Chandi Patrika - Kalyanmandir Prakashan

Chandi Patrika - Kalyanmandir Prakashan सनातन धर्म के ज्ञान-मय क्रिया-पक्ष की ?

भारत की अत्यन्त प्रसिद्ध शक्ति-आराधना को सरल हिन्दी में प्रकट करने का महान् कार्य पण्डित देवीदत्त जी शुक्ल द्वारा सन् 1942 में प्रारम्भ हुआ था। शुक्ल जी हिन्दी की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के यशस्वी सम्पादक थे। आपको इस महान्् कार्य में, आपके ही प्रथम शिष्य पं0 शिवनाथ काटजू का सहयोग प्राप्त हुआ।
‘कुम्भ’ के अवसर पर 15 जनवरी, 1942 को प्रयाग में धूम-धाम से आप दोनों के प्रयासों से शक्ति के आराधकों का

सम्मेलन हुआ। इस प्रथम सम्मेलन में कई प्रस्ताव घोषित हुए। पहले प्रस्ताव द्वारा सरल हिन्दी में प्रचार एवं प्रसार हेतु ‘पत्रिका’ एवं ‘पुस्तकें’ छापने का निर्णय हुआ। फलतः मार्च, 1942 से ‘चण्डी’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जो अनवरत जारी है।

शक्ति की आराधना से सम्बन्धित रहस्यों को प्रकट करने के लिए ‘चण्डी’ पत्रिका को कई विभूतियों का सहयोग प्राप्त हुआ। ‘चण्डी’ पत्रिका का दूसरा वर्ष प्रारम्भ होते ही ’गुप्तावतार’ श्री मोतीलाल जी मेहता का प्रागट्य हुआ। फिर ’राष्ट्र-गुरु’ परम पूज्य स्वामी जी महाराज, दतिया की कृपा मिली। दण्डी संन्यासी स्वामी श्री अक्षोभ्यानन्द जी सरस्वती की कृपा शुक्ल जी को पहले से ही प्राप्त थी। इस प्रकार इन तीन विभूतियों एवं पटना से पूज्या माई जी की कृपा प्राप्त होने पर अनेक उच्च कोटि के साधक विद्वान् बन्धु ‘चण्डी’ पत्रिका से जुड़ने लगे और शक्ति-आराधना सम्बन्धी गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल हिन्दी में निबन्ध एवं कविताओं के रूप में प्रकट होने लगीं।

साधक एवं विद्वान् बन्धुओं में मेरठ से पं0 योगीन्द्रकृष्ण दौर्गादत्ति जी शास्त्री, नेपाल से मेजर जनरल धनशमशेर जंग बहादुर राणा, काशी से पं0 कन्हैयालाल ज्योतिषी, जयपुर से आशुकवि पं0 श्री हरिशास्त्री दाधीच, दरभंगा से श्री श्यामानन्दनाथ, कुम्मिला (वंग प्रदेश) से रासमोहन चक्रवर्ती, पीलीभीत से पं0 दुर्गाशंकर शुक्ल, नैनीताल-अल्मोड़ा से श्रीकालीचरण पन्त, परमहंस श्री 108 स्वामी शंकरतीर्थ महाराज, जोधपुर से स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती, टोंक से स्वामी शाश्वतानन्द सरस्वती, सीकर से पं0 नथमल दाधीच, पटना से पं0 ललन पाण्डेय, पं0 श्रीकान्तबिहारी मिश्र, जयपुर से श्रीमती राजेशकुमारी करणौत, मेजर कुँवर श्री रामसिंह, मुम्बई से श्रीहरिकिशन ल0 झवेरी, श्री रमाशंकर पण्डया, सतना से श्री सूर्यप्रकाश गोस्वामी, दतिया से फौजदार श्रीबलवीर सिंह, बंगाल से पूज्य श्री स्वामी हिमालय अरण्य जी, प्रयाग से पं0 काशीप्रसाद शुक्ल शास्त्री, श्री कालीप्रताप धर द्विवेदी, श्री महेशचन्द्र गर्ग आदि-आदि थे।
उक्त विभूतियों एवं विद्वान् साधकों के सहयोग से ‘चण्डी’ पत्रिका के माध्यम से न केवल शक्ति-आराधना के गूढ़ रहस्य उजागर हुए अपितु अनेक पूजा पद्धतियाँ आदि भी प्रस्तुत हुईं।
पं0 देवीदत्त शुक्ल जी के पुत्र एवं गुप्तावतार बाबा श्री मोतीलाल जी मेहता के शिष्य ‘कुल-भूषण’ पं0 रमादत्त शुक्ल जी ने शक्ति-आराधना सम्बन्धी उक्त महान कार्य को अपनी युवावस्था से अन्तिम 85 वर्ष की अवस्था तक आगे बढ़ाया। आपकी देख-रेख में सन् 1972 से पितामह पं0 देवीदत्त जी शुक्ल के निधनोपरान्त आपके पौत्र श्रीऋतशील शर्मा अब इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।

कटक के माहेश्वरी देवी के मन्दिर में दर्शनीय दो सिंहों से ' ज्ञान, महत्व, नृपत्व ' का भाव लिया जाता है। नीचे दो मयूरों से...
28/06/2025

कटक के माहेश्वरी देवी के मन्दिर में दर्शनीय दो सिंहों से ' ज्ञान, महत्व, नृपत्व ' का भाव लिया जाता है। नीचे दो मयूरों से दो प्रकार की चैतन्य शक्ति का भाव लिया जाता है और ऊर्ध्व-मुखी शुण्ड वाले दो गजों से पृथ्वी और आकाश से युक्त होनेवाली आधार-शक्ति, वैभव आदि का भाव लिया जाता है। मन्त्र कोष नामक पुस्तक के निदान कोष से उक्त भावों की जानकारी प्राप्त होती है।

अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन के अन्तर्गत उत्कल शाक्त सम्मेलन के द्वारा हुए माहेश्वरी देवी के अद्भुत दर्शन के बाद एक और महत्...
28/06/2025

अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन के अन्तर्गत उत्कल शाक्त सम्मेलन के द्वारा हुए माहेश्वरी देवी के अद्भुत दर्शन के बाद एक और महत्वपूर्ण जानकारी के प्रति हम लोगों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। हमारे उत्तर प्रदेश और उत्कल का विशेष सम्बन्ध दिखाई दे रहा है! उत्तर प्रदेश में आजकल ' सम्भल ' की बहुत चर्चाएं हो रही हैं किन्तु बहुत कम लोगों का ध्यान इस ओर गया है कि उत्कल में सम्भलपुर है, जहां समलेश्वरी देवी और भगवान् भैरव का ज्ञान सुरक्षित, प्रतिष्ठित है। उत्तर प्रदेश और सुदूर उत्कल की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण आध्यात्मिक एकता को क्या हम लोगों को जानकर उससे लाभ नहीं उठाना चाहिए
उत्कल-प्रदेश के सम्भलपुर नगर में अवस्थित महिमा-मण्डित श्री समलेश्वरी मन्दिर-प्राङ्गड़ में शोभायमान भगवान् श्री भैरवनाथ जी का दिव्य विग्रह

इस अवसर पर श्री हेमन्तकुमार दास जी, श्री मदनमोहन दास जी, श्री वेदव्यास शर्मा जी, श्री सोमेशरंजन होता जी की उपस्थिति वस्तुतः आनन्ददायक रही । ये सब पूज्य बाबूजी के शिष्य हैं और पहले पर्वों पर श्रीचण्डी-धाम आया करते थे । श्री वेदव्यास जी तो बीमार होने के बाद भी पधारे, वे अभी-अभी चिकित्सालय से घर लौटे हैं

गुप्त-नवरात्रि के दूसरे दिन, दिनांक - ७जुलाई, २०२४ को, माता कटक-चण्डी के दर्शन का सौभाग्य, मुझे प्राप्त हुआ था । अखिल भा...
28/06/2025

गुप्त-नवरात्रि के दूसरे दिन, दिनांक - ७जुलाई, २०२४ को, माता कटक-चण्डी के दर्शन का सौभाग्य, मुझे प्राप्त हुआ था । अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन के अनुग्रह से उत्कल शाक्त सम्मेलन का उत्कल-अभियान-दल, अभियान के दूसरे दिन (१९ जून , २०२५ ) , नेताजी जन्म-स्थली संग्रहालय से चलकर, कटक-चण्डी मन्दिर पहुँचा । यह लगभग हज़ार वर्ष पुराना देवी-मन्दिर है । सम्प्रति इस मन्दिर का जीर्णोद्धार हो रहा है । देवी के मन्दिर के पार्श्व-वर्त्ती, दो दीवारों पर बाहर से, क्रमशः बायें मन्त्रिणी और दायें दण्डिनी की सजी-धजी प्रतिमायें पूजित होती हैं । मन्दिर के प्रांगण में हनुमान्, राम और राधा-कृष्ण आदि की मूर्त्तियाँ शोभायमान हैं । परिसर के प्रवेश-द्वार पर, दोनों ओर से दस दस ब्रह्म-शक्तियों के दिव्य विग्रह स्थापित किए गये हैं । इस बार, यहाँ से लगभग ३ किलोमीटर दूर, हमलोग पाताल-गत अमृतेश्वर महादेव मन्दिर नहीं जा सके, जहाँ भगवान् मृत्युंजय और भवानी के दर्शन हुए थे ।
कटक का प्राचीन नाम पद्मावती बताया जाता है । कटक का अर्थ है - कटति वर्षति अस्मिन् मेघ इति अथवा कट्यते निर्गम्यते निर्झरिण्यादिभिः … अर्थात् पर्वत का वह मध्य-भाग जहाँ मेघ बरसता है या झरने बहते हैं । अमर कोष में इसका अर्थ है- श्रोणी । भरत मुनि के अनुसार इसका अर्थ, मेखला है । अन्य अर्थ है - वलय, चक्र, हस्ति-दन्त-मण्डन, सामुद्र-लवण, नगरी, राजधानी, पुरी, सेना आदि ।
कटक पहले उत्कल की राजधानी ही थी । कटक, महानदी, काठाजोड़ी, कुआ-खाई, ब्रह्माणी आदि नदियों से घिरा, एक प्राचीन नगर है, इसलिए इसका विस्तार एक सीमा तक ही हो सकता था । इसी कारण से, बाद में अंग्रेज राजधानी को कटक से भुवनेश्वर ले गये । पर, आज भी ओड़िशा उच्च न्यायालय, कटक में ही है । काठजूड़ी के तट पर ही, गंग वंश के शासक, महाराज अनंग भीमदेव के द्वारा, ११८० ई. में बनवाया गया वरावती दुर्ग है, जिसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं । वारावटी का यह दुर्ग आज भी चारों ओर से, जलापूर्ण चौड़ी गहरी नहरों से घिरा है, जिन्हें दुर्ग के रक्षणार्थ बनवाया गया होगा ।
ऐसी मान्यता है कि महाराज अनंग भीमदेव ने भी, पुरी में भगवान् जगन्नाथ जी के मन्दिर के निर्माण में अपना योगदान दिया था ।
सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव, जगन्नाथ-पुरी जाने के क्रम में यहाँ ठहरे थे । उनके द्वारा किये गये दातुन के अवशेष से एक वृक्ष उग आया था, वहाँ वर्त्तमान में गुरुद्वारा दातुन साहिब नामक गुरुद्वारा बना हुआ है । इसे कालियाबोड़ा गुरुद्वारा भी कहा जाता है ।
माँ कटक-चण्डी का दर्शन-पूजन-स्तवन कर, अभियान दल वारावटी-दुर्ग का बाह्य-दर्शन करता हुआ, दिन में एक बजे, दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर पहुँचा, पर मन्दिर दर्शनार्थियों के लिये इस समय खुला नहीं था । वहाँ कुछ देर रुककर, हमलोग चौद्वार में माँ धूमावती के दर्शनार्थ चल पड़े

अति सुन्दर! अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन के अन्तर्गत उत्कल शाक्त सम्मेलन द्वारा अनेक चित्रों को प्रस्तुत किया गया है। ऐसा त...
28/06/2025

अति सुन्दर! अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन के अन्तर्गत उत्कल शाक्त सम्मेलन द्वारा अनेक चित्रों को प्रस्तुत किया गया है। ऐसा तभी हो पा रहा है, जब प्राय: सबके पास अपने कैमरे मोबाइल के माध्यम से हैं। हमारे विचार से ये चित्र केवल देखने के लिए नहीं हैं। प्रत्येक चित्र अपने आप में अनेक आगमोक्त रहस्यों को प्रदर्शित कर रहा है। हम आशा करते हैं कि अब अगले क्रम में इन चित्रों-मूर्तियों-मन्दिरों को न केवल देखने का कार्य होगा, अपितु उसका आगमोक्त वर्णन भी होगा। ऐसा होने पर अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन का परिश्रम निश्चित रूप में बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा

उत्कल शाक्त सम्मेलन के द्वारा माता धूमावती की दिव्य मूर्ति के दर्शन करने का सौभाग्य हम सबको प्राप्त हो रहा है। इसके लिए ...
28/06/2025

उत्कल शाक्त सम्मेलन के द्वारा माता धूमावती की दिव्य मूर्ति के दर्शन करने का सौभाग्य हम सबको प्राप्त हो रहा है। इसके लिए हम सभी सम्बन्धित बन्धुओं के प्रति हृदय से आभारी हैं। सिंह, काक और नाग आदि के द्वारा जो आगमोक्त ज्ञान इस दिव्य मूर्ति के द्वारा प्रचारित हुआ है, वह आकर्षक होने के साथ-साथ मोक्ष-दायक ज्ञान से भी युक्त करनेवाला है। निश्चित रूप में यह अत्यन्त उच्च कोटि का ज्ञान उच्च कोटि के गुरुओं के बिना सम्भव नहीं हो सकता! आज ज्ञान की उस श्रेष्ठ परम्परा को भी खोजने की आवश्यकता है। माई की कृपा से ही यह सब हो पाएगा।
माता धूमावती के दर्शनार्थ, अभियान दल के सदस्य अपने वाहन से चले तो उन्हें महानदी और विरूपा नदी पर बने दो पुलों को पार करते हुए चौद्वार का मार्ग मिला । चौद्वार में बने एक उपरिपुल के नीचे से यू-टर्न लेकर, हम धूमावती माता के मन्दिर पहुँच गये । यह निश्चय किया गया था कि माता के दर्शन के बाद, सब भोजन करेंगे । संयोग-वश उसी दिन मन्दिर का वार्षिकोत्सव भी था । मन्दिर के सामने ही सविधि कलश-स्थापन-पूर्वक, पाठ-पूजा और हवन चल रहा था । मंदिर के पिछले भाग में दर्शनार्थियों को माता का भोग वितरित किया जा रहा था । श्यामघन (नीलू) जी के सक्रिय सहयोग से, हमलोग माता के मन्दिर के द्वार पर उपस्थित हुए । मन्दिर-द्वार के दोनों पार्श्व में काकवृन्द चित्रित थे और सामने स्तम्भ पर एक काक-मूर्त्ति स्थापित था । माँ धूमावती काक-ध्वजा हैं । काक का एक पर्याय “ एकाक्ष” है । ब्रह्म-द्रष्टा भी एकाक्ष ही होते हैं, वे सर्वत्र सर्वतः एकमात्र ब्रह्म को ही देखते हैं - “सर्वं खलु इदं ब्रह्म” । मन्दिर के मुख्य पुजारी अवधूत लोकनाथ जी ने, हमारे नैवेद्यादि माँ को समर्पित कर, हमें आशीर्वाद दिया । प्रसाद ग्रहण कर, बैनर के साथ एक संक्षिप्त चित्र-सत्र हुआ और हमें माता का भोग-प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया । पुजारी जी के साथ, मन्दिर के सभी प्रबंधकर्मी बार-बार प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे । भोग प्रसाद ग्रहण कर, जब हम चलने को तत्पर हुए तो, सहसा यह विचार आया कि, क्यों न, माँ के निशा-पूजन के निए कुछ द्रव्य समर्पित कर दिये जाएँ । तबतक मन्दिर के पट बन्द हो चुके थे और भीतर माँ के श्रृंगार-आरती की व्यवस्था की जा रही थी । बाहर कोलाहल सुनकर, लोकनाथ जी बाहर आ गये, फिर तो वे हमारे साथ इतने भावाभिभूत होकर बातें करते रहे कि समय का पता ही नहीं चला । किसी प्रकार उनसे विदा लेकर, हम अगले गन्तव्य - “धवलेश्वर” की ओर बढ़ चले अन्त में यात्रा करनेवाले और स्थानीय बन्धुओं को पुनः धन्यवाद

माता धूमावती के मन्दिर द्वार पर, बैनर के साथ, बायें से - विजय वत्स, श्री लोकनाथ जी महाराज, एक प्रबन्ध-कर्मी, श्री व्रतशी...
28/06/2025

माता धूमावती के मन्दिर द्वार पर, बैनर के साथ, बायें से - विजय वत्स, श्री लोकनाथ जी महाराज, एक प्रबन्ध-कर्मी, श्री व्रतशील शर्मा, श्री शिव कुमार ठाकुर, श्री धर्मेंद्र कुमार चौबे, श्री श्यामघन जेना ||

उत्कल शाक्त सम्मेलन के पंच-दिवसीय अभियान के पहले दिन के यात्रा-वृतान्त की अगली कड़ी-
माता धूमावती के दर्शनार्थ, अभियान दल के सदस्य अपने वाहन से चले तो उन्हें महानदी और विरूपा नदी पर बने दो पुलों को पार करते हुए चौद्वार का मार्ग मिला । चौद्वार में बने एक उपरिपुल के नीचे से यू-टर्न लेकर, हम धूमावती माता के मन्दिर पहुँच गये । यह निश्चय किया गया था कि माता के दर्शन के बाद, सब भोजन करेंगे । संयोग-वश उसी दिन मन्दिर का वार्षिकोत्सव भी था । मन्दिर के सामने ही सविधि कलश-स्थापन-पूर्वक, पाठ-पूजा और हवन चल रहा था । मंदिर के पिछले भाग में दर्शनार्थियों को माता का भोग वितरित किया जा रहा था । श्यामघन (नीलू) जी के सक्रिय सहयोग से, हमलोग माता के मन्दिर के द्वार पर उपस्थित हुए । मन्दिर-द्वार के दोनों पार्श्व में काकवृन्द चित्रित थे और सामने स्तम्भ पर एक काक-मूर्त्ति स्थापित था । माँ धूमावती काक-ध्वजा हैं । काक का एक पर्याय “ एकाक्ष” है । ब्रह्म-द्रष्टा भी एकाक्ष ही होते हैं, वे सर्वत्र सर्वतः एकमात्र ब्रह्म को ही देखते हैं - “सर्वं खलु इदं ब्रह्म” । मन्दिर के मुख्य पुजारी अवधूत लोकनाथ जी ने, हमारे नैवेद्यादि माँ को समर्पित कर, हमें आशीर्वाद दिया । प्रसाद ग्रहण कर, बैनर के साथ एक संक्षिप्त चित्र-सत्र हुआ और हमें माता का भोग-प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया । पुजारी जी के साथ, मन्दिर के सभी प्रबंधकर्मी बार-बार प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे । भोग प्रसाद ग्रहण कर, जब हम चलने को तत्पर हुए तो, सहसा यह विचार आया कि, क्यों न, माँ के निशा-पूजन के निए कुछ द्रव्य समर्पित कर दिये जाएँ । तबतक मन्दिर के पट बन्द हो चुके थे और भीतर माँ के श्रृंगार-आरती की व्यवस्था की जा रही थी । बाहर कोलाहल सुनकर, लोकनाथ जी बाहर आ गये, फिर तो वे हमारे साथ इतने भावाभिभूत होकर बातें करते रहे कि समय का पता ही नहीं चला । किसी प्रकार उनसे विदा लेकर, हम अगले गन्तव्य - “धवलेश्वर” की ओर बढ़ चले

आत्मानुभूति-
उत्कल-प्रदेश की यात्रा के क्रम में नगरीय कोलाहल से सर्वथा अप्रभावित चौद्वार नामक स्थान पर पहुँचना और वहाँ अवस्थित माता श्री धूमावती जी के मन्दिर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करना वास्तव में यादगार अनुभव रहा । मन्दिर अपने स्थापत्य और वहाँ के वातावरण से स्वतः आकर्षित कर लेता है । मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर स्तम्भारूढ़ काग-वाहन की आकृति को शायद बहुतों ने पहली बार देखा होगा । यही नहीं, प्रवेश-द्वार के दोनों ओर स्थापित सिंह, प्रवेश-द्वार को आवृत्त किए हुए वृहदाकार कुण्डलनी-प्रतीक सर्प एवं प्रवेश-द्वार के दोनों ओर चित्रित काग-आकृतियाँ श्रद्धालुओं को वस्तुतः सम्मोहित-सा कर लेती हैं। तदुपरान्त गर्भ-गृह में स्थापित माता की अत्याकर्षक प्रतिमा एवं वहाँ पूजन-स्तवनरत पुजारियों को देखकर निश्चय ही अनूठी अनुभूति होती है । संयोगवश उस दिन मन्दिर का स्थापना-दिवस भी था, अतः मन्दिर-परिसर में विशेष अनुष्ठान सम्पन्न हो रहे थे, जिनमें बड़ी संख्या में स्थानीय श्रद्धालुजनों की भागीदारी दिख रही थी । उक्त अवसर पर मन्दिर के संचालकों ने उत्कल शाक्त-सम्मेलन के भ्रमण-दल के सभी सदस्यों को विशेष अनुरोध कर भण्डारे का प्रसाद प्राप्त कराया। उत्कल की अनूठी पारम्परिक स्थापत्य शैली में निर्मित मन्दिर के शिखर ने और भी प्रभावित किया, जिसके शीर्ष पर प्रदर्शित सिंहाकृति, वह भी ऊर्ध्वगामी, न केवल दूर से ही आकर्षित कर रही थी, साथ ही स्वाभाविकरूप से स्थान की विशिष्टता से भी परिचित करा रही थी ।- व्रतशील शर्मा

परम सिद्ध ' कामाख्या पीठ ' की अधिष्ठात्री कामाख्या देवी का अम्बुवाची पर्व का पूजन शुरू हो गया है। कामाख्या देवी के ध्यान...
28/06/2025

परम सिद्ध ' कामाख्या पीठ ' की अधिष्ठात्री कामाख्या देवी का अम्बुवाची पर्व का पूजन शुरू हो गया है। कामाख्या देवी के ध्यान के अनुसार ---' कामाख्या देवी रक्त-वस्त्रा हैं, वरोद्युक्ता अर्थात् वर देने के लिए तत्पर हैं और सिन्दूर-तिलकान्विता हैं अर्थात् सिन्दूर के तिलक से शोभायमान हैं। '
अतः देश के कल्याण हेतु ' आपरेशन सिन्दूर ' और ' गुप्त नवरात्रि ' के समय हम सभी भक्तों के द्वारा माई से प्रार्थना करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है अम्बुवाची, गुप्त नवरात्र महा-पर्वों से युक्त रथ-यात्रा बाह्य ( प्रकट ) और आन्तरिक ( गुप्त ) दो रूपों वाली है। रथ-यात्रा का बाह्य स्वरूप आज पूरे देश में लोक-प्रिय है और बड़ी संख्या में लोग इसमें भाग लेते हैं। रथ-यात्रा का आन्तरिक स्वरूप हृदय से युक्त होता है, जहां शब्द-रूप-रस आदि आकर्षिणि शक्ति ' कृष्ण ' से युक्त होकर मन-रूपी ' बलराम ' और बुद्धि-रूपी ' सुभद्रा ' के अवरोह-रूपी रथ का आश्रय लेकर आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है अम्बुवाची, गुप्त नवरात्र महा-पर्वों से युक्त रथ-यात्रा बाह्य ( प्रकट ) और आन्तरिक ( गुप्त ) दो रूपों वाली है। रथ-यात्रा का बाह्य स्वरूप आज पूरे देश में कितना लोक-प्रिय है, यह पुरी में उपस्थित लाखों लोगों की भीड़ से समझा जा सकता है। रथ-यात्रा का यह बाह्य स्वरूप जितना आकर्षक है, उससे कहीं ज्यादा रथ-यात्रा का आन्तरिक स्वरूप है।
रथ-यात्रा के आन्तरिक स्वरूप में आत्मा ( भ० कृष्ण ) को रथी अर्थात् रथ पर सवार माना जाता है, बुद्धि ( सुभद्रा ) को सारथी और मन ( बलराम ) को लगाम तथा शरीर को रथ---
आत्मानं रथिनं विद्धि,
शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि,
मन: प्रगहमेव च।।
सनातन धर्म की यह आन्तरिक रथ-यात्रा है। बाह्य रथ-यात्रा इसके बिना अधूरी होती है

आदि पीठ ' कामाख्या ' की अधिष्ठात्री कामाख्या देवी हम सबको वर देने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। रक्त अर्थात् प्रपञ्च से यु...
28/06/2025

आदि पीठ ' कामाख्या ' की अधिष्ठात्री कामाख्या देवी हम सबको वर देने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। रक्त अर्थात् प्रपञ्च से युक्त होकर वे सिन्दूर-तिलक अर्थात् पति-भाव से हम सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। अम्बुवाची पर्व, गुप्त नवरात्र में देवी कामाख्या का आश्रय ग्रहण कर हम सबको अपनी योनि के विकास की कामना करनी चाहिए। साथ ही, दुष्ट योनि से युक्त बाधाओं के शमन की प्रार्थना करनी चाहिए

https://youtu.be/J1a-NhQVUgY?si=lP_e614g_1gbc5Uy
27/06/2025

https://youtu.be/J1a-NhQVUgY?si=lP_e614g_1gbc5Uy

चंडी पत्रिका के संपादक पंडित ऋतशील शर्मा जी ने तिलक पत्रिका (Tilak Patrika) से हुई विशेष बातचीत में प्रयागराज मंडल (Prayagraj) का इ....

प्रयागराज का अत्यन्त प्रसिद्ध श्री त्रिवेणी का पावन क्षेत्र महापर्व कुम्भ के  अवसर पर, स्थूल रूप से करोड़ों लोगों से भरा...
19/02/2025

प्रयागराज का अत्यन्त प्रसिद्ध श्री त्रिवेणी का पावन क्षेत्र महापर्व कुम्भ के अवसर पर, स्थूल रूप से करोड़ों लोगों से भरा दिखाई दे रहा है। आधुनिक से आधुनिक विधि से लोगों की गणनाएं की जा रही हैं। गणना के द्वारा बड़ी से बड़ी संख्याओं का उल्लेख तो हो रहा है किन्तु उससे यह ज्ञात नहीं होता कि उपस्थित लोगों की त्रिवेणी का क्या स्वरूप है? न ही ऐसी किसी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था है, जिसके द्वारा सबकी त्रिवेणी की रक्षा करनेवाली शक्ति श्रीवेणी माधव का आश्रय लेकर अमृत रूपी आत्म-ज्ञान को प्राप्त किया जाए। परिणाम सामने है, सब कोई नाना प्रकार के षट्-कर्मों से प्रभावित ही दिख रहे हैं! दिव्य भाव की अनुभूति तो सचमुच श्रीवेणी माधव जी के आश्रित है!!

भारत की पहचान ' सत्यमेव जयते ' से होती है। भारत की यह पहचान प्रयागराज में ' जयति त्रिवेणी ' के रूप में महाकुंभ आदि के पावन अवसर पर विशेष रूप से प्रदर्शित होती है। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि ' सत्यमेव जयते ' मन्त्र-वाक्य की प्राप्ति प्रयागराज से ही हुई है

श्री त्रिवेणी ज्ञान-माला के अन्तर्गत यह पहले बताया जा चुका है कि जब देह-शक्ति-रूपी यमुना की कृपा से हमारा मन संयमित होता है, तो तारनेवाली पावन करनेवाली शक्ति गंगा से मन युक्त हो जाता है और फिर मन को उस चिन्मय सरस्वती की अनुभूति होती है, जिससे सभी प्रकार के भेदों, भयों, कुण्ठाओं, आपदाओं, संकटों से सुरक्षित होकर परमानन्द की अनुभूति होती है।
अति विशिष्ट श्री विद्या साधना के अन्तर्गत इसका वर्णन त्रैलोक्य-मोहन-चक्र के रूप में हुआ है। इस चक्र की अनुभूति, जागरण के बिना प्रपञ्च-रूपी माया के बन्धनों से मुक्ति संभव नहीं होती है और माया के बंधनों से युक्त ष-कार वर्ण आधारित मारण-मोहन-उच्चाटन आदि षट्-कर्मों के प्रति आतुरता के स्पष्ट दर्शन भी दुर्भाग्य स्वरूप होते हैं

प्रयागराज का प्रसिद्ध पावन क्षेत्र श्री त्रिवेणी --- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्त मन की तीनों अवस्थाओं में उत्पन्न होनेवाले विकारों के ज्ञान से युक्त है। इसके लिए इसे षट् कूला क्षेत्र अर्थात् मन के छहों विकारों से ज्ञान से युक्त क्षेत्र भी कहा जाता है। इसके द्वारा भक्त, साधक --- मन में विकारों के उत्पन्न और लय होने का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं। मन के विकार मद, क्रोध, लोभ, मोह आदि से अनभिज्ञ होने के कारण यहां से दुर्घटनाओं की सूचना भी प्राप्त होती रही हैं। आवश्यकता है कि श्री त्रिवेणी के ज्ञान से भली-भांति युक्त होने का प्रयास किया जाए, जिससे निर्भय करनेवाले आत्म-ज्ञान-रूपी अमृतेश्वरी त्रिवेणी देवी का सान्निध्य प्राप्त हो!

जो हम सब के लिए एक हैं, जो हम सबके लिए प्रीति-दायक हैं, जिनमें हम सब लीन हो जाते हैं, वे श्री त्रिवेणी हमारे लिए सिद्धि दायक हों

जो जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्त तीनों अवस्थाओं में उत्पन्न होनेवाले विकारों का ज्ञान प्रदान करती हैं, श्रुतियों में जो विकारों से रहित निर्विकार नाम से प्रसिद्ध हैं, उन श्री त्रिवेणी की कृपा मुझे प्राप्त हो

जो हमारी देह में इन्द्रियों, प्राणों, मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार आदि भिन्न-भिन्न रूपों में हैं, जो इन सबका प्रत्येक क्षण निरीक्षण कर रही हैं, जो अपने तेज से सदैव स्फुरित हो रही हैं, जो साक्षात्कार करने योग्य हैं, वे त्रिवेणी हमारे लिए परमात्मा से युक्त करनेवाली सिद्धि को प्रदान करनेवाली हों

अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन में आध्यात्मिक गोष्ठी
19/02/2025

अखिल भारतीय शाक्त सम्मेलन में आध्यात्मिक गोष्ठी

श्री त्रिवेणी के ज्ञान को स्पष्ट करते हुए तीन प्रकार के फल बताए गए हैं। १. ज्ञानानन्द अर्थात् ज्ञान के आनन्द से युक्त है...
19/02/2025

श्री त्रिवेणी के ज्ञान को स्पष्ट करते हुए तीन प्रकार के फल बताए गए हैं। १. ज्ञानानन्द अर्थात् ज्ञान के आनन्द से युक्त है। अथवा भ्रमित करनेवाले शुष्क ज्ञान से रहित है। २. विचार अर्थात् नाना प्रकार के ज्ञान-मय भावों से युक्त है, जिसका गीता में विचार - योग के रूप में निरूपण हुआ है। ३. मुक्ति अर्थात् सांसारिकता की सम्यक् जानकारी के साथ परम तत्व की जानकारी प्रदान करनेवाला है

श्री त्रिवेणी के ज्ञान की विशेषता यह है कि इसके द्वारा हृदय, शिर और शिखा अर्थात् स्नायु शक्ति स्वरूपी तीनों मुख्य अम्बा की आराधना होती है और मनुष्यों को सहज रूप में आत्म-ज्ञान-रूपी परम आनन्द की अनुभूति होती। इसके लिए ही इस ज्ञान को ' अम्बा-त्रयाराधिता ' कहा जाता है

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