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🌿🕉️🧘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं🕉️🧘🌿सभी पुन्य आत्माओ को मेरा नमस्कार हमारी भावी पिढीयो तक योग का ज्ञान ...
21/06/2025

🌿🕉️🧘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं🕉️🧘🌿

सभी पुन्य आत्माओ को मेरा नमस्कार हमारी भावी पिढीयो तक योग का ज्ञान पहुंचाना हमारा कर्तव्य है, वास्तव में योग तो मोक्ष प्राप्ती का मार्ग है,

हमने पिछले जन्म के कर्मों को भोगने के लीये ही जन्म लीया है, अगर हम "ध्यानयोग नियमीत रुप से करते है, तो पुर्वजन्म के कर्म कब समाप्त हो गये यह पता भी नहीं चलता और हमारे आसपास " ध्यान‌योग की साधना से एक ओरा" आभामंडल निर्माण हो जाता है, और फ़िर जिवन में शरीरभाव ही समाप्त हो जाता है अब हमसे ओरा के कारण बुरे कर्म घटित ही नहीं होते व अच्छे कर्म हम गुरुकृपा मे हुये मानकर प्रमात्मा' को समपर्णन कर देते है, और हमे जिवन मे "कर्म मुक्त अवस्था' प्राप्त हो जाती है, इसी मुक्त अवस्था को ही "मोक्ष" कहा जाता है , और फ़िर जिवन में कोई कर्म ही बाकी नही रहते जिसको भोगने नया जन्नम लिया जाये इस प्रकार से ध्यानयोग से मनुष्य को मोक्ष की स्थिति अपने जिवनकाल मे ही पाना संभव होता है, हमारे पूर्वज की की वसुधैव कुटवक्रम" की कल्पना केवल और केवल योग से ही संभव होती है, इसलीये अपने बच्चो को "योग"सिखाये और योग का अधिक से अधिक प्रचार करे ताकी आने वाली पिढी योग और योगासन" का अंन्तर जान सके आप सभी को खूब खुब आर्शिवाद

आपका अपना बाबास्वामी 21/6/2024

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।। सुधि करि अं...
20/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।। सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा ।।

फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अम्बरीष और दुर्वासा की [घटना] याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गये ।।२।।

सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ।।
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा।।

पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान्‌ को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब (इस बार) देवताओंका काम भरतजी के हाथ है ।।३।।

आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा ।।
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि।।
हे देवताओ ! और कोई उपाय नहीं दिखायी देता। श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं (अर्थात् उनके भक्त की कोई सेवा करता है तो उस पर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्रीरामजी को वश में करनेवाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेमसहित स्मरण करो ।।४।।

- सुनि सुरमत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु ।
दो० सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ।। २६५।।

देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत् में समस्त शुभ मङ्गलों का मूल है ।। २६५।।

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई ।।
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई ।।

सीतानाथ श्रीरामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुन्दर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आयी है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाताने बात बना दी ।।१।।

देखु देवपति भरत प्रभाऊ । सहज सुभायँ बिबस रघुराऊ ।।
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं ।।

हे देवराज ! भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्रीरघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से वश में हैं। हे देवताओ ! भरतजी को श्रीरामचन्द्र जी की परछाईं (परछाईं की भाँति उनका अनुसरण करनेवाला) जानकर मन स्थिर करो, डरकी बात नहीं है ।।२।।

सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ।।
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना।।

देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति (आपस का विचार) और उनका सोच सुनकरअन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने मन में सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोड़ों (अनेकों) प्रकारके अनुमान (विचार) करने लगे ।।३।।

करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका ।।
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ।।

सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्रीरामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात् अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह किया) ।।४।।

दो०- कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ।। २६६।।

श्रीजानकीनाथजी ने सब प्रकार से मुझपर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों कर-कमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले- ।।२६६।।

कहीँ कहावों का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी ।।
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला ।।

हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र ! हे अन्तर्यामी! अब मैं [अधिक] क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गयी ।।१।।

अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहिन दोसु देव दिसि भूलें ।।
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई ।।

मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव ! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता, ।।२।।

पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला ।। यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ।।

इन सबने मिलकर पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था। परन्तु शरणागत के रक्षक आपने अपना [शरणागतकी रक्षाका] प्रण निबाहा (मुझे बचा लिया)। यह आपकी कोई नयी रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है ।।३।।

जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं ।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ।।

सारा जगत् बुरा [करनेवाला] हो; किन्तु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह न कभी किसी के सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल) ।।४।।

दो०-जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच ।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच ।।२६७।।

उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाय, तो उसकी छाया ही सारी चिन्ताओं का नाश करनेवाली है। राजा-रंक, भले-बुरे, जगत् में सभी उससे माँगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं ।। २६७।।

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू ।। अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई ।।

गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी सन्देह नहीं रहा। हे दया की खान! अब वही कीजिये जिससे दास के लिये प्रभु के चित्त में क्षोभ (किसी प्रकारका विचार) न हो ।।१।।

क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  - महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।। सुनि बन गव...
19/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।। सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा ।। बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ।।

मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का-सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गये, यह सुनकर, श‌ङ्करजी साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गये)! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं) ।।२-३।।

अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ।। जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ।।

अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रहकर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं ।।४।।

दो०- तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि ।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ।। २६२।।

वे ही श्रीरघुनन्दन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा? ।।२६२।।

सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी ।। सोक मगन सब सभाँ खभारू । मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।

अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गये, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया हो ।।१।।

कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ।। बोले उचित बचन रघुनंदू । दिनकर कुल कैरव बन चंदू ।।

तब ज्ञानी मुनि वसिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी (ऐतिहासिक) कथाएँ कहकर भरतजी का समाधान किया। फिर सूर्यकुलरूपी कुमुदवन के प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा श्रीरघुनन्दन उचित वचन बोले- ।।२।।

तात जायँ जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी ।। तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें ।।

हे तात ! तुम अपने हृदयमें व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीवकी गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में [भूत, भविष्य, वर्तमान] तीनों कालों और [स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल] तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुमसे नीचे हैं ।।

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई ।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ।।

हृदयमें भी तुमपर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँके सुख, यशजाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरनेके बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता कैकेयीको तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं जिन्होंने गुरु और साधुओंकी सभाका सेवन नहीं किया है ।।४।।

दो०- मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार । लोक सुजसु परलोक सुख सुमिरत नामु तुम्हार ।।२६३।।

हे भरत! तुम्हारा नाम-स्मरण करते ही सब पाप, प्रपञ्च (अज्ञान) और समस्त अमङ्गलोंके समूह मिट जायँगे तथा इस लोकमें सुन्दर यश और परलोकमें सुख प्राप्त होगा ।। २६३।।

कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी ।। तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ ।।

हे भरत ! मैं स्वभावसे ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात ! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाये नहीं छिपते ।।१।।

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ।। हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ।।

पक्षी और पशु मुनियोंके पास [बेधड़क] चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधिकोंको देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रुको पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्यशरीर तो गुण और ज्ञानका भण्डार ही है ।।२।।

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें ।। राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी ।।

हे तात ! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ! क्या करूँ? जीमें बड़ा असमञ्जस (दुविधा) है। राजाने मुझे त्यागकर सत्यको रखा और प्रेम-प्रणके लिये शरीर छोड़ दिया ।।३।।

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा ।।

उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उसपर भी गुरुजीने मुझे आज्ञा दी है। इसलिये अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता हूँ ।।४।। दो०

- मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु ।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ।।२६४।।

तुम मनको प्रसन्न कर और संकोचको त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया ।।२६४।।

सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू ।। बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं ।।

देवगणोंसहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन-ही-मन श्रीरामजी की शरण गये ।।१।।

क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

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🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई । करत बदन पर भरत बड़ाई ।। भरतु कहहिं स...
17/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई । करत बदन पर भरत बड़ाई ।। भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई ।।

छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी चुप हो रहे ।।४।।

दो०-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात ।
चुत कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात ।। २५९।।

तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब स‌ङ्कोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो ।। २५९।।

सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई ।। लखि अपनें सिर सबु छरु भारू । कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ।।

मुनिके वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजीका रुख पाकर- गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर-सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे ।।१।।

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े ।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा ।।

शरीरसे पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गये। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गयी। [वे बोले- मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? ।।२।।

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ।।

अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रिस (अप्रसन्नता) नहीं देखी ।।३।।

सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ।।
मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ।।

बचपनसे ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मनके प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं ।।४।।

दो०- महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन ।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ।।२६०।।

मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला।
प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आजतक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए ।।२६०।।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा ।। यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने [मेरे और स्वामी के बीच] अन्तर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता। क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है) ।।१।।

मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली ।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली ।।

माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ दुराचारों के समान है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है? ।।२।।

सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू ।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ।।

स्वप्नमें भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया ।।३।।

हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ।।
गुर गोसाईं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू ।।

मैं अपने हृदय में सब ओर खोजकर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्रीसीतारामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है ।।४।।

दो०- साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ।।२६१।।

साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भावसे कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपञ्च (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे [सर्वज्ञ] मुनि वसिष्ठजी और [अन्तर्यामी] श्रीरघुनाथजी जानते हैं ।। २६१।।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी ।। देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं ।।

प्रेमके प्रणको निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माताकी कुबुद्धि, दोनोंका सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरीके नर-नारी दुःसह तापसे जल रहे हैं ।।१।।


क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺   सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी ।। उतरु न आव लोग...
16/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी ।।
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ।।

मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचारशक्ति से रहित) हो गये। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े ।।२।।

भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे ।।
जनम हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता ।।

[और कहा-] सूर्यवंशमें एक-से-एक अधिक बड़े बहुत-से राजा हो गये हैं। सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते हैं ।।३।।

दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना।।
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।

आपकी आशिष ही एक ऐसी है जो दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है; यह जगत् जानता है। हे स्वामी! आप वही हैं जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है? ।।४।।

दो०-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु ।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ।। २५५।।

अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया ।। २५५।।

तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं ।। सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता ।।

[वे बोले-] हे तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। रामविमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूँ। बुद्धिमान् लोग सर्वस्व जाता देखकर [आधे की रक्षाके लिये] आधा छोड़ दिया करते हैं ।।१।।

तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ।। सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता ।।

अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्रीरामचन्द्र को लौटा दिया जाय। ये सुन्दर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गये। उनके सारे अंग परमानन्द से परिपूर्ण हो गये ।।२।।

मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा । जनु जिय राउ रामु भए राजा ।।
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ।।

उनके मन प्रसन्न हो गये। शरीरमें तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे हों और श्रीरामचन्द्र जी राजा हो गये हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई। परन्तु रानियों को दुःख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं ।।३।।

कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे।।
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू ।।

भरतजी कहने लगे- मुनि ने जो कहा, वह करने से जगत्भर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा। [चौदह वर्षकी कोई अवधि नहीं, मैं जन्मभर वन में वास करूँगा। मेरे लिये इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है ।।४।।
Goswami Tulsidas

दो०- अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान । जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ।। २५६।।

श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी हृदयकी जाननेवाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनोंको प्रमाण कीजिये (उनके अनुसार व्यवस्था कीजिये) ।।२५६।।

भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू ।।
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी ।।

भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभासहित मुनि वसिष्ठजी विदेह हो गये (किसी को अपने देह की सुधि न रही)। भरतजी की महान् महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तटपर अबला स्त्री के समान खड़ी है ।।१।।

गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा ।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई ।।

वह [उस समुद्र के] पार जाना चाहती है, इसके लिये उसने हृदय में उपाय भी ढूँढ़े! पर [उसे पार करनेका साधन] नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है? ।।२।।

भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए ।। प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ।।

मुनि वसिष्ठजी के अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाजसहित श्रीरामजी के पास आये। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने प्रणामकर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गये ।।३।।

बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी ।।
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना ।।

श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ ! हे सुजान ! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम ! सुनिये ।।४।।

दो०- सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ।।२५७।।

आप सबके हृदयके भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं। जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइये ।।२५७।।

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ।।

आर्त (दुखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आपही के हाथ है ।।१।।

सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें ।। प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई ।। आपका रुख रखनेमें और आपकी आज्ञाको सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करनेमें ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षाको माथेपर चढ़ाकर करूँ ।।२।।

पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं ।। कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा ।। फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरहसे सेवामें लग जायगा (आज्ञापालन करेगा)। मुनि वसिष्ठजी कहने लगे- हे राम ! तुमने सच कहा। पर भरतके प्रेमने विचारको नहीं रहने दिया ।।३।।

तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी ।। मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ।।

इसीलिये मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरतकी भक्तिके वश हो गयी है। मेरी समझमें तो भरतकी रुचि रखकर जो कुछ किया जायगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा ।।४।। दो०- भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि ।

करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ।। २५८।। पहले भरतकी विनती आदरपूर्वक सुन लीजिये, फिर उसपर विचार कीजिये। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदोंका निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसीके अनुसार) कीजिये ।। २५८।।

गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी ।। भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी ।।

भरतजीपर गुरुजीका स्नेह देखकर श्रीरामचन्द्रजीके हृदयमें विशेष आनन्द हुआ। भरतजीको धर्मधुरन्धर और तन, मन, वचनसे अपना सेवक जानकर ।।१।।

बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला ।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई ।।

श्रीरामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा के अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले - हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभरमें भरत के समान भाई कोई हुआ ही नहीं ।।२।।

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू ।।

जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (पारमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होते हैं! [फिर] जिसपर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भारत के भाग्य को कौन कह सकता है? ।।३।।
क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  दो०- निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच । नीच कीच बिच मगन...
15/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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दो०- निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच ।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ।। २५२।।

भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है ।। २५२।।

कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली ।। केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू ।।

[भरतजी सोचते हैं कि] माता के मिससे काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईतिका भय आ उपस्थित हो। अब श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता ।।१।।

अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ ।।

गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे। परन्तु मुनि वसिष्ठजी तो श्रीरामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे (अर्थात् वे श्रीरामजी की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे)। माता कौसल्याजी के कहने से भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजीको जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी? ।।२।।

मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता ।। जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ।।

मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन) है ।।३।।

एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी ।।
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई ।।

एक भी युक्ति भरतजी के मनमें न ठहरी। सोचते-ही-सोचते रात बीत गयी। भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वसिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा ।।४।।

दो०- गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ।।२५३।।

भरतजी गुरुके चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गये। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मन्त्री आदि सभी सभासद आकर जुट गये ।। २५३।।

बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना ।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू ।।

श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदो! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुलके सूर्य महाराज श्रीरामचन्द्र धर्मधुरन्धर और स्वतन्त्र भगवान् हैं ।।१।।

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू ।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी ।।

वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्रीरामजी का अवतार ही जगत्‌ के कल्याण के लिये हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलनेवाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करनेवाले और देवताओं के हितकारी हैं ।।२।।

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु ।। बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला ।।

नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्रीरामजी के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल ।।३।।

अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई ।। करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें ।।

शेषजी और [पृथ्वी एवं पातालके अन्यान्य] राजा आदि जहाँतक प्रभुता है, और योग की सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रों में गायी गयी हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, [तो यह स्पष्ट दिखायी देगा कि श्रीरामजी की आज्ञा इन सभी के सिरपर है (अर्थात् श्रीरामजी ही सबके एकमात्र महान् महेश्वर हैं) ।।४।।

दो०- राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ।।२५४।।

अतएव श्रीरामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। [इस तत्त्व और रहस्य को समझकर] अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो ।। २५४।।

सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू ।।
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ ।।

श्रीरामजी का राज्याभिषेक सबके लिये सुखदायक है। मङ्गल और आनन्द का मूल यही एक मार्ग है। [अब] श्रीरघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाय ।।१।।

क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे ।।देब काह ह...
13/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे ।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई ।।

आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों ही तक है
।।१।।

यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई ।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ।।

हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हमलोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करनेवाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं ।।२।।

पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं ।।
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ।।

हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं। हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्रीरघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है ।।३।।

जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे ।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे ।।

जबसे प्रभु के चरणकमल देखे, तबसे हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गये। वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गये और उनके भाग्य की सराहना करने लगे ।।४।।

छं०- लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं ।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुख पावहीं ।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा ।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ।।

सब उनके भाग्यकी सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्रीसीतारामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलों की वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया।

सो०- बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब ।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम ।।२५१।।

सब लोग दिनोंदिन परम आनन्दित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं, जैसे पहली वर्षा के जल से मेढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं) ।।२५१।।

पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती ।।
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई ।।

अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक-सी सेवा करती हैं ।।१।।

लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं।।

श्रीरामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ [पराशक्ति महामाया] श्रीसीताजी की माया में ही हैं। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिये ।।२।।

लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई ।।

सीताजी समेत दोनों भाइयों (श्रीराम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछतायी। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर समा जानेके लिये रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता ।।३।।

लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं ।। यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।

लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्रीरामजी से विमुख हैं उन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह सन्देह हो रहा था कि हे विधाता !श्रीरामचन्द्रजीका अयोध्या जाना होगा या नहीं ।।४।।

क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 🌺  दो०- भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ।श्रद्धा भगति समेत प्र...
12/06/2025

🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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दो०- भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ।।२४७।।

दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वसिष्ठजी ने श्रीरघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्तिसहित आदर के साथ किया ।।२४७।।

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी ।। जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला ।।

वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अन्धकार के नष्ट करनेवाले सूर्यरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरूपी रूई के [तुरंत जला डालने के] लिये अग्नि है; और जिनका स्मरणमात्र समस्त शुभ मङ्गलों का मूल है, ।।१।।

सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस ।। सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते ।।

वे [नित्य शुद्ध-बुद्ध] भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए। साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना होना वैसे ही है जैसा तीथों के आवाहन से गङ्गाजी शुद्ध होती हैं! (गङ्गाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उलटे वे ही गङ्गाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्दरूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुरुजी से बोले - ।।२।।

नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी ।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।

हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यन्त दुखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्नसहित भरत को, मन्त्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है ।।३।।

सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ ।।
बहुत कहेउँ सब सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई ।।

अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरी को पधारिये (लौट जाइये)। आप यहाँ हैं, और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिये ।।४।।

दो०- धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम ।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ।।२४८।।

[वसिष्ठजी ने कहा-] हे राम ! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग दुखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें ।। २४८।।

राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला ।।

श्रीरामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाजडगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वसिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाज के लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी ।।१।।

पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं ।। मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ।।

सब लोग पवित्र पयस्विनी नदीमें [अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में] तीनों समय (सबेरे, दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शनसे ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मङ्गलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजी को दण्डवत् प्रणाम कर-करके उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं ।।२।।

राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ।। झरना झरहिं सुधासम बारी । त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ।।

सब श्रीरामचन्द्रजी के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्ध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापों को हर लेती है ।।३।।

बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ।। सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ।।

असंख्य जाति के वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएँ हैं। वृक्षोंकी छाया सुख देनेवाली है। वनकी शोभा किससे वर्णन की जा सकती है? ।।४।।

दो०- सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भंग ।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ।।२४९।।

तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जलके पक्षी कूज रहे हैं, भौरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं ।। २४९।।

कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ।। भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी ।।

रंगोंके पक्षी और पश कोल, किरात और भील आदि वन के रहनेवाले लोग पवित्र, सुन्दर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुन्दर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कन्द, मूल, फल और अंकुर आदि की जूड़ियों (अँटियों) को ।।१।।

सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं ।।

सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में श्रीरामजीकी दुहाई देते हैं ।।२।।

कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी ।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा ।।

प्रेममें मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात् आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिये, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिये)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजी की कृपा से ही हमने आपलोगों के दर्शन पाये हैं ।।३।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा । जस मरु धरनि देवधुनि धारा ।। राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ।।

हमलोगोंको आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिये गङ्गाजी की धारा दुर्लभहै! [देखिये,] कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजाको भी होना चाहिये ।।४।।
दो०- यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु ।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ।।२५०।।

हृदयमें ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करनेके लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये ।। २५०।।

क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼

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