
08/07/2025
ऐतिहासिक फैसला: इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो निर्णय जिसने 'सच्ची रामायण' को दी अभिव्यक्ति की आज़ादी
प्रस्तावना:
भारतीय न्यायिक इतिहास में कुछ ऐसे मील के पत्थर हैं जो सिर्फ कानूनी निर्णय नहीं होते, बल्कि समाज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गहरी छाप छोड़ते हैं। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मुकदमा था इलाहाबाद हाईकोर्ट का मुकदमा संख्या 412/70, जिसका निर्णय 19 जनवरी, 1971 को सुनाया गया। इस मामले में, तर्कवादी और सामाजिक कार्यकर्ता ललई सिंह यादव ने बड़ी जीत हासिल की, जिसने पेरियार ईवी रामासामी की विवादास्पद पुस्तक "सच्ची रामायण" (The Ramayana: A True Reading) के हिंदी अनुवाद पर लगे प्रतिबंध को चुनौती दी थी। यह केवल एक पुस्तक की जब्ती का मामला नहीं था, बल्कि धार्मिक व्याख्या और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करने का एक बड़ा प्रश्न था।
पृष्ठभूमि: "सच्ची रामायण" और विवाद
पेरियार ईवी रामासामी, जो एक प्रभावशाली तर्कवादी और द्रविड़ आंदोलन के जनक थे, ने अपनी पुस्तक "रामायण: अ ट्रू रीडिंग" में पारंपरिक रामायण की कथा पर एक आलोचनात्मक और तर्कवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। यह पुस्तक, जिसे बाद में हिंदी में "सच्ची रामायण" के नाम से अनूदित किया गया, ने राम को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय, उन्हें और रामायण की घटनाओं को सामाजिक और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के प्रतीक के रूप में देखा। स्वाभाविक रूप से, इस पुस्तक ने धार्मिक और सामाजिक हलकों में तीखा विवाद खड़ा कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पुस्तक को धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला मानकर जब्त कर लिया।
ललई सिंह यादव की कानूनी लड़ाई:
उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख समाजवादी नेता और सामाजिक न्याय के पैरोकार, ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबंध के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया। उन्होंने न केवल इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया था, बल्कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक भी थे। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के जब्ती आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनकी याचिका का मूल तर्क यह था कि सरकार का यह कदम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है और पुस्तक धार्मिक भावनाओं को भड़काने के इरादे से नहीं लिखी गई थी, बल्कि यह एक वैचारिक आलोचना थी।
न्यायिक बेंच और ऐतिहासिक निर्णय:
इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने की, जिसमें उस समय के प्रतिष्ठित न्यायाधीश शामिल थे: जस्टिस पी.एन. भगवती, जस्टिस बी.आर. कृष्णा अय्यर, और जस्टिस मुर्तजा फजल अली। इन तीनों न्यायाधीशों ने, जो बाद में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी अपनी सेवाएं देंगे और भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में अपनी प्रगतिशील सोच के लिए जाने जाएंगे, इस मामले पर गहन विचार-विमर्श किया।
न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में ललई सिंह यादव के पक्ष में फैसला सुनाया। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुस्तक पर लगाए गए प्रतिबंध को रद्द कर दिया और जब्ती के आदेश को अवैध घोषित कर दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में यह माना कि सरकार पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने के लिए पर्याप्त और वैध आधार प्रस्तुत करने में विफल रही थी। न्यायालय ने विशेष रूप से यह नहीं कहा कि "रामायण एक काल्पनिक ग्रंथ है," जैसा कि अक्सर गलत तरीके से उद्धृत किया जाता है। इसके बजाय, यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारों की विविधता के अधिकार को कायम रखने के बारे में था, भले ही वे विचार मुख्यधारा या पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं से भिन्न हों।
निर्णय के निहितार्थ:
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल बन गया। इसने स्पष्ट किया कि:
* अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार: यह निर्णय दर्शाता है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है, और सरकारें मनमाने ढंग से विचारों या पुस्तकों पर प्रतिबंध नहीं लगा सकतीं, भले ही वे कुछ वर्गों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाती प्रतीत हों।
* तर्क और आलोचना का महत्व: यह फैसला तर्कवादी और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देने के महत्व को रेखांकित करता है, खासकर धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों के संबंध में।
* न्यायपालिका की भूमिका: इसने दिखाया कि कैसे न्यायपालिका सरकार की कार्रवाइयों की समीक्षा कर सकती है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है।