
26/09/2025
आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सुपरिचित कथाकार वीरेंद्र प्रताप यादव के उपन्यास ' नीला कॉर्नफ्लावर ' की वरिष्ठ गांधीवादी विचारक प्रोफेसर मनोज कुमार की समीक्षा।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के डॉक्टर वीरेंद्र की पुस्तक "नीला कॉर्नफ्लावर"बहुत दिन हुए मैंने पढ़ी, शिमला प्रवास में। उपन्यास पढ़ने की मुझे आदत नहीं रही, इसलिए नहीं की अच्छा नहीं लगता था। मुझे लगता था कि यह आत्मा रंजन के लिए ही है। समाज, बदलाव, परिवर्तन से बाहर। "नीला कॉर्नफ्लावर" उपन्यास में पात्र और विषय वस्तु के नाम कठिन हैं,कठिनाई का भी एक विज्ञान है, जो हमारे व्यवहार में नहीं रहता वह कठिन लगता है। कभी-कभी लोग अपनी विद्वता का प्रदर्शन करने के लिए भी, कठिन शब्दों का व्यवहार करते हैं। शब्दों के कठिनाई को समझते हुए लेखक ने फुट नोट में उसे स्पष्ट किया है। इसलिए थोड़ा समाधान हो जाता है।गांधी ने एक बार साहित्यकारों से कहा था कि आपका साहित्य गांव के लिए होना चाहिए। यह उपन्यास गांव की व्याख्या और सभ्यता की कथा के बहाने राष्ट्र,संस्कृति और पर्यावरण की चर्चा करते हुए पूंजीवाद के दंश को उजागर करती है। पूंजी ने सत्ता को और सत्ता ने ज्ञान को अपने अधीन कर लिया है।उपन्यास की साहित्यिक विधा मानव विज्ञान के चासनी में भली भांति लपेटी गई है, इसलिए पाठक इसमें मानव विज्ञान की सहभागी शोध प्रविधि और संचित ज्ञान की सहज अनुभूति ले सकते हैं।" कई बार ज्ञान के मुकाबले अज्ञानता अच्छी होती है" क्यों अच्छी होती है? पुस्तक इस पर विशद चर्चा करता है।राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता का द्वंद, पर्यावरण संरक्षण की पारंपरिक विधियां, आदिवासी समुदाय की चेतना इन सब को सूक्ष्मता से पुस्तक के 11खंडों में विश्लेषित किया गया है।इसमें से 10 खंड नदियों के नाम पर है,जिसमें अमेजॉन की सहायक नदियां तथा पूर्वी यूरोप और यूरोप की नदियों को रखा गया है। लेखक नदियों से सभ्यता को जुड़ा मानते है। नदी जीवन दायिनी है। आज नदिया संकट में है। पहाड़ सुने हो गए हैं। आधुनिक सभ्यता के दौर में जंगल भी नष्ट कर दिया गया है।अब नदिया बाढ़ लाने लगी है। जीबों के बीच का संतुलन खत्म हो चुका है।पूर्वी यूरोप से बाल्टिक सागर में मिलने वाली नदी नरोबा से पुस्तक शुरू होता है। गांव क्या है? उसकी क्या विशेषता है? "हर इंसान के अंदर उसके गांव की एक खास महक और ध्वनि होती है"। मार्टिन, स्वप्न और यथार्थ में गोते लगा रहा था, उसका बचपन गांव में बिता था। मातृभूमि से प्रेम के कारण, उसके पिता अपनी पत्नी से कहते हैं, जिसके नसीब में अपने देश में सुकून नहीं, उसे पूरी दुनिया में कहीं ठिकाना नहीं मिलता। दुनिया में सबसे सुरक्षित जगह घर होता है।बाहर से भी ज्यादा सुरक्षित, फिर सवाल वहीं से शुरू होता है, जब घर ही सुरक्षित ना हो, तब दुनिया वीभत्स लगती है। उपन्यास की एक पात्र लक्ष्मी प्रश्न करती है, जिसके पास घर ही ना हो, समाधान देती है, देश नाम की कोई संरचना नहीं, हर व्यक्ति का एक देश होता है। मेरे लिए देश जो मुझे पहचान दे,जिससे पेट चले, दरअसल कोई भी किसी देश का नागरिक नहीं होता। मानवता पुरानी है, जब की राष्ट्र एवं नागरिकता नई अवधारणा। लक्ष्मी का जन्म नीदरलैंड में हुआ। उसके बाबा भारतीय थे। वेस्टइंडीज में मजदूर बनकर रोजी रोजगार के लिए आए थे। डचों ने इन्हें गुलाम बनाया था। वे इनका शोषण करते थे। यहां डच के खिलाफ जन आंदोलन हुआ, परिणाम स्वरूप कॉलोनी स्वतंत्र हो गई। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय गिरमिटिया के अधिकार के लिए लड़े गए, स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के समरूप इसे खड़ा किया जा सकता है। साम्राज्यवाद के बाद लोकतंत्र की हवा दुनिया में चली और लगभग सभी देश स्वतंत्र हो गए। नव साम्राज्यवाद औद्योगिक या आर्थिक साम्राज्यवाद दुनिया पर हावी होता जा रहा है। तीसरी दुनिया को गरीबी में धकेल कर राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाई जा रही है। शस्त्रीकरण की होड़ नाहक पैदा की जा रही है। हम अपने विनाश का इतिहास लिखने वाले हैं ।पूंजी ने सत्ता को अपना गुलाम बना लिया है।स्वतंत्रता की अभिलाषा मृत्यु से अधिक शक्तिशाली होती है। निष्कर्ष यह निकलता है की राष्ट्र भूखंड नहीं है, यह जीवन है, ऐसा जीवन जो मृत्यु से परे है, अमर है।
सोमत्र पर पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ से खतरा महसूस किया जा रहा था। गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ मन में विद्रोह है, इसका आक्रमण पूरब और पश्चिम दोनों ही तरफ से है। जिस तरह द्वितीय विश्व युद्ध के समय, एक तरफ साम्राज्यवादी देश थे दूसरी तरफ जापान का खतरा, भारतीय उपमहाद्वीप पर बना हुआ था। हमारे लिए साम्राज्यवाद और हिटलर शाही दोनों ही समान शोषणकारी व्यवस्था को,गांधी ने चुनौती दी थी।
पूर्वी यूरोप की गजा नदी शीर्षक में मार्टिन की पढ़ाई का जिक्र आता है। मार्टिन को पढ़ाई के लिए, नीदरलैंड भेज दिया जाता है। वह वहां की संस्कृति से भी परिचित होता है। पहले ही कक्षा में लक्ष्मी से उसका परिचय होता है। वहीं पर कक्षा में प्रोफेसर टीस संस्कृति पर चर्चा कर रहे हैं। संवाद यह है कि, कोई भी संस्कृति किसी भी दूसरी संस्कृति से कमतर नहीं होती। आदिम समाज को सभ्य बनाने के नाम पर गोरे लोगों ने अफ्रीका और एशिया के सीधे-साधे लोगों को गुलाम बनाया और अमेरिका के मूल निवासियों को कत्ल कर समाप्त ही कर दिया।अश्वेतों ही नहीं पूर्वी यूरोप के कई देशों को कब्रगाह बना दिया। डच संस्कृति लोगों को सभ्य बनाने के नाम पर यह सब करती रही आखिर प्रोफेसर ने समाधान दिया, संस्कृति एक व्यापक अवधारणा है, सिर्फ रहन-सहन और परंपराएं नहीं, बल्कि जो उन्हें पुराने पीढ़ी से प्राप्त होता है और अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करता है, वह सब संस्कृति है, मानव द्वारा निर्मित भौतिक और अभौतिक।प्रकृति, विकृति और संस्कृति; मेहनत करके खाना प्रकृति है और दूसरों का शोषण करना विकृति, विकृति संस्कृति नहीं हो सकती। श्री अरविंद संस्कृतियों के संगम से परिपक्व फल निर्मित करते हैं।विनोबा महात्मा गांधी को दो संस्कृतियों का संगम कहते हैं। हर समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। वह जब दूसरे संस्कृति को, हे दृष्टि से देखता है, मानव विज्ञान में इसे नृजातीय केंद्रीयता कहते हैं। हवा, परिंदे ,जीव सीमाओं को नहीं मानती। डॉक्टर लोहिया कहा करते थे, पानी ढलान की ओर जाता है इसलिए देश की सीमा नदिया बनती है ।
कोई भी जीव अपने जाति के जीबो को नहीं खाता। इस जाति के छोटे-छोटे पौधे पेड़ के नीचे पनप रहे थे। सूरज की रोशनी के लिए प्रतिस्पर्धा करता हुआ पेड़, आगे बढ़ रहा था। प्रतिस्पर्धा में ताकत वाला पेड़, दूसरे पेड़ों को बढ़ने नहीं देता।लेकिन अपने जाति को जिंदा रखना है, फिर मानव नरभक्षी कैसे हो सकता है? हर पेड़ पौधा पूर्वजों की आत्मा कही जाती है।वर्षावन का हर जीव, हर पौधा, मिट्टी, नदी सभी पूर्वजों की आत्मा है। यह सिर्फ प्रश्न नहीं है, बल्कि उस समय की स्थिति को दर्शाता है। यही कथा है, इन्हीं दंत कथाओं में प्रकृति के साथ सहजीवन का स्पष्ट संकेत मिलता है। इसी कारण नुआ, जीवो के प्रजनन काल के समय, इसका शिकार नहीं करते। हमारे यहां अश्विन के महीने में मछली मारने की मनाही रहती है।वे मादा और छोटे बच्चों को अपना शिकार नहीं बनाते थे। यह मातृबंशी परिवार है। यहां स्त्री पुरुष प्रेम संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र थे।
स्वर्ण को ये शापित वस्तु मानते हैं, इसकी रक्षा करते हैं। पृथ्वी की हर वस्तु सबकी है, सबकी साझी संपत्ति है। जिस दिन नुआ ऐसी संस्कृति,जिन्हें हम अब तक जंगली औरअसभ्य मानते रहे हैं, जब समाप्त हो जाएगी, तो पृथ्वी नष्ट हो जाएगी।
बहुत मेहनत से मार्टिन ने अध्ययन किया, मोनोग्राफ लिखा, उसे अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ एंथ्रोपोलॉजी में प्रस्तुत किया। उसका उपयोग या कहिए दुरुपयोग, यानी ज्ञान का दुरुपयोग, पूंजीवादी सभ्य कहीं जाने वाली जातियों ने वर्षा वन को उजाड़ कर, बर्बाद कर किया है। सदाबहार पेड़ ठूठ में बदल गए हैं, बस्तियां राख में तब्दील हो गई है। इस तबाही के लिए कौन जिम्मेदार है?
एक साथ कई संदेश यह पुस्तक दे जाती है, क्या आज भी साहित्य संचार की सर्वोत्तम विधा है? मेरे कहने का अर्थ कविता, कहानी और उपन्यास से है। मानव मस्तिष्क को सर्वाधिक उद्वेलित साहित्यिक विधा ही करती है। यही समवाय की पद्धति है, जिसको अंग्रेजी में को- रिलेशन कहते हैं। गांधी ने बुनियादी तालीम में इन्हीं पद्धतियों की सिफारिश की थी। लेकिन इसके लिए लेखक को दोनों ही विद्या में निष्णात होना चाहिए। उपन्यासकार या लेखक जो भी कह लीजिए, उसने एक तरफ पश्चात परंपराओं को भारतीय परंपरा या औद्योगिक सभ्यता के दुष्परिणाम को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया है। बहुत दिन पहले मैंने अवकाश का उपयोग कर शिमला जाने और वहां पर ठहरने की अवधि में इस पुस्तक को समझने की कोशिश की। आज जब भागलपुर जिला के पीरपैंती प्रखंड में खेती की अच्छी जमीन जिस पर 10 लाख पेड़ लगे हैं। आम की उत्तम खेती होती है। इसी से तो भागलपुर का नाम है। इसे अदानी समूह को₹1 प्रति डिसमिल यानी मुफ्त कहिए दे दी गई है। इस त्रासदी को मैं इस उपन्यास के संकेत से जोड़ने की कोशिश की। सोचा यह क्या नया हो रहा है। संस्कृति को नष्ट कर दिए बिना पूंजीबाद पनप नहीं सकता। वही सब यहां भी होगा। यह अंग क्षेत्र है बंधु, अपवित्र स्थल यहां विकास के नाम पर विनाश के बीज बोए जा रहे हैं। हम तो वही चाहते हैं, कहानी लंबी होगी इसलिए रुकना होगा। लेकिन भारतीय परिस्थिति में, क्षेत्रीय परंपरा, इतिहास में क्षेत्रीय मानसिक धरोहर को वैज्ञानिकता के आवरण में सजाकर परोसने वाली अकादमिक जगत में सकारात्मक पहल की कोई हवा चलेगी?
प्रश्न रह जाता है, प्रश्न रहेगा, जवाब मेरे पास नहीं, वीरेंद्र के पास भी नहीं है, जवाब तो संस्कृति की परिभाषा करने वाले उस प्रोफेसर के पास है। हारा हुआ वह शोधार्थी या विद्यार्थी अपने शोध का दुरुपयोग देखकर बरसों के मेहनत को जला देता है। ज्ञान का पूंजीवादी इस्तेमाल भी हमारे दुर्दशा का कारण है। बहुत कुछ आप सोचिए?