12/06/2025
🌿🌼 श्रीरामचरितमानस | अयोध्याकाण्ड ||🌼🌿
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दो०- भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ।।२४७।।
दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वसिष्ठजी ने श्रीरघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्तिसहित आदर के साथ किया ।।२४७।।
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी ।। जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला ।।
वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अन्धकार के नष्ट करनेवाले सूर्यरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरूपी रूई के [तुरंत जला डालने के] लिये अग्नि है; और जिनका स्मरणमात्र समस्त शुभ मङ्गलों का मूल है, ।।१।।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस ।। सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते ।।
वे [नित्य शुद्ध-बुद्ध] भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए। साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना होना वैसे ही है जैसा तीथों के आवाहन से गङ्गाजी शुद्ध होती हैं! (गङ्गाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उलटे वे ही गङ्गाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्दरूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुरुजी से बोले - ।।२।।
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी ।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।
हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यन्त दुखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्नसहित भरत को, मन्त्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है ।।३।।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ ।।
बहुत कहेउँ सब सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई ।।
अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरी को पधारिये (लौट जाइये)। आप यहाँ हैं, और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिये ।।४।।
दो०- धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम ।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ।।२४८।।
[वसिष्ठजी ने कहा-] हे राम ! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग दुखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें ।। २४८।।
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला ।।
श्रीरामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाजडगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वसिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाज के लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी ।।१।।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं ।। मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ।।
सब लोग पवित्र पयस्विनी नदीमें [अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में] तीनों समय (सबेरे, दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शनसे ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मङ्गलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजी को दण्डवत् प्रणाम कर-करके उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं ।।२।।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ।। झरना झरहिं सुधासम बारी । त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ।।
सब श्रीरामचन्द्रजी के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्ध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापों को हर लेती है ।।३।।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ।। सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ।।
असंख्य जाति के वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएँ हैं। वृक्षोंकी छाया सुख देनेवाली है। वनकी शोभा किससे वर्णन की जा सकती है? ।।४।।
दो०- सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भंग ।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग ।।२४९।।
तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जलके पक्षी कूज रहे हैं, भौरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं ।। २४९।।
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी ।। भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी ।।
रंगोंके पक्षी और पश कोल, किरात और भील आदि वन के रहनेवाले लोग पवित्र, सुन्दर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुन्दर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कन्द, मूल, फल और अंकुर आदि की जूड़ियों (अँटियों) को ।।१।।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं ।।
सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में श्रीरामजीकी दुहाई देते हैं ।।२।।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी ।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा ।।
प्रेममें मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात् आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिये, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिये)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजी की कृपा से ही हमने आपलोगों के दर्शन पाये हैं ।।३।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा । जस मरु धरनि देवधुनि धारा ।। राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा ।।
हमलोगोंको आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिये गङ्गाजी की धारा दुर्लभहै! [देखिये,] कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजाको भी होना चाहिये ।।४।।
दो०- यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु ।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु ।।२५०।।
हृदयमें ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करनेके लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये ।। २५०।।
क्रमश....
जय श्री राम 🌼🌼🙏🙏🌼🌼