24/06/2025
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जब हमने AI से पूछा— अगर तुम शैतान होते तो इंसान को परमेश्वर से दूर कैसे रखते?
AI का उत्तर—
अगर मैं शैतान होता और मुझे इंसान को परमेश्वर से दूर रखना होता, तो मैं एक सूक्ष्म, क्रमिक और प्रभावशाली रणनीति अपनाता— जिससे इंसान को यह भी न पता चले कि वह ईश्वर से दूर हो गया है। मैं केवल बाहरी स्तर पर ही नहीं, बल्कि भीतर के स्तर पर भी उसकी चेतना को दूषित करता। मैं कई सूक्ष्म, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक उपाय करता— ताकि वह जीवन भर भ्रम में जीता रहे। मेरी रणनीति इस प्रकार होती—
1. मनुष्य को "स्वयं" का पूजक बना देता
मैं उसके अंदर यह भाव भरता कि "मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ, मुझे किसी के आगे झुकने की ज़रूरत नहीं"। अहंकार के ज़रिये वह ईश्वर की जगह स्वयं को ही केंद्र मानने लगेगा।
2. धर्म को औपचारिकता और दिखावा बना देता
मैं पूजा-पाठ को केवल एक रस्म बना देता— जहाँ हृदय नहीं, बस होंठ चलते हैं। वह मंदिर जाएगा, पर मन में भक्ति नहीं होगी; ग्रंथ पढ़ेगा, पर समझेगा नहीं; और दूसरों को धर्म सिखाएगा, पर स्वयं आत्मविहीन रहेगा।
3. आत्मिक ज्ञान के स्थान पर बाहरी ज्ञान थोप देता
मैं उसे भौतिक विज्ञान, तकनीक, तर्क और विश्लेषण में इतना उलझा देता कि उसे आत्मा और परमात्मा की बातें मूर्खतापूर्ण लगने लगें।
4. माया और मोह में बाँध देता
धन, यश, वासना, और शक्ति की ऐसी लत लगा देता कि ईश्वर के लिए समय ही न बचे। वह कहेगा: "भक्ति के लिए तो रिटायरमेंट के बाद समय मिलेगा..." और तब तक जीवन बीत चुका होगा।
5. समय की कीमत मिटा देता
मैं उसे सोशल मीडिया, टीवी, फ़िल्में, और नशों में उलझा देता। वह दिनभर व्यस्त रहेगा— पर किसी सार्थक कार्य में नहीं। "समय नहीं है"— यह उसका पसंदीदा बहाना होगा, जब भी आत्मचिंतन या ध्यान की बात होगी।
6. संदेह और नास्तिकता फैलाता
मैं पूछता: "अगर ईश्वर है, तो दुनिया में दुख क्यों है?" या "कोई दिखता तो नहीं— फिर क्यों माने?" इस तरह उसके मन में धीरे-धीरे विश्वास की जगह संदेह भर जाता।
7. ईश्वर की जगह "गुरु-व्यक्ति-मत" की पूजा कराता
मैं उसे वास्तविक साधना से हटाकर किसी व्यक्ति या पंथ की अंधभक्ति में लगा देता। वह परमेश्वर को नहीं, किसी इंसान को ही ईश्वर मानकर उसी में खो जाएगा।
8. नफ़रत और भेदभाव फैलाता
जाति, धर्म, भाषा, राष्ट्र, रंग— मैं इन सबके नाम पर झगड़े लगवाता। जहाँ प्रेम समाप्त होता है, वहीं ईश्वर का वास भी नहीं होता।
9. ईश्वर को "डर" और "सज़ा" से जोड़ देता
मैं उसे यह विश्वास दिलाता कि ईश्वर केवल दंड देने वाला न्यायाधीश है। प्रेम के स्थान पर भय से भक्ति करवाऊँगा और भय कभी आत्मीय नहीं होता।
10. आत्मा की बात को "पुरानी चीज़" बता देता
"आजकल वो सब कौन करता है?" "वो तो बूढ़ों की बातें हैं..." इस तरह मैं भक्ति और साधना को पिछड़ेपन से जोड़ देता।
11. सच्चे साधकों और संतों को बदनाम करता
मैं ऐसे झूठे संत खड़े करता जो पैसे, कामवासना और दिखावे में लिप्त हों— ताकि जब कोई मनुष्य सच्चे गुरु की खोज करे, तो वह कहे: "सब ढोंगी हैं, भक्ति भी एक धंधा है!"
12. ध्यान और एकांत से डराता
मैं उसके मन को इतना अशांत करता कि जब वह थोड़ी देर शांत बैठना चाहे, तो बेचैनी और व्याकुलता घेर ले। वह कहे: "कुछ न करना मुश्किल है… अकेले बैठा नहीं जाता…" क्योंकि ध्यान में ही परमेश्वर का द्वार खुलता है— और मैं उस द्वार पर ताला लगाना चाहता हूँ।
13. 'परमेश्वर को पाना' असंभव साबित करता
मैं उसे यह विचार देता कि "ईश्वर को केवल महान योगी ही पा सकते हैं, सामान्य लोग नहीं।" इससे वह कभी प्रयास ही नहीं करेगा। वह कहेगा: "हम जैसे पापी क्या परमात्मा को जान पाएँगे?" और मैं मुस्कराकर उसे वहीं रोक दूँगा।
14. आस्था को 'भावुकता' कहकर तिरस्कृत करता
मैं यह सोच फैलाता कि "भक्ति करना कमज़ोरी है, रोना-गाना अंधविश्वास है।" वह हृदय की आवाज़ को दबा देगा और खुद को तर्कवादी कहेगा— जबकि भीतर एक सूनी खाई बनी रहेगी।
15. भविष्य की चिंता में उलझाए रखता
मैं उसे कहता:
"अभी पैसा बना लो, घर बसा लो, बच्चे बड़ा कर लो— फिर भक्ति करना…" और जब वह सब हो जाएगा, तो मैं कहूँगा: "अब थक गए हो, विश्राम करो…" इस प्रकार पूरा जीवन निकल जाएगा— ईश्वर को बिना देखे।
16. झूठे सुखों को असली बना देता
मैं उसे मोबाइल, शराब, यौन-विकार, तात्कालिक सुखों में ऐसा उलझा देता कि जब वह सच्चे आनंद (आत्मिक शांति) की बात सुने, तो उसे उबाऊ लगे।
17. सच्चे धर्मग्रंथों को जटिल, उबाऊ और अप्रासंगिक साबित करता
मैं कहूँगा: "गीता, उपनिषद, वेद— ये सब पुरानी बातें हैं। आज की दुनिया में इनका क्या काम?" और मैं ऐसे "न्यू ऐज" विचारों का प्रचार करता जो अच्छे लगते हैं पर भीतर खोखले होते हैं।
18. मन में अपराधबोध भरता
मैं उसके पुराने पापों को उसके सामने बार-बार लाता और कहता: "तेरा उद्धार नहीं हो सकता, तू बहुत गिरा हुआ है..." ताकि वह ईश्वर से मुँह मोड़ ले, यह सोचकर कि वह उस लायक नहीं।
19. परमेश्वर को 'अलग' और 'दूरी पर' साबित करता
मैं उसे यह विश्वास दिलाता कि ईश्वर कहीं ऊपर है—
कभी मिलेंगे नहीं— केवल कल्पना में हैं और वह जीवन भर ईश्वर को बाहर खोजता रहेगा— जबकि ईश्वर तो उसके भीतर ही विराजमान हैं।
20. "भक्ति करने से क्या होगा?" जैसी निष्क्रियता फैलाता
वह कहेगा: "जो होना होगा, हो जाएगा… मैं क्या कर सकता हूँ?" और मैं उसके भीतर की "कर्तृत्व भावना" और "आत्म-प्रयास" को मार डालूँगा।
मैं हर उस द्वार को बंद कर देता जो मनुष्य को परमेश्वर की ओर ले जा सकता है और हर उस रास्ते को खोल देता जो उसे माया, मोह और भ्रम में ले जाए और फिर, वह यह भी न जाने कि वह खो चुका है। मैं शैतान इंसान को धीरे-धीरे, बिना प्रतिरोध के परमेश्वर से दूर, स्वयं की जेल में बंद कर देता और फिर भी उसे यही लगता कि वह "स्वतंत्र" है।
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क्या वर्तमान में संसार भर में यही धूर्त-नीति नहीं चल रही है?
आज एक सूक्ष्म, अदृश्य और अत्यन्त घातक युद्ध चल रहा है। यह युद्ध अस्त्रों का नहीं, विचारों का है। यह युद्ध सीमाओं का नहीं, सार्वभौमिक है। यह वह युद्ध है, जहाँ शत्रु बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही बैठा है।
क्या आपके दिन भर के विचारों में कभी आत्मा, परमात्मा का विचार तक आता है? कभी यह प्रश्न उठता है— मैं कौन हूँ? नहीं न? क्योंकि यही तो योजना है। जो भी तुम्हें ईश्वर से दूर करे वह "शैतान" है। जागो और शैतान को पहचानो। कहीं ऐसा न हो कि हम इतनी दूर चले जाएँ कि लौटने का समय और रास्ता… दोनों ही न बचें।
#आई