नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी
करीब 85 साल पहले शुरू हुई हनुमान स्वरूप धारण करने की परंपरा को आज भी बखूबी निभाया जा रहा है।�आजादी से पहले पाकिस्तान में सरहंद के पास मुस्लिम समाज के कहने पर अंग्रेज अधिकारियों ने दशहरा पर्व का अवकाश बंद कर दिया था। जिस पर हिदू समाज इकट्ठा होकर अंग्रेज अधिकारियों से मिले। उस समय अंग्रेज अधिकारी ने कहा कि हनुमान ने 400 योजन समुंद्र लांघा था। यदि
तुम सरहंद के दरिया को पार करके दिखा तो तो दशहरे का अवकाश मिलेगा। उस समय एक सिद्ध पुरुष ने इस चैलेंज को स्वीकार कर लिया। उन्होंने इसके लिए एक व्यक्ति को तैयार किया। उसे बलिदान के लिए कहा गया। उस व्यक्ति को सिदूर लगाया गया। चालिस दिन के व्रत करवाए गए। सरहंद दरिया को उस व्यक्ति ने उड़कर पार किया। दूसरे किनारे पर जाने के बाद जब वह वापस लौटा तो उसके लिए शैय्या तैयार थी। शैय्या पर पहुंचने के बाद उसने प्राण त्याग दिए। इसके बाद अंग्रेज अधिकारी ने दशहरा की छुट्टी देना शुरू कर दिया। उसी समय से हनुमान स्वरूप बनने के परंपरा शुरु हुई। सुंदर कांड की चौपाई में जिक्र
गुरु अरुणदास महाराज बताते हैं कि सुंदर कांड में जब जानकी हनुमान का मिलन होता है तो जानकी कहती हैं कि राम की सेना में ऐसा कोई है जो रावण के राक्षसों का मुकाबला कर सकेगा। इस पर हनुमान जी ने स्वर्ण का स्वरूप धरा था। सुंदर कांड में चौपाई है। कनक भूधरा कार शरीरा। उसी के मुताबिक स्वरुप धारण किया जाता है। लाल रंग सिदूर लगाया जाता है। स्वरूप की मूर्ति पर शीशे लगते है। सोने की किनारी, घोटा लगाया जाता है। सोना महंगा होने के कारण सोने के स्वरूप नहीं बनता। पानीपत का सौभाग्य है कि यहां सबसे अधिक 600 स्वरूप बनते हैं। हनुमान स्वरूप 40 दिनों तक भूमि पर शयन करते हैं, एक समय भोजन लेते हैं, ब्रह्मचार्य का पालन करते है। देव स्थान पर 40 दिन तक रहते हैं।