18/10/2025
#साभार_राजगोपाल_सिंह_वर्मा_के_फेसबुक_वॉल_से #नयी_आमद #स्त्री_मिथक_और_यथार्थ #नीलिमा_पाण्डेय
स्त्री: मिथक और यथार्थ-- एक आत्ममंथन!
अनिल माहेश्वरी जी से सीखा है कि यदि लम्बी यात्राएँ भी करनी हों तो फ्लाइट की अपेक्षा ट्रेन को प्राथमिकता दें, क्योंकि आप ऐसी यात्रा में कम से कम एक -दो किताबें सुकून से पढ़ सकते हो।
इस बार की मुंबई यात्रा में मेरे साथ थी एक शानदार पुस्तक "स्त्री: मिथक और यथार्थ" जिसकी रचनाकार हैं नीलिमा पाण्डे । वह लखनऊ के एक महाविद्यालय में प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व विषय की प्रोफेसर हैं, कई पुस्तकों की लेखिका हैं और अपनी तार्किक वैचारिकी तथा दृष्टि के लिए जानी जाती हैं।
उनकी यह पुस्तक “स्त्री : मिथक और यथार्थ” हमारे समाज में स्त्री की उपस्थिति, उसकी छवि, और उसके चारों ओर बुने गए मिथकीय जाल की एक सधी हुई; गहरी पड़ताल है। यह पुस्तक प्रश्न उठाती है कि हम आज भी स्त्री को उन्हीं मिथकीय प्रतीकों में क्यों देखने के आदी हैं जो कभी उसे ‘देवी’ बनाकर उसके मानवीय अस्तित्व को छीन लेते थे।
पुस्तक की प्रस्तावना और भूमिका से ही लेखिका का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल अकादमिक विमर्श नहीं, बल्कि स्त्री–अस्तित्व के दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक अर्थों की खोज है। नीलिमा पांडेय ने वैदिक, पुराणिक और महाकाव्य परंपरा में स्त्री के मिथकीय स्वरूप को उसके यथार्थ जीवन से जोड़ते हुए दिखाया है कि कैसे आदर्श, धर्म और परंपरा के नाम पर स्त्री को सीमित किया गया। ‘शकुंतला’ के उदाहरण से उन्होंने इस बात को अत्यंत प्रभावी ढंग से उजागर किया है कि महाभारत की स्वायत्त और निर्णयक्षम शकुंतला बाद के काल में अभिज्ञानशकुंतलम् की भावुक, प्रतीक्षारत नायिका में बदल दी गई। यह परिवर्तन भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति के क्रमिक ह्रास का दर्पण है।
लेखिका ने ऐतिहासिक कालखंडों को सटीक क्रम में प्रस्तुत किया है — प्राक् वैदिक, वैदिक, उपनिषदिक, महाकाव्य, पुराणिक और तांत्रिक युगों में स्त्री की भूमिका और छवि का विकास व विस्थापन दोनों एक साथ दिखता है। उनका विश्लेषण बताता है कि जैसे–जैसे समाज में धर्म और सत्ता के गठजोड़ मज़बूत हुए, वैसे–वैसे स्त्री के आत्म–स्वर को मिथकीय प्रतीकों और संस्कारों में कैद किया गया।
‘प्रवेशिका’ और आगे के अध्यायों में यह अध्ययन और गहराता है, जहाँ लेखिका ने धर्म, अहिंसा, कर्मकांड, जाति, और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अंतर्संबंधों को पाठकीय भाषा में समझाया है। उन्होंने जैन, बौद्ध और वैदिक परंपराओं की तुलनात्मक दृष्टि से बताया है कि भारतीय धर्म-दर्शन में स्त्री को या तो त्याग की मूर्ति बनाया गया या प्रलोभन का प्रतीक; दोनों ही स्थितियाँ उसकी स्वतंत्र सत्ता से इनकार करती हैं।
पुस्तक की भाषा सहज, प्रवाहपूर्ण और अकादमिक ठहराव के बावजूद भावनात्मक रूप से प्रखर है। इसमें कोई शुष्क विद्वता नहीं, बल्कि एक सजग चेतना है जो पाठक को सोचने पर विवश करती है। लेखिका ने अत्यंत प्रभावशाली टिप्पणी भी की है कि “आज भी स्त्री शरीर और संपत्ति में सीमित कर दी गई है; उसका विरोध करने पर उसका चरित्र हनन कर दिया जाता है।” यह वाक्य पुस्तक का निष्कर्ष नहीं, बल्कि आज के समाज की सच्चाई का दर्पण है।
कहावतों में स्त्री परिशिष्ट में उन्होंने समाज में स्त्री की नकारात्मक छवि को रेखांकित करने वाली कहावतों को संकलित कर प्रस्तुत किया है जो एक अनूठी जानकारी है। हर अध्याय को गहन संदर्भ से आच्छादित किया गया है जो इसकी प्रामाणिकता को बढ़ाती है।
मेरे विचार से ‘स्त्री : मिथक और यथार्थ’ आत्ममंथन की एक सांस्कृतिक यात्रा है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि मिथक सिर्फ़ कहानियाँ नहीं, बल्कि वे आईने हैं जिनमें समाज अपने पूर्वाग्रहों को छुपाने की कोशिश करता है।
यह पुस्तक उन सभी पाठकों के लिए आवश्यक है जो भारतीय परंपरा, स्त्री विमर्श और इतिहास के अंतर्संबंधों को समझना चाहते हैं। यह एक प्रश्न भी है और एक उत्तर भी, कि क्या हम अब भी मिथक के भीतर कैद उस स्त्री को पहचानने की कोशिश करेंगे या उसे यथार्थ में देखने से डरते रहेंगे?
अन्य विषयों के साथ-साथ स्त्री विमर्श पर नीलिमा जी की दो पुस्तकें 'इतिहास में स्त्री अस्मिता की तलाश' और 'साइलेंस्ड वॉइसेज' पहले ही चर्चित हैं।
(पुस्तक 358 पृष्ठों की है और सेतु प्रकाशन, नोएडा द्वारा प्रकाशित है, जिसका प्रिंट मूल्य रु 449 है।)
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