Nityanand Kumar

Nityanand Kumar हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे!
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे!!
ओम क्लीम कृष्णाय नमः
(1)

गीता को कृष्ण ने कहीं कम, अर्जुन ने कहलवाई ज्यादा है।

श्रीमद्भागवत का असली लेखक कृष्ण नहीं है बल्कि इसके असली लेखक अर्जुन हैं। अर्जुन की उस वक्त की चीत्त दशा ही इस गीता का आधार बनी है। और कृष्ण को साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक हिंसक अपनी हिंसा के पूरे दर्शन को उपलब्ध हो गया है। और अब हिंसा से भागने की जो बातें हैं कर रहा है उसका कारण भी हिंसक चित्त ही है । अर्जुन की दुविधा अहिंसक की हिंसा से भागने क

ी दुविधा नहीं है। अर्जुन की दुविधा हिंसक की हिंसा से ही भागने की दुविधा है।

इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह ममत्व हिंसा ही है, लेकिन गहरी हिंसा है, दिखाई नहीं पड़ती। जब मैं किसी को कहता हूँ मेरा, तो पजेशन शुरू हो गया, मालकियत शुरू हो गई है। मालकियत हिंसा का एक रूप है। पति पत्नी से कहता है, मेरी। मालकियत शुरू हो गई। पत्नी पति से कहती है, मेरे। मालकियत शुरू हो गई। और जब भी हम किसी व्यक्ति के मालिक हो जाते हैं, तभी हम उस व्यक्ति की आत्मा का हनन कर देते हैं। हमने मार डाला उसे। हमने तोड़ डाला उसे। असल में हम उस व्यक्ति के साथ व्यक्ति की तरह नहीं, वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अब कुर्सी मेरी जिस अर्थ में होती है, उसी अर्थ में पत्नी मेरी हो जाती है। मकान मेरा जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में पति मेरा हो जाता है।

स्वभावतः, इसलिए जहां-जहां मेरे का संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, सिर्फ कलह ही फलित होती है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा | करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही चल सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। मेरे का दावा, मैत्री का विनाश है। मेरे का दावा, चीजों को उलटा ही कर देता है। सब हिंसा हो जाती है।

जन्म के उपरांत नवजात शिशु का अपनी माता के दुग्ध से गहरा स्नेह और मोह हो जाता है। महीनों तक उसी अमृत स्वरूप जीवनदायिनी स्...
17/11/2025

जन्म के उपरांत नवजात शिशु का अपनी माता के दुग्ध से गहरा स्नेह और मोह हो जाता है। महीनों तक उसी अमृत स्वरूप जीवनदायिनी स्वाद को पीकर वह जीवित रहता है, और यही अनुभव उसके लिए परम सुख बन जाता है। जब माता उसे अन्न ग्रहण के लिए प्रेरित करती है, तो वह बालक स्वाद की ओर ध्यान न देकर, स्वाभाविक रूप से उसी परिचित स्तनपान के लिए मचल उठता है।
परंतु क्या यह आसक्ति वास्तव में सही है?
समय की मांग यह है कि बालक को स्वस्थ और तंदुरुस्त रहने के लिए केवल मातृ दुग्ध ही पर्याप्त नहीं है। उसके आहार में अन्य पोषक तत्वों (अन्न) को शामिल करना अनिवार्य हो जाता है। माता-पिता और बड़जन बालक की तात्कालिक इच्छाओं के विपरीत, उसके दीर्घकालिक कल्याण के लिए, उसे बलपूर्वक या प्रेमपूर्वक अन्न ग्रहण करवाते हैं।

ठीक उसी अबोध बालक की भांति, हम मनुष्य भी इस संसार के काम, मद और मोह रूपी प्राथमिक सुखों में इतने आकंठ डूब जाते हैं कि हमें इस संसार में भेजने वाले परम सत्ता द्वारा सौंपे गए दायित्वों (कर्तव्यों) का पालन करना भूल जाते हैं।
सुधीजन (बुद्धिमान/ज्ञानी लोग) बार-बार हमें हमारे जन्मदाता ईश्वर के प्रति कर्तव्य का स्मरण दिलाते हैं। अन्य प्राणियों को केवल शारीरिक सुख-दुख की अनुभूति है, किंतु हमें मनुष्य को विवेक, बोध और अनुभूति की वह ईश्वरीय देन प्राप्त है जो हमें पशुओं से ऊपर उठाती है।

पर क्या हम वास्तव में ऊपर उठ रहे हैं?
हमारा हाल तो पशुओं से भी अधिक चिंतनीय हो गया है। हम 'काम सुख' (भौतिक सुख) में इतने आसक्त हो गए हैं कि यह हमारे लिए सुख की खोज न रहकर, एक मृगमरीचिका बन गया है जो हमें जीवनपर्यंत बेचैन रखती है। जिस प्रकार मृगमरीचिका से प्यास नहीं बुझती, उसी प्रकार इस क्षणभंगुर 'काम सुख' से वास्तविक, स्थायी सुख की प्राप्ति असंभव है।

जिस प्रकार हरी दूब (घास) के नीचे सर्प दबे-छिपे रहते हैं, ठीक उसी प्रकार विरक्ति (वैराग्य) की ओट में आसक्ति (मोह) भी सूक्ष्म रूप से छिपी रहती है। जब हम विरक्ति रूपी हरी दूब की ओर आकर्षित होते हैं, ठीक उसी वक्त आसक्ति रूपी सर्प हमारे शुभ संकल्पों से हमें विमुख कर देता है।

अतः इस सर्प रूपी आसक्ति से बचकर चलने का एकमात्र और अचूक उपाय है....योग्य गुरु या साधु संत का संग (सत्संग), जो हमें सही मार्ग का बोध कराएँ। तथा उनके सत्संग रूपी अमृत वचनों का श्रद्धापूर्वक पालन... जिससे हमारा विवेक जाग्रत हो और हम संसार की नश्वरता को समझ सकें।

🙏🏻 जय श्री कृष्ण 🙏🏻

🔹महाभारत से मिलते हैं ये 18 सबक🔹🔸एक बार अवश्य पढ़ें🔸महाभारत एक वृहद महाकाव्य है, जिसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। इस...
15/11/2025

🔹महाभारत से मिलते हैं ये 18 सबक🔹

🔸एक बार अवश्य पढ़ें🔸

महाभारत एक वृहद महाकाव्य है, जिसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। इसमें 18 पर्व तथा 1948 अध्याय हैं।

मूल ग्रन्थ का नाम 'जय संहिता' था। किन्तु बाद में इसका नाम 'भारत 'और फिर 'महाभारत' पड़ा।

प्रत्येक भारतीयों को इसे पढ़ना चाहिए। इसमें वह सब कुछ है, जो मानव जीवन में घटित होता है या हो सकता है। इसमें वह सब कुछ है, जो धर्म और राजनीति में होता है। इसमें वह भी है, जो आध्यात्मिक मार्ग में घटित होता है।

एक ओर इसमें रिश्तों को लेकर अपनत्व है तो दूसरी ओर खून के रिश्तों को भी तार-तार कर देने वाली असंवेदनशील घटनाएं हैं। दरअसल, महाभारत में जीवन, धर्म, राजनीति, समाज, देश, ज्ञान, विज्ञान आदि सभी विषयों से जुड़ा पाठ है। महाभारत एक ऐसा पाठ है, जो हमें जीवन जीने का श्रेष्ठ मार्ग बताता है। महाभारत की शिक्षा हर काल में प्रासंगिक रही है।

महाभारत को पढ़ने के बाद इससे हमें जो शिक्षा या सबक मिलता है, उसे याद रखना भी जरूरी है। हम जानते हैं ऐसी ही 18 तरह की शिक्षाएं, जो हमें महाभारत से मिलती हैं।

1. जीवन हो योजनाओं से भरा :

भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन का बेहतर प्रबंधन करना जरूरी है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में बेहतर रणनीति आपके जीवन को सफल बना सकती है और यदि कोई योजना या रणनीति नहीं है तो समझो जीवन एक अराजक भविष्य में चला जाएगा जिसके सफल होने की कोई गारंटी नहीं।

भगवान श्रीकृष्ण के पास पांडवों को बचाने का कोई मास्टर प्लान नहीं होता तो पांडवों की क्षमता नहीं थी कि वे कौरवों से किसी भी मामले में जीत जाते। उनकी जीत के पीछे श्रीकृष्ण की रणनीति का बहुत बड़ा योगदान रहा। यदि आपको जीवन के किसी भी क्षेत्र में जीत हासिल करना हो और यदि आपकी रणनीति और उद्देश्य सही है तो आपको जीतने से कोई रोक नहीं सकता।

2. संगत और पंगत हो अच्छी :

कहते हैं कि जैसी संगत वैसी पंगत और जैसी पंगत वैसा जीवन। आप लाख अच्छे हैं लेकिन यदि आपकी संगत बुरी है तो आप बर्बाद हो जाएंगे। लेकिन यदि आप लाख बुरे हैं और आपकी संगत अच्छे लोगों से है और आप उनकी सुनते भी हैं तो निश्चित ही आप आबाद हो जाएंगे।

महाभारत में दुर्योधन उतना बुरा नहीं था जितना कि उसको बुरे मार्ग पर ले जाने के लिए मामा शकुनि दोषी थे। शकुनि मामा जैसी आपने संगत पाल रखी है तो आपका दिमाग चलना बंद ही समझो। जीवन में नकारात्मक लोगों की संगति में रहने से आपके मन और मस्तिष्क पर नकारात्मक विचारों का ही प्रभाव बलवान रहेगा। ऐसे में सकारात्मक या अच्छे भविष्य की कामना व्यर्थ है।

3. थोथा चना बाजे घना :

मालवा में एक कहावत है कि 'थोथा चना बाजे घना' अर्थात जो अधूरे ज्ञान हासिल किए हुए लोग रहते हैं, वे बहुत वाचाल होते हैं। हर बात में अपनी टांग अड़ाते हैं और हर विषय पर अपना ज्ञान बघारने लगते हैं, लेकिन कभी-कभी यह अधूरा ज्ञान भारी भी पड़ जाता है। पहली बात तो यह कि इससे समाज में भ्रम की स्थिति निर्मित होती है और दूसरी बात यह कि ऐसा व्यक्ति जिंदगीभर कन्फ्यूज ही रहता है।
कहते हैं कि अधूरा ज्ञान सबसे खतरनाक होता है।

इस बात का उदाहरण है अभिमन्यु। अभिमन्यु बहुत ही वीर और बहादुर योद्धा था लेकिन उसकी मृत्यु जिस परिस्थिति में हुई उसके बारे में सभी जानते हैं। मुसीबत के समय यह अधूरा ज्ञान किसी भी काम का नहीं रहता है। आप अपने ज्ञान में पारंगत बनें। किसी एक विषय में तो दक्षता हासिल होना ही चाहिए।

4. दोस्त और दुश्मन की पहचान करना सीखें :

महाभारत में कौन किसका दोस्त और कौन किसका दुश्मन था, यह कहना बहुत ज्यादा मुश्किल तो नहीं लेकिन ऐसे कई मित्र थे जिन्होंने अपनी ही सेना के साथ विश्वासघात किया। ऐसे भी कई लोग थे, जो ऐन वक्त पर पाला बदलकर कौरवों या पांडवों के साथ चले गए। शल्य और युयुत्सु इसके उदाहरण हैं।

इसीलिए कहते हैं कि कई बार दोस्त के भेष में दुश्मन हमारे साथ आ जाते हैं और हमसे कई तरह के राज लेते रहते हैं। कुछ ऐसे भी दोस्त होते हैं, जो दोनों तरफ होते हैं। ऐसे दोस्तों पर भी कतई भरोसा नहीं किया जा सकता इसलिए किसी पर भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए। अब आप ही सोचिए कि कौरवों का साथ दे रहे भीष्म, द्रोण और विदुर ने अंतत: युद्ध में पांडवों का ही साथ दिया। ये लोग लड़ाई तो कौरवों की तरफ से लड़ रहे थे लेकिन प्रशंसा पांडवों की करते थे और युद्ध जीतने के उपाय भी पांडवों को ही बताते थे।

5. हथियार से ज्यादा घातक बोल वचन :

यह बात तो सभी जानते होंगे कि किसी के द्वारा दिया गया बयान परिवार, समाज, राष्ट्र या धर्म को नुकसान पहुंचा सकता है। हमारे नेता, अभिनेता और तमाम तरह के सिंहासन पर विराजमान तथाकथित लोगों ने इस देश को अपने बोल वचन से बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।

महाभारत का युद्ध नहीं होता यदि कुछ लोग अपने वचनों पर संयम रख लेते। आपने द्रौपदी का नाम तो सुना ही है। इंद्रप्रस्थ में एक बार जब महल के अंदर दुर्योधन एक जल से भरे कुंड को फर्श समझकर उसमें गिर पड़े थे तो ऊपर से हंसते हुए द्रौपदी ने कहा था- 'अंधे का पुत्र भी अंधा'। बस यही बात दुर्योधन को चुभ गई थी जिसका परिणाम द्रौपदी चीरहरण के रूप में हुआ था। शिशुपाल के बारे में भी आप जानते ही होंगे। भगवान कृष्ण ने उसके 100 अपमान भरे वाक्य माफ कर दिए थे। शकुनी की तो हर बात पांडवों को चुभ जाती थी।

सबक यह कि कुछ भी बोलने से पहले हमें सोच लेना चाहिए कि इसका आपके जीवन, परिवार या राष्ट्र पर क्या असर होगा और इससे कितना नुकसान हो सकता है। इसीलिए कभी किसी का अपमान मत करो। अपमान की आग बड़े-बड़े साम्राज्य नष्ट कर देती है। कभी किसी मनुष्य के व्यवसाय या नौकरी को छोटा मत समझो, उसे छोटा मत कहो।

6. जुए-सट्टे से दूर रहो :

शकुनि ने पांडवों को फंसाने के लिए जुए का आयोजन किया था जिसके चलते पांडवों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था। अंत में उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया था। यह बात सभी जानते हैं कि फिर क्या हुआ?

अत: जुए, सट्टे, षड्यंत्र से हमेशा दूर रहो। ये चीजें मनुष्य का जीवन अंधकारमय बना देती हैं। किसी भी रूप में ये कार्य निंदनीय और वर्जित माने गए हैं। जुए या सट्टे के आजकल कई तरह के रूप प्रचलित हैं। पहले तो पांसे का जुआ होता था, लेकिन आजकल रमी, फ्लश आदि हैं।

7. सदा सत्य के साथ रहो :

कौरवों की सेना पांडवों की सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। एक से एक योद्धा और ज्ञानीजन कौरवों का साथ दे रहे थे। पांडवों की सेना में ऐसे वीर योद्धा नहीं थे।
जब श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि तुम मुझे या मेरी नारायणी सेना में से किसी एक को चुन लो तो दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को छोड़कर उनकी सेना को चुना। अंत: पांडवों का साथ देने के लिए श्रीकृष्ण अकेले रह गए।

कहते हैं कि विजय उसकी नहीं होती जहां लोग ज्यादा हैं, ज्यादा धनवान हैं या बड़े पदाधिकारी हैं। विजय हमेशा उसकी होती है, जहां ईश्वर है और ईश्वर हमेशा वहीं है, जहां सत्य है इसलिए सत्य का साथ कभी न छोड़ें। अंततः सत्य की ही जीत होती है।

भीष्म सत्य का मार्ग जानते थे परन्तु फिर भी अपनी प्रतिज्ञा को उससे ऊपर समझ कर ज्ञानवान व सबसे बुजुर्ग होते हुए भी असत्य का साथ दिया।

आप सत्य की राह पर हैं और कष्टों का सामना कर रहे हैं लेकिन आपका कोई परिचित अनीति, अधर्म और खोटे कर्म करने के बावजूद संपन्न है, सुविधाओं से मालामाल है तो उसे देखकर अपना मार्ग न छोड़ें। आपकी आंखें सिर्फ वर्तमान को देख सकती हैं, भविष्य को नहीं।

8. लड़ाई से डरने वाले मिट जाते हैं :

जिंदगी एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। लेकिन जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाएगा या उसको सबसे पहले मारा जाएगा।

महाभारत में पांडवों को यह बात श्रीकृष्ण ने अच्छे से सिखाई थी। पांडव अपने बंधु-बांधवों से लड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने समझाया कि जब किसी मसले का हल शांतिपूर्ण किसी भी तरीके से नहीं होता तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर लोग युद्ध से पीछे हटते हैं।

इसीलिए अपनी चीज को हासिल करने के लिए कई बार युद्ध करना पड़ता है। अपने अधिकारों के लिए कई बार लड़ना पड़ता है। जो व्यक्ति हमेशा लड़ाई के लिए तैयार रहता है, लड़ाई उस पर कभी भी थोपी नहीं जाती है।

9. खुद नहीं बदलोगे तो समाज तुम्हें बदल देगा :

जीवन में हमेशा दानी, उदार और दयालु होने से काम नहीं चलता। महाभारत में जिस तरह से कर्ण की जिंदगी में उतार-चढ़ाव आए, उससे यही सीख मिलती है कि इस क्रूर दुनिया में अपना अस्तित्व बनाए रखना कितना मुश्किल होता है। इसलिए समय के हिसाब से बदलना जरूरी होता है, लेकिन वह बदलाव ही उचित है जिसमें सभी का हित हो।

कर्ण ने खुद को बदलकर अपने जीवन के लक्ष्य तो हासिल कर लिए, लेकिन वे फिर भी महान नहीं बन सकें, क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग समाज से बदला लेने की भावना से किया। बदले की भावना से किया गया कोई भी कार्य आपके समाज का हित नहीं कर सकता।

10. शिक्षा का सदुपयोग जरूरी :

समाज ने एक महान योद्धा कर्ण को तिरस्कृत किया था, जो समाज को बहुत कुछ दे सकता था लेकिन समाज ने उसकी कद्र नहीं की, क्योंकि उसमें समाज को मिटाने की भावना थी।
कर्ण के लिए शिक्षा का उद्देश्य समाज की सेवा करना नहीं था अपितु वो अपने सामर्थ्य को आधार बनाकर समाज से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। समाज और कर्ण दोनों को ही अपने-अपने द्वारा किए गए अपराध के लिए दंड मिला है और आज भी मिल रहा है।

कर्ण यदि यह समझता कि समाज व्यक्तियों का एक जोड़ मात्र है जिसे हम लोगों ने ही बनाया है, तो संभवत: वह समाज को बदलने का प्रयास करता न कि समाज के प्रति घृणा करता।

11. अच्छे दोस्तों की कद्र करो :

ईमानदार और बिना शर्त समर्थन देने वाले दोस्त भी आपका जीवन बदल सकते हैं। पांडवों के पास भगवान श्रीकृष्ण थे तो कौरवों के पास महान योद्धा कर्ण थे। इन दोनों ने ही दोनों पक्षों को बिना शर्त अपना पूरा साथ और सहयोग दिया था। यदि कर्ण को छल से नहीं मारा जाता तो कौरवों की जीत तय थी।

पांडवों ने हमेशा श्रीकृष्ण की बातों को ध्यान से सुना और उस पर अमल भी किया लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को सिर्फ एक योद्धा समझकर उसका पांडवों की सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया। यदि दुर्योधन कर्ण की बात मानकर कर्ण को घटोत्कच को मारने के लिए दबाव नहीं डालता, तो जो अमोघ अस्त्र कर्ण के पास था उससे अर्जुन मारा जाता।

अगर मित्रता करो तो उसे जरूर निभाओ, लेकिन मित्र होने का यह मतलब नहीं कि गलत काम में भी मित्र का साथ दो। अगर आपका मित्र कोई ऐसा कार्य करे जो नैतिक, संवैधानिक या किसी भी नजरिए से सही नहीं है तो उसे गलत राह छोड़ने के लिए कहना चाहिए।

जिस व्यक्ति को हितैषी, सच बोलने वाला, विपत्ति में साथ निभाने वाला, गलत कदम से रोकने वाला मित्र मिल जाता है उसका जीवन सुखी है। जो उसकी नेक राय पर अमल करता है, उसका जीवन सफल होता है।

12. भावुकता कमजोरी है :

धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को लेकर जरूरत से ज्यादा ही भावुक और आसक्त थे। यही कारण रहा कि उनका एक भी पुत्र उनके वश में नहीं रहा। वे पुत्र मोह में भी अंधे थे।

जरूरत से ज्यादा भावुकता कई बार इंसान को कमजोर बना देती है और वो सही-गलत का फर्क नहीं पहचान पाता। कुछ ऐसा ही हुआ महाभारत में धृतराष्ट्र के साथ, जो अपने पुत्र मोह में आकर सही-गलत का फर्क भूल गए।

बुरे हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने की जगह पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।

आपकी और हमारी जिंदगी में भी ऐसे तमाम मौके आते हैं जबकि हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग इस दौरान घबरा जाते हैं, कुछ दुखी हो जाते हैं और कुछ शुतुरमुर्ग बन जाते हैं और कुछ लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं।

मानसिक रूप से दृढ़ व्यक्ति ही ऐसे हालात में शांतचित्त रहकर धैर्य और संयम से काम लेकर सभी को ढांढस बंधाने का कार्य करता है और इन मुश्किल हालात से सभी को बाहर निकाल लाता है। परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में आपसी टकराव, संघर्ष और कलह होते रहते हैं लेकिन इन सभी में संयम जरूरी है।

13. शिक्षा और योग्यता के लिए जुनूनी बनो :

व्यक्ति के जीवन में उसके द्वारा हासिल शिक्षा और उसकी कार्य योग्यता ही काम आती है। दोनों के प्रति एकलव्य जैसा जुनून होना चाहिए ।
अगर आप अपने काम के प्रति जुनूनी हैं तो कोई भी बाधा आपका रास्ता नहीं रोक सकती।

एकलव्य इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिन्होंने छिपकर वह सब कुछ सीखा, जो गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को सिखाते थे। एकलव्य की लगन और मेहनत का ही नतीजा था, जो वे अर्जुन से भी बेहतर धनुर्धर बन गए थे।

14. कर्मवान बनो :

इंसान की जिंदगी जन्म और मौत के बीच की कड़ी-भर है। यह जिंदगी बहुत छोटी है। कब दिन गुजर जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा इसलिए प्रत्येक दिन का भरपूर उपयोग करना चाहिए। कुछ ऐसे भी कर्म करना चाहिए, जो आपके अगले जीवन की तैयारी के हों।

अत: इस जीवन में जितना हो सके, उतने अच्छे कर्म कीजिए। एक बार यह जीवन बीत गया, तो फिर आपकी प्रतिभा, पहचान, धन और रुतबा किसी काम नहीं आएंगे।

15. अहंकार और घमंड होता है पतन का कारण :

अपनी अच्छी स्थिति, बैंक-बैलेंस, संपदा, सुंदर रूप और विद्वता का कभी अहंकार मत कीजिए। अगर आप में ये खूबियां हैं तो ईश्वर का आभार मानिए। समय बड़ा बलवान है। धनी, ज्ञानी, शक्तिशाली पांडवों ने वनवास भोगा और अतिसुंदर द्रौपदी भी उनके साथ वनों में भटकती रही।

16. कोई भी संपत्ति किसी की भी नहीं है :

अत्यधिक लालच इंसान की जिंदगी को नर्क बना देता है। जो आपका नहीं है उसे अनीति-पूर्वक लेने, हड़पने का प्रयास न करें। आज नहीं तो कल, ईश्वर उसका दंड अवश्य ही देता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आज जो तेरा है कल (बीता हुआ कल) किसी और का था और कल (आने वाला कल) किसी और का हो जाएगा। अत: तू संपत्ति और वस्तुओं से आसक्ति मत पाल। यह तेरी मृत्यु के बाद यहीं रखे रह जाएंगे। अर्जित करना है तो किसी का प्रेम अर्जित कर, जो हमेशा तेरे साथ रहेगा।

17. ज्ञान का हो सही क्रियान्वयन :

शिष्य या पुत्र को ज्ञान देना माता-पिता व गुरु का कर्तव्य है, लेकिन सिर्फ ज्ञान से कुछ भी हासिल नहीं होता। बिना विवेक और सद्बुद्धि के ज्ञान अकर्म या विनाश का कारण ही बनता है इसलिए ज्ञान के साथ विवेक और अच्छे संस्कार देने भी जरूरी हैं।

इसके अलावा वह ज्ञान भी निष्प्रयोजन सिद्ध होता है जिसे हासिल करने वाला व्यक्ति योग्य नहीं है अर्थात जिसका कोई व्यक्तित्व और कार्य करने की क्षमता नहीं है।

18. दंड का डर जरूरी :

न्याय व्यवस्था वही कायम रख सकता है, जो दंड का सही रूप में लागू करने की क्षमता रखता हो। यह चिंतन घातक है कि ‘अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं।’
दुनियाभर की जेलों से इसके उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं कि जिन अपराधियों को सुधारने की दृष्टि से पुनर्वास कार्यक्रम चलाए गए, उन्होंने समाज में जाकर फिर से अपराध को अंजाम दिया है। अपराधी को हर हाल में दंड मिलना ही चाहिए। यदि उसे दंड नहीं मिलेगा, तो समाज में और भी अपराधी पैदा होंगे और फिर इस तरह संपूर्ण समाज ही अपराधियों का समाज बन जाएगा।

महाभारत में युधिष्ठिर दंड की बजाय क्षमा में विश्वास करते थे, लेकिन वे भी तब निराश हो गए जब दुर्योधन ने अपने वादे का पालन न करके राज्य में उनका हिस्सा नहीं लौटाया।

युधिष्ठिर के अहिंसा में उनके विश्वास को देखते हुए युद्ध के बाद भीष्म को उन्हें उपदेश देना पड़ा कि राजधर्म में हमेशा दंड की जरूरत होती है, क्योंकि प्रत्येक समाज में अपराधी तो होंगे ही। दंड न देना सबसे बड़ा अपराध होता है।

महाभारत में अश्वत्थामा की कहानी में अपराध और सजा ही केंद्रीय तत्व है। आत्मविश्वास, शालीनता और निष्पक्षता- हर तरह से अश्वत्थामा बहुत अच्छा युवक था। द्रोण ऋषि के यहां जन्म लेने के कारण वह राजकुमारों के बीच पला-बढ़ा था। युद्ध की घोषणा होने के बाद उसने खुद को गलत पक्ष में पाया। वह पूरी निष्ठा से लड़ता है और कौरवों की पराजय को स्वीकार भी करता है।

हालांकि, पिता की धोखे से हुई ह त्या पर वह बदले का संकल्प ले लेता है। वह पांडवों की विजेता सेना के सोने के बाद उनके शिविरों में आग लगा देता है। यह इतना जघन्य हत्याकांड है कि पांडवों के विजय के स्वर सुखांत से बदलकर विषाद और वैराग्य में बदल गए थे।

जब द्रौपदी को इस ह त्याकांड में अपने पुत्रों की मौत का पता चलता है तो वह बदला लेने पर जोर देती है। अश्वत्थामा के पकड़े जाने पर उसके जघन्य अपराध की उचित सजा पर बहस होती है। वे सभी मानते हैं कि मौत की सजा तो दया दिखाने जैसा होगा। अंत में श्रीकृष्ण सजा सुनाते हैं:- ‘तुम इस धरती पर 3,000 साल तक अकेले, अदृश्य, रक्त और पीप की बदबू लिए भटकोगे।’

हिन्दू धर्म व सनातन संस्कृति के महान ग्रंथों पर हमें गर्व करना चाहिए जिसमें अनेक गूढ़ रहस्य छुपे हैं। यह हमारे प्रेरणा स्रोत हैं। इनकी अच्छी बातों को खोजकर अपने जीवन व समाज को उन्नत बनाया जा सकता है।

स्त्री को न केवल प्रकृति और सर्जन की शक्ति के रूप में स्थापित किया गया है, बल्कि उसकी शक्ति का आधार उसकी 'विच्छित्ति' (अ...
13/11/2025

स्त्री को न केवल प्रकृति और सर्जन की शक्ति के रूप में स्थापित किया गया है, बल्कि उसकी शक्ति का आधार उसकी 'विच्छित्ति' (अंश छोड़ने) की प्रवृत्ति में भी निहित है। यह अंश-छोड़ने की प्रक्रिया उसकी स्थायित्व और आवश्यकता को दर्शाती है। पुरुष क्रिया और व्याप्ति (फैलाव) को प्राथमिकता देता है—वह कार्य करके पूर्णतः रिक्ति (खालीपन) की ओर बढ़ सकता है, स्वयं को कार्य से अलग कर सकता है। इसके विपरीत, स्त्री का बल उसके आकार (Form) के प्रति आग्रह और आवश्यकता (Sustenance) के प्रति समर्पण में है। चूंकि वह सृष्टि का धारण करती है (प्रकृति), इसलिए वह कभी भी किसी स्थान से संपूर्णतः नहीं घटती। यह 'शेष' रहने का गुण ही उसे आपूर्ति बनाता है। वह चाहे मायका हो या ससुराल, उसके अंश (स्मृति, संस्कार, ऊर्जा) उस स्थान की चेतना में मिलकर उसे जीवन प्रदान करते रहते हैं। यह उसकी अखण्ड उपस्थिति (Unbroken Presence) का प्रमाण है, जो उसे मात्र बल से नहीं, बल्कि शाश्वतता से जोड़ता है।
जय श्री कृष्ण 🙏

राम जी के बारे में तो आप सभी लोग बहुत कुछ जानते हैं पर लक्ष्मणजी के बारे में कितना जानते हैं...अगर नहीं भी जानते हैं तो ...
13/11/2025

राम जी के बारे में तो आप सभी लोग बहुत कुछ जानते हैं पर लक्ष्मणजी के बारे में कितना जानते हैं...अगर नहीं भी जानते हैं तो आइए देखते हैं:-

हनुमानजी की रामभक्ति की गाथा संसार में भर में गाई जाती है। लक्ष्मणजी की भक्ति भी अद्भुत थी। लक्ष्मणजी की कथा के बिना श्री रामकथा पूर्ण नहीं है अगस्त्य मुनि अयोध्या आए और लंका युद्ध का प्रसंग छिड़ गया -

भगवान श्रीराम ने बताया कि उन्होंने कैसे रावण और कुंभकर्ण जैसे प्रचंड वीरों का वध किया और लक्ष्मण ने भी इंद्रजीत और अतिकाय जैसे शक्तिशाली असुरों को मारा।

अगस्त्य मुनि बोले- श्रीराम बेशक रावण और कुंभकर्ण प्रचंड वीर थे, लेकिन सबसे बड़ा वीर तो मेघनाध ही था। उसने अंतरिक्ष में स्थित होकर इंद्र से युद्ध किया था और बांधकर लंका ले आया था। ब्रह्मा ने इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा तब इंद्र मुक्त हुए' ॥ लक्ष्मण ने उसका वध किया इसलिए वे सबसे बड़े योद्धा हुए।

श्रीराम को आश्चर्य हुआ लेकिन भाई की वीरता की प्रशंसा से वह खुश थे। फिर भी उनके मन में जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर अगस्त्य मुनि ऐसा क्यों कह रहे हैं कि इंद्रजीत का वध रावण से ज्यादा मुश्किल था। अगस्त्य मुनि ने कहा- प्रभु इंद्रजीत को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता था जो

चौदह वर्षों तक न सोया हो, जिसने चौदह साल तक किसी स्त्री का मुख न देखा हो और चौदह साल तक भोजन न किया हो।

श्रीराम बोले- परंतु मैं बनवास काल में चौदह वर्षों तक नियमित रूप से लक्ष्मण के हिस्से का फल-फूल देता रहा। मैं सीता के साथ एक कुटी में रहता था, बगल की कुटी में लक्ष्मण थे, फिर सीता का मुख भी न देखा हो, और चौदह वर्षों तक सोए न हों, ऐसा कैसे संभव है!

अगस्त्य मुनि सारी बात समझकर मुस्कुराए ॥ प्रभु से कुछ छुपा है भला ! दरअसल, सभी लोग सिर्फ श्रीराम का गुणगान करते थे लेकिन प्रभु चाहते थे कि लक्ष्मण के तप और वीरता की चर्चा भी अयोध्या के घर-घर में हो।

अगस्त्य मुनि ने कहा - क्यों न इसके बारे में लक्ष्मणजी से ही पूछा जाए।

लक्ष्मणजी आए प्रभु ने कहा कि आपसे जो पूछा जाए उसे सच-सच कहिएगा।

प्रभु ने पूछा- हम तीनों चौदह वर्षों तक साथ रहे फिर तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा, फल दिए गए फिर भी अनहारी कैसे रहे और 14 साल तक सोए नहीं.….यह कैसे हुआ?

लक्ष्मणजी ने बताया- भैया जब हम भाभी को तलाश ऋष्यमूक पर्वत गए तो सुग्रीव ने हमें उनके आभूषण दिखाकर पहचानने को कहा। आपको स्मरण होगा मैं तो सिवाए उनके पैरों के नुपूर के कोई आभूषण नहीं पहचान पाया था क्योंकि मैंने कभी भी उनके चरणों के ऊपर देखा ही नहीं।

चौदह वर्ष नहीं सोने के बारे में सुनिए - आप और माता एक कुटिया में सोते थे. मैं रातभर बाहर धनुष पर बाण चढ़ाए पहरेदारी में खड़ा रहता था. निद्रा ने मेरी आंखों पर कब्जा करने की कोशिश की तो मैंने निद्रा को अपने बाणों से बेध दिया था।

निद्रा ने हारकर स्वीकार किया कि वह चौदह साल तक मुझे स्पर्श नहीं करेगी लेकिन जब श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक हो रहा होगा और मैं उनके पीछे सेवक की तरह छत्र लिए खड़ा रहूंगा तब वह मुझे घेरेगी ॥ आपको याद होगा राज्याभिषेक के समय मेरे हाथ से छत्र गिर गया था।

अब मैं 14 साल तक अनाहारी कैसे रहा! मैं जो फल-फूल लाता था आप उसके तीन भाग करते थे. एक भाग देकर आप मुझसे कहते थे लक्ष्मण फल रख लो॥ आपने कभी फल खाने को नहीं कहा - फिर बिना आपकी आज्ञा के मैं उसे खाता कैसे?

मैंने उन्हें संभाल कर रख दिया। सभी फल उसी कुटिया में अभी भी रखे होंगे ॥ प्रभु के आदेश पर लक्ष्मणजी चित्रकूट की कुटिया में से वे सारे फलों की टोकरी लेकर आए और दरबार में रख दिया ॥ फलों की गिनती हुई, सात दिन के हिस्से के फल नहीं थे।

प्रभु ने कहा- इसका अर्थ है कि तुमने सात दिन तो आहार लिया था?

लक्ष्मणजी ने सात फल कम होने के बारे बताया- उन सात दिनों में फल आए ही नहीं :-

जिस दिन हमें पिताश्री के स्वर्गवासी होने की सूचना मिली, हम निराहारी रहे, जिस दिन रावण ने माता का हरण किया उस दिन फल लाने कौन जाता। जिस दिन समुद्र की साधना कर आप उससे राह मांग रहे थे, जिस दिन आप इंद्रजीत के नागपाश में बंधकर दिनभर अचेत रहे, जिस दिन इंद्रजीत ने मायावी सीता को काटा था और हम शोक में रहे, जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी, और जिस दिन आपने रावण वध किया।

इन दिनों में हमें भोजन की सुध कहां थी। विश्वामित्र मुनि से मैंने एक अतिरिक्त विद्या का ज्ञान लिया था- "बिना आहार किए जीने की विद्या" उसके प्रयोग से मैं चौदह साल तक अपनी भूख को नियंत्रित कर सका जिससे इंद्रजीत मारा गया।

भगवान श्रीराम ने लक्ष्मणजी की तपस्या के बारे में सुनकर उन्हें ह्रदय से लगा लिया।

नोट ये मेरा मूल पोस्ट नहीं है, इसे मैंने अलग अलग जगहों(कुछ सज्जन के पोस्ट से भी) से इकट्ठा किया है।
🙏जय श्री राम 🙏

राधे राधे 🙏
12/11/2025

राधे राधे 🙏

भगवान राम ने अपने प्रिय भाई भरत को हृदय से लगायाभगवान राम जब वनवास के लिए अयोध्या से गए थे। तब उनके प्रिय भाई भरत ने प्र...
11/11/2025

भगवान राम ने अपने प्रिय भाई भरत को हृदय से लगाया
भगवान राम जब वनवास के लिए अयोध्या से गए थे। तब उनके प्रिय भाई भरत ने प्रण लिया था और श्री राम से कहा था कि आपका भाई भरत आज से ये प्रण लेता है कि जब तक आपका चौदह वर्ष का वनवास रहेगा तब तक में आपके कुशल मंगल रहने के लिए चौदह वर्षों तक अयोध्या स्थित नंदीग्राम में रह कर तप करूंगा और कहा कि यदि भ्राता श्री आप चौदह वर्ष के वनवास को पूर्ण करने के अंतिम दिन अयोध्या नहीं आए तो आपका ये भाई भरत अपने प्राण त्याग देगा।

श्री राम ने अपने प्रिय भाई भरत को हृदय से लगाया और कहा कि भरत में वचन देता हूं कि चौदह वर्ष का वनवास पिता के द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार पूर्ण करने के बाद अयोध्या आऊंगा। जब भगवान राम चौदह पर्व का वनवास पूर्ण करने के बाद अयोध्या आ रहे थे। तो सबसे पहले अपने भाई भरत से अयोध्या स्थित नंदीग्राम में मिले और प्रिय भाई भरत को प्रेम पूर्वक हृदय से लगाया और यह क्षण भरत मिलाप कहलाया।

जब भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास बिताने के बाद अपनी अवध पुरी पधारे तो अयोधवासियों का मन हर्षित हो गया था। अपने आराध्या करुणा के सागर श्री राम के अयोध्या आगमन की खुशी में अयोध्यावासियों ने उस मार्ग पर पुष्प बिछा दिए थे, दीपों की पंक्तियां जगह-जगह लगा दी थी। उस समय अयोध्या नगरी संपूर्ण सृष्टि में दैदीप्यमान हो गई थी। घर आगमन की खुशी में अयोध्यावासी मंगल गीत गा रहे थें। देवता गण पु्ष्प वर्षा कर रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों स्वर्ग भी अयोध्या नगरी के आगे फीका पड़ गया हो। वो क्षण देखने योग्य था, ये सारी वातें दिव्य ग्रंथ रामचरितमानस में वर्णित हैं। आइये जानते हैं वो दोहे जिसमें भगवान राम के स्वागत से जुड़ी बातें बताई गई हैं।

दोहा इस प्रकार से

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥

भावार्थ: आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल की और प्रसधान करने के लिए चले, आकाश फूलों की वृष्टि छा गई। सभी अयोध्यावासी अटारियों पर चढ़कर अपने प्रभु श्री राम के दर्शन कर रहे हैं॥

कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥

भावार्थ: उस क्षण अयोध्यावासियों ने सोने के कलशों को मणि-रत्नादि से भर लिया और कलश को सजाकर सभी नगर वासियों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएं लगाईं हुई थीं।

भगवान राम के अयोध्या आगमन पर महादेव ने की स्तुति
शास्त्रों में कहा जाता है कि राम शिव को जपते हैं और शिव राम को दोनों में कोई भी भेद नहीं है। जब भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास काल समाप्त करने के बाद अयोध्या आए तब शिव जी ने प्रसन्न हो कर उनके स्वागत में यह स्तुति गाई थी। यह स्तुति रामचरितमानस में भी वर्णित है।

स्तुति इस प्रकार

जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।

भीतर की खदान......!!एक संत एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे।एक दिन उ...
10/11/2025

भीतर की खदान......!!

एक संत एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे।

एक दिन उन्होंने लकड़हारे से कहा कि सुन भाई, दिन-भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता, वहां आगे चंदन का जंगल है।

एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।

गरीब लकड़हारे को विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में लकड़ियां काटते-काटते ही तो जिंदगी बीती। यह संत यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा?

मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों? सन्त आदमी मालूम पड़ता है। कभी बोला भी नहीं इसके पहले। एक बार प्रयोग करके तो देख लेना चाहिए।

संत की बातों पर विश्वास कर वह आगे गया। लौटा तो संत के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियों के बारे में कौन जानता है।

मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही जलाऊ-लकड़ियां काटते-काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या।

हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध बतलाई, तुमने परख दी।

मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता!

संत ने कहा कोई फिक्र न करो, अब पता चला तो भी ठीक है। जब जागो तभी सबेरा है । दिन बड़े मजे में कटने लगे।

एक दिन काट लेता, सात आठ दिन, दस दिन जंगल जाने की जरूरत ही न रहती.....!!

एक दिन संत ने कहा ; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आ गई होगी, जिंदगी भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए ; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है?

उसने कहा; यह तो मुझे ख्याल ही न आया कि चंदन के आगे भी कुछ है!

उस संत ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। अब लकड़ियाँ काटना छोड़ो ।
एक दिन ले आओगे, दो-चार छ: महीने के लिए हो जाएगा।

अब तो वह संत पर भरोसा करने लगा था। बिना संदेह किये भागा। चांदी हाथ लग जाए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार-छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता।

लेकिन व्यक्ति मन का ऐसा मूढ़ था कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे भी कुछ हो सकता है।
संत ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझे ही तुम्हें जगाना पड़ेगा।

आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं?

अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे जाकर देखूं यह खयाल नहीं आता?

उसने कहा कि मैं भी मंदभागी हूँ , मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी मिल गई, बस बात बन गई, अब और क्या चाहिए!
गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, न सुना था!

संत ने कहा, थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी आगे चलती गई।

फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे ही कहानी चलती गई । और एक दिन संत ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया?

अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशान न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस संत ने कहा, हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह व्यक्ति मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं ले रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा ! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ तो होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?

वह व्यक्ति रोने लगा। संत के चरणों में सिर पटक दिया। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं, मुझे यह ख्याल आया ही नहीं। यही हाल हम सब का है।

तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह ख्याल तो मेरे जन्मों-जन्मों में नहीं आ सकता था कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।

संत ने कहा : उसी धन का नाम "ध्यान" है।

अब खूब तेरे पास धन है, अब तुझे धन की कोई जरूरत नहीं। अब जरा अपने "भीतर की खदान" खोद, जो सबसे आगे है।

🙏🏻जय श्री राम 🙏🏻

तेरी मंद मंद मुस्कानिया पे,वारी जाऊं हे राधे रानी।वृन्दावन की तू स्वामिनी,तेरी महिमा जगत ने जानी।बरसाने की लाड़ली किशोरी...
08/11/2025

तेरी मंद मंद मुस्कानिया पे,
वारी जाऊं हे राधे रानी।
वृन्दावन की तू स्वामिनी,
तेरी महिमा जगत ने जानी।

बरसाने की लाड़ली किशोरी,
सब जग में तेरी छवि न्यारी।
श्याम रंग में रंगी तू ऐसे,
जैसे घनश्याम संग दामिनी प्यारी।

कण-कण में तेरा वास है राधे,
तू प्रेम की अनुपम परिभाषा।
तेरे नाम से ही होती है,
कान्हा की हर अधूरी अभिलाषा।

बंशीवट की शीतल छाँव में,
तेरी ही तो गूँज सुनाई दे।
जब भी कान्हा मुरली बजाएं,
राधा-राधा स्वर दोहराई दे।

हे वृषभानु-नंदिनी प्यारी,
कृपा कटाक्ष करो एक बार।
तुम्हारे चरणों की रज मिल जाए,
हो जाए जीवन का उद्धार।

राधे-राधे जपने से ही,
मिल जाते हैं श्याम हमारे।
राधा-कृष्ण का युगल रूप है,
भक्ति का एक अटूट सहारे।

प्यारी जू वी श्याम जू के दिव्य श्रृंगार के प्रातः कालीन दर्शन करिए

📿


















विष्णु पुराण के अनुसार मृत प्राणियों में ब्राम्हण के लिए 10 दिन, क्षत्रिय के लिए 12 दिन, वैश्य के लिए 15 दिन और शूद्र के...
05/11/2025

विष्णु पुराण के अनुसार मृत प्राणियों में ब्राम्हण के लिए 10 दिन, क्षत्रिय के लिए 12 दिन, वैश्य के लिए 15 दिन और शूद्र के लिए 1 माह का अशौच माना गया है, अर्थात इतने दिनों के बाद ही इन वर्णी पुरुषों की शुद्धि हो पाती है।
अशौच काल के अंत में क्षमता के अनुसार तीन, पांच, सात या नौ ब्राम्हणों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराना चाहिए लेकिन अब तो पूरे ग्राम के साथ साथ, सगे-संबधियों, मित्रों औऱ अन्य लोग को श्राद्ध में शामिल होने के लिए बुलाने का कुप्रथा फैल गयी है, इसे किसने बढ़ावा दिया और किसने इसे उचित ठहराया ये सोचने वाली बात है, काश इस युग में भी कोई राजा राम मोहन राय जैसा ब्यक्ति आगे आ जाएँ और इस कुप्रथा को खत्म करने की कोशिश कर पाए।
आपमें से कितने लोग श्राद्धकर्म में लोगों को आमंत्रित कर भोजन कराना उचित समझते हैं?

बालकों में जो स्थान नचिकेता का है वही स्थान स्त्रियों में सावित्री का है। आइए अध्ययन करें।🥰मैं ऐसे ही एक दिन शाम के वक्त...
04/11/2025

बालकों में जो स्थान नचिकेता का है वही स्थान स्त्रियों में सावित्री का है। आइए अध्ययन करें।🥰

मैं ऐसे ही एक दिन शाम के वक्त पास के पार्क में घूमने के लिए गया हुआ था, वहीं पर व्यायाम या फिर अपने मित्रों के साथ मिलने जुलने के लिए आए कुछ बुजुर्ग बुद्धिजीवी लोग आपस में बातचीत कर रहे थे... और मैं भी वहीं पर पास में ही बैठा हुआ था। वे शायद भारत में नारी की वर्तमान दशा पर आपस में चर्चा कर रहे थे। उनमें से ही किसी ने बोला की भारतीय समाज में नारी को सती सावित्री की तरह बेचारी बना दिया गया है। वहां पर लगभग सभी बुजुर्ग लोग इस बात पर एक तरह से सहमत भी थे क्योंकि इसके बाद उनमें एक तरह से मौन वाली स्थिति व्याप्त थी! खैर मैं तो वहां पर पास में एक श्रोता मात्र था, उनका मित्र नहीं! किन्तु पता नही मुझे उस वक्त मन में क्या आया की उनसे पूछ बैठा कि क्या आप सती अथवा सावित्री के विषय में अच्छे से जानते हैं?

इस पर उनमें से एक बुजुर्ग ने कहा, “हाँ जानता हूँ!”

उस पर मैने उनसे प्रार्थना की, “थोड़ा बताइए।”

तो इस पर उन्होंने सती के बारे में तो कुछ नहीं बताया किंतु सावित्री के बारे में बोलने लगे, “सावित्री को सती दिखाने के लिए व्रत और पूजा पाठ गले में डाल दी गई है, मैं पूछता हूँ, पुरुष क्यों नहीं पत्नी के लिए व्रत रखते हैं?” इस बात को सुनकर बाकी के बुजुर्गों को आनंद आ रहा था!

मैने पूछा, “मान्यवर आप तो अपनी बात कह चुके अब अगर आपकी इजाजत ही तो मुझे कुछ सवाल करने का अवसर दें।”

वे बोले पूछिए!

अब मैने कहा, “सावित्री का विवाह कैसे हुआ था।”

उन्होंने बताया कि पिता के कहने पर वे स्वयं अपने लिए उचित वर खोजने गई थीं!

मैने वहां पर उपस्थित लोगों से पूछा, “आपके घर में सफल महिलाओं को किन किन को इस तरह की आज़ादी मिली है?”

अब उन बुजुर्गों के शिर सोच में नीचे झुक गए, और उनमें से किसी ने भी इस आज़ादी के मिलने की बात नहीं कही।

मैंने उनसे पुनः पूछा, “कितनी आधुनिक सशक्त महिला राजा की बेटी होने पर भी एक लकड़ी काटने वाले को पति चुन लेंगी, जिसके माता पिता अंधे हैं?"

इस बार भी उन बुजुर्गों की टोली में फिर से सन्नाटा था! अब मैं वहां पर प्रश्न पूछने वाला और बुजुर्गों की टोली में शामिल लोग मेरे प्रश्नों के उत्तरदायी थे!

मैंने फिर से सवाल किया, जब सावित्री ने सत्यवान से विवाह की बात कही तो देवर्षि नारद ने उनसे क्या कहा था?

इस पर एक बुजुर्ग ने उत्तर दिया, “सत्यवान की आयु मात्र एक वर्ष है, इससे विवाह नहीं करना चाहिए।”

सावित्री ने क्या कहा? “मैंने जिसे एक बार पति मान लिया तो मान लिया विवाह करूँगी तो उसी से।”

“माता पिता और देवर्षि नारद की बात को ठुकरा कर अपने मन की बात पूरी करने वाली वो महिला फिर बेचारी कैसे है!”

इस बात पर उन बुजुर्गों की सभा में सन्नाटा था और वहां पर मौजूद कुछ महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान थी! खैर वो चर्चा तो वहीं पर समाप्त हो गई थी।

अब आप भी सावित्री सत्यवान का संवाद सुने और देखें कमजोर कौन है!

पूरी कथा थोड़ी लम्बी है...अतः धैर्यपूर्वक इसे अंत तक पढ़ें...

सत्यवान के प्राण हर कर के जाते हुए यम का मार्ग रोकती सावित्री को यम कहते है, “अब तू लौट जा, सत्यवान का अन्त्येष्टि-संस्कार कर। अब तू पति के ऋण से उऋण हो गई! पति के पीछे तुझे जहाँ तक आना चाहिए था, तू वहाँ तक आ चुकी है।”

सावित्री, “जहाँ मेरे पति ले जाये जाते हैं अथवा ये स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी जाना चाहिये; यही सनातन धर्म है। तपस्या, गुरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रतपालन तथा आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती।”

कितनी महिलाएँ विपदा में यह सामर्थ्य रखती हैं? महाभारत वनपर्व के पतिव्रतामाहात्म्य पर्व के अंतर्गत अध्याय 297 में सावित्री और यम के संवाद का वर्णन हुआ है।

तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा, “मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता। तुम और कोई मनचाहा वर मांग लो।”

तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर की आंखे मांग ली।

यमराज ने कहा तथास्तु!

फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए।

तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यह वर मिलने के बाद भी सावित्री यम के पीछे आती रही!

यहाँ यह विचार करना ज़रूरी है कि यमराज कोई कृपा नहीं कर रहे हैं वे जिसकी मृत्यु नहीं आती है वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जो स्त्री उनके पीछे आ रही है उसका तप और सिद्धि स्पष्ट दिख रही है तब वे वर देकर अपनी जान छुड़ा रहे हैं क्योंकि यदि आज सत्यवान जीवित हो उठा तो मृत्यु का अजेयता ख़तरे में हैं, यहाँ सावित्री सर्वशक्तिमान है और सर्वशक्तिमान 'यम' नियमों से बांधे गए एक मजबूर देवता हैं।

अब आगे सावित्री का वाक् कौशल देखें, और वह भी यम के सामने जो कि सूर्य के पुत्र हैं और नचिकेता को अमरता की दीक्षा दे चुके है।

यमराज ने फिर कहा, “सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो।”

तब सावित्री ने कहा “मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों।” यमराज ने कहा, “तथास्तु।”

अब सावित्री पूछती हैं, “बिना पति पुत्र कैसे” और लाचार यम सत्यवान के प्राण मुक्त कर जीवन देते हैं!

यहाँ आप हनुमान और सुरसा के संवाद को याद करें कैसे चतुर हनुमान विशालकाय सुरसा के मुख में प्रवेश कर बाहर आ जाते हैं और सुरसा के उन्हें खा लेने के संकल्प को पूरा भी कर देते हैं और जीवित भी रहते हैं!

आज सावित्री उससे भी अद्भुत कार्य कर रही हैं वे सास ससुर की आंखें, राज्य, अपने लिए भाई और पति का जीवन ला रही हैं और वह भी बिना युद्ध, बिना कोर्ट कचहरी!

जब मैं सती, सावित्री, सीता, द्रौपदी का जीवन देखता हुँ तो मुझे पुरुष बौने लगते हैं!

आप सोचिए कि द्रौपदी को सभा में बुलाया जा रहा है कि युधिष्ठिर ने उसे दांव में खो दिया है और दुर्योधन ने उसे सभा में बुलाया है?

ऐसी विपदा में द्रौपदी का विवेक देखें, वह सवाल करती है, “दांव पर मुझे राजा युधिष्ठिर ने लगाया या दास युधिष्ठिर ने।”

दुर्योधन जान गया कि युधिष्ठिर को द्रौपदी को दांव पर लगाने की पात्रता ही नहीं थी। अब वह उत्तर नहीं देता अपितु दूत को कहता है, कि द्रौपदी से कहो कि जो भी सवाल करना है वह सभा में करना।

तो यहाँ सभा पांडव, कौरव, द्रोण, भीष्म सब तर्क में पराजित हैं दुष्ट दुशासन पशु बल का प्रयोग करता है और आयु, राज्य खो देता है! लाचार कही जाने वाली द्रौपदी एक नागिन की तरह फुफकारती है, दुशासन के रक्त से अपने बाल धोने की शपथ लेती है! पूरा करती है, कृष्ण जब संधि के लिए जा रहे थे द्रौपदी अपने खुले केश दिखा कर कृष्ण संकेत करती है उसे क्या चाहिए!

क्या यह ज्ञान, यह कठोर प्रतिज्ञा, यह दंड यह भेद जानने और अपनाने वाले को अबला कह सकते हैं?

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