12/10/2025
#छठ, #चुनाव के बीच #बिहार_का_दर्द
बिहार में चुनाव उस वक्त हो रहा है, जब छठ का पर्व दरवाजे पर है। छठ, जो केवल पूजा नहीं बल्कि बिहारी अस्मिता का सबसे पवित्र उत्सव है। एक बिहारी अपने घर लौटता है, चाहे वह मुंबई की फैक्ट्री में हो या दिल्ली की निर्माण साइट पर।रेलवे स्टेशन पर उमड़ती भीड़, खचाखच भरी ट्रेनें, और प्लेटफॉर्म पर सोते लोग — यह दृश्य हर साल दोहराया जाता है। लेकिन इन दृश्यों में सिर्फ़ भीड़ नहीं होती, इनमें एक कहानी होती है — बिहार की मजबूरी की। क्योंकि चाहे सरकार किसी भी पार्टी की रही हो, बिहारी अब तक मजदूर और मजबूर दोनों ही बना रहा है।हर छठ पर यही सवाल उठता है — आखिर क्यों बिहार का बेटा अपनी मिट्टी छोड़कर दूसरे राज्यों में मेहनत करने को मजबूर है? क्यों नहीं उसके अपने राज्य में कारखाने, उद्योग, रोजगार और सम्मानजनक अवसर हैं? अगर बिहार के नेताओं को सच में चिंता होती इस राज्य के मेहनतकश लोगों की, तो बिहार की गाड़ियों से सिर्फ़ बाहर जाने वाले नहीं, अंदर आने वाले मजदूर भी दिखते।लेकिन हकीकत यह है कि नेताओं को सिर्फ़ टिकट की चिंता है — कौन टिकट पाएगा, कौन सेट होगा। किसी को चिंता नहीं कि जिस बिहार की जनता वोट देने के लिए लाइन में खड़ी है, वो उसी शाम रोज़गार के लिए अपने घर से बाहर निकल पड़ती है।आज बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों में उलझी हुई है। चुनावी गणित की जोड़-घटाना में मानवीय संवेदनाएं कहीं खो गई हैं। सब जानते हैं कि सारा खेल कुछ गिने-चुने चेहरों के इर्द-गिर्द घूम रहा है, और जनता के पास विकल्प के नाम पर फिर वही पुराना सेट पैटर्न है।पर इस बीच बिहार का असली चेहरा ट्रेन के डब्बे में और छठ घाट पर दिखता है — जहां कोई जाती पति नही वहां सब सिर्फ़ बिहारी होते हैं। जो सीट के लिए नहीं, एक कोने के लिए लड़ते हैं; जो अपने गांव की मिट्टी को माथे से लगाकर वापस लौटना चाहते हैं। छठ का यह मौसम हमें हर बार आईना दिखाता है। बताता है कि बिहार की असली ताकत उसके नेता नहीं, उसके मजदूर हैं। वो लोग जो पसीने से देश की इमारतें खड़ी करते हैं, और फिर छठ में लौटकर अपनी मिट्टी में अर्घ्य चढ़ाते हैं।
राजनीति बदलती रहती है, पर बिहार की तकदीर कब बदलेगी — यह सवाल हर रेलगाड़ी की सीटी में आज भी गूंजता है।