
03/05/2025
"बच्चों का भविष्य मोबाइल की स्क्रीन पर नहीं, हमारे साथ बिताए गए पलों में लिखा जाता है।"
मैं एक माँ भी हूँ, एक शिक्षिका भी… और सबसे पहले, एक इंसान जो इस बदलते समय को देख रही हूँ। आज मैं आपसे दिल से एक ऐसी बात साझा करना चाहती हूँ, जो शायद हम सभी महसूस कर रहे हैं लेकिन बोल नहीं पा रहे:
"हम अपने बच्चों को खोते जा रहे हैं — और वो भी हमारी आँखों के सामने, चुपचाप।"
मुझे याद है, जब हम छोटे हुआ करते थे तो रात को मम्मी को बोला करते थे कहानी सुनाओ, या अपने बचपन के किस्से, या फिर कोई पहेली ही पूछो.और हमें तब के किस्से कहानी, पहेलियां,आज भी याद हैँ.जैसे कल की ही बात हो
पर आज????????
आज के बच्चों का एक ही डायलॉग होता है: “बस 10 मिनट मोबाइल चला लूँ?” या कुछ देर मोबाइल में गेम खेल लूँ? यह बदलाव सिर्फ मेरे घर का नहीं, बल्कि हर घर का सच बन गया है।
आज के बच्चे जन्म से ही मोबाइल के संपर्क में हैं। 3 साल का बच्चा भी यूट्यूब चलाना जानता है, लेकिन खुद से बैठकर सोचने की शक्ति खोता जा रहा है।
ये कोई तकनीकी तरक्की नहीं, ये भावनात्मक हार है।
मोबाइल फोन अब सिर्फ एक डिवाइस नहीं रहा — यह बच्चों का दोस्त, खेल का मैदान, शिक्षक और दुनिया बन गया है। लेकिन इस वर्चुअल दुनिया ने हमारे बच्चों को असली जीवन से दूर कर दिया है।
वो जो कभी मिट्टी में खेलते थे, अब स्क्रीन पर स्क्रॉल करते हैं।जो कहानियाँ सुनते थे, अब इंस्टाग्राम रील्स के 15 सेकंड में "मनोरंजन" खोजते हैं।
क्या हम सच में यही भविष्य चाहते हैं अपने बच्चों के लिए?
जब बच्चा हर वक्त मोबाइल की ओर भागता है, तो उसका दिमाग "डोपामाइन" नामक रसायन छोड़ता है — जो खुशी का एहसास देता है।
धीरे-धीरे बच्चा इस डिजिटल खुशी का आदी हो जाता है।
और फिर...
#होमवर्क में मन नहीं लगता
#बात_बात पर चिड़चिड़ाहट
#हर काम से बचने की आदतऔर अकेलेपन की शुरुआत…
शारीरिक रूप से भी असर दिखने लगता है —
आँखें कमजोर, नींद अधूरी, शरीर निष्क्रिय और मन बेचैन।
लेकिन सबसे बड़ा नुक़सान होता है रिश्तों में दूरी का।
जब माँ-बाप भी खाना खाते समय मोबाइल में खोए हों, तो बच्चा भी यही सीखेगा —
"सिर्फ स्क्रीन की दुनिया ही सच्ची है।"
हम अक्सर शिकायत करते हैं, “बच्चा पढ़ाई में ध्यान नहीं देता…”लेकिन क्या कभी हमने सोचा —
क्या उसके मन में गहराई से सोचने की क्षमता बची है?
जब दिमाग हर पल 5 ऐप्स और 10 नोटिफिकेशन्स में बँटा हो,तो भला ध्यान कैसे लगेगा?
लेकिन अब रुकने का नहीं, बदलाव का समय है।
आज अगर हम एक परिवार की तरह एकजुट होकर कुछ छोटे कदम उठाएँ,तो हम अपने बच्चों को फिर से जीवन का सही रास्ता दिखा सकते हैं।
क्या कर सकते हैं हम?
दिन में एक “मोबाइल-फ्री टाइम” तय करें — जहाँ पूरा परिवार सिर्फ एक-दूसरे से बात करे।
बच्चों के साथ शाम की चाय पर बैठकर दिनभर की बातें साझा करें।
उन्हें सिखाएँ कि असली मज़ा स्क्रीन में नहीं, साथ में हँसने-खेलने में है।
और सबसे ज़रूरी — खुद रोल मॉडल बनें।
अगर हमें चाहिए कि बच्चा किताब पढ़े, तो पहले हमें किताब उठानी होगी। अगर हम चाहते हैं कि वो हमें सुने,तो पहले हमें उसे ध्यान से सुनना होगा। क्योंकि बच्चे वो नहीं करते जो आप कहते हैं, बच्चे वो करते हैं जो आप करते हैं।
आज बस इतना कहना है:
अपने बच्चे को समय दीजिए —नकली स्क्रीन के बजाए असली स्पर्श,फॉलोअर्स के बजाय फीलिंग्स,
रील्स के बजाय रिश्ते दीजिए।
जब हम खुद बच्चे के साथ बैठते हैं,
उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछते हैं, “कैसा था तुम्हारा दिन?” तो वही पल वो ज़िंदगी भर याद रखेगा — ना कि मोबाइल पर बिताए गए 3 घंटे।
बचपन एक बार जाता है, फिर लौटकर नहीं आता।
आज अगर हम सतर्क रहें, तो आने वाली पीढ़ी को संवेदनशील, जागरूक और खुशहाल बना सकते हैं।
आज ही प्रण लें —
"मैं अपने बच्चे को स्क्रीन से नहीं, #संवेदना से जोड़ूँगा/जोड़ूंगी।"
अगर आपकी भी यही भावना है, तो इस पोस्ट को शेयर करें,क्योंकि किसी एक माँ या पिता की जागरूकता, पूरे समाज का बचपन बचा सकती है।
ाओ #मोबाइलमुक्त_परिवार #माँ_की_आवाज़ #डिजिटल_संवेदना #सच्चे_रिश्ते_स्क्रीन_नहीं