
24/07/2025
फ़साना: बा इज़्ज़त बरी۔
हमारे मुल्क हिंदुस्तान में ऐसा कई बार होता है कि किसी बेक़सूर नौजवान को दहशतगर्दी के झूठे इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया जाता है, और वह अपनी ज़िंदगी के क़ीमती साल जेल की सलाख़ों के पीछे गुज़ार देता है। फिर एक दिन अदालत फ़ैसला सुनाती है:
"मुल्ज़िम बेगुनाह है… बा इज़्ज़त बरी।"
लेकिन क्या वाक़ई कोई "बा इज़्ज़त बरी" होता है?
यह अफ़साना उसी तल्ख़ हक़ीक़त पर मबनी है।
वह सुबह कुछ अजीब थी।
जेल की काल कोठरी में बैठे अब्दुलवहीद की आँख सूरज की किरणों से नहीं, जेलर के अल्फ़ाज़ से खुली:
"अब्दुलवहीद, अदालत ने तुम्हें बा इज़्ज़त बरी कर दिया है!"
वह एक लंबी, बेरहम हँसी हँसा…
"बीस साल… और अब इज़्ज़त?"
अब्दुलवहीद अलीगढ़ के एक शरीफ़ घराने का लड़का था। उर्दू अदब का तलब-ए-इल्म, ख़्वाबों का शायर।
लेकिन एक दिन लाइब्रेरी से वापसी पर कुछ लोग उसे पकड़कर ले गए।
"तुम दहशतगर्द हो… बम धमाके में शामिल!"
उसने इनकार किया, मगर सुना किसने?
ख़बरें चलीं:
"अब्दुलवहीद दहशतगर्द है!"
पड़ोस की ज़ुबानें बददुआएँ देने लगीं, वालिद दिल का दौरा पड़ने से दुनिया छोड़ गए, माँ चुप के साए में डूब गईं, और बहन की मंगनी टूट गई।
अंदर जेल, बाहर दुनिया — दोनों बदल चुके थे।
अब्दुलवहीद सिर्फ़ एक क़ैदी नहीं रहा, वह एक ज़िंदा लाश बन चुका था।
बीस साल बाद जब दोबारा केस खुला तो अदालत ने कहा:
"सुबूत नाकाफ़ी हैं। अब्दुलवहीद बेक़सूर है।"
जेल के बाहर सहाफ़ियों ने घेर लिया:
"कैसा लग रहा है आपको?"
"रियासत से कोई शिकायत है?"
अब्दुलवहीद ने ख़ामोशी से कहा:
"मैं बेक़सूर था, हूँ, और रहूँगा…
लेकिन वो माँ, वो बाप, वो वक़्त — मुझे कौन लौटाएगा?"
वह आज भी क़ब्रिस्तान जाता है…
बाप की क़ब्र पर बैठा, ख़ामोश, आँखों में सवाल लिए:
"क्या वाक़ई मैं… बा इज़्ज़त बरी हुआ हूँ?"
🖤 यह अफ़साना उन सब के नाम… जो बेक़सूर होकर भी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सज़ा काट रहे हैं।
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