24/08/2025
दहेज की चिता पर जलती बेटियां – कुंठित रिवाज़ों से झुलसती बेटियां
दहेज की आग में जलकर राख होने वालों में सिरसा गांव की निक्की कोई पहली नहीं है, और अफसोस यह है कि शायद आख़िरी भी नहीं होगी। शादी के सात साल बाद, एक मां, एक बेटी, एक बहन को इस तरह जिंदा जलाना -- क्या यही हमारी सभ्यता है, क्या यही हमारे संस्कार हैं?
और सबसे खौफनाक सच्चाई – उसका छह साल का बच्चा अपनी आंखों से देखता रहा कि कैसे उसकी मां को पेट्रोल डालकर आग के हवाले कर दिया गया। क्या वह कभी भूल पाएगा कि उसकी मां को आग के हवाले कर दिया? यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि इंसानियत की कब्र पर पड़ा एक और पत्थर है।
हम कानूनों की ताक़त पर शेखी तो बहुत बघारते हैं, लेकिन सच यह है कि जितना गर्व हम जताते हैं, उतनी ही गहराई तक हम इंसानियत से गिर चुके हैं। क्योंकि दहेज निषेध कानून बने हुए 60 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी हर साल हज़ारों बहुओं की लाशें घर के आंगन से निकलती हैं। हर लाश के साथ हम अखबार पढ़ते हैं, दुख जताते हैं, और अगले दिन भूल जाते हैं।
अदालतों में मुकदमे चलते रहते हैं, लेकिन दहेज मांगने वाले बेखौफ रहते हैं क्योंकि उन्हें पता है -- समाज चुप रहेगा। निक्की जैसी बेटियां हर रोज़ दहेज की आग में जलती हैं, और हम सिर्फ तमाशा देखते हैं। यह अपराधी सिर्फ वही परिवार नहीं है जिसने निक्की को मारा -- यह अपराधी हम सब हैं, जिन्होंने दहेज लेने वालों से रिश्ते बनाए रखे, उनकी शादियों में शामिल हुए, उनके लालच को “परंपरा” कहकर ढका।
दहेज कोई परंपरा नहीं, यह समाज पर लगा एक नासूर है। यह वह आग है जो सिर्फ निक्की जैसी बेटियों को नहीं जलाती, बल्कि उनके परिवारों, उनके बच्चों और हमारे पूरे सामाजिक ताने-बाने को राख कर देती है।
समाज को जागना होगा। दहेज लेने वालों को सामाजिक बहिष्कार करना होगा, ऐसे परिवारों से रिश्ते तोड़ने होंगे। उनको इज्ज़त नहीं, घृणा मिले।