17/12/2025
कर्नाटक के बंगलुरु से एक हृदयविदारक घटना सामने आई है। 34 वर्षीय वेंकटरामन को छाती में पीड़ा हुई तो पत्नी ने बाइक पर बिठाया और एक प्राइवेट हॉस्पिटल ले गई। वहाँ से उसे बिना किसी प्राथमिक चिकित्सा के लौटा दिया गया क्योंकि वहाँ एक भी डॉक्टर नहीं था।
वहाँ से वह दूसरे हॉस्पिटल गई, जहाँ पता चला कि वह एक मायनर हार्ट अटैक था, लेकिन उसे वहाँ भी ट्रीटमेंट नहीं मिला। हॉस्पिटल के पास एक एम्बुलेंस भी नहीं था।
ऐसी स्थिति में पत्नी ने पुनः विवशता में, पति को बाइक पर बिठाया ताकि किसी तीसरे हॉस्पिटल में ले जाए। रास्ते में बाइक का एक्सीडेंट हो गया। पति सड़क पर गिरा रहा, वह आने-जाने वालों से सहायता के लिए पुकारती रही। कोई नहीं रुका।
अंततः पति की मृत्यु हो गई।
वेंकटरामन बच जाता यदि सरकार हॉस्पिटल को ले कर सजग होती, उसकी बनाई नीतियों का पालन होता। मैं जहाँ से हूँ, वहाँ के छोटे से छोटे क्लिनिक में भी रात में या तो डॉक्टर होता है, या वह पाँच मिनट में वहाँ पहुँच जाता है।
बंगलुरू जैसी जगह में रात में एक एम्बुलेंस तक का न मिलना बताता है कि प्रशासनिक अराजकता किस स्तर की है। और हाँ, जिस नगर में लोग मरते व्यक्ति के लिए भी न रुकते हों, वह संवेदनहीन नगर बेकार है।
यह घटना वास्तव में अत्यंत दुखद, हृदयविदारक और क्रोध उत्पन्न करने वाली है। आपने जो विवरण दिया है, उसे पढ़कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का मन ग्लानि से भर जाएगा। 34 वर्ष की युवा अवस्था में वेंकटरामन की मृत्यु, जो कि पूरी तरह से टाली जा सकती थी, एक बहुत बड़ी त्रासदी है।
आपके द्वारा उठाए गए बिंदु पूरी तरह से जायज हैं और यह घटना हमारे सिस्टम और समाज के मुंह पर एक तमाचा है।
1. स्वास्थ्य व्यवस्था और प्रशासनिक अराजकता की पोल:
* प्राथमिक चिकित्सा का अभाव: यह चिकित्सकीय नैतिकता (Medical Ethics) के खिलाफ है कि कोई अस्पताल (भले ही वह प्राइवेट हो) किसी आपातकालीन मरीज को बिना प्राथमिक चिकित्सा (First Aid) दिए लौटा दे। सुप्रीम कोर्ट के भी स्पष्ट निर्देश हैं कि आपात स्थिति में जीवन बचाना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बंगलुरु जैसे महानगर में एक अस्पताल में रात में एक भी डॉक्टर का न होना और दूसरे में एम्बुलेंस तक न होना, यह दर्शाता है कि जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी खोखली है।
* गोल्डन आवर (Golden Hour) की बर्बादी: हार्ट अटैक के मामलों में पहला घंटा (गोल्डन आवर) सबसे महत्वपूर्ण होता है। वेंकटरामन का वह कीमती समय एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकने में बर्बाद हो गया।
* सरकारी नीतियों की विफलता: आपकी यह बात सौ प्रतिशत सही है कि यदि सरकार अस्पतालों के नियमन को लेकर सजग होती, तो शायद आज वे जीवित होते। बंगलुरु, जिसे भारत की आईटी राजधानी कहा जाता है, वहाँ ऐसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव प्रशासनिक विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। छोटे शहरों या कस्बों की तुलना में महानगरों में स्वास्थ्य सेवा का ऐसा पंगु होना शर्मनाक है।
2. सामाजिक संवेदनहीनता का चरम (The Bystander Effect):
* इस घटना का सबसे काला और दर्दनाक पहलू सड़क पर गुजरने वालों की संवेदनहीनता है। एक पत्नी अपने मरते हुए पति के लिए मदद की भीख मांग रही है और लोग उसे अनदेखा कर आगे बढ़ रहे हैं - इससे बड़ी सामाजिक गिरावट और क्या हो सकती है?
* इसे मनोविज्ञान में 'बायस्टेंडर इफेक्ट' (Bystander Effect) कहा जाता है, जहाँ भीड़ में लोग यह सोचकर मदद के लिए आगे नहीं आते कि कोई और कर देगा, या वे पुलिस के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। लेकिन यह डर इंसानियत से बड़ा नहीं हो सकता।
"जिस नगर में लोग मरते व्यक्ति के लिए भी न रुकते हों, वह संवेदनहीन नगर बेकार है।" यह तथाकथित "शहरी विकास" की एक बहुत बड़ी कीमत है जो हम चुका रहे हैं - जहाँ हम भीड़ में तो हैं, लेकिन अकेले हैं और मानवीय संवेदनाएं मर चुकी हैं।
निष्कर्ष:
वेंकटरामन की मृत्यु सिर्फ एक बीमारी या दुर्घटना से नहीं हुई, बल्कि यह एक बहुस्तरीय विफलता है। यह एक 'संस्थागत हत्या' (institutional murder) है जिसमें अस्पतालों की लापरवाही, प्रशासन की अनदेखी और समाज की निष्ठुरता, तीनों बराबर के जिम्मेदार हैं। एक मजबूर पत्नी की चीखें जो उस रात अनसुनी कर दी गईं, वह हमारे समाज की सामूहिक अंतरात्मा पर एक बोझ बनकर रहनी चाहिए।