09/08/2025
*भारत के संदर्भ में अप्रासंगिक है 09 अगस्त विश्व मूलनिवासी दिवस*
नेटिव अमेरिकन यानि अमेरिका के मूल निवासियों में किसी एक नायक का भी नाम उभरकर नहीं आता। हम उनकी याद में एक दिन मनाने को आतुर हैं, जबकि हमारे वनवासी नायकों की लंबी सूची में से हम कोई एक दिन चुन सकते हैं, जब हम उनके शौर्य, साहस और वीरता को प्रणाम करते हुए अपने गौरवशाली इतिहास में झांक सकते हैं। लेकिन हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया गया है कि हम सही-गलत को न तो समझते हैं, ना ही समझना चाहते हैं।
कोलंबस दिवस के विरोध की परिणिति है विश्व मूलनिवासी दिवस
इसकी नींव में है नेटिव अमेरिका के नरसंहार की यादें।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर 1994 को अपने प्रस्ताव में निर्णय लिया कि हर साल 9 अगस्त को “इंटरनेशनल डे ऑफ द वर्ल्ड इंडिजिनयस” मनाया जाएगा। हिंदी में इसे अनुवादित करें तो यह 'विश्व मूलनिवासी/स्वदेशी दिवस' कहलाएगा। लेकिन भारत में इसे अति उत्साह से 'विश्व आदिवासी दिवस' के नाम से पुकारा जाता है।
इसे ऐसे प्रदर्शित किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा दुनिया भर के आदिवासियों के हितों को लेकर गंभीर है। इसका परिणाम यह हुआ कि विश्व के दूसरे देशों समेत भारत में भी इसे जोर-शोर से मनाया जाने लगा। लेकिन दुनिया से इस बात को छुपाया गया कि वास्तव में विश्व आदिवासी दिवस की नींव कोलंबस दिवस के विरोध में अमेरिका में रखी गई थी। वही कोलंबस, जो 1492 में अमेरिका पहुंचा था और उसने अमेरिका के मूल निवासियों का सफाया कर दिया था।
वास्तव में इस दिन का विश्व के दूसरे देशों से कोई संबंध नहीं है, भारत से तो कतई नहीं, क्योंकि यह दिन जनजातीय या वनवासी लोगों के लिए नहीं, बल्कि केवल अमेरिका के मूलनिवासियों की याद में तय किया गया है।
अमेरिका में हर वर्ष 12 अक्टूबर को कोलंबस दिवस मनाया जाता है। वहां के मूलनिवासियों का मानना था कि कोलंबस उस उपनिवेशी शासन व्यवस्था का प्रतिनिधि था, जिसने नैटिव अमेरिकन्स का नरसंहार किया। इसी कोलंबस दिवस के विरोध में आदिवासी दिवस मनाने की मांग उठी।
हमें यह समझना होगा कि अंग्रेजी में नेटिव (native) या इंडिजिनस (indigenous) शब्द मूलनिवासियों के लिए प्रयुक्त होता है। लेकिन अंग्रेजी के ट्राइबल (tribal) शब्द का अर्थ मूलनिवासी नहीं होता, बल्कि ट्राइबल शब्द का अर्थ होता है जनजातीय।
अमेरिका के संदर्भ में मूलनिवासी शब्द शायद ठीक हो सकता है, क्योंकि जिस अमेरिका में इसकी शुरुआत हुई, वहां की स्थिति दो फाड़ है। कहने का तात्पर्य यह कि कुछ आबादी मूलनिवासियों की है, जो कोलंबस के आने के बाद अपने अस्तित्व को बचाने के संकट से ही घिर गई थी। बाकी आबादी उपनिवेशिक काल के दौरान बाहर से अमेरिका पहुंचे लोगों की है।
मूलनिवासी शब्द का अमेरिका के लिए महत्व हो सकता है, लेकिन भारत में मूलनिवासी शब्द का अस्तित्व ही नहीं है। भारत के इतिहास में नेटिव अमेरिका जैसा कोई संघर्ष ही नहीं हुआ। फिर भी भारत में मूलनिवासी शब्द का उपयोग करना केवल एक षड्यंत्र मात्र है।
हम भारतीय भी कोलंबस के द्वारा किए गए जनसंहार को विश्व की निकृष्टतम घटना मानते हैं और अमेरिका के मूलनिवासियों के लिए संवेदना भी व्यक्त करते हैं। लेकिन भारत में जिस तरह से मूलनिवासी शब्द और विश्व आदिवासी दिवस मनाए जाने का प्रचलन शुरू हो गया है, उसका कोई तारतम्य नहीं है।
भारत में लगभग 705 जनजातियां हैं। इन जनजातियों का अपना गौरवशाली व समृद्ध इतिहास है। भारत में वर्ण व्यवस्था के तहत सभी ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वहन किया है। भारत में कई शूरवीर आदिवासी राजा व रानी हुए, जिनमें रानी दुर्गावती, भील राजा डूंगर बंरडा, शंकरशाह, कुँवर रघुनाथ शाह, रानी गाइदिन्ल्यू, राजा भभूत सिंह, राजा मेदिनी राय जैसे नामों की लंबी सूची है। भारत बिरसा मुंडा की भूमि है।
यहां टंट्या भील जैसे शूरवीरों ने जन्म लिया। यहां शहीद गुंडाधुर की गाथाएं आज भी गाई जाती हैं। तिलका मांझी, रानी सुबरन कुंवर जैसे वनवासी वीरों की बातें आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं। हमने ब्रिटिश राज से संघर्ष किया, लेकिन अमेरिका में घटी घटनाओं से हमारा कोई साम्य नहीं बैठता है।
“नेटिव अमेरिकन यानि अमेरिका के मूल निवासियों में किसी एक नायक का भी नाम उभरकर नहीं आता। हम उनकी याद में एक दिन मनाने को आतुर हैं, जबकि हमारे वनवासी नायकों की लंबी सूची में से हम कोई एक दिन चुन सकते हैं, जब हम उनके शौर्य, साहस और वीरता को प्रणाम करते हुए अपने गौरवशाली इतिहास में झांक सकते हैं। लेकिन हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया गया है कि हम सही-गलत को न तो समझते हैं, ना ही समझना चाहते हैं।”
भारत में कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक गोरे, काले, सांवले, और गेहूंवे रंग के लोग रहते हैं। एक ही परिवार में कोई काला है तो कोई गोरा, एक ही समाज में कोई काला है तो कोई गोरा। सभी वर्गों में सभी तरह के रंग के लोग आपको मिल जाएंगे।
इस तरह हम भारतीयों के नाक-नक्ष की बात करें तो वह चीन और अफ्रीका के लोगों से बिल्कुल भिन्न है। यदि रंग की बात करें तो भारतीयों का रंग यूरोप या अफ्रीका के लोगों से पूर्णत: भिन्न है। अमेरिकी और यूरोप के लोगों का गोरा रंग और भारत के लोगों के गोरे रंग में भी बहुत फर्क है। इसी तरह अफ्रीका के काले और भारत के काले रंग में भी बहुत फर्क है।
क्या है विश्व आदिवासी दिवस की पृष्ठभूमि
अमेरिका में पिछले कुछ दशकों में कोलंबस दिवस के तहत होने वाली परेड में विरोध प्रदर्शन होने लगा। कोलंबस को कक्षा के पाठ्यक्रम से हटाने की मांग तेजी से उठी थी। वर्ष 1991 की शुरुआत में अमेरिका के दर्जनों शहरों और कई राज्यों ने अमेरिका के मूलनिवासी लोगों के दिवस को मनाना शुरू किया। यह एक ऐसा अवकाश था, जो कोलंबस के बजाय मूल अमेरिकियों के इतिहास की याद में मनाया जाता है।
1980 के दशक में कई अमेरिकियों ने कोलंबस दिवस का विरोध करना शुरू कर दिया। अमेरिका में अक्टूबर के दूसरे सोमवार को, जिस दिन कोलंबस दिवस मनाया जाता था, उसी दिन मूलनिवासी दिवस मनाने की शुरुआत की गई। कोलंबस दिवस को मूल निवासियों के सम्मान में एक दिन से बदलने का पहला मौका 1990 में साउथ डकोटा में तय हुआ था।
1992 में, कैलिफोर्निया में मूल अमेरिकियों ने अमेरिका में कोलंबस के उतरने की 500वीं वर्षगांठ मनाने की योजना के विरोध में नैटिव अमेरिकन लोगों की याद में एक दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया गया। लेकिन इसे वैश्विक बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 9 अगस्त को इसे पूरी दुनिया में मनाने का प्रस्ताव पारित किया।
गुलामों का व्यापार करने वाला क्रूर कोलंबस
वर्ष 1492 में कोलंबस स्पेन से भारत के लिए रवाना हुआ था, लेकिन वह कभी भारत पहुंचा ही नहीं। जब कोलंबस क्यूबा, हिस्पानियोला और कैरिबियन के अन्य द्वीपों पर पहुंचा तो उसने क्रूर और नरसंहारकारी नीतियों की शुरुआत की, जिसने नेटिव अमेरिकियों की आबादी को तेजी से खत्म कर दिया। वह गुलामों का व्यापारी भी था।
कोलंबस ने स्पेन के राजा से बहुत से गुलामों को वापस भेजने का अपना वादा पूरा किया, लेकिन ज़्यादातर गुलाम ट्रांसअटलांटिक यात्रा के दौरान या स्पेन पहुँचने के तुरंत बाद ही मारे गए। इसलिए उसने अपनी ऊर्जा सोना इकट्ठा करने में लगा दी।
हैती में, उसने आदेश दिया कि 14 वर्ष से अधिक आयु के सभी लोग हर तीन महीने में सोने का एक कोटा जमा करें। कोलंबस ने जितनी मात्रा में सोने की कल्पना की थी, उतनी मात्रा में वहां सोना मौजूद नहीं था। जो स्थानीय लोग कोटा पूरा नहीं करते थे, उनके हाथ काट दिए जाते थे और उन्हें खून से लथपथ कर मार दिया जाता था।
जब लोगों ने बड़ी संख्या में प्रतिरोध करना शुरू किया, तो स्पेनियों ने अपने हथियारों से उन्हें आसानी से हरा दिया। कैदियों को फांसी पर लटका दिया गया या जलाकर मार दिया गया। बाकी लोगों को गुलामों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इकट्ठा किया गया। उनसे इतनी बेरहमी से काम करवाया गया कि आठ महीने के भीतर एक तिहाई लोग थकावट से मर गए।
हताशा में, कई लोगों ने आत्महत्या करना शुरू कर दिया और कुछ माताओं ने हताशा में अपने बच्चों को भी मार डाला। जो भाग गए उन्हें खोजकर मार दिया गया। कोलंबस स्पेन के राजा को खुश करने के लिए इतना उत्सुक था कि उसने नेटिव अमेरिकियों पर क्रूर अत्याचार किए। 1515 तक, हिस्पानियोला में ही, युद्ध और गुलामी ने 200,000 लोगों को मार डाला था।