
10/07/2025
🌲 अष्टावक्र गीता🌲
अध्याय- 15 श्लोक 20
Kailash Kumar Mishra
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि॥
सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥
अर्थात् "सब जगह ध्यान को छोड़ दो, और अपने हृदय में कुछ भी धारण न करो। तुम आत्मा मुक्त ही हो, फिर विचार करके क्या करोगे?"
महर्षि अष्टावक्र हमें समझा रहे हैं कि हमें अपने मन को किसी भी विचार या ध्यान से मुक्त करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि हम आत्मा मुक्त ही हैं, और हमें किसी भी प्रकार के विचार या चिंतन की आवश्यकता नहीं है।
*त्यजैव ध्यानं सर्वत्र*: सब जगह ध्यान को छोड़ दो, अर्थात् हमें अपने मन को किसी भी विचार या ध्यान से मुक्त करना चाहिए।
*मा किंचिद् हृदि धारय*: अपने हृदय में कुछ भी धारण न करो, अर्थात् हमें अपने मन को खाली और शांत रखना चाहिए।
*आत्मा त्वं मुक्त एवासि*: तुम आत्मा मुक्त ही हो, अर्थात् हमें यह समझना चाहिए कि हम आत्मा पहले से ही मुक्त हैं।
*किं विमृश्य करिष्यसि*: फिर विचार करके क्या करोगे?, अर्थात् हमें किसी भी प्रकार के विचार या चिंतन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम पहले से ही मुक्त हैं।
इस श्लोक का उद्देश्य हमें यह समझाने का है कि हमें अपने मन को शांत और मुक्त रखना चाहिए, और हमें यह समझना चाहिए कि हम आत्मा पहले से ही मुक्त हैं। इससे हमें जीवन में शांति और मुक्ति की प्राप्ति होगी।
Remove your focus from anything and everything and do not think in your heart.
You are soul and free by your very nature, what is there to think in it?
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