Nityanand Kumar

Nityanand Kumar हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे!
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे!!
ओम क्लीम कृष्णाय नमः
(1)

गीता को कृष्ण ने कहीं कम, अर्जुन ने कहलवाई ज्यादा है।

श्रीमद्भागवत का असली लेखक कृष्ण नहीं है बल्कि इसके असली लेखक अर्जुन हैं। अर्जुन की उस वक्त की चीत्त दशा ही इस गीता का आधार बनी है। और कृष्ण को साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक हिंसक अपनी हिंसा के पूरे दर्शन को उपलब्ध हो गया है। और अब हिंसा से भागने की जो बातें हैं कर रहा है उसका कारण भी हिंसक चित्त ही है । अर्जुन की दुविधा अहिंसक की हिंसा से भागने क

ी दुविधा नहीं है। अर्जुन की दुविधा हिंसक की हिंसा से ही भागने की दुविधा है।

इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह ममत्व हिंसा ही है, लेकिन गहरी हिंसा है, दिखाई नहीं पड़ती। जब मैं किसी को कहता हूँ मेरा, तो पजेशन शुरू हो गया, मालकियत शुरू हो गई है। मालकियत हिंसा का एक रूप है। पति पत्नी से कहता है, मेरी। मालकियत शुरू हो गई। पत्नी पति से कहती है, मेरे। मालकियत शुरू हो गई। और जब भी हम किसी व्यक्ति के मालिक हो जाते हैं, तभी हम उस व्यक्ति की आत्मा का हनन कर देते हैं। हमने मार डाला उसे। हमने तोड़ डाला उसे। असल में हम उस व्यक्ति के साथ व्यक्ति की तरह नहीं, वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अब कुर्सी मेरी जिस अर्थ में होती है, उसी अर्थ में पत्नी मेरी हो जाती है। मकान मेरा जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में पति मेरा हो जाता है।

स्वभावतः, इसलिए जहां-जहां मेरे का संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, सिर्फ कलह ही फलित होती है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा | करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही चल सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। मेरे का दावा, मैत्री का विनाश है। मेरे का दावा, चीजों को उलटा ही कर देता है। सब हिंसा हो जाती है।

आपसभी हरि भक्तों को निर्जला एकादशी की हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं।__*निर्जला एकादशी का महत्व*_ निर्जला यानि यह व्रत...
07/06/2025

आपसभी हरि भक्तों को निर्जला एकादशी की हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं।_

_*निर्जला एकादशी का महत्व*_

निर्जला यानि यह व्रत बिना जल ग्रहण किए और उपवास रखकर किया जाता है। इसलिए यह व्रत कठिन तप और साधना के समान महत्त्व रखता है। हिन्दू पंचाग अनुसार वृषभ और मिथुन संक्रांति के बीच शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। इस व्रत को भीमसेन एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि पाँच पाण्डवों में एक भीमसेन ने इस व्रत का पालन किया था और वैकुंठ को गए थे।इसलिए इसका नाम भीमसेनी एकादशी भी हुआ।

सिर्फ निर्जला एकादशी का व्रत कर लेने से अधिकमास की दो एकादशियों सहित साल की 25 एकादशी व्रत का फल मिलता है। जहाँ साल भर की अन्य एकादशी व्रत में आहार संयम का महत्त्व है। वहीं निर्जला एकादशी के दिन आहार के साथ ही जल का संयम भी ज़रूरी है। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है यानि निर्जल रहकर व्रत का पालन किया जाता है। यह व्रत मन को संयम सिखाता है और शरीर को नई ऊर्जा देता है। यह व्रत पुरुष और महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है।

*व्रत कथा*

जब वेदव्यास ने पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया था। तब युधिष्ठिर ने कहा - जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिए। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान् हैं।

तब वेदव्यासजी कहने लगे- कृष्ण और शुक्ल पक्ष की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है। द्वादशी को स्नान करके पवित्र होकर फूलों से भगवान केशव की पूजा करें। फिर पहले ब्राह्मणों ( किसी भी असहाय जीव को भी भोजन करा सकते हैं ) को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करें। यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिए। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव, ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि भीमसेन एकादशी को तुम भी न खाया करो परन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जाएगी।

भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा- यदि तुम नरक को दूषित समझते हो और तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन नहीं करना।

भीमसेन बोले महाबुद्धिमान पितामह! मैं आपके सामने सच कहता हूँ। मुझसे एक बार भोजन करके भी व्रत नहीं किया जा सकता, तो फिर उपवास करके मैं कैसे रह सकता हूँ। मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुनि ! मैं पूरे वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करुँगा।

व्यासजी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान् पुरुष मुख में न डालें, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। इसके बाद द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके भगवान के कार्यों में दान करे। इस प्रकार सब कार्य करने के उपरांत भोजन करें। वर्षभर में जितनी एकादशियां होती हैं, उन सबका फल इस निर्जला एकादशी से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।

जिन्होंने भी श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशी का व्रत करता है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है।
जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इस कथा को सुनने से भी मिलता है।

भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया।

 #शरीर_मन_और_आत्मा_का_दर्शन    जय श्री कृष्ण! 🙏जीवन एक ऐसी यात्रा है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा एक-दूसरे के पूरक बनकर हमे...
28/05/2025

#शरीर_मन_और_आत्मा_का_दर्शन



जय श्री कृष्ण! 🙏

जीवन एक ऐसी यात्रा है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा एक-दूसरे के पूरक बनकर हमें सत्य और समृद्धि की ओर ले जाते हैं। जिस प्रकार शरीर बिना श्रम के आहार को पचा नहीं पाता और कमजोरी व बीमारी को निमंत्रण देता है, उसी प्रकार मन भी धन और सम्मान को पचाने में असमर्थ होने पर अभिमान और पतन की ओर बढ़ता है। ऐसे में प्रभु की कृपा और सद्गुरु की शरण ही वह प्रकाश हैं, जो हमें सही मार्ग दिखाते हैं।

शरीर हमारा मंदिर है, और आहार उसका प्रसाद। परंतु यदि यह प्रसाद बिना श्रम के ग्रहण किया जाए, तो वह विष बन जाता है। जैसे एक तालाब में पानी का बहाव रुकने पर वह सड़ने लगता है, वैसे ही अपचाया हुआ आहार शरीर में रोगों का कारण बनता है। श्रम—चाहे वह शारीरिक परिश्रम हो या मानसिक मेहनत—शरीर को स्वस्थ और ऊर्जावान रखता है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु”—संतुलित आहार(Balanced Diet) और कर्म ही सुखी जीवन का आधार हैं। अधिकता और आलस्य दोनों ही हानिकारक हैं। संतुलन ही जीवन का मूलमंत्र है।

मन एक सागर है, जिसमें विचारों की लहरें उठती-गिरती रहती हैं। धन और सम्मान इस सागर में ऐसी लहरें हैं, जो मन को अस्थिर कर सकती हैं। धन और सम्मान अपने आप में बुरे नहीं, पर जब मन उन्हें पचाने में असमर्थ होता है, तो अभिमान जन्म लेता है। अभिमान वह आग है, जो मन को खोखला कर देती है।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को अचानक अपार धन मिले, पर यदि उसका मन उसका बोझ न उठा सके, तो वह दूसरों को छोटा समझने लगता है। यहीं से उसका पतन शुरू होता है। दर्शन: गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, “असक्तो ह्याचरन्कर्म”—बिना आसक्ति के कर्म करने वाला ही परम सुख पाता है। धन और सम्मान को पचाने की कला तभी आती है, जब हम इन्हें ईश्वर का प्रसाद मानकर विनम्र रहते हैं।

जब शरीर और मन अपने संतुलन से भटकते हैं, तब प्रभु की कृपा और सद्गुरु की शरण ही हमें सही दिशा दिखाते हैं। प्रभु की कृपा वह शक्ति है, जो हमें विनम्रता और समर्पण सिखाती है। सद्गुरु वह दर्पण हैं, जो हमें हमारी कमियों को दिखाते हैं और सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

भक्त प्रह्लाद की कहानी इसका जीवंत प्रमाण है। उनके पिता हिरण्यकश्यप अभिमान के प्रतीक थे, पर प्रह्लाद ने प्रभु भक्ति और गुरु कृपा से हर विपत्ति को पार किया। यह दर्शाता है कि प्रभु और सद्गुरु की शरण में रहने वाला कभी पतन का शिकार नहीं होता।

उपरोक्त बातें हमें जीवन का एक मूलमंत्र जो सिखाता है—वो है "संतुलन और समर्पण"। शरीर को श्रम से, मन को संयम से और आत्मा को भक्ति से पवित्र रखें। प्रभु की कृपा और सद्गुरु का मार्गदर्शन हमें इस संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं।

जय श्री कृष्ण! 🙏🥰

नारी हो या नर - मनुष्य-जीवन का परम और चरम लक्ष्य है भगवत् प्राप्ति या मुक्ति। समस्त दुःख-क्लेश, समस्त बंधन और सब प्रकार ...
27/05/2025

नारी हो या नर - मनुष्य-जीवन का परम और चरम लक्ष्य है भगवत् प्राप्ति या मुक्ति। समस्त दुःख-क्लेश, समस्त बंधन और सब प्रकार के अभावों की आत्यंतिक निवृत्ति का नाम ही मुक्ति है। इस मुक्ति को लक्ष्य में रखकर ही मनुष्य को मुक्ति प्राप्त करने के उपाय स्वरूप धर्म का साधन करना चाहिये। जो कार्य भगवत् प्राप्ति के अनुकूल है वही धर्म है; और जो प्रतिकूल है, वही अधर्म है।

इस संसार में जानने योग्य अनेक बातें हैं। विद्या के अनेकों सूत्र हैं, खोज के लिए, जानकारी प्राप्त करने के लिए, असीमित मार...
21/05/2025

इस संसार में जानने योग्य अनेक बातें हैं। विद्या के अनेकों सूत्र हैं, खोज के लिए, जानकारी प्राप्त करने के लिए, असीमित मार्ग हैं। अनेकों विज्ञान ऐसे हैं, जिनकी बहुत कुछ जानकारी मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। क्यों ? कैसे ? कहाँ ? कब ? के प्रश्न हर क्षेत्र में वह फेंकता है। इस जिज्ञासा भाव के कारण ही मनुष्य अब तक इतना ज्ञानसंपन्न और साधनसंपन्न बना है। सचमुच ज्ञान ही जीवन का प्रकाश स्तंभ है।

जानकारी की अनेक वस्तुओं में से "अपने आपकी जानकारी" सर्वोपरि है। हम बाहरी अनेक बातों को जानते हैं या जानने का प्रयत्न करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं क्या हैं ? अपने आपके ज्ञान प्राप्त किए बिना जीवन क्रम बड़ा डाँवाडोल, अनिश्चित और कंटकाकीर्ण हो जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी न होने के कारण मनुष्य न सोचने लायक बातें सोचता है और न करने लायक कार्य करता है। सच्ची सुख-शांति का राजमार्ग एक ही है, और वह है- "आत्मज्ञान।"

कठोपनिषद कठोपनिषद में नचिकेता के पिता, वाजश्रवास (कुछ ग्रंथों में उद्दालक या गौतम के नाम से भी जाना जाता है), के क्रोधित...
19/05/2025

कठोपनिषद

कठोपनिषद में नचिकेता के पिता, वाजश्रवास (कुछ ग्रंथों में उद्दालक या गौतम के नाम से भी जाना जाता है), के क्रोधित होने और नचिकेता को "मैं तुझे यम को देता हूँ" कहने की घटना एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इस प्रसंग को सरल और विस्तार से समझने के लिए हमें कहानी के संदर्भ, वाजश्रवास के व्यवहार, और इस घटना के पीछे के भावनात्मक व दार्शनिक निहितार्थों को देखना होगा। नीचे इस घटना को सरलता से लिखा है, ताकि यह स्पष्ट हो कि वाजश्रवास को क्रोध क्यों आया और इसका क्या महत्व है।

किसी प्राचीन गाँव में, गंगा के तट पर, वाजश्रवास नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहता था। वह धार्मिक और कर्मकांडी था, पर उसका मन कभी-कभी सांसारिक इच्छाओं और सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता में डूब जाता था। उसने एक विशाल यज्ञ करने का निश्चय किया, जिसका उद्देश्य था स्वर्गलोक की प्राप्ति और समाज में अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन। यज्ञ में दान का विशेष महत्व था, क्योंकि यह माना जाता था कि उदार दान से पुण्य प्राप्त होता है।

वाजश्रवास ने यज्ञ की तैयारी शुरू की। उसने अपने घर की संपत्ति—गायें, अनाज, वस्त्र और अन्य सामान—को दान के लिए इकट्ठा किया। परंतु उसका मन लोभ और कंजूसी से घिरा था। वह अपनी सबसे मूल्यवान संपत्ति को दान नहीं देना चाहता था। इसलिए उसने पुरानी, कमजोर और अनुपयोगी गायों को दान के लिए चुना, जो न तो दूध देती थीं, न ही खेती में उपयोगी थीं। यह दान केवल दिखावे के लिए था, न कि सच्चे हृदय से।

वाजश्रवास का पुत्र, नचिकेता, एक बालक था, पर उसका हृदय सत्य और धर्म से भरा था। वह यज्ञ को उत्साह से देख रहा था। नचिकेता को यह विश्वास था कि यज्ञ और दान का उद्देश्य धर्म की रक्षा और पुण्य अर्जन है। पर जब उसने देखा कि उसके पिता अनुपयोगी गायें दान दे रहे हैं, तो उसका मन व्यथित हो उठा। उसने सोचा, "ऐसा दान तो यज्ञ के उद्देश्य को कमजोर करता है। यह धर्म के विरुद्ध है।"

नचिकेता ने अपने पिता के पास जाकर विनम्रता से पूछा, "पिताजी, आप इतना दान दे रहे हैं, यह बहुत पुण्य का काम है। पर मुझे किसे दान देंगे?" यह प्रश्न नचिकेता की जिज्ञासा और धर्म के प्रति गहरी समझ को दर्शाता था। वह यह जानना चाहता था कि क्या पिता सच्चे हृदय से दान दे रहे हैं। शायद वह यह भी संकेत देना चाहता था कि यदि पिता अनुपयोगी चीजें दान दे रहे हैं, तो क्या वह अपने पुत्र को भी उसी तरह देखते हैं।

वाजश्रवास, जो पहले से ही यज्ञ की चिंता और सामाजिक अपेक्षाओं के दबाव में था, नचिकेता के प्रश्न को सुनकर असहज हो गया। उसे लगा कि उसका पुत्र उसकी धार्मिकता पर सवाल उठा रहा है। नचिकेता ने बार-बार वही प्रश्न दोहराया, "पिताजी, मुझे किसे दान देंगे?" यह सुनकर वाजश्रवास का धैर्य टूट गया। क्रोध में आकर उसने कहा, "मैं तुझे यम को देता हूँ!" यह वचन क्रोध और आवेश में निकला था। वाजश्रवास का इरादा नचिकेता को यमलोक भेजने का नहीं था; यह केवल एक क्रोधपूर्ण वाक्य था, जिसका अर्थ था, "तू मुझे तंग कर रहा है, तुझे मृत्यु के पास भेज दूँगा।"

उपरोक्त बातें पढ़कर आपको लग रहा होगा कि आखिर वाजश्रवास के क्रोध के कारण क्या रहा होगा, यहां वाजश्रवास के क्रोध को समझने के लिए हमें उसके मन की स्थिति को देखना होगा:

जैसे

उसकी लोभ और कंजूसी:

वाजश्रवास धार्मिक था, पर उसका मन अपनी संपत्ति को बचाने की इच्छा से बँधा था। वह सच्चा दान नहीं देना चाहता था, और नचिकेता का प्रश्न उसके इस लोभ को उजागर कर रहा था। इससे उसे अपमान का अनुभव हुआ।

सामाजिक दबाव: यज्ञ एक सामाजिक और धार्मिक आयोजन था। वाजश्रवास को समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने की चिंता थी। नचिकेता का प्रश्न उसे ऐसा लगा जैसे उसका पुत्र सार्वजनिक रूप से उसकी कमजोरी को उजागर कर रहा हो।
पिता-पुत्र का संबंध: वाजश्रवास अपने पुत्र से प्रेम करता था, पर उस समय वह तनावग्रस्त था। नचिकेता का बार-बार प्रश्न करना उसे चुनौती जैसा लगा, जिससे उसका क्रोध भड़क उठा।

आवेश में निकला वचन:

प्राचीन काल में वचन को बहुत महत्व दिया जाता था। वाजश्रवास ने क्रोध में जो कहा, वह एक क्षणिक आवेश था, पर नचिकेता ने इसे गंभीरता से लिया।

नचिकेता की प्रतिक्रिया

नचिकेता कोई साधारण बालक नहीं था। उसका मन सत्य और कर्तव्य के प्रति समर्पित था। जब उसने सुना कि पिता ने उसे यम को दान दे दिया, तो उसने इसे पिता का आदेश माना। उसने सोचा, "यदि पिताजी ने ऐसा कहा है, तो मुझे यमलोक जाना चाहिए। शायद यह मेरा धर्म है।" नचिकेता ने बिना किसी भय या शिकायत के यमलोक की यात्रा शुरू की। उसका यह निर्णय उसकी दृढ़ता, धैर्य और धर्म के प्रति निष्ठा को दर्शाता है।

वाजश्रवास का पश्चाताप

जब वाजश्रवास का क्रोध शांत हुआ, तो उसे अपने वचनों पर पछतावा हुआ। उसने सोचा, "मैंने क्रोध में अपने पुत्र को ऐसा कह दिया, जो अनुचित था।" परंतु तब तक नचिकेता यमलोक की ओर प्रस्थान कर चुका था। कठोपनिषद में यह स्पष्ट नहीं बताया गया कि वाजश्रवास ने तुरंत क्या किया, पर बाद में जब नचिकेता यम से ज्ञान प्राप्त कर लौटा, तो वाजश्रवास ने उसे प्रेम से गले लगाया। इससे पता चलता है कि वह अपने क्रोध के लिए पश्चाताप कर चुका था और अपने पुत्र की महानता को समझ चुका था।

वाजश्रवास के क्रोध और नचिकेता के व्यवहार से हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं जो कि इस प्रकार से हैं:

क्रोध का परिणाम: वाजश्रवास का क्रोध हमें सिखाता है कि आवेश में बोले गए शब्द गंभीर परिणाम ला सकते हैं। हमें अपने शब्दों पर नियंत्रण रखना चाहिए, खासकर प्रियजनों के साथ।

सत्य और धर्म की रक्षा: नचिकेता का प्रश्न धर्म के प्रति उसकी निष्ठा को दर्शाता है। वह अपने पिता की गलती को चुपचाप सहन करने के बजाय सत्य के लिए बोल उठा। यह हमें सिखाता है कि धर्म और सत्य के लिए आवाज उठाना जरूरी है, पर विनम्रता के साथ।

लोभ से मुक्ति: वाजश्रवास का लोभ हमें दिखाता है कि सच्चा दान वही है, जो हृदय से दिया जाए। दिखावे का दान धर्म का अपमान है।

कर्तव्य और दृढ़ता: नचिकेता ने पिता के वचन को गंभीरता से लिया और यमलोक जाने का साहस दिखाया। यह हमें सिखाता है कि अपने कर्तव्यों के प्रति दृढ़ रहना चाहिए, भले ही मार्ग कठिन हो।

पश्चाताप और सुधार: वाजश्रवास का बाद में नचिकेता को प्रेम से स्वीकार करना दिखाता है कि गलतियाँ करने के बाद पश्चाताप और सुधार संभव है।

अगर पूरे बातों का निष्कर्ष देख जाए तो ये कह सकते हैं कि वाजश्रवास का क्रोध एक मानवीय कमजोरी का प्रतीक है, जो लोभ, सामाजिक दबाव और आवेश से उपजा। यह घटना कठोपनिषद की लिखी गई बातों को आगे बढ़ाने का आधार बनी है, क्योंकि इसने ही नचिकेता को यमलोक की यात्रा पर भेजा, जहाँ उसे आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ। वाजश्रवास का क्रोध हमें सिखाता है कि हमें अपने व्यवहार और शब्दों पर नियंत्रण रखना चाहिए।

वहीं नचिकेता की प्रतिक्रिया हमें धर्म, सत्य और कर्तव्य के प्रति दृढ़ रहने की प्रेरणा देती है। यह प्रसंग हमें यह भी याद दिलाता है कि मानवीय कमजोरियाँ हमें गलतियाँ करवा सकती हैं, पर पश्चाताप और सुधार से हम बेहतर बन सकते हैं।

ज्ञान घटे नरमूढ की संगत, बुद्धि घटे चित्त विषय भरमाय।तेज घटे परनारी की संगत, बुद्धि घटे बहुभोजन खाए।प्रेम घटे नित ही कुछ...
18/05/2025

ज्ञान घटे नरमूढ की संगत, बुद्धि घटे चित्त विषय भरमाय।
तेज घटे परनारी की संगत, बुद्धि घटे बहुभोजन खाए।
प्रेम घटे नित ही कुछ मांगत, मान घटे नित पर घर जाए।
दयाल कहे सुन रे मनमूरख, पाप घटे हरि के गुण गाए।

यह दोहा हमें जीवन की उन आदतों और संगतियों के बारे में सावधान करता है, जो हमारे गुणों को कम कर सकती हैं, और साथ ही हमें भगवान की भक्ति के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है। आइए, इसे एक-एक पंक्ति करके, रोज़मर्रा की भाषा में समझते हैं।

पहली पंक्ति: ज्ञान घटे नरमूढ की संगत, बुद्धि घटे चित्त विषय भरमाय।

इस पंक्ति का मतलब है कि अगर हम मूर्ख या नासमझ लोगों के साथ ज्यादा समय बिताते हैं, तो हमारा ज्ञान कम होने लगता है। मूर्ख लोग न तो कुछ सिखाते हैं, न ही हमें सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी बातें अक्सर बेकार होती हैं, जो हमारे दिमाग को भटकाती हैं।

दूसरी बात, अगर हमारा मन हमेशा सांसारिक सुखों—जैसे पैसे, शोहरत, या ऐशो-आराम—के पीछे भागता रहे, तो हमारी बुद्धि कमज़ोर हो जाती है। जब हम सिर्फ भौतिक चीज़ों में उलझे रहते हैं, तो हम सही-गलत का फ़ैसला करने की शक्ति खो देते हैं।

जीवन से जोड़ें: सोचिए, अगर आप ऐसे दोस्तों के साथ हैं जो हमेशा बेकार की बातें करते हैं, गलत कामों में उलझे रहते हैं, तो धीरे-धीरे आपका भी वैसा ही सोचने का तरीका बनने लगता है। या अगर आप दिन-रात सिर्फ मोबाइल, टीवी, या पैसे कमाने की चिंता में डूबे रहते हैं, तो आपका दिमाग शांत और समझदार कैसे रहेगा? इसलिए, हमें ऐसी संगति चुननी चाहिए जो हमें प्रेरित करे और ऐसी सोच रखनी चाहिए जो हमें ऊपर उठाए।

दूसरी पंक्ति: तेज घटे परनारी की संगत, बुद्धि घटे बहुभोजन खाए।

यहां "परनारी" का मतलब है ऐसी स्त्री के साथ अनुचित या गलत संगति, जो हमारी मर्यादा या नैतिकता के खिलाफ हो। ऐसी संगति हमारे व्यक्तित्व की चमक, यानी हमारे तेज को कम करती है। हमारा आत्म-सम्मान, हमारी सकारात्मक ऊर्जा, और समाज में हमारी इज्ज़त कम हो सकती है। यह पंक्ति हमें सावधान करती है कि हमें अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए।

दूसरी बात, अगर हम जरूरत से ज्यादा खाते हैं, तो हमारी बुद्धि मंद पड़ने लगती है। ज्यादा खाना शरीर को सुस्त बनाता है, और सुस्त शरीर में दिमाग भी तेज़ी से काम नहीं करता। आजकल लोग जंक फूड, तला-भुना, या ज्यादा खाना खा लेते हैं, जिससे न सिर्फ सेहत खराब होती है, बल्कि सोचने-समझने की शक्ति भी कम होती है।

जीवन से जोड़ें: अगर कोई गलत रिश्तों या अनैतिक व्यवहार में पड़ जाता है, तो उसकी समाज में इज्ज़त कम होती है, और वो अंदर से भी कमज़ोर महसूस करता है। और खाने की बात करें, तो हम अक्सर पार्टियों या घर में लालच में आकर ज़्यादा खा लेते हैं, लेकिन क्या हम सोचते हैं कि इसका असर हमारे दिमाग और सेहत पर पड़ता है? संयमित जीवन और सही रास्ता हमें तेजस्वी और बुद्धिमान बनाए रखता है।

तीसरी पंक्ति: प्रेम घटे नित ही कुछ मांगत, मान घटे नित पर घर जाए।

यह पंक्ति रिश्तों और आत्म-सम्मान की अहमियत बताती है। अगर कोई हमेशा दूसरों से कुछ न कुछ मांगता रहता है—चाहे पैसा, मदद, या कोई और चीज़—तो धीरे-धीरे लोग उससे दूरी बनाने लगते हैं। इससे रिश्तों में प्रेम कम हो जाता है। लोग सोचते हैं कि ये व्यक्ति सिर्फ लेने के लिए आता है, देता कुछ नहीं।

इसी तरह, अगर कोई बार-बार बिना वजह दूसरों के घर जाता है, उनकी निजता में दखल देता है, या अनावश्यक रूप से समय बर्बाद करता है, तो उसका सम्मान कम होने लगता है। लोग उसे हल्के में लेने लगते हैं।

जीवन से जोड़ें: अगर कोई दोस्त हर बार आपसे कुछ मांगता हो, तो आप धीरे-धीरे उससे बचने लगेंगे। या अगर कोई पड़ोसी बिना मतलब आपके घर आकर आपका समय लेता हो, तो आप उसे टालने की कोशिश करेंगे। इसलिए, हमें आत्मनिर्भर बनना चाहिए और दूसरों की निजता का सम्मान करना चाहिए। इससे हमारे रिश्ते मज़बूत रहेंगे और हमारा मान भी बना रहेगा।

चौथी पंक्ति: दयाल कहे सुन रे मनमूरख, पाप घटे हरि के गुण गाए।

अंत में, संत दयाल हमें एक सुंदर संदेश देते हैं। वे कहते हैं, "हे मूर्ख मन, सुन! अगर तुम अपने पापों को कम करना चाहते हो, तो भगवान के गुणों का गायन करो।" भगवान का नाम जपने, उनके गुणों का स्मरण करने, और उनकी भक्ति करने से हमारा मन शुद्ध होता है। हमारे बुरे कर्म, हमारी गलतियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।

जीवन से जोड़ें: आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में हम भगवान को याद करने का समय कम ही निकाल पाते हैं। लेकिन अगर हम दिन में कुछ पल भगवान का नाम लें, कोई भजन गाएं, या उनकी अच्छाइयों को याद करें, तो हमारा मन शांत और सकारात्मक होता है। इससे हमारी नकारात्मकता कम होती है, और हम सही रास्ते पर चल पाते हैं।

निष्कर्ष:
यह दोहा हमें जीवन जीने का एक सुंदर रास्ता दिखाता है। यह हमें सिखाता है कि...हमें मूर्खों की संगति से बचना चाहिए और ऐसी संगति चुननी चाहिए जो हमें प्रेरित करे।

अपने मन को सांसारिक सुखों के पीछे भटकने से रोकना चाहिए। गलत रिश्तों या अनैतिक व्यवहार से दूर रहना चाहिए, ताकि हमारा तेज बना रहे। खाने में संयम रखना चाहिए, ताकि हमारा दिमाग और शरीर स्वस्थ रहे। हमेशा मांगने की आदत छोड़कर आत्मनिर्भर बनना चाहिए। दूसरों की निजता का सम्मान करना चाहिए, ताकि हमारा मान बना रहे।
और सबसे ज़रूरी, भगवान के गुण गाकर अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। तो आइए, इस दोहे की सीख को अपने जीवन में उतारें। थोड़ा-सा प्रयास करें—अच्छे लोगों के साथ रहें, संयमित जीवन जिएं, और भगवान का नाम लें। इससे हमारा जीवन न सिर्फ़ सुंदर होगा, बल्कि हम समाज में भी सम्मान पाएंगे।

जय श्री कृष्ण!

महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था क्योंकि उस काल में शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।क...
15/05/2025

महाभारत अपने काल का सबसे बड़ा महायुद्ध था क्योंकि उस काल में शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।

क्योकि इस युद्ध में भारत, अफगानिस्तान और ईरान तक के समस्त राजा कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े थे, किन्तु एक राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था, वो था दक्षिण के उडुपी का राज्य।

जब उडुपी के राजा युद्ध मे भाग लेने के लिए अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।

उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे, उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा-हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा...... ?

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है, आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है, अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।

इसपर उडुपी नरेश ने कहा- हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।

किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।

इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा- महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है, इस युद्ध में 50लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।

वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।

भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये, इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।

पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया, उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।

जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी, दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।

किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।

इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसप र भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।

अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया- "हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे, किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया, मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।"

इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा-" सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?"

इसपर युधिष्ठिर ने कहा-" श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।"

तब उडुपी नरेश ने कहा हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है, ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।

तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा-" हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे, मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।"

वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक 1000गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे, अर्थात अगर वे 50 मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50000 योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे, उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था, यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।

श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए, ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है, कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है, कर्नाटक के इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में ‌श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया था।

और भगवान श्री कृष्ण ने ही उडुपी के महाराजा को आशीर्वाद दिया था जिस तरह से आपने भोजन का प्रबंध किया और इतना बढ़िया सात्विक भोजन बनाया मैं आशीर्वाद देता हूं कि आपके राज्य के सभी पुरुषों के हाथों में एक ऐसा प्राकृतिक गुण होगा कि वह सात्विक खाना बनाने में पूरी दुनिया में श्रेष्ठ होंगे और उनका भोजन बेहद शानदार होगा यही कारण है कि आज उडुपी के लोग पूरी दुनिया में रेस्टोरेंट खोले हैं और उनके हाथों का बना साथी खाना पूरे विश्व में प्रसिद्ध है आज भारत का कोई ऐसा शहर नहीं होगा जहां उडुपी रेस्टोरेंट नहीं होगा न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी मैंने कई उडुपी रेस्टोरेंट देखें है

और इन उडुपी रेस्टोरेंट की एक खास बात है यह भगवान श्री कृष्ण के उसी आशीर्वाद की वजह से अपने होटलों में सिर्फ सात्विक भोजन ही बनाते हैं।

जय श्री कृष्ण 🙏
साभार
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भगवान की प्रत्येक लीला मनुष्य पर कृपा करने के लिए ही होती हैं । ऐसा ही एक प्रसंग है श्रीराधा रानी की ‘कोप लीला’ ।श्रीकृष...
10/05/2025

भगवान की प्रत्येक लीला मनुष्य पर कृपा करने के लिए ही होती हैं । ऐसा ही एक प्रसंग है श्रीराधा रानी की ‘कोप लीला’ ।

श्रीकृष्ण व राधारानी के श्रीअंग से प्रकट हुई गंगा उनका अंश व उन्हीं का स्वरूप है । ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड) के अनुसार श्रीराधाकृष्ण का जलरूप है गंगा ।

एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण कार्तिक पूर्णिमा के दिन रासमहोत्सव मना रहे थे । रासमण्डल में श्रीकृष्ण श्रीराधा की पूजा कर विराजमान थे । उसी समय श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए देवी सरस्वती प्रकट हुईं और उन्होंने अपनी मधुर स्वरलहरी में गीत गाकर और दिव्य वीणा के वादन से सारा वातावरण झंकृत कर दिया ।
उसी समय भगवान शंकर भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी सरस पद गाने लगे । उसे सुनकर सभी देवगण मूर्छित हो गए । जब उनकी चेतना लौटी, तब वहां श्रीराधाकृष्ण के स्थान पर सारे रासमण्डल में जल-ही-जल फैला हुआ था । सभी गोप-गोपी और देवगण भगवान श्रीराधाकृष्ण को न पाकर विलाप करते हुए उनसे पुन: प्रकट होने की प्रार्थना करने लगे ।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने आकाशवाणी द्वारा कहा—‘मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण और मेरी स्वरूपाशक्ति श्रीराधा—हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए यह जलमय विग्रह (नीराकार स्वरूप) धारण कर लिया है ।’
वे ही पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण और राधा जलरूप होकर गंगा बन गए और वह दिव्य जलराशि ही ‘देवनदी’ गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । गोलोक से प्रकट होने वाली गंगा का यही रहस्य है ।

गंगा का एक नाम ‘ब्रह्माम्बु’ है । अम्बु जल को कहते हैं, इसलिए ब्रह्म + अम्बु अर्थात् जलरूप ब्रह्म ।

भगवान की प्रत्येक लीला के पीछे लोककल्याण ही छिपा होता है । भगवान के जलमय रूप होने के पीछे भी कलियुग में मानव का कल्याण ही छिपा है । यदि गंगा का धरती पर अवतरण न हुआ होता तो कलियुग में मनुष्यों के पापों का मल कैसे धुलता ?
श्रीराधा रानी की कोप लीला
एक बार गोलोक में गंगा श्रीकृष्ण के बगल में बैठ कर उनकी रूपसुधा का पान कर रही थीं । तभी श्रीराधा अपनी सखियों के साथ वहां आईं ।

गंगा को वहां देख कर वे क्रोधित हो गईं और श्रीकृष्ण से पूछने लगीं—‘हे प्राथनाथ ! आपके कमल समान मुख को निहारने वाली ये देवी कौन है ? मैंने अनेक बार आपको अनेकों से प्रेम करते हुए देखा है । बार-बार क्षमा करना अब मेरा स्वभाव बन गया है । एक बार आपने विरजा से प्रेम किया । मेरे देख लेने पर वह देह-त्याग कर महान नदी के रूप में परिणित हो गई । शोभा से प्रेम किया तो वह भी देत्याग कर चंद्रमण्डल में चली गई । प्रभा से प्रेम किया तो वह शरीर त्याग कर सूर्यमण्डल में चली गई । रासमण्डल में एक बार आपको शांति नामक गोपी के साथ देखा तो वह देहत्याग कर भुजा में लीन हो गई । जब क्षमा को आपसे प्रेम करते देखा तो वह देहत्याग कर पृथ्वी पर चली गई ।’

श्रीराधा जब ऐसा कह रही थीं, तब गंगा भी उनके अभिप्राय को जान कर श्रीकृष्ण-चरणों में विलीन हो गईं । तब सबने मिल कर गंगा को बहुत ढूंढ़ा पर वे कहीं न मिलीं । सभी जगह जल का अभाव हो गया ।

ब्रह्मा आदि देवता गोलोक में जाकर भगवान से मिले ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘मैं जानता हूँ कि आप सब लोग गंगा को ले जाने के लिए आए हैं । कुपित राधा उसका पान कर जाना चाहती थीं, किंतु इस समय वह मेरी शरण में है । यदि आप गंगा की पूर्ण रक्षा कर सकें तब ही मैं उसे दे सकूंगा ।’

समस्त ब्रह्मादि देवों ने श्रीराधा की स्तुति करते हुए कहा—‘गंगा आपके और श्रीकृष्ण के श्रीअंग से उत्पन्न हुई है; इसलिए वह आपकी प्रिय पुत्री के समान है ।’

ब्रह्माजी की स्तुति से श्रीराधा प्रसन्न हो गईं और उन्होंने गंगा को निर्भय कर दिया ।

तब गंगा श्रीकृष्ण के चरण के अंगूठे के नाखून के अग्र भाग से प्रकट हो गईं और ‘विष्णुपदी’ कहलाईं ।

गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है, विष्णुपदी है, उसका महत्व केवल इतना ही नहीं है; अपितु गंगा साक्षात् परमात्मा की विभूति है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१०।३१) में गंगा को अपना स्वरूप बतलाते हुए कहा है—‘स्तोत्रसामस्मि जाह्नवी ।’

ब्रह्मा जी ने वह जल अपने कमण्डलु में रख लिया । लेकिन जब से गंगा ने श्रीकृष्ण चरणों को छोड़ा, तब से आज तक उनका बहना बंद नहीं हुआ, अर्थात् उनके जीवन में विश्राम नहीं आया ।

भगवान से विमुख होने पर कभी किसी को सुख नहीं मिला—इस पर तुलसीदास जी का बहुत सुंदर पद है—

सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो ।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ ! यह समुझ सबेरो ।।

अर्थात्—मूढ़ मन मेरी सीख मान ले । भगवान से विमुख होने पर आज तक कभी किसी को सुख नहीं मिला । सूर्य-चंद्र भगवान के नेत्रों से प्रकट हुए किंतु ये भी भगवान के नेत्रों से बिछुड़े, तो उन्हें भी आज तक विश्राम नहीं मिला है, तब से दिन-रात चल ही रहे हैं और समय-समय पर राहु द्वारा ग्रसित भी हो जाते हैं । इसी प्रकार एक बार भगवान के चरणों से बिछुड़ जाने पर गंगा को भी आज तक घूमना पड़ रहा है ।

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05/05/2025

102k Views(30दिनों में) आप सभी को तहे दिल से शुक्रिया जिन लोगों ने भी स्माइल स्टोन को पानी में योगदान दिया है आप सभी का आभार!

04/05/2025

तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना -
महाप्रभु जी ने बताया कि - तिनके से भी निम्न होकर वृक्ष के समान सहनशील होकर स्वयं सम्मान की इच्छा न रखते हुए दूसरों को सम्मान देते हुए सदैव हरि कीर्तन करना चाहिए।

आगे बताते हैं कि नाम सूत्र में इसे श्लोक की माला हर भक्त को गले में पहनने चाहिए ऐसा न करने से नाम कीर्तन का फल आसानी से प्राप्त नहीं होगा।

श्रीमन्महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामीपाद की शिक्षा के प्रसंग में वैष्णव निन्दादि अपराध की मत्त हाथी के साथ तुलना की है।

अत्यंत कोमल भक्ति कल्पलता को यह मत हाथी जड़ समेत उखाड़ कर नष्ट कर देता है। इसलिए दैन्य की बाड़ लगा कर इस भक्ति लता की रक्षा करना है। साधक का दैन्य भक्ति के प्रबल अवरोधक नाम अपराध को बाहर करके चित्त को निरपराध बनाए रखता है।

इस तृणादपि सुनीचेन श्लोक का पाठ करके महाप्रभु ने विश्व के नाम साधकों को चरम दैन्य साधना की ओर संकेत किया है।

🙏जय श्री कृष्ण 🙏

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