गई है कि एकाकी जीवन संभव ही नहीं है।
इसलिये इतना तो तय है कि तुम निरुपयोगी हो ही नहीं सकते ।
कोई तो है जिसे तुम्हारी जरूरत है ।
कोई तो ऐसा काम है जिसे सिर्फ तुम कर सकते हो ।अपने भीतर के कौशल की कद्र करते हुए उसे उजागर करो ।
अपनी छोटी से छोटी विशेषताओं को भुनाओ ।
कोई आपकी खासियतों या शख्सियत का बखान करने नहीं आयेगा ।
अपने गुणों की नुमाईश तुम्हें खुद करनी है ।
यह कट थ्रुट कॉम्पिटिशन और सैल्फ मार्केटिंग का जमाना है।
एक ' बड़े ' की उम्मीद में किसी ' छोटे ' की अवहेलना मत करो ।
एक तसव्वुर करते हैं, मान लो एक शरारती बच्चा निचली डाली को मौज में आ कर खेंच कर झुकाना चाहता है । डाली लचीली है तो उसके मर्जी के मुताबिक खिंची चली आती है ।
छोड़ दो तो वापिस अपनी जगह पर चली जाती है ।
जो जिद्दी होती है, झुकना पसन्द नहीं करती उसे जबर की मौज के आगे टूटना पड़ता है ।
अपने आप को लचीला बना कर आगे बढ़ना ही उचित है ।
हम तो बीत गये ।
एक कोने में बैठ कर बुड़ बुड़ कर सकते हैं या फिर तुम्हें आते जाते टुकर टुकर देख सकते हैं, बस।
लड़ना तुम्हें है, जूझना तुम्हें हैं ।
इसलिये अपनी कूव्वत को बरकरार रखने और जरूरत के मुताबिक रणनीति बनाने का दायित्व भी अब सिर्फ तुम्हारा है ।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच भी तुम्हें अपना अस्तित्व अक्ष्क्षुण रखना है ।
अपने इर्द-गिर्द उठने वाली हर आम ओ खास नजरों का सामना करना है, माकूल जवाब भी देना है ।
चिमगोईयाँ वैसे तो बेबुनियाद ही होती हैं लेकिन होती बड़ी मारक हैं ।
तोड़ कर रख देती हैं ।
यहाँ कोई समय की बेतुकी चाल का रोना कुबूल नहीं करता ।
वे तो मुँह बिचका कर कह देते हैं कि " समय अगर खराब है तो सभी के लिए है; कोई अकेले तुम्हारे लिए ही खराब थोड़ी है ।"
इसलिये उन्हें " कुछ कर के ही चुप कराया जा सकता है ।
घर से निकलते वक्त ठान कर निकलो कि आज कुछ हासिल कर के ही लौटना है ।
मै एक धनाढ्य व्यक्ति को जानता हूँ जिन्होने आदत बना रखी थी कि जब कभी घर वापस जाना हो कुछ ना कुछ लेकर जाना है ।
व्यवसायी थे, उपार्जन करना जानते थे ।
यदि कुछ संभव नहीं भी हो पाता था तब भी कहीं की पड़ी हुई ईंट, लकड़ी, पटिया या कील; गरज कि कुछ ना कुछ घर ले कर जाना ही है ।
अपनी इस आदत के कारण वे उपार्जन के अवसरों पर नज़र रखते थे और एक भी अवसर व्यर्थ नहीं गवाते थे ।
कहने सुनने में यह बात बड़ी अटपटी और अव्यवहारिक लगती है लेकिन यह उनका जीवन मंत्र सरीखा बन गया था ।
अब बन गया तो बन गया ।
इसमें एक बात अनुकरणीय है ।
एक पूरा दिन, और उस दिन में दर्जनों नाकामियों, जांमारी, जिल्लतों के साथ साथ कहीं ना कहीं थोड़ी ना थोड़ी संभावनाएं भी निश्चित होगी ।
दिन खत्म होते होते भी यदि हमने लक्ष्य का जरा भी अंश हासिल कर लिया है तो यकीन मानो यह बेहद हौसला अफजाह होगा ।
अगले दिन के लिए फीड बैक साबित होगा ।
एक ऐसा " पचास रुपया जो उधार, ॠण, तरस, चोरी या माँगें का ना हो; आपके पसीने को चमक दे सकता है । और मेरा ऐसा मानना है कि आदमी का बच्चा कभी भी इतना नाकारा और अकर्मण्य नहीं हो सकता कि कमाना चाहे और कमा ना सके ।
जब बात खुद को साबित करने की आती है तब किसी तथाकथित ' स्टैण्डर्ड ' का मुँह ताकना मुनासिब नहीं होता ।
किस्से कहानियों की ही बात करें तो " वक्त पड़ने पर राजा नल को भी डोम के यहाँ नौकरी करना पड़ा था "
" अर्जुन को भी वृहन्नला बन कर समय काटना पड़ा था ।"
हाँ, गैरकानूनी, राष्ट्र और समाज द्रोही कार्य किसी भी कीमत में स्वीकार्य नहीं है ।
बस इतनी सी बात है
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' पिता दिवस ' के अवसर पर हिन्दुस्तान के सभी पुत्रों ने अपने अपने पिता को याद किया ।
जिन्दगी के एक एक सफे को पलटते हुए अन्तरमन की गहराइयों से अनुभव किया कि
" पिता होना क्या होता है "
कि " पिता का होना क्या होता है!"
अमीर या गरीब, दुर्बल या सबल, शिक्षित या अशिक्षित पिता होने से कोई फर्क नहीं पड़ता; जिसके पास पिता होता है वह बड़े अभिमान और विश्वास के साथ ऐंठ कर कहता है -"अरे अभी तो बाप जिन्दा है यार! "
इस एक कथन में जाने कितनी शक्ति समाहित है ।
इसलिये साल में एक बार ही सही, पिता को अनुभूत करना भी उनके लिए कृतज्ञता प्रकट करने के लिए पर्याप्त हो सकता है ।
आज मैं, एक पिता
आपसे, अपने पुत्रों से सम्बोधित हूँ ।
" बेटे तुम भी देख रहे हो, समय जिस तरह की चाल चल रहा है, वो ना तुम्हें रास आ रही है और ना ही हमें । नियति समस्त परिपाटियों, साँस्कृतिक विरासतों और नैतिक अनैतिक रूढ़ियों से इतर कुछ विचित्र से परिदृश्य और परिणाम प्रस्तुत कर रही है ।
घर में निरपेक्ष भाव से तुम्हारा चुपचाप आना, चुपचाप जाना; कुछ पूछो तो एक संक्षिप्त सी " हूँ as " बस ।
मैं अत्यंत आहत हो कर कहना चाहता हूँ कि हमारे बीच ' अबोलेपन' की जो जानलेवा नीरवता बढ़ती जा रहीं हैं; आपका पता नहीं लेकिन हमें समूचा तोड़ कर रख देती है ।
यह तो हम भी स्वीकार करते हैं कि आपका यह समय काल का सबसे विकट समय है ।
यहाँ आपकी अपनी परछाई आपसे स्पर्द्धा कर रही है।
ऐसे मुश्किल दौर में कुछ हासिल करना तो दूर अपने आप को साबित करना ही कठिनतम होता जा रहा है ।
एक पिता के रूप में हम आपको विश्वास दिलाना चाहते हैं कि इस मुश्किल घड़ी में आप अकेले नहीं हैं ।
हम पूरी शिद्दत से पूरी संवेदना के साथ आपके साथ खड़े हैं ।
हम कभी भी आपसे अकल्पनीय अपेक्षाएँ नहीं रखते । हमें मालूम है घर से बाहर निकल कर अब तो एक एक साँस के लिए भी अपनी दावेदारी जतानी पड़ती है । मेंढकी को मारने के लिए भी अपने पास तोप का इन्तेजाम दिखाना पड़ता है ।
इन्सानी हवस और मक्कारी चरम पर पहुँच गयी है ।
श्रम का हद दर्जे तक अवमूल्यन हो रहा है ।
संविदा कल्चर ने कुछ जाहिल और अवसरवादियों के हाथ में प्रतिभा को कौड़ियों में खरीदने का हक दे दिया है
अवसरो की बंदरबांट और छीना-झपटी बेशर्मी की हद तक बढ़ गई है ।
और इसमें निम्न और मध्यमवर्गीय आप जैसे लोग तिलमिला कर लुटे पिटे से जब घर वापस आते हो; आपकी यह टूटन देख कर क्या हम नहीं दहल जाते?
ना हम कुछ पूछ पाते हैं ना तुम कुछ बता पाते हो । तुम्हारा चुपचाप सिर गड़ा कर लेट जाना ही बाहर की एक एक ठोकर का पता बता देता है ।
समय बुरा चल रहा है ।
समय बहुत ही बुरा चल रहा है ।
इस वक्त सबसे बुरा वक्त जिन्दगी पर आन पड़ा है । जिन्दगी अकबकाई सी घूम रही है ।
आगे पीछे उसे कोई अपना नज़र नहीं आ रहा है ।
आज अपना सबसे बड़ा और पहला फर्ज यही बन पड़ता है कि; दूसरे की मुमकिन नहीं तो कम से कम अपनी ही जिन्दगी की हम हिफाज़त कर सकें ।
एक बात कहना चाहते हैं--
" दिल नाउम्मीद मत कर ,थोड़ा नाकाम ही तो है ।
माना कि लम्बी है गम की शाम ,मगर शाम ही तो है ।"
ये कोई आपको बहलाने या बरगलाने के लिए फकत फैंसी बात नहीं कही जा रही है ।
" बल्कि यही एक रास्ता है "
" बल्कि इसके सिवा रास्ता भी क्या है?"
वक्त और इन्सान में एक अद्भुत अन्तर्सम्बन्ध है ।
वक्त की यह खूबी है कि वह हर हाल में गुजर जाता है और इन्सान की यह खूबी है कि कितने भी मुश्किल हालात हो वह अपने हिस्से की जिन्दगी जी ही लेता है ।
इसलिये उपरोक्त उद्धृत दो पंक्तियाँ सर्वाधिक मौजू व अनुकरणीय हैं ।
असफलता का आशय यह नहीं निकालना चाहिए कि हम निराश हो कर बैठ जाएँ ।
शाम कितनी भी लम्बी लगे उसे गुजर जाना ही है ।
आज तक कोई भी रात इतनी ताकतवर नहीं रही कि वो सवेरा को रोक सके ।
और फिर बैठ जाना, रुक जाना किसी समस्या का हल नहीं है ।
मनुष्य ने युगों के प्रयास के बाद इस समाज की संरचना की है ।
बर्बर स्वच्छंदता का परित्याग करके परस्पर एक दूसरे पर आश्रित रहने का बंधन स्वेच्छा से स्वीकार किया है । सामाजिक संरचना ही इस प्रकार की हो गई है कि एकाकी जीवन संभव ही नहीं है।
इसलिये इतना तो तय है कि तुम निरुपयोगी हो ही नहीं सकते ।
कोई तो है जिसे तुम्हारी जरूरत है ।
कोई तो ऐसा काम है जिसे सिर्फ तुम कर सकते हो ।अपने भीतर के कौशल की कद्र करते हुए उसे उजागर करो ।
अपनी छोटी से छोटी विशेषताओं को भुनाओ ।
कोई आपकी खासियतों या शख्सियत का बखान करने नहीं आयेगा ।
अपने गुणों की नुमाईश तुम्हें खुद करनी है ।
यह कट थ्रुट कॉम्पिटिशन और सैल्फ मार्केटिंग का जमाना है।
एक ' बड़े ' की उम्मीद में किसी ' छोटे ' की अवहेलना मत करो ।
एक तसव्वुर करते हैं, मान लो एक शरारती बच्चा निचली डाली को मौज में आ कर खेंच कर झुकाना चाहता है । डाली लचीली है तो उसके मर्जी के मुताबिक खिंची चली आती है ।
छोड़ दो तो वापिस अपनी जगह पर चली जाती है ।
जो जिद्दी होती है, झुकना पसन्द नहीं करती उसे जबर की मौज के आगे टूटना पड़ता है ।
अपने आप को लचीला बना कर आगे बढ़ना ही उचित है ।
हम तो बीत गये ।
एक कोने में बैठ कर बुड़ बुड़ कर सकते हैं या फिर तुम्हें आते जाते टुकर टुकर देख सकते हैं, बस।
लड़ना तुम्हें है, जूझना तुम्हें हैं ।
इसलिये अपनी कूव्वत को बरकरार रखने और जरूरत के मुताबिक रणनीति बनाने का दायित्व भी अब सिर्फ तुम्हारा है ।
तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच भी तुम्हें अपना अस्तित्व अक्ष्क्षुण रखना है ।
अपने इर्द-गिर्द उठने वाली हर आम ओ खास नजरों का सामना करना है, माकूल जवाब भी देना है ।
चिमगोईयाँ वैसे तो बेबुनियाद ही होती हैं लेकिन होती बड़ी मारक हैं ।
तोड़ कर रख देती हैं ।
यहाँ कोई समय की बेतुकी चाल का रोना कुबूल नहीं करता ।
वे तो मुँह बिचका कर कह देते हैं कि " समय अगर खराब है तो सभी के लिए है; कोई अकेले तुम्हारे लिए ही खराब थोड़ी है ।"
इसलिये उन्हें " कुछ कर के ही चुप कराया जा सकता है ।
घर से निकलते वक्त ठान कर निकलो कि आज कुछ हासिल कर के ही लौटना है ।
मै एक धनाढ्य व्यक्ति को जानता हूँ जिन्होने आदत बना रखी थी कि जब कभी घर वापस जाना हो कुछ ना कुछ लेकर जाना है ।
व्यवसायी थे, उपार्जन करना जानते थे ।
यदि कुछ संभव नहीं भी हो पाता था तब भी कहीं की पड़ी हुई ईंट, लकड़ी, पटिया या कील; गरज कि कुछ ना कुछ घर ले कर जाना ही है ।
अपनी इस आदत के कारण वे उपार्जन के अवसरों पर नज़र रखते थे और एक भी अवसर व्यर्थ नहीं गवाते थे ।
कहने सुनने में यह बात बड़ी अटपटी और अव्यवहारिक लगती है लेकिन यह उनका जीवन मंत्र सरीखा बन गया था ।
अब बन गया तो बन गया ।
इसमें एक बात अनुकरणीय है ।
एक पूरा दिन, और उस दिन में दर्जनों नाकामियों, जांमारी, जिल्लतों के साथ साथ कहीं ना कहीं थोड़ी ना थोड़ी संभावनाएं भी निश्चित होगी ।
दिन खत्म होते होते भी यदि हमने लक्ष्य का जरा भी अंश हासिल कर लिया है तो यकीन मानो यह बेहद हौसला अफजाह होगा ।
अगले दिन के लिए फीड बैक साबित होगा ।
एक ऐसा " पचास रुपया जो उधार, ॠण, तरस, चोरी या माँगें का ना हो; आपके पसीने को चमक दे सकता है । और मेरा ऐसा मानना है कि आदमी का बच्चा कभी भी इतना नाकारा और अकर्मण्य नहीं हो सकता कि कमाना चाहे और कमा ना सके ।
जब बात खुद को साबित करने की आती है तब किसी तथाकथित ' स्टैण्डर्ड ' का मुँह ताकना मुनासिब नहीं होता ।
किस्से कहानियों की ही बात करें तो " वक्त पड़ने पर राजा नल को भी डोम के यहाँ नौकरी करना पड़ा था "
" अर्जुन को भी वृहन्नला बन कर समय काटना पड़ा था ।"
हाँ, गैरकानूनी, राष्ट्र और समाज द्रोही कार्य किसी भी कीमत में स्वीकार्य नहीं है ।
स्पर्द्धा चाहे छोटी हो या बड़ी, अपना सर्वश्रेष्ठ झोंक दो ।
हमें याद है जब तुम स्कूल जाते समय रुपये-आठ आने के लिए अपनी माँ से लाड़ जताया करते थे; हमें अच्छा लगता था ।
जब तुम काॅलेज जाने के लिए देर तक आईने के सामने खड़े हो कर बाल संवारा करते थे, हिलते डुलते कई-कई एंगिल से अपने आप को निहारा करते थे; हम कनखियों से देख देख कर मुस्कुराते थे ।
और जब तुम मुदित मन से ओठों को गोल कर के बिना आवाज की सीटी बजाते हुए निकलते थे; हम निहाल हो जाते थे ।
तुम बदल क्यों गये बेटे !
बचा कर रखो अपने उस खिलन्दड़ेपन को ।
चिन्ता, खीज, हताशा और झुंझलाहट को नोंच कर फेंक दो अपने चेहरे से ।
कट जायेगा ये समय भी, काट लेंगे हम सब मिल कर इसे भी ।
आज हम पिताओं का दिन था तो निश्चित ही कल बेटों का भी " पुत्र दिवस " आयेगा, जिसका हम सब इसी बेताबी से इन्तजार किया करेंगे ।
बस इतनी सी बात है ।
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" बस इतनी सी बात है "
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( सी आर बुनकर-बैतूल ( म प्र )
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-- अलग नजर
( 22 जून,2021,मंगलवार )
हमें याद है जब तुम स्कूल जाते समय रुपये-आठ आने के लिए अपनी माँ से लाड़ जताया करते थे; हमें अच्छा लगता था ।
जब तुम काॅलेज जाने के लिए देर तक आईने के सामने खड़े हो कर बाल संवारा करते थे, हिलते डुलते कई-कई एंगिल से अपने आप को निहारा करते थे; हम कनखियों से देख देख कर मुस्कुराते थे ।
और जब तुम मुदित मन से ओठों को गोल कर के बिना आवाज की सीटी बजाते हुए निकलते थे; हम निहाल हो जाते थे ।
तुम बदल क्यों गये बेटे !
बचा कर रखो अपने उस खिलन्दड़ेपन को ।
चिन्ता, खीज, हताशा और झुंझलाहट को नोंच कर फेंक दो अपने चेहरे से ।
कट जायेगा ये समय भी, काट लेंगे हम सब मिल कर इसे भी ।
जैसे पिताओं का दिवस था तो निश्चित ही कल बेटों का भी " पुत्र दिवस " आयेगा, जिसका हम सब इसी बेताबी से इन्तजार किया करेंगे ।
बस इतनी सी बात है ।
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" बस इतनी सी बात है "
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( सी आर बुनकर-बैतूल ( म प्र )
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-- अलग नजर ( रिपोस्ट )
( 22 जून,2025,रविवार )